Sunday, December 8, 2024

मयाध्यक्षेण

9/10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।। 

हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।

(अध्याय १०)

आत्मा स्वयं ही अस्तित्वमान सत्य है, जो स्वयं ही और स्वयं से ही स्वयं को ही जानता है।

Self is the Existential Reality, Conscious of Being, Knowing It-Self through Self.

Being Conscious implies Existence, and Existence implies Being the Self.

यह अद्वैत सत्य है। आत्मा की अध्यक्षता में ही उसकी ही शक्ति / क्षमता से स्फूर्त होकर उसकी ही प्रकृति सम्पूर्ण चर और अचर जगत् को जन्म देती है, अर्थात् जगत् की सृष्टि करती है और इसीलिए यह जगत् सतत परिवर्तित होता है। परिवर्तन ही काल है और काल ही परिवर्तन है। इस प्रकार आभासी-स्थान और आभासी-काल पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होते हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारणगत आत्मा ही तब द्रव्य और ऊर्जा का रूप ग्रहण करता है। आत्मा भी तब स्वयं ही और स्वयं से ही अनेक, असंख्य पिण्डों में जीवभाव के रूप में परस्पर पृथक् और स्वतंत्र "अहंकार" के रूप में जगत् और जगत्सापेक्ष्य चेतन के रूप में असंख्य जीवों का रूप लेता है। और इसीलिए जन्म और मृत्यु आभासी और कल्पित घटनाएँ हैं, न कि वे वस्तुतः घटित होती हैं। इसलिए जीव के परिप्रेक्ष्य में न तो जन्म और न ही मृत्यु का अस्तित्व संभव है। जीव के परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में, जन्म और मृत्यु सदैव ही किसी और के ही होते हैं। चेतन आत्मा, जीव और जड जगत् के परिप्रेक्ष्य में जन्म और मृत्यु नामक कुछ नहीं होता है।

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प्रत्याहार

विषय - (Object), विषयी - (Subject),

और चित्त - (attention) 

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विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिने।। 

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय २)

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।५४।।

(पातञ्जल योगसूत्र - साधनपाद)

।।2.54।।

शांकरभाष्य 

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स्वविषयसंप्रयोगाभावे चित्तस्वरूपानुकार इवेति चित्तनिरोधे चित्तवन्निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवदुपायान्तरमपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तमनूत्पतन्ति निविशमानमनुनिविशन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तनिरोधे निरुद्धानीत्येष प्रत्याहारः।।

स्वविषय-असम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।

स्वविषय-संप्रयोग अभावे चित्त-स्वरूप-अनुकार इव इति चित्त-निरोधे चित्तवत् निरुद्धानि इन्द्रियाणि न इतर इन्द्रिय-जयवत् उपायान्तरम् अपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तं अनु उत्पत्ति निविशमानं अनुनिविशन्ते तथा इन्द्रियाणि चित्त-निरोधे निरुद्धानि इति एषः प्रत्याहारः।। 

ततः परमावश्यता इन्द्रियाणाम्।।५५।।

ततः परमा वक्रता इन्द्रियाणाम्।।

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विषयी के चित्त का इन्द्रियों के विषय से संपर्क होने पर वृत्ति-विशेष सक्रिय होती है। चित्त के निरुद्ध हो जाने पर चित्त की तरह से इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं। और  तब विषयी के रूप में विद्यमान अहं-वृत्ति भी अपने स्रोत में विलीन होकर शान्त हो जाती है। तब इन्द्रियाँ पूर्णतः परम वश में हो जाती हैं।

व्यवहार में ऐसा संभव नहीं होता। इसलिए सबसे पहले तो ध्यान (attention) को विषयों से हटाकर सिर्फ "मैं" / "स्वयं" पर लाया जाना होता है।

दूसरी रीति में ध्यान का विषय इष्ट / ईश्वर होता है, जिसका चिन्तन करते हुए अन्य सभी आते-जाते विचारों में लिप्त हुए बिना, उनकी उपेक्षा कर दी जाती है, और ध्यान को इष्ट / ईश्वर पर लौटाया जाता है। स्पष्ट है कि तब "मैं" ध्यानकर्ता के रूप में प्रच्छन्न (छिपा हुआ) रहता है। इसलिए प्रायः होता यह है कि मन विभाजित होकर एक साथ दो कार्यों में संलग्न होता है और दो ही क्या दो से अधिक भागों में भी उसकी गतिविधि जारी रहती है। यह एक बहुत संकटपूर्ण स्थिति होती है जिससे सावधान रहना चाहिए। अधिकतर लोगों का मन इस प्रकार इतना अधिक विभाजित (fragmented) हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही समय में एक से अधिक कार्य (multitasking) तो कर सकता है किन्तु एक समय पर केवल किसी एक ही कार्य को कर पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए आप ड्राइविंग सीखते समय जितना सावधान होते हैं और आपका मन तब जितना शून्य होता है, ड्राइविंग सीख लेने के बाद वैसे सावधान नहीं रह पाते और दूसरा कोई कार्य जैसे कि संगीत सुनना, किसी से फोन पर या वैसे ही बातचीत करने आदि कार्य में संलग्न हो जाते हैं। जैसा कभी सरकस में किसी को करते हुए देखा होगा।

