Saturday, February 20, 2010

ईश्वर -1

~~~~~~~ ईश्वर-1~~~~~~~
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(यदि आपको रूचि हो, तो
इस पोस्ट को पढ़ने से पहले 'हिंदी-का-ब्लॉग' के अंतर्गत लिखी गयी 'उन दिनों' के पोस्ट्स क्रमांक 53, 54 एवं 55 देखेंवहाँ इस सन्दर्भ में संभवत: अधिक विस्तृत और उपयोगी जानकारी पाई जा सकती है कृपया वहाँ देखें इसके लिए आपको मेरी पूरी प्रोफाइल देखना होगी, और 'मेरे ब्लॉग' के अंतर्गत 'हिंदी-का-ब्लॉग ' ब्लॉग पर क्लिक करना होगा आपको )
गीता में 'ईश्वर' शब्द का प्रयोग निम्न स्थानों पर दृष्टव्य है :
अध्याय , श्लोक ,
"अजोSपिसन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोSपिसं- ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥ "
अध्याय १३, श्लोक २२,
उपदृष्टानुमन्ता भर्त्ता भोक्ता महेश्वर: ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेSस्मिन्पुरुष: पर: ॥ "
अध्याय १३, श्लोक २८,
"समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरं ।
न हिनस्ति-आत्मना-आत्मानम् ततो याति परां गतिम् ॥ "
अध्याय १५, श्लोक , एवं १७,
"शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गंधानिवाशयात ॥ " --()
तथा,
"उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ॥ " --(१७)
अध्याय १६, श्लोक १४,
"असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि
ईश्वरोSहमहं भोगी सिद्धोSहं बलवान्सुखी ॥ "
अध्याय १८, श्लोक ४३, एवं ६१,
"शौर्यं तेजो धृतिर्द्राक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं
दानमीश्वरभावश्च क्षत्रकर्म स्वभावजं ॥ " --(४३)
तथा,
"ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेSर्जुन तिष्ठति
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ॥ --(६१)
उपरोक्त श्लोकों में 'ईश्वर' शब्द का क्या अभिप्राय हो सकता है, इस पर अगली बार
(उपरोक्त श्लोकों की टाइप-सेटिंग में कुछ त्रुटियाँ थीं, जिन्हें आज 25-02-2010 के दिन सुधार दिया है .)
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Thursday, February 18, 2010

जिज्ञासु और मुमुक्षु /4

