Kurukshetra-declaration
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अध्याय २,
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय इस ग्रन्थ की केवल प्रस्तावना मात्र है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनविषादयोगः नामक इस अध्याय में अर्जुन के विषाद को जानकर उस विषाद का निवारण करने के लिए अर्जुन को इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में साङ्ख्य-योग अर्थात् बुद्धियोग का उपदेश देते हैं क्योंकि कर्म स्वरूप से जड होने से किसी नित्यफल की प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। कर्म स्वयं अनित्य होने से जिस किसी भी फल की प्राप्ति करने के लिए सहायक होता है, वह फल स्वयं भी अनित्य ही होता है इसलिए जिसे परम समाधान को प्राप्त करने की अभिलाषा है, वह उस निष्ठा का आश्रय ग्रहण करता है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य किसी कर्म से संलग्न होता है। किन्तु मनुष्य की बुद्धि को कौन सी निष्ठा प्रेरित कर उसे कर्म करने के लिए प्रवृत्त करती है, इसे बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। कर्म परिस्थितियों, इच्छा, आशा और मनुष्य के सामर्थ्य के अनुसार ही संभव हुआ करता है, और कर्म से जो फल प्राप्त होता है वह भी चूँकि अनित्य होता है, इसलिए कर्म की आवश्यकता सदा बनी ही रहती है।
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि बुद्धि और कर्म परस्पर अत्यन्त ही भिन्न प्रकार के तत्त्व हैं, और कर्म का स्वरूप क्या है इसे तो बुद्धि से जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धि का तत्व क्या है इसे बुद्धियोग से ही जाना जाता है। कर्म नितान्त जड है, जबकि बुद्धि कर्म की अपेक्षा चेतन है। इसलिए कर्म पर बुद्धि से नियंत्रण किया जाता है, तथा बुद्धि पर विवेक अर्थात् बुद्धियोग से। अध्याय ४ में भगवान् श्रीकृष्ण इसे ही स्पष्ट करते हुए कहते हैं :
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।
पुनः अगले ही श्लोक में बुद्धि से कर्म का क्या संबंध है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं :
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।
कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है, इसे तो बुद्धि से यद्यपि जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धिमान तो वह है जो कर्म में प्रच्छन्न अकर्म को, तथा अकर्म में प्रच्छन्न कर्म को देख पाता है, जिसे इसके बाद के निम्न श्लोक में स्पष्ट किया गया है :
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।
स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत।।१८।।
कर्म का दूसरा वर्गीकरण अध्याय १८ में उनके सात्त्विक, राजस और तामस गुणों के आधार पर किया गया है :
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।२३।।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।२५।।
जैसा कि पहले कहा गया, कर्म नितान्त जड है, और किसी भी कर्म के संभव होने हेतु पाँच कारणों का उल्लेख साङ्ख्यशास्त्र अर्थात् वेदान्त शास्त्र में भी किया गया है, फिर भी दुर्मति- युक्त / दुर्बुद्धि युक्त मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त रहता है :
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
तथा सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।
पश्यत्कृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१६।।
अपने आपको कर्ता मानने-रूपी यह कर्तृत्व-बुद्धि अर्थात् :
"मैं ही कर्म का एकमात्र कर्ता हूँ",
इस प्रकार की विषम-बुद्धि को कर्ता कहा जाता है। जिस मनुष्य में इस प्रकार की कर्तृत्व-बुद्धि का अभाव होता है, और जिसकी बुद्धि "मैं कर्ता हूँ" इस प्रकार के अहंकार की भावना से लिप्त नहीं होती, यदि वह इन समस्त लोकों को नष्ट भी कर देता है, तो भी, न तो वह किसी को मारता है, न ही इस कर्म से बँधता है :
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।१७।।
कर्ममात्र की प्रेरक-बुद्धि के तीन कारक-तत्व --
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।
इस प्रकार कर्म के तत्त्व को बुद्धि से जाना जा सकता है, और तदनुसार कर्म का अनुष्ठान करना ही कर्म-योग है। बुद्धियोग में इस प्रश्न पर ध्यान दिया जाता है कि समस्त ही कर्म जिन मुख्य पाँच कारणों से होते हैं वे कारण कौन कौन से हैं? जैसा उपरोक्त श्लोक १४ में कहा गया, प्रथम तो है अधिष्ठान अर्थात् चेतना या अस्तित्व का सहज स्वाभाविक भान जो किसी पिण्ड में चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही संभव है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही किसी पिण्ड में अपने एवं अपने से इतर का विभाजन अहं-इदं के रूप में संभव होता है।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।
(अध्याय २)
तात्पर्य यह कि सत् और चित् एकमेव सत्य हैं।
सत् अर्थात् जो है, उसे जाननेवाला भी कोई है, अन्यथा जो है, उसके होने का क्या प्रमाण होगा! इसी प्रकार इस जानने अर्थात् बोध का अस्तित्व भी अवश्य है। यदि इसका अस्तित्व न हो तो सत् के अस्तित्वमान होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होगा!
इसलिए सत् ही चित् अर्थात् सत् का भान या बोध है, और इस भान या बोध का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है।
यही सत्-चित् ब्रह्म है, क्योंकि इसे जाननेवाला इससे भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता। एकमेवोऽद्वितीयः।
इस एकमेव और अद्वितीय की अपरोक्षानुभूति ही साङ्ख्यज्ञान या साङ्ख्यनिष्ठा है। जबकि कर्म-योग के अभ्यास / अनुष्ठान में मनुष्य स्वयं को कर्म का कर्ता मान्य कर लेता है और उसे इसका आभास भी नहीं होता है कि यह मान्यता स्वयं ही एक बड़ी भूल है।
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