इसका एक कारण यह होता है कि जिस विषय में हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, उस विषय पर मन सरलता से एकाग्र हो जाता है और हमें एकाग्रता का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु कभी कभी विचित्र स्थिति ऐसी भी हो जाती है जब हमारी रुचि एक साथ दो या अधिक विषयों में होती है। परिस्थिति के अनुसार भी ऐसा आवश्यक हो जाता है जब हम दुविधा में कुछ तय नहीं कर पाते। 

तीसरी रीति से, जब ध्यान को इन्द्रियों से लौटाकर ब्रह्म के स्वरूप पर स्थिर किया जाता है तो अहं-वृत्ति ब्रह्म से पृथक् न रहकर ब्रह्म से उसका तादात्म्य हो जाता है। अर्थात् तब इसे ही ब्रह्माकार वृत्ति कहा जाता है। इस स्थिति में जो अनुभव होता है उसे "अहं ब्रह्मास्मि" कहा जा सकता है। किन्तु यह अपरोक्षानुभूति (आत्मज्ञान) नहीं है।

अपरोक्षानुभूति वह है जिसका उल्लेख "रसवर्जं" के रूप में प्रारंभ में किया गया है।

इन तीनों विधियों में योग के बहिरङ्ग उपायों :

निरोध, एकाग्रता, समाधि से प्राप्त "समापत्ति" के साथ साथ प्रत्याहार का प्रयोग अपरिहार्यतः आवश्यक है।

इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्याहार (withdrawing of attention from external objects) कितना महत्वपूर्ण है।

यतो यतो हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। 

ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

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Wednesday, November 20, 2024

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा

1/20

अध्याय १,

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।२०।।

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श्रीमद्भगवद्गीता में श्री हनुमानजी की क्या भूमिका है, इस एक श्लोक से अनुमान लगाया जा सकता है!

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Wednesday, October 30, 2024

The Turning Point.

श्रीमद्भगवद्गीता 

4/13,

अध्याय ४,

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्यापि कर्तारं मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

6/46,

अध्याय ६,

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

6/47,

अध्याय ६,

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतं।।४७।।

12/12,

अध्याय १२,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

18/47,

अध्याय १८,

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४७।।

18/48

अध्याय १८,

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।। 

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।

गुणकर्मविभागशः

मूढ जहीहि धनागमतृष्णा...

पूज्य आदि शङ्कराचार्य कृत चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् की यह पंक्ति प्रायः मुझे याद आती है। और इस ब्लॉग को पढ़नेवाले किसी धनलोलुप से कल जब एक ईमेल मुझे प्राप्त हुआ जिसे गूगल मेल ने "स्पैम" में डाल रखा था, और तुरन्त ही मैंने उसे डिलीट कर दिया था, तब भी एक बार यह पंक्ति मुझे याद आई।

गीता के द्वितीय अध्याय के एक श्लोक में अर्जुन विषाद से व्याकुल होकर जब भगवान् श्रीकृष्ण से -

"न योत्स्य" अर्थात् "न योत्स्ये" कहते हैं -

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

और इसी प्रकार अंतिम अठारहवें अध्याय के एक श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अहङ्कार से ग्रस्त होकर तुम जो "न योत्स्य" कहते हो तो तुम्हारा वह मान्यतारूपी व्यवसाय व्यर्थ है क्योंकि  प्रकृति ही तुम्हें युद्ध करने के लिए बाध्य कर देगी और तब तुम अवश्य ही युद्ध करोगे। 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।। 

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।। 

संपूर्ण ग्रन्थ में अर्जुन न तो "मैं स्वतंत्र कर्ता हूँ" इस भ्रम से, और इसीलिए न इस भ्रम और अन्तर्द्वन्द्व से कि मुझे युद्ध करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, और अंततः भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए "युद्धस्य कृतनिश्चयः" की आज्ञा का पालन करनेवाले युद्ध में संलग्न हो जाते हैं।

तात्पर्य यह कि जो कुछ भी शुभ या अशुभ होता है वह प्रकृति से ही पूर्वनिश्चित होता है यह समझकर प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करने से बचते हुए प्राप्त हुए कर्तव्य में यत्नपूर्वक संलग्न होना ही एकमात्र विकल्प है।

ऊपर उद्धृत श्लोकों में प्रारब्ध और कर्तव्य के बीच की दुविधा का सामना कैसे करें इसके लिए ही मार्गदर्शन है।

मुझे प्राप्त ईमेल का सन्दर्भ इसलिए क्योंकि जैसा मैंने दूसरे भी अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है, चूँकि अपने स्वभाव से जैसा मुझे उपयुक्त प्रतीत होता है, मैं वैसा ही निष्काम कर्म करने का यत्न करता हूँ और धन अर्जित करने की आवश्यकता या धन अर्जित करने की चिन्ता मुझे छूती तक नहीं, इसलिए धनप्राप्ति करना मेरा ब्लॉग लिखने का उद्देश्य कदापि नहीं है। किन्तु उपरोक्त प्रकार का ईमेल भेजनेवालों की प्रकृति बहुत भिन्न होने से वे भी उसी अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य हैं, और ठीक इसी तरह प्रायः गूगल, फेसबुक और दूसरे भी सभी लोग।

