Wednesday, February 17, 2010

जिज्ञासु और मुमुक्षु /3

~~~~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु /3.~~~~~~~
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हमने पिछले पृष्ठों में चर्चा की कि मनुष्य-मात्र, या कहें कि प्राणी मात्र ही सदैव, जो उसे 'सुख' प्रतीत होता है, उससुख' की प्राप्ति करते रहना चाहता है, और जो उसे 'दु:ख' प्रतीत होता है, उससे छूटना भी चाहता है । 'अनुभव' और ज्ञान' (अर्थात् अनुभवों पर आधारित 'प्रतीतियों' की स्मृति) के सहारे उसकी 'बुद्धि' क्रियाशील हो उठती है, और वह एक बिलकुल यांत्रिक प्रक्रिया हैपरस्पर विरोधाभासी 'प्रतीतियों' के 'अनुभव' से उसमें 'अंतर्द्वंद्व' अर्थात् 'संशय' उत्पन्न होता हैइस सबके बावजूद, उसमें दु: के निवारण और सुख-प्राप्ति का आग्रह कभी कम नहीं होतादु: की निवृत्ति और सुख-प्राप्ति का यह आग्रह प्राणिमात्र को जन्म से ही मिलता हैइसे हम एक सहज-श्रद्धा भी कह सकते हैंकिन्तु मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो 'कार्य-कारण' के सिद्धांत को व्यावहारिक स्तर पर दूसरे प्राणियों की तुलना में अधिक अच्छी तरह 'अनुभव' करता है, और विस्तारपूर्वक उसका उपयोग भी करना चाहता है केवल इने-गिने 'ज्ञात' कारणों के आधार पर वह 'अतीत' और 'भविष्य' का एक चित्र बनाता है, जो नितांत स्थूल स्तर पर अवश्य ही प्रायोगिक रूप से 'सत्य' सिद्ध होता है, किन्तु जैसे-जैसे ज्ञात कारणों की संख्या बढ़ती जाती है, वह अनुभव करता है कि अब उसे 'प्रायिकता' (probability) के सिद्धांत का सहारा लेना होगा
कपिल-मुनि प्रणीत 'सांख्य-दर्शन' अपने तरीके से इस प्रश्न की विवेचना करता हैभारतीय दर्शन, (जिनमें योग, वेदांत, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा,सांख्य, तथा जैन, बौद्ध, तंत्र आदि भी सम्मिलित हैं, ) 'सत्य' के 'दर्शन' को महत्त्वपूर्ण मानते हैं, कि वैचारिक तर्क-वितर्क के आधार पर निष्कर्षत : 'प्राप्त' किये जानेवाले 'परिणामों' को
सांख्य-दर्शन पुरुष तथा प्रकृति तथा उनके पारस्परिक संबंध पर प्रकाश डालता है । 'अस्तित्त्व'-मात्र की चर्चा करते समय 'दृष्टा', 'दृश्य', एवं 'दर्शन' ये तीन पक्ष अनिवार्यत: विचारणीय होते हैंबुद्धि में ये तीनों तत्त्व प्रारंभ में एक दूसरे से भिन्न हैं, ऐसा आभास होता है, किन्तु बुद्धि से ही यह भी समझना आसान होगा कि चूँकि ये तीनों तत्त्व अनिवार्यत: एक-दूसरे पर निर्भर हैं, अर्थात उनमें से एक के अभाव में शेष दो का भी अस्तित्त्व प्रमाणित नहीं हो सकता, अतएव वे एक ही 'सत्य' के तीन परस्पर अविभाज्य 'पक्ष' मात्र हैं
इस आधार पर, प्रकृति जिसे 'जड' (ज्ञेय) और पुरुष, जिसे चेतन (ज्ञाता) कहा जाता है, मूलत: परस्पर एकमेव हैंअर्थात् एक ही 'त्' तत्त्व, पुरुष तथा प्रकृति के रूप में दो की भाँति अभिव्यक्त होता हैऔर 'पुरुष' को ही प्रकृति का संवेदन होता हैइस प्रकार यह नि:शब्द 'संवेदन' सापेक्ष चेतना है, जो प्राणिमात्र में सहज ही प्राप्त होती है
गीता में इस सन्दर्भ में हमें निम्न दो श्लोक प्राप्त होते हैं :
अध्याय १०, श्लोक २२ ,
वेदानां सामवेदो-स्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना
तथा अध्याय १३, श्लोक ,
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारामुदाहृतं
तात्पर्य यह कि यह 'संवेदन' अर्थात् 'प्रतीति' का अनुभव, जिन भूतों में होता है, वे 'अपना', और जगत की 'प्रतीति' पाते हैंचूँकि कुछ वस्तुओं में इस प्रकार की प्रतीति होती है या नहीं इस बारे में हम सुनिश्चित रूप से कुछ नहींजानतेकिन्तु यह अवश्य जानते हैं कि कुछ अन्य वस्तुओं में ऐसी क्षमता शायद होती हैइस प्रकार हम 'जीवित' और 'निर्जीव' का अंतर तय करते हैंऔर हर सजीव वस्तु, अर्थात् प्राणिमात्र अपने-आपको 'चेतन', और जगतकी अन्य वस्तुओं में से कुछ को को 'जड' और शेष को अपनी भाँति 'चेतन' समझता है
सांख्य के अनुसार यद्यपि शरीर पांच 'महाभूतों' के संघात का परिणाम है, अत: बनता और विनष्ट होता है, जबकिउसके मूल कारण, वे पांच महाभूत, तो बनते हैं, नष्ट होते हैंशायद हमारा विज्ञान भी इसे स्वीकार करेगा
इस प्रकार हर 'चेतन' वस्तु, अर्थात जीव-मात्र में यह 'चेतनता या चेतना, 'संवेदन' या 'प्रतीति' का ही तत्त्व वह तत्त्वहै, जो वस्तुत: निराकार होते हुए भी, मनुष्य को 'अनुभव-सक्षम' और 'ज्ञान-सक्षम' बनाता है
ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान की त्रिपुटी में यही तत्त्व 'ज्ञान' की भूमिका निभाता है, लेकिन 'अनुभव' तथा 'प्रतीति' इस शुद्धसंवेदन-क्षमता' पर त्रुटिपूर्ण धारणाओं का आवरण आरोपित कर देते हैंइस प्रकार हम समझ सकते हैं कि गीताअध्याय , श्लोक १५ :
नादत्ते कस्यचित्पापं चैव सुकृतं विभु: ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तें मुह्यन्ति जन्तव: ॥
में जिस 'अज्ञान' का उल्लेख है, वह 'अज्ञान' क्या है ?
अज्ञान का तात्पर्य है, -त्रुटिपूर्ण ज्ञान, यथार्थ ज्ञान से भिन्न प्रकार का कोई भी ज्ञान, प्रतीति, अनुमान, आदि
इसलिए 'जिज्ञासु' होने का तात्पर्य है, शुद्ध ज्ञान क्या है, इसे समझने की उत्कंठा मनुष्य के मन में होनाइस प्रकार 'जिज्ञासा' का सम्यक होना 'पात्रता' की एक आवश्यकता है
पात्रता के पूरे होने के लिए दूसरे कौन से आवश्यक तत्त्व हैं, इस बारे में अगली बार

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