Saturday, December 31, 2022

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो

अष्टावक्र गीता --

अध्याय 3, श्लोक 9 :

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।९।।

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श्रीमद्भगवद्गीता --

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।।२०।।

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Thursday, December 29, 2022

प्रज्ञा और स्थितप्रज्ञ

सन्दर्भ : अष्टावक्र गीता अध्याय ३

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उद्भूतंज्ञानदुर्मित्रमवधार्याति दुर्बलः।।

आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः।।७।।

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जिसे योग की प्राप्ति ही हुई है, और जिसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है, - अर्थात् आरुरुक्षु और योगारूढ मुनि का वर्णन अध्याय ६ में इस प्रकार से है :

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।३।।

अष्टावक्र गीता के उपरोक्त उद्धृत श्लोक में इस पर आश्चर्य व्यक्त किया गया है कि काम आत्मज्ञान का शत्रु है, एवं अन्त-काल भी समीप ही है, इसे जान लेने के बाद भी कोई वृद्ध, दुर्बल मनुष्य विषयों के उपभोग के प्रति कैसे लालायित रह सकता है!

जब तक मुमुक्षु मनुष्य योगारूढ नहीं हुआ होता, मोक्ष या ज्ञान के लिए उसके द्वारा जो प्रयास किए किए जाते हैं वह कर्म-योग है, किन्तु योगारूढ होने पर उसमें कर्तृत्व की भावना का अभाव हो जाने पर भी प्रारब्धवश उसके द्वारा कुछ न कुछ, कोई कर्म होता ही है।

संसार में चार ही प्रकार के मनुष्य हैं। प्रथम तो वे जो इस संसार में सांसारिक पदार्थों और उनसे मिलते हुए प्रतीत होनेवाले सुखों की प्राप्ति को ही जीवन का एकमात्र ध्येय मानते हैं। और इस हेतु जो किया जाना उन्हें आवश्यक प्रतीत होता है, उसे ही करने का यत्न करते रहते हैं। किसी ईश्वर की तो जब वे कल्पना तक नहीं करते, तो उसका स्वरूप क्या है, और उसकी प्राप्ति के बारे में सोचने का तो सवाल ही उनके मन में नहीं उठता। 

दूसरे वे, जो किसी परमात्मा को ही संसार का सृष्टा, परिपालक और संहारकर्ता मानते हैं, और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उसकी आराधना करते हुए संसार में सदा सुख ही प्राप्त हो, यह आशा करते हैं। वे अपने, और अपने समुदाय की परंपरा आदि के अनुसार कोई ध्येय तय कर लेते हैं और उनके लिए शास्त्र ही इसका आधार होता है।

तीसरे वे, जो उस परमात्मा के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा और अन्वेषण करते हैं। और उसकी प्राप्ति अर्थात् उसका किसी न किसी रूप में दर्शन करने की आकांक्षा उनमें होती है। 

चौथे वे जिन्हें परमात्मा / ईश्वर के होने या ना होने के विषय में  संशय या अनभिज्ञता अनुभव होती है, जबकि ईश्वर की अपेक्षा अपने आपका अस्तित्व, उन्हें प्रकटतः प्रत्यक्ष और साक्षात् सत्य जान पड़ता है।

उपरोक्त सभी प्रकार के मनुष्य नित्य-सुख की प्राप्ति की इच्छा से ही समस्त साधन करते हैं। यद्यपि उन्हें सुख का अनुभव और प्रतीति भी होती है, किन्तु नित्य और अनित्य के भेद पर न तो उनका ध्यान जाता है, न उनकी बुद्धि ही इतनी स्पष्ट स्थिर और परिपक्व होती है कि वे इस बारे में चिन्तन करते हुए नित्य और अनित्य के भेद के विवेक को जागृत करने के लिए आवश्यक अभ्यास कर सकें। 

किन्तु जिनमें भी किसी भी कारण से इस प्रकार के अभ्यास की प्रवृत्ति होती है, ऐसे मुमुक्षु ही आरुरुक्षु अथवा योगारूढ हो पाते हैं। ऐसे ही अपरिपक्व आरुरुक्षु के संबंध में यह प्रश्न हो सकता है : यह आश्चर्य है कि काम ज्ञान का शत्रु है, देह वृद्ध और दुर्बल है तथा अन्तकाल समीप ही है, इसे जानते हुए भी वे विषयों के उपभोग (कामना) की लालसा से ग्रस्त होते हैं।

यह संभवतः प्रारब्धवश, या कर्तृत्व और भोक्तृत्व की भावना के अत्यन्त क्षीण हो जाने पर भी हो सकता है।

किन्तु योगारूढ के संबंध में ऐसा प्रश्न नहीं उठ सकता। 

आरुरुक्षु स्थिति से योगारूढ स्थिति तक की प्राप्ति के बीच की अवस्था के लक्षण को, निम्न श्लोकों में देखा जा सकता है :

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। ५२।।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते तदा स्थास्यति निश्चला।।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।५३।।

(अध्याय २)

तब अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछते हैं :

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा  समाधिस्थस्य केशव।। 

स्थितधीः कि प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।५४।।

और भगवान् श्रीकृष्ण तब अर्जुन से स्थितप्रज्ञ और आरुरुक्षु के वर्षों को कहते हैं। यद्यपि आरुरुक्षु योग / समाधि को प्राप्त कर चुका होता है, किन्तु इन्द्रियाँ बल-पूर्वक किस प्रकार से खींचकर उसे विषयों में और उनके भोगों में प्रवृत्त कर देती हैं जिससे वह पुनः उस स्थिति में लौट जाता हैं जहाँ कुछ समय के लिए वह पूर्व-संस्कारों के वशीभूत हो जाता है।

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Sunday, December 25, 2022

The Zen and Samurai.