~~~~~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु /4~~~~~~~~
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सामान्य मनुष्य जिज्ञासु तो अवश्य होता है, किन्तु उसकी जिज्ञासा प्राय: उन्हीं बातों के विषय में होती है, जो उसके 'सुख' को अधिकतम और दु: को न्यूनतम करने की दृष्टि से उसे उपयोगी जान पड़ते होंकिन्तु जीवन उसे सिखाता है कि सुख सदा टिकता नहीं, और यदि सुख-प्राप्ति हो भी जाए, तो उससे भी मनुष्य ऊब जाता हैहालाँकि कुछ मनुष्यों का विचार यह भी हो सकता है कि जीवन में भोगों को भोगते रहा जाए, 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत' उनकाआदर्श वाक्य होता हैस्पष्ट है कि इस परिवर्त्तनशील जगत में कुछ भी स्थिर नहीं है, और उनकी बुद्धि भी कभी कभी उन्हें धोखा दे देती हैमनुष्य की स्मृति सदैव स्थिर नहीं रहती, क्योंकि वह बाहर से आई 'जानकारी' कासंग्रह-मात्र है, और पल-पल बदलती रहती है, इसलिए कोई भी श्रेष्ठ से श्रेष्ठ आदर्श या ध्येय हो, मनुष्य उसे सदैव स्मरण तक नहीं रख सकतायदि मनुष्य किसी बात पर सदैव अपना ध्यान बनाए रख सकता है, तो वह है, : 'अपने चेतन होने का' सरल सा तथ्य
एक 'जीव' होने का तात्पर्य है, 'सचेतन होना' । इस 'सचेतनता' के ही अंतर्गत समस्त 'ज्ञात' अवस्थित हैऔर 'सचेतनता' को शारीरिक स्तर तक ही सीमित समझें, तो वह तो पशुओं और वनस्पतियों में भी होती ही हैकिन्तु 'चेतना' या 'चेतनता', या 'संवेदन-क्षमता' एक स्वयंसिद्ध तथ्य है, और 'अपने होने' का सीधा तात्पर्य है 'सचेतन होना' । हम 'सचेत' हों या न हों, 'सचेतन' तो सदा ही और अवश्य ही होते हैं . हो सकता है कि 'दूसरों' की दृष्टि में हम कभी 'अचेत' भी नज़र आये हों, किन्तु वे दूसरे तो हमें हमारी 'सचेतनता' के ही होने पर दृष्टिगत हो सकते हैं । किन्तु इस सहज स्वाभाविक 'सचेतनता' पर जानकारी का आरोपण हो जाता है, तो हम 'अपने' को परिभाषित कर लेते हैं, हम किसी नाम-रूप को 'अपनी पहचान' की भाँति 'ओढ़' लेते हैं, और हमारी बुद्धि निरंतर उस 'पहचान' की स्मृति को सुदृढ़ बनाने का प्रयास करती रहती हैसंक्षेप में हम अपने आप को एक 'व्यक्ति-विशेष' समझने लगते हैं, जो 'सापेक्ष-ज्ञान' की दृष्टि से उपयोगी और व्यावहारिक तल पर आवश्यक भी है, किन्तु वह निरपेक्ष या परम सत्य नहीं हैउस बारे में विस्तार से लिखा जाना है, किन्तु उसके लिए अभी उचित समय नहीं है
अभी तो प्रश्न यह है, कि क्या इस परिवर्त्तनशील अस्तित्त्व में कोई 'नित्य' तत्त्व है भी ? क्योंकि यदि ऐसा कोई नित्य तत्त्व है ही नहीं, तो इस सबका क्या प्रयोजन ? फिर तो 'सुख' भी नित्य कैसे होगा ? किन्तु हमारे मन में 'सुख' की प्राप्ति की इच्छा के बारे में देखें तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वह बाकी सारी परिवर्त्तनशील वस्तुओं के बीच भी यथावत स्थिर और शायद नित्य भी हैक्या इससे यह अनुमान करना, कि 'सुख' हमारा स्वाभाविक स्वरूप है, गलत होगा ? 'सुख' के विषय और प्रकार भले ही परिवर्त्तित होते रहें, एक ही सुख कुछ समय बाद भले ही दु: प्रतीत होने लगे, किन्तु 'सुख' की ओर आकर्षित रहने की हमारी प्रवृत्ति तो सदैव एक सी बनी रहती हैतात्पर्य यही हुआ कि हम 'नित्य-सुख' की प्राप्ति चाहते हैं, किन्तु हमारी बुद्धि जिन विषयों में सुख अनुभव करती है, वे तात्कालिक रूप से किसी शारीरिक आवश्यकता के पूर्ण होने से, या कष्ट से हमारा ध्यान हट जाने के फलस्वरूप 'मिलते-हुए' से लगते हों, वास्तव में 'सुख' होकर हमारा दृष्टि-भ्रम ही होते हैंफिर 'नित्य-सुख' का स्वरूप क्या है ? यदि यह प्रश्न हमारे मन में उठता है, तो हम अपेक्षतया 'श्रेष्ठ' जिज्ञासु हो जाते हैं