किसी को कुछ समझाना न तो मर्यादा के अनुसार मुझे मेरे लिए उचित प्रतीत होता है और न ही मेरी चिन्ता का विषय है।

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Monday, October 14, 2024

किं कर्म किमकर्मेति

4/16, 4/17

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रामायण और रामचरितमानस

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणोह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च ह्यपि बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

महर्षि वाल्मीकि और गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने अपनी अपनी कविदृष्टि से भगवान् श्रीराम के चरित्र का वर्णन क्रमशः वाल्मीकि रामायण और श्रीरामचरितमानस में किया। दोनों ही ग्रन्थ सनातन अर्थात् धर्म की अमूल्य धरोहर हैं। दुर्भाग्य से आज के समय में पूर्वाग्रहपूर्ण और विद्वेष युक्त तथाकथित विद्वान दोनों ग्रन्थों के विषय में भिन्न भिन्न मतों के आधार पर शंकाएँ खड़ी करते रहते हैं और उन्हें न तो सनातन से और न धर्म या अध्यात्म से ही कुछ लेना देना होता है, बल्कि उनमें से कुछ तो इसी बहाने से सनातन का तिरस्कार भी करते हैं। जैसे कि इन दोनों ग्रन्थों में भगवान् श्रीराम और दूसरे पात्रों के प्रसंगों में विरोधाभास क्यों है, या कौन से तथ्यों को प्रामाणिक कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए रामायण के सातवें काण्ड के संबंध में प्रश्न उठाए जाते हैं कि क्या मूल ग्रन्थ में उत्तरकाण्ड विद्यमान था या नहीं, और क्या इसे बाद में ग्रन्थ में जोड़ दिया गया? संभवतः इन विवादों का कोई अन्त नहीं है।

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Wednesday, September 4, 2024

Teacher's Day!

शिक्षक दिवस

Shrimadbhagvad-gita 

2/7

कार्पण्यदोषोपहृतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता।।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 

शिष्योऽस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं।।७।।

(अध्याय २)

There are two slightly different versions of the above verse.

The another is :

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः ... 

Both of the two could give us the same sense so the matter settles there.

However with reference to :

The Teacher's Day,

Another two words in the verse are :

शिष्यः  and  शाधि --

Both these two words come from the verb-root

√शास्  - शासयति, शास्ते, 

Conveying the sense of governing, ruling over, administrate, and to be governed, ruled over, administrated by someone.

Another word related to this verb-root is  : शासनम्  meaning the Governance or the administration.

This how this Sanskrit root-verb turned into  शाह in the Persian -

आर्यमेहर शाह रजा पहलवी 

Was the Emperor of Iran before the Islamic Revolution that ousted him.

Each of the above words has origin in Sanskrit :

आर्य - श्रेष्ठ -  Arya - Noble, 

मिहिर / मेहर Mihir  The Sun,

शाह - शास् - shAs 

रजा - राजा - King. 

पहलवी - Pahlavi

As could be found in the :

Valmiki Ramayanam

However, The English word "Teach" comes from "Touch" that again, from "त्वच्" in Sanskrit. 

Whatever be the origin, the "sense" of "learning / learn from" is effectively conveyed by this word.

The next word is :

शाधि 

Which is the  लुट् लकार, imperative mood, second person singular form of this verb "Teach". Simple and Direct meaning is "to request the teacher for giving the instructions".

Accordingly, the word : अनुशासनम् 

Conveys the sense of  "Discipline" and the one who follows this "Discipline" is called "शिष्यः" meaning - "The Disciple".

Next is : आचार्य  - आचारयति यः स आचार्यः। 

This is about one who teaches about the conduct, behaviour, morality, ethics and manners.

Still another word often  misinterpreted is : गुरु - "Guru" -- meaning some-one bigger, greater in power, position or effect. Usually associated with the word : जनः  गुरुजनः गुरुजनाः : Means the elders and the old people like the parents and other respectable men and women.

The word "student"  comes from the Sanskrit root verbs "स्तु" - स्तौति  meaning one who prays before someone, praises in order to please the Master. 

Again the word : Master comes from the Sanskrit word  मस्त / मस्तकं meaning the "Head" . There is a similar word "Mast". The Master is one who has control over the one who prays before and praises to :

येन सः स्तूयते  i.e. the student.

The very first introductory chapter of the तैत्तिरीय उपनिषद् - शीक्षावल्ली,

Sets the criteria for the student and the teacher who deserve to learn and teach respectively. In very concise words this word narrates what is "Education" and who can be a right educater and who could be educated in the proper sense of the word "Education".

Interestingly,  The Words :

Edit, Edict, Educate,

all have the origin in the the Sanskrit root-verb इ ईयते,  with prefix उपसर्ग "अधि" this gives us : अधीयते  meaning one who studies just as अधिगम्यते means "is learnt" or "understood" .

This is what I have learnt so far.

अनेन यद्धि मया अवगम्यते अधिगम्यते वा यावत्।। 

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Tuesday, August 13, 2024

युधिष्ठिर

कौन है युधिष्ठिर ?

