~~~~~~~गीता-सन्दर्भ ~~~~~~~
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गीता उपनिषदों का सार है । उपनिषद वेदांत का सार-तत्त्व, और वेदान्त वेदों का सार तत्त्व है । वेद धर्म का सार है, और धर्म वस्तु का स्वरूप है । जिसमें वस्तु 'प्रतिष्ठित' है, वह है धर्म । जो इस अस्तित्त्व का अधिष्ठान है, वह हैधर्म'। यहाँ 'धर्म' की कोई स्थापित या मान्य या निष्कर्षगत परिभाषा दिए जाने का यत्न नहीं किया जा रहा है, किन्तु 'धृति' के संबंध में 'धर्म' को समझने का एक प्रयास है ।
गीता का प्रथम श्लोक ही इस शब्द से आरंभ हुआ है, :
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: ।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ "
स्वाभाविक सी बात है कि अस्तित्त्व प्रकृति का 'धर्म' है, और प्रकृति के अंतर्गत हो रहा सब कुछ उस 'धर्मक्षेत्र' केअंतर्गत है । मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीव और पदार्थ प्रकृति के इस 'धर्म' से ही संचालित होते हैं, और शायदमनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है, किन्तु मनुष्य में यह भावना दृढ़ होती है कि वह 'कर्म' करने में स्वतंत्र है । यद्यपिइस भावना से उत्पन्न कर्तृत्त्व - बुद्धि की सत्यता की परीक्षा करने पर ऐसा कोई 'स्वतंत्र' तत्त्व मनुष्य में नहीं प्राप्तहोता है । सामान्य तर्क से ही देखें तो मनुष्य जो करना चाहता है, वह 'चाह' स्वयं ही स्मृति , इन्द्रियों की क्षमता और परिस्थितयों से उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्तियों का ही एक समेकित परिणाम होता है । कोई भी 'परिणाम' अवश्य हीअपने 'कारणों' का सम्मिलित फल होता है, इसलिए उन पर आश्रित होता है । इससे यह स्पष्ट है कि चाह से बँधामनुष्य 'स्वतंत्र' तो नहीं है, किन्तु 'संभावित' परिणामों में से कोई परिणाम जो उसे 'अनुकूल' प्रतीत होता है, उसमेंउसके लिए 'कार्य' करने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर देता है । विभिन्न संयोगों में से कोई न कोई एक तो अवश्य हीफलित भी होता है, अत: उसका यह विश्वास दृढ़ होने लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी उसका अभीप्सितफलित होने के लिए वह चेष्टा तो कर ही सकता है । आशा, लोभ, भय, अर्थात् 'इच्छा' या कामना से ग्रस्त उसकाचित्त यह नहीं देख पाता कि किसी कार्य के फलित होने के लिए कौन-कौन से घटक आवश्यक हैं !
गीता अध्याय १८, श्लोक १४ के अनुसार,
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधं ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमं ॥
गीता अध्याय ३, श्लोक २७ के अनुसार,
"प्रकृते : क्रियमाणानि गुणै : कर्माणि सर्वश: ।
अहंकार विमूढात्मा कर्त्ताहमिति मन्यते ॥ "
उक्त दोनों श्लोकों के अनुसार कर्मों का कर्त्ता 'मैं' हूँ, ऐसी भावना मोह-जनित बुद्धि का परिणाम मात्र है । मोह कातात्पर्य है यथार्थ को सम्यक रूप से न देखते हुए बुद्धि में प्रतीत हो रहे उसके चित्र को यथावत सत्य समझ बैठना । यह तो पहले ही, जहाँ अध्याय ७, श्लोक २७, "इच्छाद्वेष समुत्थेन ... ... " का सन्दर्भ दिया गया था, कहा ही जा चुकाहै कि प्राणी मात्र इस जगत में आते ही कैसे इस मोह बुद्धि से ग्रस्त हो जाते हैं !
हमारे जीवन में और हमसे बाहर-भीतर जो असंख्य घटनाएं प्रतिपल घट रही हैं, वे दृश्य के तल पर तो पृकृति केही द्वारा संचालित हैं इसमें संदेह नहीं, लेकिन उन घटनाओं के घटने की 'पुष्टि' करनेवाले एक नित्य 'साक्षी' काअस्तित्त्व भी स्वत:सिद्ध है । यदि हम उसे ही अस्वीकार कर दें तो घटनाओं की सत्यता कैसे प्रमाणित होगी ?
अत: सब-कुछ एक 'साक्षी' चेतन तत्त्व के 'बोध' में घटता है, और वह साक्षी चेतन तत्त्व निस्संदिग्धरूपेण स्वयं भीअपने-आप का भी साक्षी है ही ! यह भी स्पष्ट है कि वह साक्षी स्वयं कुछ नहीं करता । इसलिये प्रकृति ही 'गुणों' केमाध्यम से नित्य क्रियमाण है । वही उसका 'धर्म' है ।
अभी तो ध्यान देने की बात यह है कि मनुष्य जिस मोहबुद्धि के वशीभूत होकर अपने को 'कर्त्ता' मान बैठता है, उसमोहबुद्धि और उससे उत्पन्न अज्ञान का निवारण कैसे हो ? क्योंकि उसके रहते अपने 'स्वतंत्र-अस्तित्त्व' की भावनादूर नहीं हो सकती ।
गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक का दूसरा शब्द है : 'कुरुक्षेत्रे'
एक तो 'धर्मक्षेत्र की बात हुई । अब बात कुरुक्षेत्र की । मनुष्य जो कुछ करता है, उस सारे कर्म के अंतर्गत जो कुछ'होता' है, वह है 'कुरुक्षेत्र', अपने 'स्वतंत्र कर्त्ता' होने की भूल भरी भावना से उत्पन्न होनेवाले कर्मों की श्रँखला, जोवस्तुत: बंधन ही है , जिसमें जकड़ा मनुष्य सोच बैठता है कि कर्म के माध्यम से वह अभीप्सित ध्येय, औरपरिणामत: 'सुख' भी प्राप्त कर लेगा । वह यह तो कदापि नहीं जानता कि प्रकृति की उसके लिए क्या योजना है ! वहइसकी तो कल्पना तक नहीं कर पाता ।
तो इस 'धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र' में जिस अंतर्द्वंद्व से हर मनुष्य ग्रस्त है, उस अंतर्द्वंद्व के कारण के नष्ट हुए बिना मनुष्ययथार्थत: सुखी नहीं हो सकता ।वह कैसे नष्ट हो इसकी जिज्ञासा जिसमें होती है, उसे ही पात्रता मिल गयी है, ऐसाकह सकते हैं । लेकिन अभी इस विषय को और भी विस्तार से जानना जरूरी है ।
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