अब हम समझ सकते हैं कि इस प्रकार की परिपक्वता मन में जाने पर हम इस परिवर्त्तनशील जगत को 'दुखमय' की तरह देखने लगते हैं । गीता (अध्याय ८, श्लोक १५) के शब्दों में, :
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयं-अशाश्वतं ।
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता: ॥
किन्तु अभी जैसा हमारा जीवन का 'अनुभव' और समझ है, उस जीवन को जीने और जीवन-यापन के लिए हमें कर्म तो फिर भी करना ही होगा, ऐसा हमें लगता हैक्योंकि कर्म से तो हम भाग ही नहीं सकते
जब हम कुछ और परिपक्व होते हैं, तो हमें समझ में आने लगता है कि कर्म हमारे मन पर एक 'संस्कार' डाल देता है, और उस कर्म से मिलनेवाला सुख या दु: हमारे मन में उस कर्म के प्रति अंतर्द्वंद्व पैदा कर देता हैइसलिए हम तब 'कर्म' के 'स्वरूप' की जिज्ञासा में प्रवृत्त हो उठते हैं । अर्थात्, कर्म के स्वरूप की जिज्ञासा हममें जागृत होने लगती है । क्योंकि कर्म ही हममें 'संस्कार' के माध्यम से सदैव बन्धनग्रस्त रखता है
यदि हममें यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस कर्म-संस्कार-कर्म के चक्र से, इस 'दुश्चक्र' से कैसे मुक्त हों, तो हम 'मुमुक्षु' कहलाने के पात्र होते हैंकिन्तु यह सब केवल वैचारिक चिंतन मात्र से ही नहीं हो जाता, क्योंकि अतीत के जाने कितने 'संस्कारों' का संवेग (potential) हमारे उस प्रकार के चिंतन में व्यवधान डालता रहता हैइसलिए बात पुन 'सचेतनता' या अभ्यास पर आती है
'अभ्यास' मन के ही स्तर पर होता है, और वह भी कर्म का ही एक रूप हैअभ्यास करने का तात्पर्य है, ऐसा कर्म, जो पूर्वकृत कर्म से उत्पन्न संस्कार का क्षय करेचित्त-शुद्धि के लिए ऐसे अभ्यास का यही फल है, कि तब मन सुग्राह्य और बुद्धि एकाग्र, स्थिर, और निर्दोष हो जाती है । 'पात्रता' के लिए बुद्धि में दो और आवश्यकताएँ होती है, उसका अंतर्मुख होना, तथा 'सूक्ष्म' होना . यदि अभी हमारी बुद्धि में ये पाँच विशेषताएँ नहीं हैं, तो हम अपनी जिज्ञासा में आगे नहीं बढ़ सकते
सांख्य या योग दर्शन में 'ईश्वर-तत्त्व' पर कोई आग्रह नहीं हैयोग-दर्शन में "ईश्वरप्रणिधानाद्वा'' (प्रथम अध्याय, सूत्र २३) के अंतर्गत ईश्वर के प्रति समर्पित बुद्धि को एक विकल्प की तरह प्रस्तुत किया गया हैअन्य दर्शनों की ही तरह ये दोनों दर्शन भी किसी तरह के मत को 'आरोपित' नहीं करतेकिन्तु गीता में जहाँ जहाँ 'ईश्वर' शब्दप्रयुक्त है, वहाँ उस शब्द से क्या आशय है, यह समझना भी ज़रूरी होगाईश्वर के स्वरूप पर विचार करने से हमें स्पष्ट हो जाएगा कि ईश्वर के प्रति निष्ठा का क्या अर्थ है, और हममें वैसी निष्ठा वास्तव में है या नहींयदि है, तो हम बहुत सौभाग्यशाली हैं, यदि नहीं भी है, तो हमें समझना होगा कि 'ईश्वर' शब्द से हमारा क्या आशय है ? 'ईश्वर' को मानने या न मानने से अधिक महत्वपूर्ण है, यह जानना कि इस 'शब्द' से हमारा क्या आशय है . क्योंकि हमारा आशय जितना सुस्पष्ट और 'अनुभव-आधारित' होगा, हम उतनी ही जल्दी उस तत्त्व के स्वरूप को हृदय से समझ सकेंगे । या फिर भी हम 'आत्म-तत्त्व' को समझने के माध्यम से उस तत्त्व को और भली-भाँति ग्रहण कर सकेंगेइतना ही नहीं, उसे अपने हृदय में अवस्थित परम सत्य की भाँति पहचान भी लेंगेक्योंकि तब हम पात्र और अधिकारी भी होंगे

