~~~~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु / 2 ~~~~~~~
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इस प्रकार हर प्राणी इस जगत में अपने को अधिकतम सुखी देखना, और सदैव सुखी रहना चाहता है ।
स्वाभाविक ही है कि उसकी इस चाह में व्यवधान आते रहते हैं और धीरे-धीरे उसे यह स्पष्ट हो जाता है, कि दु:खोंका अभाव होना भी पर्याप्त सुख है । किन्तु इतना समझ पाने के लिए भी उसे काफी समय लग जाता है । 'सुखों' कीनिरंतर प्राप्ति की लालसा, और उस हेतु किये जानेवाले प्रयत्नों में लगे रहते हुए वह इस छोटी सी सच्चाई को भीनज़र-अंदाज़ कर देता है । सुखों का आकर्षण इतना प्रबल जो होता है ।
कभी यदि मनुष्य अपने प्रयत्नों में असफल होता है, तो सोचता है कि प्रयत्न पूरे मन से नहीं किये गए, मेरे प्रयासों मेंकमी रह गयी , आदि-आदि । फिर जब उसे लगता है, कि प्रयत्नों में सफलता मिलने पर भी अपेक्षित 'सुख' नहींमिलता, तो वह सोचता है कि अब किसी दूसरी वस्तु या सफलता से सुख मिल सकेगा । कभी-कभी उसेतात्कालिक सफलता, और तज्जनित खुशी या संतोष मिलता भी है, तो वह भी कुछ समय में खो जाता है । औरफिर जीवन के अपने कष्ट क्या कम हैं ?
फिर वह किन्हीं देवताओं, सिद्धों, आध्यामिक समझे जानेवाले मनुष्यों की शरण में जाता है, और उनसे उसे कभीउसकी आशाएँ पूर्ण होतीं जान पड़ती हैं । कभी ऐसा नहीं भी होता है । लेकिन सामान्यत: मनुष्य इस सारी समस्यापर पर्याप्त विचार कभी नहीं करता । वह भय या लोभ के कारण किसी 'भगवान्' को मानता है, और ये भय औरलोभ उसे न सिर्फ इस जीवन की आवश्यकताओं और सुखों के पूर्ण होने की आशाओं के लोभ या उनके पूर्ण न होनेके भय से बाँधे रखते हैं, बल्कि उस 'स्वर्ग' और 'नरक' के आकर्षण और विकर्षण से भी बाँधे रखते हैं जो उसे 'मृत्यु' के बाद पुरस्कार या दंड के रूप में मिलेगा ।
लेकिन फिर भी इसमें संदेह नहीं कि सामान्यत: मनुष्य-मात्र यह आग्रह रखता है कि किसी भी वस्तु की प्राप्ति केलिए 'कर्म' किया जाना तो आवश्यक है ही । यह एक प्रकार की कर्म-निष्ठा हुई ।
गीता में प्रथम अध्याय में अर्जुन के विषाद का वर्णन है । वह अंतर्द्वंद्व से ग्रस्त होकर विचार करता है कि मैं युद्धकरूँ, या न करूँ ! वह कहता है कि युद्ध में स्वजनों को मारकर उनके रक्त से सने भोगों को भोगकर जीवन जीने कीअपेक्षा भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह कर लेना बेहतर है । श्रीकृष्ण उसे स्पष्ट करते हैं कि तेरा यह विचार, कि तूकर्म करने के लिए स्वतंत्र है, मूलत: भूल भरा है । कर्म-निष्ठा से बँधे होने के कारण ही अर्जुन अनुभव करता है किवह युद्ध करे या न करे, यह वह तय कर सकता है । दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण 'सांख्य-सिद्धांत' को स्पष्ट करते हुएउससे कहते हैं कि जो भी घटता है, वह प्रकृति के तीन गुणों का पारस्परिक व्यवहार है । मनुष्य 'कर्त्ता' नहीं है । प्रकृति के तीन गुण ही कर्त्ता हैं । किसी भी 'कर्म' के 'होने' में जो प्रेरक तत्त्व हैं, वे हैं ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता । गीता केअंतिम अध्याय में इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :
"ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्त्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह: ॥ "
ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता इनमें से किसी भी एक का अभाव होने पर 'कर्म' संभव नहीं होता । इससे यह अनुमानलगाया जा सकता है कि वे तीनों एक ही 'वस्तु' के तीन पक्ष हैं । वह वस्तु है 'प्रकृति' । किन्तु यहाँ जिस ज्ञान कीबात की जा रही है, वह है सापेक्ष ज्ञान (relative knowledge) । निरपेक्ष ज्ञान (Absolute knowledge) में चूँकिइस प्रकार की भेद-बुद्धि नहीं हो सकती, इसलिए वहाँ शुद्ध ज्ञान से 'अभेद' व 'अनन्यता' होने से 'कर्म' होने का प्रश्नभी नहीं उठता । किन्तु प्रकृति ज्ञेय अर्थात् 'जड़' होने से न तो कार्य कर सकती है, न स्वयं अपने-आपका प्रमाण होसकती है । 'प्रमाण' तो अनिवार्यत: कोई 'चेतन-तत्त्व' ही होगा । वह चेतन-तत्त्व है, -'पुरुष' । पुरुष यद्यपि अकर्त्ता है, किन्तु उसकी सन्निधि से ही प्रकृति कार्य कर सकती, या kartee हुई प्रतीत होती है । इस प्रकार ज्ञान 'कर्म' से पूर्वहै । जिनकी इस प्रकार की निष्ठा होती है, वे उस 'चेतन तत्त्व' के स्वरूप को जान्ने-समझाने को कर्म की अपेक्षाअधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं । या फिर वे "कर्त्ता कौन है ?" इस बारे में खोज-बीन करते हैं ।
चूँकि दूसरे अध्याय के अंत तक अर्जुन का 'मोह' नष्ट नहीं हो सका था, और वह 'कर्म' करने में अपने-आपके स्वतंत्र होने की धारणा त्यागने में असमर्थ था इसलिए श्रीकृष्ण ने उस 'कर्म' किस प्रकार किया जाए जिससे कि ज्ञान-निष्ठा जागृत हो, इस बारे में शेष सोलह अध्यायों में अलग-अलग विधियों से समझाया ।
इसलिए अपनी पात्रता की परीक्षा करते समय यह परखना परम आवश्यक है कि हममें ज्ञान-निष्ठा और कर्म-निष्ठामें से कौन सी निष्ठा प्रमुख रूप से कार्य कर रही है । और स्वाभाविक रूप से जब तक हममें कर्म-निष्ठा अधिक प्रबलहै, तब तक कर्म को कुशलतापूर्वक करने का क्या तात्पर्य है, यह समझ लेना जरूरी है । क्योंकि ज्ञान-निष्ठा, कर्म-निष्ठा के परिपक्व होने पर ही प्राप्त हो सकती है ।
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>>>>>>>जिज्ञासु और मुमुक्षु 3>>>>>>>>
ब्लाग के माध्यम से हमें अपने उम्दा ट्रांसलेशन से रूबरू कराते रहें।
ReplyDeleteDear Amit, Indradhanush, and Kshama,
ReplyDeleteThanks for your valuable comments.
Vinay.