~~~~~ जिज्ञासु और मुमुक्षु /१.~~~~~
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इस जगत में प्राणिमात्र 'सुख' की प्राप्ति करना चाहता है । वह 'नित्य' से अनभिज्ञ होता है (या ऐसा उसे लगता है !) , अत: वह 'नित्य' न सही, उससे कुछ 'कम' अर्थात् 'सतत' या 'अधिकतम' 'सुख' की प्राप्ति की आशा रखता है । यद्यपि उसे तो यह तक स्पष्ट नहीं होता कि 'जिसे' वह 'सुख' कह रहा है, उस सुख का स्वरूप या सच्चाई, उसकीवास्तविकता क्या है । उसे अभिव्यक्त या परिभाषित कर सकने में असमर्थ होने पर भी 'दुःख' को प्राणिमात्रनिस्संदेह भली-भाँति समझता है, और उस प्रतीत हो रहे तात्कालिक दु:ख से जब उसे राहत मिल जाती है, तो उसेवह 'सुख' समझ बैठता है । इसलिए उसकी दृष्टि में 'अनेक' दु:ख और अनेक 'सुख' भी होते हैं । कई बार तो वह यहभी तय नहीं कर पाता कि कौन से 'सुख' उसकी प्राथमिकता-सूची में हैं, और कौन से गौण हैं । फिर भी वह 'जीवन' को यथासंभव 'सुखपूर्ण' बनाए रखने की इच्छा रखता है, और रोग, बुढापा, मृत्यु, या शीत-गर्मी आदि द्वंद्वों रूपी कष्टोंसे यथासंभव दूर रहना चाहता है । कुछ 'अधिक' मेधावी मनुष्य सोचते हैं कि किसी 'आदर्श' की प्राप्ति या उसके लिएजीवन अर्पित कर देना ही जीवन जीने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है । वे 'मृत्यु' की वास्तविकता को इच्छाया अनिच्छापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं, और अपनी समझ के अनुसार 'जीवन' से 'अधिकतम' जो प्राप्त किया जासकता है, उसकी प्राप्ति को ही ध्येय बना लेते हैं । यह अलग बात है कि मनुष्य की बुद्धि के विकास या 'परिवर्तन' केसाथ-साथ उनका दृष्टिकोण आगे जाकर बदल भी सकता है ।
तात्पर्य यह कि सामान्यत: प्राणिमात्र इस प्रकार सतत सुख-प्राप्ति और दु:ख से दूर रहने की इच्छा से बँधा होता है । वह इस जगत को 'नित्य' या सतत मानता है, और अपने-आपको जगत में उत्पन्न एक जीव समझकर उसकीबुद्धि के अनुसार अधिकतम 'सुख' उठा लेना चाहता है ।
जब वह 'सुखों' की प्राप्ति कर लेता है, तो उसे ज्ञात होता है कि जिसे वह 'सुख' समझ रहा था वह एक तात्कालिकदु:ख से राहत मिलने या इन्द्रिय-उत्तेजना की कोई 'प्रतीति'-मात्र थी, न कि वास्तव में मिलनेवाला कोई ऐसाअनुभव' जिसे वह याद-दाश्त के अलावा कहीं और सुरक्षित रख सके । और प्राय: तो उसे उन अनेक सुखों से वंचितही रहना पड़ता है, जिनकी कल्पना वह हमेशा करता रहता है । लेकिन शरीर की अपनी जरूरतें होती हैं, जैसेभूख-प्यास की निवृत्ति, निद्रा, मल-मूत्र विसर्जन, संतानोत्पत्ति आदि । प्रकृति ने प्राणिमात्र को इन्द्रियाँ प्रदान कीहैं, जिनके उपयोग से वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है । किन्तु 'सुख'-प्राप्ति की लालसा होने पर वहइन आवश्यकताओं की पूर्ति को आवश्यकता की पूर्ति के साधन-मात्र होने की बजाय 'भोग' का साधन बना / समझबैठता है । उदाहरण के लिए नाक,कान, जिह्वा, त्वचा,और नेत्र । सुगंध और दुर्गन्ध की पहचान से प्राणी कई वस्तुओंकी परीक्षा कर सकता है कि वे उसके शरीर के लिए लाभप्रद और अनुकूल हैं, या हानिप्रद और प्रतिकूल हैं। इसीप्रकार शेष इन्द्रियों के बारे में भी है । किन्तु सुख-प्राप्ति की लालसा में जीव इन्द्रियों की इस स्वाभाविक क्षमता कादुरूपयोग करने लगता है । इसे अधिक स्पष्ट करने की शायद ही कोई जरूरत हो ! इसी प्रकार जीवमात्र अपनी सभीतात्कालिक जरूरतों को भी समझता है, किन्तु मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो 'सुदूर भविष्य' तक का विचार करताहै, जो काल्पनिक सुखों और भयों को जन्म देता है, जबकि शुद्धत: स्थूल भौतिक वस्तुओं के अतिरिक्त मनुष्य केपास ऐसा कोई प्रमाण ही नहीं है कि क्या वे 'सुख' या 'दुःख' उसके जीवन में वस्तुत: आयेंगे भी या नहीं ?