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>>>>>> जिज्ञासु और मुमुक्षु /5>>>>>>>>

Wednesday, February 17, 2010

जिज्ञासु और मुमुक्षु /3

~~~~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु /3.~~~~~~~
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हमने पिछले पृष्ठों में चर्चा की कि मनुष्य-मात्र, या कहें कि प्राणी मात्र ही सदैव, जो उसे 'सुख' प्रतीत होता है, उससुख' की प्राप्ति करते रहना चाहता है, और जो उसे 'दु:ख' प्रतीत होता है, उससे छूटना भी चाहता है । 'अनुभव' और ज्ञान' (अर्थात् अनुभवों पर आधारित 'प्रतीतियों' की स्मृति) के सहारे उसकी 'बुद्धि' क्रियाशील हो उठती है, और वह एक बिलकुल यांत्रिक प्रक्रिया हैपरस्पर विरोधाभासी 'प्रतीतियों' के 'अनुभव' से उसमें 'अंतर्द्वंद्व' अर्थात् 'संशय' उत्पन्न होता हैइस सबके बावजूद, उसमें दु: के निवारण और सुख-प्राप्ति का आग्रह कभी कम नहीं होतादु: की निवृत्ति और सुख-प्राप्ति का यह आग्रह प्राणिमात्र को जन्म से ही मिलता हैइसे हम एक सहज-श्रद्धा भी कह सकते हैंकिन्तु मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो 'कार्य-कारण' के सिद्धांत को व्यावहारिक स्तर पर दूसरे प्राणियों की तुलना में अधिक अच्छी तरह 'अनुभव' करता है, और विस्तारपूर्वक उसका उपयोग भी करना चाहता है केवल इने-गिने 'ज्ञात' कारणों के आधार पर वह 'अतीत' और 'भविष्य' का एक चित्र बनाता है, जो नितांत स्थूल स्तर पर अवश्य ही प्रायोगिक रूप से 'सत्य' सिद्ध होता है, किन्तु जैसे-जैसे ज्ञात कारणों की संख्या बढ़ती जाती है, वह अनुभव करता है कि अब उसे 'प्रायिकता' (probability) के सिद्धांत का सहारा लेना होगा
कपिल-मुनि प्रणीत 'सांख्य-दर्शन' अपने तरीके से इस प्रश्न की विवेचना करता हैभारतीय दर्शन, (जिनमें योग, वेदांत, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा,सांख्य, तथा जैन, बौद्ध, तंत्र आदि भी सम्मिलित हैं, ) 'सत्य' के 'दर्शन' को महत्त्वपूर्ण मानते हैं, कि वैचारिक तर्क-वितर्क के आधार पर निष्कर्षत : 'प्राप्त' किये जानेवाले 'परिणामों' को
सांख्य-दर्शन पुरुष तथा प्रकृति तथा उनके पारस्परिक संबंध पर प्रकाश डालता है । 'अस्तित्त्व'-मात्र की चर्चा करते समय 'दृष्टा', 'दृश्य', एवं 'दर्शन' ये तीन पक्ष अनिवार्यत: विचारणीय होते हैंबुद्धि में ये तीनों तत्त्व प्रारंभ में एक दूसरे से भिन्न हैं, ऐसा आभास होता है, किन्तु बुद्धि से ही यह भी समझना आसान होगा कि चूँकि ये तीनों तत्त्व अनिवार्यत: एक-दूसरे पर निर्भर हैं, अर्थात उनमें से एक के अभाव में शेष दो का भी अस्तित्त्व प्रमाणित नहीं हो सकता, अतएव वे एक ही 'सत्य' के तीन परस्पर अविभाज्य 'पक्ष' मात्र हैं
इस आधार पर, प्रकृति जिसे 'जड' (ज्ञेय) और पुरुष, जिसे चेतन (ज्ञाता) कहा जाता है, मूलत: परस्पर एकमेव हैंअर्थात् एक ही 'त्' तत्त्व, पुरुष तथा प्रकृति के रूप में दो की भाँति अभिव्यक्त होता हैऔर 'पुरुष' को ही प्रकृति का संवेदन होता हैइस प्रकार यह नि:शब्द 'संवेदन' सापेक्ष चेतना है, जो प्राणिमात्र में सहज ही प्राप्त होती है
गीता में इस सन्दर्भ में हमें निम्न दो श्लोक प्राप्त होते हैं :
अध्याय १०, श्लोक २२ ,
वेदानां सामवेदो-स्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना
तथा अध्याय १३, श्लोक ,
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारामुदाहृतं
तात्पर्य यह कि यह 'संवेदन' अर्थात् 'प्रतीति' का अनुभव, जिन भूतों में होता है, वे 'अपना', और जगत की 'प्रतीति' पाते हैंचूँकि कुछ वस्तुओं में इस प्रकार की प्रतीति होती है या नहीं इस बारे में हम सुनिश्चित रूप से कुछ नहींजानतेकिन्तु यह अवश्य जानते हैं कि कुछ अन्य वस्तुओं में ऐसी क्षमता शायद होती हैइस प्रकार हम 'जीवित' और 'निर्जीव' का अंतर तय करते हैंऔर हर सजीव वस्तु, अर्थात् प्राणिमात्र अपने-आपको 'चेतन', और जगतकी अन्य वस्तुओं में से कुछ को को 'जड' और शेष को अपनी भाँति 'चेतन' समझता है
सांख्य के अनुसार यद्यपि शरीर पांच 'महाभूतों' के संघात का परिणाम है, अत: बनता और विनष्ट होता है, जबकिउसके मूल कारण, वे पांच महाभूत, तो बनते हैं, नष्ट होते हैंशायद हमारा विज्ञान भी इसे स्वीकार करेगा
इस प्रकार हर 'चेतन' वस्तु, अर्थात जीव-मात्र में यह 'चेतनता या चेतना, 'संवेदन' या 'प्रतीति' का ही तत्त्व वह तत्त्वहै, जो वस्तुत: निराकार होते हुए भी, मनुष्य को 'अनुभव-सक्षम' और 'ज्ञान-सक्षम' बनाता है
ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान की त्रिपुटी में यही तत्त्व 'ज्ञान' की भूमिका निभाता है, लेकिन 'अनुभव' तथा 'प्रतीति' इस शुद्धसंवेदन-क्षमता' पर त्रुटिपूर्ण धारणाओं का आवरण आरोपित कर देते हैंइस प्रकार हम समझ सकते हैं कि गीताअध्याय , श्लोक १५ :
नादत्ते कस्यचित्पापं चैव सुकृतं विभु: ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तें मुह्यन्ति जन्तव: ॥
में जिस 'अज्ञान' का उल्लेख है, वह 'अज्ञान' क्या है ?
अज्ञान का तात्पर्य है, -त्रुटिपूर्ण ज्ञान, यथार्थ ज्ञान से भिन्न प्रकार का कोई भी ज्ञान, प्रतीति, अनुमान, आदि
इसलिए 'जिज्ञासु' होने का तात्पर्य है, शुद्ध ज्ञान क्या है, इसे समझने की उत्कंठा मनुष्य के मन में होनाइस प्रकार 'जिज्ञासा' का सम्यक होना 'पात्रता' की एक आवश्यकता है
पात्रता के पूरे होने के लिए दूसरे कौन से आवश्यक तत्त्व हैं, इस बारे में अगली बार

>>>>>>>>> जिज्ञासु और मुमुक्षु /4>>>>>>>

Monday, February 15, 2010

जिज्ञासु और मुमुक्षू / 2