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच --

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच --

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

इस युद्ध में अर्जुन मोहित बुद्धि के वश में हो, अनिश्चय से ग्रस्त हो गया अर्थात् वह अस्थिरमति हो गया। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण की बुद्धि अर्थात् मति सदा की भाँति एक जैसी स्थिर थी। जिसकी बुद्धि युद्ध के समय स्थिर होती है उसे युधिष्ठिर कहा जाता है-

युधि स्थिरा मतिः यस्य स युधिष्ठिरो उच्यते।।

इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण के  द्वारा किंकर्तव्यविमूढ अस्थिरमति अर्जुन को दिया गया, न कि उसके बड़े भाई युधिष्ठिर को।

युधिष्ठिर को इसीलिए धर्मराज भी कहा जाता है। 

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Monday, July 15, 2024

क्या अश्वत्थ बरगद है?

क्या अश्वत्थ पीपल है?

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10/26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

इस श्लोक में यद्यपि अश्वत्थ का उल्लेख है किन्तु वह पीपल है या वटवृक्ष / बड़ / बरगद है यह स्पष्ट नहीं है। 

भगवान् बुद्ध को जिस बोधिवृक्ष के नीचे आत्मज्ञान हुआ वह संभवतः पीपल ही है जिसकी एक शाखा को सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा के हाथों श्रीलंका भेजा था।

बोधगया का वह बोधिवृक्ष शायद पीपल है, बरगद नहीं।

गूगल पर बोधिवृक्ष लीफ की इमेज देखेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि बोधिवृक्ष पीपल है, बरगद नहीं है। 

बचपन से श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ता रहा हूँ, वह भी संस्कृत में। फिर कभी कभी गीताप्रेस से प्रकाशित उस गुटके में लिखे अर्थ से गीता के श्लोकों का तात्पर्य भावार्थ क्या है इसे समझने का यत्न भी किया करता था।

उस गुटके में अश्वत्थ का अर्थ "पीपल" बतलाया गया है, किन्तु उसकी जड़ों का जैसा वर्णन है वैसी जड़ें तो बड़ के वृक्ष की ही होती हैं -

श्रीभगवानुवाच 

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थः प्राहुरव्ययम्।।

छन्दाँसि यस्य पर्णानि यस्तद्वेद स वेदवित्।।१।।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा

गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि

कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।

किसी ने बतलाया बरगद "सूर्य-वृक्ष" है -

DharmaLive YouTube  पर। 

तदनुसार और गीता के उपरोक्त श्लोकों के अनुसार बड़ या बरगद, -- अश्वत्थ ही सूर्य-वृक्ष हो सकता है, पीपल नहीं।  कर्म जैसे परस्पर बँध जाते हैं, अश्वत्थ की जड़ें भी ऊपर और नीचे भी वैसे ही परस्पर मिल जाती हैं। इसी तरह सूर्य की किरणें भी परस्पर मिल जाती हैं किरणों से पुनः किरणें इसी प्रकार निकलती हैं।

Physics / भौतिक विज्ञान में भी Optics  में प्रकाश के Polarization and Interference of Light rays के सिद्धान्त में इसे इसी प्रकार से देख सकते हैं।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।३।।

ततः पदं तत् परिमार्गितव्यः

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये 

यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।

श्लोक २ और ४ में "प्रसृता" शब्द का प्रयोग दृष्टव्य है।

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Wednesday, July 3, 2024

What is Dharma?

What is Religion?

Sharing a post from my 

WordPress blog --

Dharma, Religion and Philosoph

Here I've deduced how the correct word for translating the English word  Religion in Sanskrit according to the meaning and the  sense  would be 

कर्म

This could follow how far my assertion is right if we try to understand the verses 16 and 17 of Shrimadbhagvad-gita.

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं चापि विकर्मणः।।

अकर्मणश्च ह्यपि बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

Here I'm writing from my memory only so a few spelling-mistakes may creep in

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Wednesday, June 12, 2024

गीता : फलश्रुति

1/2, 11/35, 18/73

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श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ में "वचनं" पद का प्रयोग तीन ही स्थानों पर प्राप्त होता है। वह इस प्रकार से --

अध्याय १

सञ्जय उवाच :

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।। 

आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।२।।

अध्याय ११

सञ्जय उवाच :

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।।नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य।। 

।।३५।।

तथा,

अध्याय १८

अर्जुन उवाच :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

भीष्म तथा द्रोणाचार्य जैसे पूज्य गुरुजनों को युद्धक्षेत्र में शत्रुसेना के योद्धाओं की तरह देखते हुए अर्जुन की बुद्धि मोहित हो जाने से वह व्याकुल और विषादग्रस्त हो गए। भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा उपदेश दिए जाने पर उनकी बुद्धि में उत्पन्न और व्याप्त मोह नष्ट हो गया, और उनका क्या कर्तव्य है इस विषय में उनका सन्देह दूर हो गया।

यही इस ग्रन्थ की फलश्रुति है कि इसका अध्ययन करने वाले की बुद्धि में व्याप्त मोह नष्ट हो जाता है। उसे स्पष्ट हो जाता है कि उसका कर्तव्य क्या है। इस विषय में वह  गतसन्देह हो जाता है अर्थात् उसके मन में सन्देह करने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता। उसे याद आ जाता है कि करने के लिए वह क्या है जो उसके लिए श्रेयस्कर हो, और वह ईश्वरीय प्रेरणा से ईश्वर के वचन / आदेश का पालन करने में प्रवृत्त हो जाता है।