किन्तु फिर भी इस बारे में सब एकमत हैं कि जीवन में कुछ न कुछ 'प्राप्तव्य' तो अवश्य ही है । इसे सुख कहें या दु:ख का अंत, या कुछ और ।
क्या इसके लिए कुछ किया जाना जरूरी नहीं है ?
स्वाभाविक ही है कि प्राणिमात्र जाने-अनजाने ही इसी लक्ष्य की प्राप्ति की आशा से कर्म करता है । अतएव कर्महोता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता । यदि वह कर्म अस्तित्त्व में ही बीज-रूप में अवस्थित है, और समयआने पर प्रकट रूप लेता है, तो भी उससे बचना असंभव है । और यदि वह जीव की लक्ष्य-प्राप्ति करने से प्रेरितहोकर उसके द्वारा किया जाता है, तो भी उससे बचा नहीं जा सकता । अभी हम इस प्रश्न पर विचार नहीं कर सकेंगेकि क्या जीव कर्म करने या न करने के लिए स्वतंत्र है ?
इस प्रकार जीवमात्र में जगत से 'अपने' भिन्न होने की बुद्धि से प्रेरित एक 'कर्म-निष्ठा' होती है, जो उसमें अपनेकर्त्ता' होने की भावना भी उत्पन्न कर देती है । दूसरी ओर ऐसे बहुत परिपक्व समझ के मनुष्य भी होते हैं जो इसस्वतंत्र 'कर्त्ता' के अस्तित्त्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाते हैं, और इस ढंग से सोचते हैं कि इस सारे अस्तित्त्व का 'कर्त्ता' कौन/क्या है । वे अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि प्रकृति सदैव 'दृश्य' है, जबकि 'जिसे' और 'जिसमें' प्रकृति के 'जड़' होने का ज्ञान है, वह 'दृष्टा' निस्संदेह 'चेतन' है । इसे किसी भी तर्क से झुठलाया नहीं जा सकता । उस चेतन दृष्टा का स्वरूप क्या है इस बारे में भले ही अलग-अलग विचार हों, लेकिन प्रकृति का युक्तिसंगत 'प्रमाण' वह 'द्रष्टा' ही है । क्या उस 'दृष्टा' का भी प्रमाण दिया जाना आवश्यक है ?
'सांख्य' उसे पुरुष कहता है, जिसकी प्रेरणा और शक्ति से ही प्रकृति (अपने तीन गुणों के माध्यम से ) अपने कार्यकरती' है ।
जो मनुष्य इस रीति से विचार करते हैं, उनकी 'निष्ठा' को 'ज्ञान-निष्ठा' कहा जाता है ।
तो हम बात कर रहे थे जीव-मात्र की निष्ठा की । सामान्यत: जीव-मात्र 'कर्म-निष्ठा' से बँधा होता है, चाहे वहअपने-आपको स्वतंत्र 'कर्त्ता' मानता हो, या न मानता हो । चाहे वह ईश्वर को मानता हो या न मानता हो । चाहे वहपुनर्जन्म को मानता हो या न मानता हो ।
इसके बाद हम 'कर्म-निष्ठा' और ज्ञान-निष्ठा' के सन्दर्भ में 'जिज्ञासु' की स्थिति क्या है, इस बारे में पुन: विचार करेंगे ।
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