~~~~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु / 2 ~~~~~~~
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इस प्रकार हर प्राणी इस जगत में अपने को अधिकतम सुखी देखना, और सदैव सुखी रहना चाहता है
स्वाभाविक ही है कि उसकी इस चाह में व्यवधान आते रहते हैं और धीरे-धीरे उसे यह स्पष्ट हो जाता है, कि दु:खोंका अभाव होना भी पर्याप्त सुख हैकिन्तु इतना समझ पाने के लिए भी उसे काफी समय लग जाता है । 'सुखों' कीनिरंतर प्राप्ति की लालसा, और उस हेतु किये जानेवाले प्रयत्नों में लगे रहते हुए वह इस छोटी सी सच्चाई को भीनज़र-अंदाज़ कर देता हैसुखों का आकर्षण इतना प्रबल जो होता है
कभी यदि मनुष्य अपने प्रयत्नों में असफल होता है, तो सोचता है कि प्रयत्न पूरे मन से नहीं किये गए, मेरे प्रयासों मेंकमी रह गयी , आदि-आदिफिर जब उसे लगता है, कि प्रयत्नों में सफलता मिलने पर भी अपेक्षित 'सुख' नहींमिलता, तो वह सोचता है कि अब किसी दूसरी वस्तु या सफलता से सुख मिल सकेगाकभी-कभी उसेतात्कालिक सफलता, और तज्जनित खुशी या संतोष मिलता भी है, तो वह भी कुछ समय में खो जाता हैऔरफिर जीवन के अपने कष्ट क्या कम हैं ?
फिर वह किन्हीं देवताओं, सिद्धों, आध्यामिक समझे जानेवाले मनुष्यों की शरण में जाता है, और उनसे उसे कभीउसकी आशाएँ पूर्ण होतीं जान पड़ती हैंकभी ऐसा नहीं भी होता हैलेकिन सामान्यत: मनुष्य इस सारी समस्यापर पर्याप्त विचार कभी नहीं करतावह भय या लोभ के कारण किसी 'भगवान्' को मानता है, और ये भय औरलोभ उसे सिर्फ इस जीवन की आवश्यकताओं और सुखों के पूर्ण होने की आशाओं के लोभ या उनके पूर्ण होनेके भय से बाँधे रखते हैं, बल्कि उस 'स्वर्ग' और 'नरक' के आकर्षण और विकर्षण से भी बाँधे रखते हैं जो उसे 'मृत्यु' के बाद पुरस्कार या दंड के रूप में मिलेगा
लेकिन फिर भी इसमें संदेह नहीं कि सामान्यत: मनुष्य-मात्र यह आग्रह रखता है कि किसी भी वस्तु की प्राप्ति केलिए 'कर्म' किया जाना तो आवश्यक है हीयह एक प्रकार की कर्म-निष्ठा हुई
गीता में प्रथम अध्याय में अर्जुन के विषाद का वर्णन हैवह अंतर्द्वंद्व से ग्रस्त होकर विचार करता है कि मैं युद्धकरूँ, या करूँ ! वह कहता है कि युद्ध में स्वजनों को मारकर उनके रक्त से सने भोगों को भोगकर जीवन जीने कीअपेक्षा भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह कर लेना बेहतर हैश्रीकृष्ण उसे स्पष्ट करते हैं कि तेरा यह विचार, कि तूकर्म करने के लिए स्वतंत्र है, मूलत: भूल भरा हैकर्म-निष्ठा से बँधे होने के कारण ही अर्जुन अनुभव करता है किवह युद्ध करे या करे, यह वह तय कर सकता हैदूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण 'सांख्य-सिद्धांत' को स्पष्ट करते हुएउससे कहते हैं कि जो भी घटता है, वह प्रकृति के तीन गुणों का पारस्परिक व्यवहार हैमनुष्य 'कर्त्ता' नहीं हैप्रकृति के तीन गुण ही कर्त्ता हैंकिसी भी 'कर्म' के 'होने' में जो प्रेरक तत्त्व हैं, वे हैं ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञातागीता केअंतिम अध्याय में इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :
"ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना
करणं कर्म कर्त्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह: ॥ "
ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता इनमें से किसी भी एक का अभाव होने पर 'कर्म' संभव नहीं होताइससे यह अनुमानलगाया जा सकता है कि वे तीनों एक ही 'वस्तु' के तीन पक्ष हैंवह वस्तु है 'प्रकृति' । किन्तु यहाँ जिस ज्ञान कीबात की जा रही है, वह है सापेक्ष ज्ञान (relative knowledge) । निरपेक्ष ज्ञान (Absolute knowledge) में चूँकिइस प्रकार की भेद-बुद्धि नहीं हो सकती, इसलिए वहाँ शुद्ध ज्ञान से 'अभेद' 'अनन्यता' होने से 'कर्म' होने का प्रश्नभी नहीं उठताकिन्तु प्रकृति ज्ञेय अर्थात् 'जड़' होने से तो कार्य कर सकती है, स्वयं अपने-आपका प्रमाण होसकती है । 'प्रमाण' तो अनिवार्यत: कोई 'चेतन-तत्त्व' ही होगावह चेतन-तत्त्व है, -'पुरुष' । पुरुष यद्यपि अकर्त्ता है, किन्तु उसकी सन्निधि से ही प्रकृति कार्य कर सकती, या kartee हुई प्रतीत होती हैइस प्रकार ज्ञान 'कर्म' से पूर्वहैजिनकी इस प्रकार की निष्ठा होती है, वे उस 'चेतन तत्त्व' के स्वरूप को जान्ने-समझाने को कर्म की अपेक्षाअधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैंया फिर वे "कर्त्ता कौन है ?" इस बारे में खोज-बीन करते हैं
चूँकि दूसरे अध्याय के अंत तक अर्जुन का 'मोह' नष्ट नहीं हो सका था, और वह 'कर्म' करने में अपने-आपके स्वतंत्र होने की धारणा त्यागने में असमर्थ था इसलिए श्रीकृष्ण ने उस 'कर्म' किस प्रकार किया जाए जिससे कि ज्ञान-निष्ठा जागृत हो, इस बारे में शेष सोलह अध्यायों में अलग-अलग विधियों से समझाया
इसलिए अपनी पात्रता की परीक्षा करते समय यह परखना परम आवश्यक है कि हममें ज्ञान-निष्ठा और कर्म-निष्ठामें से कौन सी निष्ठा प्रमुख रूप से कार्य कर रही हैऔर स्वाभाविक रूप से जब तक हममें कर्म-निष्ठा अधिक प्रबलहै, तब तक कर्म को कुशलतापूर्वक करने का क्या तात्पर्य है, यह समझ लेना जरूरी हैक्योंकि ज्ञान-निष्ठा, कर्म-निष्ठा के परिपक्व होने पर ही प्राप्त हो सकती है
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Wednesday, February 10, 2010