लोभ, भय, शंका, सन्देह, अज्ञान, विस्मृति और संशय आदि सभी मोहित बुद्धि में ही उत्पन्न होते हैं। मोह के नष्ट होते ही स्मृति और बुद्धि भी शुद्ध हो जाती है।  

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Tuesday, June 4, 2024

योगारूढस्तदोच्यते

6/3

अध्याय ६

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्मकारणमुच्यते।। 

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।३।।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।।

सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।४।।

उपरोक्त रीति से हमें मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का क्रम विदित होता है। वह इस प्रकार से है -

"कर्म, योग और ज्ञान"

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हम सब परमात्मा की सन्तान हैं।

परमात्मा अर्थात् कालरूपी उत्तम-पुरुष / पुरुषोत्तम।

वही हमारी माता और पिता, जनक और जननी, पुरुष और प्रकृति है। समस्त अस्तित्व परमात्मा से ही व्यक्त रूप में प्रकट होकर पुनः उसके ही अव्यक्त रूप में लौट जाता है।

अध्याय १८

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

उपरोक्त सभी परमात्मा के ही अव्यक्त और व्यक्त प्रकार हैं। सभी प्रकृति / स्त्री और परमेश्वर / उत्तम पुरुष भी हैं।

किस काल में सृष्टि हुई? उस काल का अनुमान भी बुद्धि के सक्रिय होने पर ही तो किया जाना संभव है।

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चारों वृत्तिरूप में यद्यपि एक हैं उनके कार्य व्यक्ति-विशेष में पृथक् पृथक् चेष्टाओं से अभिव्यक्त होते हैं। ये सभी प्रकृति हैं, जबकि इनसे विलक्षण स्वरूप है दैव अर्थात् "काल", - जो अधिष्ठान है।

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार तो प्रकृति हैं, "काल" ईश्वर है, जो पुनः अस्तित्व का नियामक है। यही ईश्वर पुरुष रूप में व्यक्ति विशेष है और परमेश्वर के रूप में यही दैव है। परमेश्वर पुनः अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही रूपों में मन्तव्य, ध्यातव्य और ज्ञातव्य है। परमेश्वर पुरुष के रूप में ब्रह्म और प्रकृति के रूप में अब्रह्म भी है। 

अध्याय ४

अजोऽपि सन्नव्यात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।। 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय 

इस प्रकार से

अध्याय ३

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव  मे।।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।२।।

भगवान् श्रीकृष्ण परमेश्वर अर्थात्  ईश्वर का अवतार हैं, जबकि अर्जुन आत्मा के रूप में हम सभी हैं जो ईश्वर और उसकी प्रकृति रूपी शक्ति से व्यक्त रूप में उत्पन्न होता है, उसमें ही वर्तमान होते हुए पुनः उसमें ही विलीन हो जाता है। 

उपरोक्त श्लोक में √मुह्  - मुह्यते / मोहयति के रूप में जिस धातु (verb) का प्रयोग किया गया है उसका ही अपभ्रंश है - अंग्रेजी भाषा में प्रचलित  "muse", जो कि हमें प्रवित्  के (Prophet) के रूप में क्रमशः 

Abraham, Adam, Moses, 

के रूपों में ज्ञात / प्राप्त होता है।

पुनः उपरोक्त श्लोक से अर्जुन को यह आभास हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण उसकी बुद्धि को मोहित कर रहे हों, अत एव अर्जुन उनसे अनुरोध करते हैंककि भगवान् श्रीकृष्ण उनसे निश्चयपूर्वक कुछ एक ऐसा कहें जिससे कि उसके लिए श्रेयस्कर हो । 

अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ही पुरुष के ईश्वर और जीव रूपों के द्योतक हैं। दोनों ही ईश्वर भी हैं और जीव भी हैं। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हुए हैं और "काल" के रूप में व्यक्त और अव्यक्त दोनों रूपों मे उत्तम पुरुष हैं जबकि अर्जुन "काल" में प्रकट और विलीन होते हुए व्यक्ति विशेष  भूतमात्र हैं -

अध्याय २

अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत।।

अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।

और अर्जुन ही नहीं, भीष्म और द्रोण आदि भी हम जैसे ही अव्यक्त से व्यक्त रूप में प्रकट और पुनः अव्यक्त हो जानेवाले "भूतमात्र" हैं।

दूसरी ओर भगवान् श्रीकृष्ण :

अध्याय ७

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।।

परं भावमजनन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।२८।।

अध्याय १०

(अर्जुन उवाच) 

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।।

न ही ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।१४।।

"कर्म, योग और ज्ञान"

अध्याय ३

न ही कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।

इस प्रकार से "भूतमात्र" क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता और सर्वथा अवश / बाध्य होकर, प्रकृति से प्रेरित होकर किसी, और एक ही साथ अनेक कर्मों में प्रकृति से प्रवृत्त होकर जानते या न जानते हुए भी संलग्न रहता है।

कर्म की यह प्रवृत्ति उसमें किसी ध्येय की प्राप्ति के लोभ या ध्येय को प्राप्त न कर पाने के भय से ही पैदा होती है। इसे ही इच्छा और द्वेष कहा जाता है -