जिज्ञासु और मुमुक्षु /१.

~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु /.~~~~~
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इस जगत में प्राणिमात्र 'सुख' की प्राप्ति करना चाहता हैवह 'नित्य' से अनभिज्ञ होता है (या ऐसा उसे लगता है !) , अत: वह 'नित्य' सही, उससे कुछ 'कम' अर्थात् 'सतत' या 'अधिकतम' 'सुख' की प्राप्ति की आशा रखता हैयद्यपि उसे तो यह तक स्पष्ट नहीं होता कि 'जिसे' वह 'सुख' कह रहा है, उस सुख का स्वरूप या सच्चाई, उसकीवास्तविकता क्या है उसे अभिव्यक्त या परिभाषित कर सकने में असमर्थ होने पर भी 'दुःख' को प्राणिमात्रनिस्संदेह भली-भाँति समझता है, और उस प्रतीत हो रहे तात्कालिक दु: से जब उसे राहत मिल जाती है, तो उसेवह 'सुख' समझ बैठता हैइसलिए उसकी दृष्टि में 'अनेक' दु: और अनेक 'सुख' भी होते हैंकई बार तो वह यहभी तय नहीं कर पाता कि कौन से 'सुख' उसकी प्राथमिकता-सूची में हैं, और कौन से गौण हैंफिर भी वह 'जीवन' को यथासंभव 'सुखपूर्ण' बनाए रखने की इच्छा रखता है, और रोग, बुढापा, मृत्यु, या शीत-गर्मी आदि द्वंद्वों रूपी कष्टोंसे यथासंभव दूर रहना चाहता हैकुछ 'अधिक' मेधावी मनुष्य सोचते हैं कि किसी 'आदर्श' की प्राप्ति या उसके लिएजीवन अर्पित कर देना ही जीवन जीने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता हैवे 'मृत्यु' की वास्तविकता को इच्छाया अनिच्छापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं, और अपनी समझ के अनुसार 'जीवन' से 'अधिकतम' जो प्राप्त किया जासकता है, उसकी प्राप्ति को ही ध्येय बना लेते हैंयह अलग बात है कि मनुष्य की बुद्धि के विकास या 'परिवर्तन' केसाथ-साथ उनका दृष्टिकोण आगे जाकर बदल भी सकता है
तात्पर्य यह कि सामान्यत: प्राणिमात्र इस प्रकार सतत सुख-प्राप्ति और दु: से दूर रहने की इच्छा से बँधा होता हैवह इस जगत को 'नित्य' या सतत मानता है, और अपने-आपको जगत में उत्पन्न एक जीव समझकर उसकीबुद्धि के अनुसार अधिकतम 'सुख' उठा लेना चाहता है
जब वह 'सुखों' की प्राप्ति कर लेता है, तो उसे ज्ञात होता है कि जिसे वह 'सुख' समझ रहा था वह एक तात्कालिकदु: से राहत मिलने या इन्द्रिय-उत्तेजना की कोई 'प्रतीति'-मात्र थी, कि वास्तव में मिलनेवाला कोई ऐसाअनुभव' जिसे वह याद-दाश्त के अलावा कहीं और सुरक्षित रख सकेऔर प्राय: तो उसे उन अनेक सुखों से वंचितही रहना पड़ता है, जिनकी कल्पना वह हमेशा करता रहता हैलेकिन शरीर की अपनी जरूरतें होती हैं, जैसेभूख-प्यास की निवृत्ति, निद्रा, मल-मूत्र विसर्जन, संतानोत्पत्ति आदिप्रकृति ने प्राणिमात्र को इन्द्रियाँ प्रदान कीहैं, जिनके उपयोग से वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता हैकिन्तु 'सुख'-प्राप्ति की लालसा होने पर वहइन आवश्यकताओं की पूर्ति को आवश्यकता की पूर्ति के साधन-मात्र होने की बजाय 'भोग' का साधन बना / समझबैठता हैउदाहरण के लिए नाक,कान, जिह्वा, त्वचा,और नेत्रसुगंध और दुर्गन्ध की पहचान से प्राणी कई वस्तुओंकी परीक्षा कर सकता है कि वे उसके शरीर के लिए लाभप्रद और अनुकूल हैं, या हानिप्रद और प्रतिकूल हैंइसीप्रकार शेष इन्द्रियों के बारे में भी हैकिन्तु सुख-प्राप्ति की लालसा में जीव इन्द्रियों की इस स्वाभाविक क्षमता कादुरूपयोग करने लगता हैइसे अधिक स्पष्ट करने की शायद ही कोई जरूरत हो ! इसी प्रकार जीवमात्र अपनी सभीतात्कालिक जरूरतों को भी समझता है, किन्तु मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो 'सुदूर भविष्य' तक का विचार करताहै, जो काल्पनिक सुखों और भयों को जन्म देता है, जबकि शुद्धत: स्थूल भौतिक वस्तुओं के अतिरिक्त मनुष्य केपास ऐसा कोई प्रमाण ही नहीं है कि क्या वे 'सुख' या 'दुःख' उसके जीवन में वस्तुत: आयेंगे भी या नहीं ?
किन्तु फिर भी इस बारे में सब एकमत हैं कि जीवन में कुछ कुछ 'प्राप्तव्य' तो अवश्य ही हैइसे सुख कहें या दु: का अंत, या कुछ और
क्या इसके लिए कुछ किया जाना जरूरी नहीं है ?
स्वाभाविक ही है कि प्राणिमात्र जाने-अनजाने ही इसी लक्ष्य की प्राप्ति की आशा से कर्म करता हैअतएव कर्महोता है इससे इनकार नहीं किया जा सकतायदि वह कर्म अस्तित्त्व में ही बीज-रूप में अवस्थित है, और समयआने पर प्रकट रूप लेता है, तो भी उससे बचना असंभव हैऔर यदि वह जीव की लक्ष्य-प्राप्ति करने से प्रेरितहोकर उसके द्वारा किया जाता है, तो भी उससे बचा नहीं जा सकताअभी हम इस प्रश्न पर विचार नहीं कर सकेंगेकि क्या जीव कर्म करने या करने के लिए स्वतंत्र है ?
इस प्रकार जीवमात्र में जगत से 'अपने' भिन्न होने की बुद्धि से प्रेरित एक 'कर्म-निष्ठा' होती है, जो उसमें अपनेकर्त्ता' होने की भावना भी उत्पन्न कर देती हैदूसरी ओर ऐसे बहुत परिपक्व समझ के मनुष्य भी होते हैं जो इसस्वतंत्र 'कर्त्ता' के अस्तित्त्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाते हैं, और इस ढंग से सोचते हैं कि इस सारे अस्तित्त्व का 'कर्त्ता' कौन/क्या हैवे अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि प्रकृति सदैव 'दृश्य' है, जबकि 'जिसे' और 'जिसमें' प्रकृति के 'जड़' होने का ज्ञान है, वह 'दृष्टा' निस्संदेह 'चेतन' हैइसे किसी भी तर्क से झुठलाया नहीं जा सकताउस चेतन दृष्टा का स्वरूप क्या है इस बारे में भले ही अलग-अलग विचार हों, लेकिन प्रकृति का युक्तिसंगत 'प्रमाण' वह 'द्रष्टा' ही हैक्या उस 'दृष्टा' का भी प्रमाण दिया जाना आवश्यक है ?
'सांख्य' उसे पुरुष कहता है, जिसकी प्रेरणा और शक्ति से ही प्रकृति (अपने तीन गुणों के माध्यम से ) अपने कार्यकरती' है
जो मनुष्य इस रीति से विचार करते हैं, उनकी 'निष्ठा' को 'ज्ञान-निष्ठा' कहा जाता है
तो हम बात कर रहे थे जीव-मात्र की निष्ठा कीसामान्यत: जीव-मात्र 'कर्म-निष्ठा' से बँधा होता है, चाहे वहअपने-आपको स्वतंत्र 'कर्त्ता' मानता हो, या मानता होचाहे वह ईश्वर को मानता हो या मानता होचाहे वहपुनर्जन्म को मानता हो या मानता हो
इसके बाद हम 'कर्म-निष्ठा' और ज्ञान-निष्ठा' के सन्दर्भ में 'जिज्ञासु' की स्थिति क्या है, इस बारे में पुन: विचार करेंगे
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Monday, February 8, 2010

जिज्ञासु और गीता .

~~~~~~~गीता-सन्दर्भ ~~~~~~~
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गीता उपनिषदों का सार हैउपनिषद वेदांत का सार-तत्त्व, और वेदान्त वेदों का सार तत्त्व हैवेद धर्म का सार है, और धर्म वस्तु का स्वरूप हैजिसमें वस्तु 'प्रतिष्ठित' है, वह है धर्मजो इस अस्तित्त्व का अधिष्ठान है, वह हैधर्म'। यहाँ 'धर्म' की कोई स्थापित या मान्य या निष्कर्षगत परिभाषा दिए जाने का यत्न नहीं किया जा रहा है, किन्तु 'धृति' के संबंध में 'धर्म' को समझने का एक प्रयास है
गीता का प्रथम श्लोक ही इस शब्द से आरंभ हुआ है, :
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: ।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ "
स्वाभाविक सी बात है कि अस्तित्त्व प्रकृति का 'धर्म' है, और प्रकृति के अंतर्गत हो रहा सब कुछ उस 'धर्मक्षेत्र' केअंतर्गत है । मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीव और पदार्थ प्रकृति के इस 'धर्म' से ही संचालित होते हैं, और शायदमनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है, किन्तु मनुष्य में यह भावना दृढ़ होती है कि वह 'कर्म' करने में स्वतंत्र हैयद्यपिइस भावना से उत्पन्न कर्तृत्त्व - बुद्धि की सत्यता की परीक्षा करने पर ऐसा कोई 'स्वतंत्र' तत्त्व मनुष्य में नहीं प्राप्तहोता हैसामान्य तर्क से ही देखें तो मनुष्य जो करना चाहता है, वह 'चाह' स्वयं ही स्मृति , इन्द्रियों की क्षमता और परिस्थितयों से उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्तियों का ही एक समेकित परिणाम होता हैकोई भी 'परिणाम' अवश्य हीअपने 'कारणों' का सम्मिलित फल होता है, इसलिए उन पर आश्रित होता हैइससे यह स्पष्ट है कि चाह से बँधामनुष्य 'स्वतंत्र' तो नहीं है, किन्तु 'संभावित' परिणामों में से कोई परिणाम जो उसे 'अनुकूल' प्रतीत होता है, उसमेंउसके लिए 'कार्य' करने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर देता हैविभिन्न संयोगों में से कोई कोई एक तो अवश्य हीफलित भी होता है, अत: उसका यह विश्वास दृढ़ होने लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी उसका अभीप्सितफलित होने के लिए वह चेष्टा तो कर ही सकता हैआशा, लोभ, भय, अर्थात् 'इच्छा' या कामना से ग्रस्त उसकाचित्त यह नहीं देख पाता कि किसी कार्य के फलित होने के लिए कौन-कौन से घटक आवश्यक हैं !
गीता अध्याय १८, श्लोक १४ के अनुसार,
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं पृथग्विधं
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमं
गीता अध्याय , श्लोक २७ के अनुसार,
"प्रकृते : क्रियमाणानि गुणै : कर्माणि सर्वश: ।
अहंकार विमूढात्मा कर्त्ताहमिति मन्यते ॥ "
उक्त दोनों श्लोकों के अनुसार कर्मों का कर्त्ता 'मैं' हूँ, ऐसी भावना मोह-जनित बुद्धि का परिणाम मात्र हैमोह कातात्पर्य है यथार्थ को सम्यक रूप से देखते हुए बुद्धि में प्रतीत हो रहे उसके चित्र को यथावत सत्य समझ बैठनायह तो पहले ही, जहाँ अध्याय , श्लोक २७, "इच्छाद्वेष समुत्थेन ... ... " का सन्दर्भ दिया गया था, कहा ही जा चुकाहै कि प्राणी मात्र इस जगत में आते ही कैसे इस मोह बुद्धि से ग्रस्त हो जाते हैं !
हमारे जीवन में और हमसे बाहर-भीतर जो असंख्य घटनाएं प्रतिपल घट रही हैं, वे दृश्य के तल पर तो पृकृति केही द्वारा संचालित हैं इसमें संदेह नहीं, लेकिन उन घटनाओं के घटने की 'पुष्टि' करनेवाले एक नित्य 'साक्षी' काअस्तित्त्व भी स्वत:सिद्ध हैयदि हम उसे ही अस्वीकार कर दें तो घटनाओं की सत्यता कैसे प्रमाणित होगी ?
अत: सब-कुछ एक 'साक्षी' चेतन तत्त्व के 'बोध' में घटता है, और वह साक्षी चेतन तत्त्व निस्संदिग्धरूपेण स्वयं भीअपने-आप का भी साक्षी है ही ! यह भी स्पष्ट है कि वह साक्षी स्वयं कुछ नहीं करताइसलिये प्रकृति ही 'गुणों' केमाध्यम से नित्य क्रियमाण हैवही उसका 'धर्म' है
अभी तो ध्यान देने की बात यह है कि मनुष्य जिस मोहबुद्धि के वशीभूत होकर अपने को 'कर्त्ता' मान बैठता है, उसमोहबुद्धि और उससे उत्पन्न अज्ञान का निवारण कैसे हो ? क्योंकि उसके रहते अपने 'स्वतंत्र-अस्तित्त्व' की भावनादूर नहीं हो सकती
गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक का दूसरा शब्द है : 'कुरुक्षेत्रे'
एक तो 'धर्मक्षेत्र की बात हुईअब बात कुरुक्षेत्र कीमनुष्य जो कुछ करता है, उस सारे कर्म के अंतर्गत जो कुछ'होता' है, वह है 'कुरुक्षेत्र', अपने 'स्वतंत्र कर्त्ता' होने की भूल भरी भावना से उत्पन्न होनेवाले कर्मों की श्रँखला, जोवस्तुत: बंधन ही है , जिसमें जकड़ा मनुष्य सोच बैठता है कि कर्म के माध्यम से वह अभीप्सित ध्येय, औरपरिणामत: 'सुख' भी प्राप्त कर लेगावह यह तो कदापि नहीं जानता कि प्रकृति की उसके लिए क्या योजना है ! वहइसकी तो कल्पना तक नहीं कर पाता
तो इस 'धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र' में जिस अंतर्द्वंद्व से हर मनुष्य ग्रस्त है, उस अंतर्द्वंद्व के कारण के नष्ट हुए बिना मनुष्ययथार्थत: सुखी नहीं हो सकतावह कैसे नष्ट हो इसकी जिज्ञासा जिसमें होती है, उसे ही पात्रता मिल गयी है, ऐसाकह सकते हैंलेकिन अभी इस विषय को और भी विस्तार से जानना जरूरी है
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Saturday, February 6, 2010

जिज्ञासु.