अध्याय ७

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

सामान्य पुरुष इसीलिए इच्छा और भय के वश में हुआ उसकी बुद्धि के अनुसार विभिन्न कर्मों का अनुष्ठान करने में संलग्न रहता है। किन्तु जब उसकी बुद्धि अर्थात् चित्त शुद्ध हो जाता है तब उसे संकल्पयुक्त आरुरुक्षु मुनि कहा जाता है। तब उसके लिए योग का अनुष्ठान वह कर्म है, जो उसके चित्त को शमित / शान्त कर देता है। और उसे ही तब योगारूढ कहा जाता है जब वह संकल्पमात्र का त्याग कर देता है।

अब एक रोचक प्रश्न यहाँ यह उठता है कि संकल्पमात्र का त्याग "कैसे" होता है। 

सामान्य मनुष्य तो इच्छाओं और भयों के वश में होता है और उनसे ही परिचालित होकर विभिन्न कर्मों को करने के लिए बाध्य होता है। इच्छा और द्वेष ही बाध्यता से व्याकुल होने पर भी नित्य अनित्य के सतत चिन्तन  के बाद बुद्धि के शुद्ध हो जाने पर उसमें विवेक उत्पन्न हो जाता है और तब उसे विषयमात्र से ही वितृष्णा हो जाती है अर्थात् उसमें वैराग्य  का आविर्भाव होता है।

ऐसे ही मनुष्य को आरुरुक्षु मुनि कहा जाता है।

विवेक और वैराग्य  में दृढता से सुप्रतिष्ठित हो जाने पर और उसके समस्त संकल्पों का त्याग हो जाने पर उसे ही योगारूढ कहा जाता है।

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Saturday, May 18, 2024

कामकारतः

विवेक और बुद्धि  

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5//26, 6/31, 16/23

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किसी कविता की पंक्ति है -

जब विनाश मनुज पर छाता,

पहले विवेक खो जाता है।

विवेक क्या है? वेदान्त ग्रन्थों में "नित्य-अनित्य के चिन्तन से उत्पन्न निश्चय" को ही "विवेक" कहा जाता है। इस प्रकार का चिन्तन या तो "बुद्धि" की सहायता से किया जा सकता है, या मिथ्या और असत्य के "दर्शन" से भी हो सकता है।

जो "नित्य" है, स्थान और काल अछूता होने से यद्यपि केवल "है" किन्तु इन्द्रियगम्य, अनुभवगम्य और बुद्धिगम्य नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही बहिर्मुखी होती हैं, अनुभव स्मृति में होता है जो कि स्मृति के अस्थिर और परिवर्तनशील होने से विश्वसनीय नहीं हो सकता, या कहें कि त्रुटिरहित और असंदिग्ध रूप से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता, और बुद्धि भी स्वयं ही स्मृति पर आश्रित होती है। इसलिए "असत्य" का दर्शन ही वह उपलब्ध और एकमात्र उपाय है जिसके प्रयोग से कोई "सत्य" का जिज्ञासु मनुष्य प्रारंभ कर सकता है। "सत्य" प्रायः अज्ञात और अप्रकट भी हो सकता है। एकमात्र "सत्य" जिसे हर कोई अनायास, असंदिग्ध और स्वाभाविक रूप से जानता है, वह है :

"अपने अस्तित्व का भान"

और केवल मनुष्य ही नहीं छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रत्येक  जीव में यह "भान" होता ही है किन्तु चूँकि यह शरीर और मन को जोड़नेवाली एकमात्र कड़ी होता है इसलिए प्रत्येक प्राणी में मृत्युभय होता है। उसमें इस "भान" के जागृत होने के बाद ही स्वयं को शरीर-विशेष के रूप में स्वीकार कर "मैं" की भावना के माध्यम से ही जगत में जगत से भिन्न एक पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व से युक्त जीव मान लिया जाता है। 

इसके बाद जगत में इन्द्रियों के अनुभव से अपने आपको सुख और दुःख से युक्त उनका भोग करनेवाला भी। अनुभवों के क्रम की स्मृति से ही "बुद्धि" उत्पन्न होती है और पुनः "बुद्धि" में ही सुखप्राप्ति की आशा अर्थात् लोभ और दुःखप्राप्ति की आशंका अर्थात् भय उत्पन्न हो जाते हैं और इसलिए जन्म से ही प्रत्येक प्राणी सुख की इच्छा से और दुःख के द्वेष से युक्त होता है -

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।। 

(अध्याय ७)

चूँकि हर कोई प्रकार की इच्छा तथा द्वेष से युक्त बुद्धि से मोहित होकर ही जन्म लेता है इसलिए उस पर कविता की उपरोक्त कविता की दूसरी पंक्ति -

"पहले विवेक मर जाता है।"

लागू ही नहीं होती। किन्तु वह मनुष्य जिसने "अनित्य" अर्थात् "मिथ्या" का दर्शन कर लिया हो उसमें ही ऐसा "विवेक" जागृत हो चुका होता है, जिसकी कभी मृत्यु ही नहीं हो सकती है। 