~~~~~~~~ जिज्ञासु ~~~~~~~~~
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गीता के अध्ययन का हमारा प्रयोजन ही यह तय करता है कि हम कैसे 'जिज्ञासु' हैं और हम जैसे भी जिज्ञासुहोंगे, हमारी 'पात्रता' वैसी ही होगी अर्थात् हम गीता-अध्ययन के उत्तम, या मध्यम 'पात्र' होंगे, या 'पात्र' नहीं होंगे यदि हम 'पात्र' नहीं है तो हम पहले यही प्रयास कर सकते हैं कि 'पात्रता' हममें क्यों नहीं है, इसे जान लें। गीता मेंश्रीकृष्ण अर्जुन से (अध्याय १८, श्लोक ६७ में ) कहते हैं :

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन
चाशुश्रू षवे वाच्यं मां यो-अभ्यसूयति

उक्त श्लोक में उन चार प्रकार के लोगों के बारे में स्पष्ट किया गया है, जो गीता के तत्त्व को ग्रहण ही नहीं कर सकते
इनमें प्रथम वे हैं, जो 'तप'शून्य हैं दूसरे स्थान पर वे हैं, जो भक्ति-रहित हैं तीसरा स्थान उन मनुष्यों का है, -जोइसे सुनना ही नहीं चाहते और चौथे वे लोग हैं, जो 'मुझसे' अर्थात् ईश्वर से वैरबुद्धि रखते हैं
यहाँ एक बार फिर इस ओर ध्यान देना होगा कि श्रीकृष्ण का 'ईश्वर' से क्या तात्पर्य है उन्होंने स्पष्ट रूप से ईश्वरक्या' है, इस बारे में अनेक स्थानों पर उस तत्त्व का वर्णन किया है वे 'अभेद-बुद्धि' से, 'अनन्य भाव' से 'अपने' कोऔर जगत को भी उस 'चटनी-तत्त्व' से अभिन्न कहते हैं, जिसे वे ईश्वर कहते हैं 'वह' ईश्वर 'अस्तित्त्व-मात्र' कीनिज और विषयगत 'सत्ता' है
He is the only Subjective as well as Objective Reality of the whole Existence
जिस 'चैतन्य-तत्त्व' में जगत और हम आते-जाते हैं, जिसमें अवस्थित हैं, और नाम-रूप की तरह ही अंतत: विलीन हो जाते हैं, 'जीव-भाव' भी हमें वहीं से प्राप्त होता है किन्तु जीवभाव, जो प्रकृति अर्थात तीन गुणों कीपारस्परिक क्रीडा का ही परिणाम है, अपने-आपको ईश्वर से भिन्न एक स्वतंत्र तत्त्व मान बैठता है, और यहअज्ञान' का प्रारंभ है जब इस अज्ञान अर्थात 'मोहबुद्धि' से ग्रस्त 'जीव' दु: को प्राप्त होता है, तो वह 'दु: क्यों है', इसे समझने की बजाय दु: को सुख प्रतीत होनेवाली वस्तुओं से दूर करने का प्रयास करता है लेकिन वहमोहित बुद्धि' से ग्रस्त 'जीव' यह तक नहीं देख पाता कि सारे सुख अनित्य और अशाश्वत हैं फिर वे 'नित्य' सुखकैसे दे सकते हैं ?
गीता अध्याय , श्लोक २७ में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, :

इच्छा-द्वेष-समुत्थेन द्वंद्व-मोहेन भारत
सर्व-भूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप

अर्थात्,
हे भरतवंशी अर्जुन ! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दु:खादि द्वंद्व-रूपी 'मोह' से समस्त प्राणी अत्यंतअज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं

स्पष्ट है कि ऐसा कोई अपात्र जब गीता के अध्ययन का प्रयास करेगा तो उसे गीता से वह तत्त्व नहीं प्राप्त हो सकेगाजो किसी 'पात्र' या 'सत्पात्र' को मिलेगा
अगले ही श्लोक (अध्याय , श्लोक २८) में वे स्पष्ट करते हैं कि फिर कौन इस तत्त्व को ग्रहण कर सकता है ?
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणां
ते द्वंद्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:

अर्थात्,
किन्तु ( सकाम कर्म करने से उसका फल प्राप्त होता है, जो पुन: कर्म-संस्कार उत्पन्न करता है और इस सृक्न्हालाका अंत नहीं होता, यह देख लेने के उपरान्त ) निष्काम भाव से श्रेष्ठ पुण्य कर्मों को करनेवाले लोग उनके पाप नष्ट सेराग तथा द्वेषजनित मोहबुद्धि समाप्त हो जाने से 'मुझे' (ईश्वर-चैतन्य को) ही भजते हैं
'भजन' का तात्पर्य क्या है इसे भी गीता में स्पष्ट किया गया है
तो अब 'पात्रता' में दूसरी कौन सी बाधाएँ होती हैं, इस बारे में हम "जिज्ञासु -" के अंतर्गत विचार करेंगे

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