काल और स्थान का अनुभव ऐसा ही एक प्रतीति या अनुभव है जो सतत रूप बदलता रहता है। किसी घटना से "काल" की प्रतीति होती है । स्थान का अस्तित्व काल से, और काल का स्थान से बाधित अवरुद्ध नहीं होता।अर्थात् कितना भी लघु या दीर्घ काल हो किसी न किसी स्थान पर होता ही है। इसी प्रकार कोई भी स्थान अवश्य ही काल की प्रतीति से रहित नहीं होता है। इसलिए ये दोनों ही मूलतः तो एक ही अस्तित्व के दो भिन्न आभास हुआ करते हैं किन्तु "बुद्धि" में ही उन्हें पृथक् पृथक् दो अलग अलग वस्तुएँ मान लिया जाता है। इस प्रकार की मान्यता ही "नित्य" पर "अनित्य" के आरोपित हो जाने की या कल्पित घटना होती है। 

"सत्य" - समस्त आभासी घटनाओं की पृष्ठभूमि में सदा और सर्वत्र अविकारी प्रकट वह "वास्तविकता" है, जो न तो आभास को प्रभावित करती है, और जो न आभास से प्रभावित ही होती है। जो प्रकटतः या अप्रटतः भी वास्तविक है, उस पर किसी आभास को आरोपित किए जाने पर उसे जिस रूप में जाना जाता है, वह रूप ही "असत्य" या "मिथ्या" होता है। किन्तु अपरिपक्व बुद्धि में इसे अस्तित्वमान कहा और माना जाता है। 

पातञ्जल योगदर्शन के सूत्र 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

के अनुसार "प्रमाण" तीन प्रकार का हो सकता है -

प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियगम्य संवेदन -जैसे ऊष्ण या शीतल, मधुर, कटु, तिक्त, लवण, कषाय या अम्ल। इस पर कोई मतभेद नहीं होता।

अनुमान जो कोई इन्द्रिय अनुभव होने से पहले और बाद में बदल सकता है। जैसे सफेद रंग के चूर्ण को देखने पर उसके बारे में यह अनुमान किया जाता है कि वह नमक का चूर्ण है या शक्कर का,  - जो कि उसका स्वाद ग्रहण करने के बाद बदल सकता है। जब उसका स्वाद ग्रहण कर लिया जाता है तो इसकी पुष्टि हो जाती है कि वह पदार्थ नमक है या शक्कर है। इस प्रकार प्राप्त त्रुटिरहित निश्चय के आगमन को आगम कहा जाता है। दूसरी ओर, आत्मा क्या है इसे भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमन या आगम के माध्यम से "सिद्ध" किया जा सकता है, अर्थात् इसकी पुष्टि की जा सकती है।

संस्कृत भाषा में "आत्मा" पद का प्रयोग "मैं" या "स्वयं" के अर्थ में किया जाता है। इस प्रकार मैं मनुष्य हूँ, पुरुष या स्त्री, बालक, युवा या वृद्ध, स्वस्थ या अस्वस्थ आदि हूँ आदि वाक्यों से प्रत्यक्षतः अपने को इंगित किया जाता है, जिसे औपचारिक या व्यावहारिक रूप में "सत्य" मान लिया जाता है।

साथ ही, "मैं सुखी, दुःखी, संतुष्ट, असंतुष्ट, संशयग्रस्त, निर्भय या भयग्रस्त, बुद्धिमान, मंदबुद्धि या अल्पबुद्धि हूँ" आदि के प्रयोग के द्वारा "स्वयं" के अस्तित्व को मन के स्तर पर इंगित और स्वीकार कर लिया जाता है।

यहाँ तक भी "बुद्धि" का कार्य संभव है। किन्तु जैसे ही कोई कहता है -

"मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, कुछ सूझ ही नहीं रहा है, मैं समझ नहीं पा रहा, वैसे ही वह "बुद्धि" की सीमा को पार कर लेता है और ठीक इसी क्षण उसमें  "विवेक" का उन्मेष या प्रादुर्भाव हो जाता है। केवल प्रमाद या अनवधानतावश  (due to In-attention only) ही वह फिर एक बार "बुद्धि" में लौट आता है और उसमें "विवेक" की जो क्षणिक कौंध उठी थी, उसे चूक जाता है। इसलिए बुद्धि से ही सही, "असत्य" और "मिथ्या" क्या है इसका तो प्रकटतः "दर्शन" किया जा सकता है, किन्तु "सत्य" का दर्शन इस प्रकार बुद्धि के माध्यम से संभव नहीं है।

जब तक बुद्धि कार्य करती है तब तक संकल्प के रूप में "मैं" भी अस्तित्वमान बना रहता है। यद्यपि यह निरंतर ही किस प्रकार परिवर्तित भी होता ही रहता है जिसका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। एक ओर यह सतत और निरन्तर विकारशील (changing) "मैं" होता है, तो दूसरी ओर इसकी पृष्ठभूमि में, और वह पृष्ठभूमि ही चेतना / consciousness  के रूप में वह अविकारी (immutable) "मैं" भी होता है जो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण होता है। अनवधानता (In-attention) का निवारण होते ही इसे ही अवधान (attention) के रूप में नित्य विद्यमान प्रकट "सत्य" की तरह जान लिया जा सकता है। इस "जानने" में ज्ञाता और ज्ञेय को एक दूसरे से अभिन्न और अनन्य की तरह देख लिया जाता है।

ऐसे दर्शन को ही  प्रज्ञा या "विवेक";

conscience / Intelligence

कहा जाता है --

तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ...

इस प्रकार की प्रज्ञा में व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित ही "ज्ञानी" अर्थात् "साँख्य" का उत्तम अधिकारी पुरुष है।

ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।  

दूसरी ओर जिस बुद्धि में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं, उसके लिए अवश्य ही योगमार्ग ही श्रेयस्कर हो सकता है।

इसी आधार पर श्रीमद्भगवद्गीता "साँख्य योग" से प्रारंभ - अध्याय २, होती है किन्तु अध्याय ३ और इसके पश्चात् योगमार्ग की शिक्षा दी गई है।

√शास् धातु का प्रयोग शिक्षा और "शासन करने", दोनों ही अर्थों में किया जाता है। इसी धातु से बना शास्त्र शब्द "विधि और विधान" के अर्थ में प्रयुक्त होता है -

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।।

न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६)

के सन्दर्भ में साँख्य शास्त्र और योग शास्त्र दोनों में से किसी एक का ही अवलम्बन ग्रहण करना पर्याप्त और अपरिहार्यतः आवश्यक भी होता है।

प्रसंगवश, 

"वर्तते" पद का प्रयोग श्रीमद्भगवद्गीता में दूसरे और दो स्थानों पर दृष्टव्य है --

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

(अध्याय ५)

तथा,

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।। 

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।३१।।

(अध्याय ६)

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Thursday, May 9, 2024

आवृतम्

3/38, 3/39, 5/14, 5/15, 5/16

अध्याय ३

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।।

गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते।।२८।।

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।२९।।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।३०।।

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।३८।।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।३९।।

अध्याय ५

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।

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This was written with a view to answer my Daily Prompt of today 09 May 2024.

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Saturday, March 16, 2024

संबंध और द्वन्द्व

पिछले पोस्ट के क्रम में --

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पिछले पोस्ट में हमने देखा कि किस प्रकार संबंध ही क्लेश है। थोड़ा सावधानी से देखें तो क्या यह पर्याप्त है? 

क्या संबंध और द्वन्द्व, विषय और विषयों का चिन्तन, अपेक्षा और चिन्तन / विचार ही क्लेश नहीं है? अपेक्षा से विचार होता है और विचार से अपेक्षा। विषयों का विचार चित्त को कल्पना या स्मृति में खींच लाता है। कल्पना भविष्य की या / और स्मृति अतीत की। दोनों ही तत्काल ही चित्त को वर्तमान के निर्विचार "जो है" से विच्छिन्न और देते हैं। विचार और विचारकर्ता भी विचार के ही दो भिन्न प्रतीत होनेवाले रूप होते हैं। विचार है तो विचारकर्ता है और विचारकर्ता है तो विचार है। दोनों कल्पना हैं न कि "जो है"!

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Friday, March 15, 2024

युज् और युध्

2/9, 18/59,

अध्याय 2 और अध्याय 18 के उपरोक्त श्लोक क्रमशः इस प्रकार से हैं --

सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

तथा,

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।

तात्पर्य यह कि जन्म होते ही प्रत्येक ही प्राणी शरीर के रूप में अपने आप को मान लेता है, और तब तत्काल ही विभिन्न विषयों से सुख या दुःख प्राप्त होगा इस भावना से उसका चित्त आविष्ट होने से वह उन विषयों की इच्छा और उनसे द्वेष आदि उसके हृदय में उत्पन्न हो जाते हैं।

यद्यपि उसके चित्त / बुद्धि में अपने अस्तित्व का भान तो होता है किन्तु उस भान से ही अपने स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, स्वामी एवं ज्ञानवान होने की भावना उत्पन्न होकर उसकी बुद्धि को भ्रमित कर देती है। शरीर के जन्म से प्रारम्भ होनेवाले इस क्रम को उसका व्यक्तिगत "प्रारब्ध" कहा जाता है।

इसी प्रारब्ध को संक्षेप में जैसा कि अध्याय ३ के निम्न श्लोक में कहा गया है,

-- "अहङ्कारविमूढात्मा" कहा जाता है --

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

मनुष्य इस प्रकार से प्रकृति से संचालित उपकरण बना रहकर प्रारब्ध के अनुसार अहङ्कार के आश्रित हुआ  सुखी या दुःखी हुआ करता है। 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

उपरोक्त दोनों श्लोकों में युज् और युध् दोनों ही धातुओं का प्रयोग दृष्टव्य है।

व्यक्तिगत प्रारब्ध और भाग्य क्या है इसे समझने के लिए इन दोनों धातुओं का प्रयोजन जानना उपयोगी है। 

संबंधमात्र द्वन्द्व है। और द्वन्द्व की स्थिति में इन दोनों का ही का महत्व है। युज् का अर्थ है युक्ति, संबंधित होना। युध् का अर्थ है अपने स्वरूप से विपरीत से संबंध होना। संबंधमात्र निर्विशेष चेतना का संग, जड विषय से होने पर होता है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।

संगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

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नायं लोकोऽस्ति

4/31, 4/40

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यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।। 

नायं लोकोऽस्त्यज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।।३१।।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

-- (अध्याय ४)

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