ध्यान, युयुत्सु और युद्ध-कला 

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Zen, Ju-jutsu and Martial Arts.

Whatever intuition I have, wakes up and wakes me up around at the right moment when it's most needed.

I began studying Gita in 1968, when I was 15 years of age. Just to have a preliminary and introductory understanding of what Gita is.

Basically I was just curious and had no idea or opinion what Gita was about and where shall I be, having gone through this book. In a way, I felt about Gita like kind of any other  text-book of a subject that I had to study in and during my student-life.

The very first verse took me by grip and I had to contemplate a lot to comprehend its  meaning and sense.

Because of reasons beyond my knowledge, I have been trained in the way of learning the scriptures in and according to the recitation. (Only later on I realized how fortunate I was to follow this way of practicing the Dharma.)

I thought of and pondered over exactly what the word Dharma in Gita might have meant. But that didn't help me much.

Then I tried to understand the text according to its storyline. That was however easier and interesting also.

The whole chapter 1 narrates the storyline in a nutshell.

Then I had to go slowly. The second chapter is truly the turning point. A road-block and also a block-buster too. 

The genre, the text had in the chapter second was altogether almost quite different from and onwards the third chapter.

As is the way of the intellectual, I felt as if I was caught into an intellectual labyrinth.

Exactly after 25 years, as if chalked out and pre-destined, I could discover and feel, what I could say; the comprehensive, the whole approach and the understanding of this text might be. I felt my understanding was quite appropriate, in line, and suited with the way  Adi Shankaracharya has explained in His commentary in Gita :

श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य / Gita Bhashya.

He beautifully relates and connects all the threads in chapter 18.

In between, and during my college days I tried to delve deeper into philosophies and 'ism-s' and the same pushed me into  dark even more, and fortunately I could rescue myself after a short stint there in time.

I already had with me a copy of ;

J. Krishnamurti's 

"Poems and Parables" ,

Which helped me in understanding how :

"Ideals are Brutal Things." is true. 

But the interesting part of all this exercise is, I found out a "pattern" where I could relate all these old / new notions and concepts that often hinder :

The Exploration into the Reality.

Again, while pondering over the words

युयुत्सवः / युयुत्सु -- yuyutsu (ju-jutsu?) and ध्यान -- Zen, by chance, I seriously felt that Japanese Religion, language, culture, tradition are so  greatly influenced by the doctrine of Gita.

Lord Shrikrishna was no doubt the Hero of the text, yet He too had (to play) a role in the war that took place in Kurukshetra.

As an individual person like Arjuna, due to circumstances only, He too was pushed into this war.

He was only the charioteer, not a warrior as such. Still He was the convener indeed. He did not take part in the war, yet everything that had any role in the war, was controlled and ordained by His order and Intelligence.

And there, He was this spontaneity about the war.

While Arjuna was ridden with conflict and was just unable to decide what is his duty or the Dharma, Lord Shrikrishna helped him in removing his doubt and in overcoming the conflict.

So,  in a way Arjuna could be likened to the Samurai that could commit "Hara-kiri"; the ultimate sacrifice done by a warrior while performing his duties.  An honorable and adorable death that takes one to the gates of heaven.

This Hara-kiri is no escape from the war but also an act of the Self-respect, --a ritual too.

So a Samurai does not commit suicide, but observes the duty,  - the Dharma.

In Sanskrit; the words war (युद्ध) and yoga (योग) could be conveniently derived from the root-verb

√युज्- युज्यते,  √युध् - युध्यते..

युज्यस्व 2/38, 2/50,

युध्यस्व, 2/18, 3/30, 11/34,

युयुत्सवः , युयुत्सुम् 1/28, 

योगः कर्मसु कौशलम् ।। 2/50

1/4, 2/38, 2/50,

समर ~ samara in Sanskrit means Battle / War.

May be Samurai is a cognate! 

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Thursday, December 22, 2022

न जायते म्रियते वा कदाचिन्

नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः.. 
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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 का यह श्लोक इस प्रकार से है :
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः।।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२०।।
कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली २ में यही श्लोक निम्नलिखित रूप में पाया जाता है:
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न भभूत कश्चित्।।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।१८।।
कदाचिन्नायं -- कदाचित् न अयं,
विपश्चिन्नायं -- विपश्चित् न अयं,
'कदाचित्' अर्थात् किसी भी काल में, क्योंकि काल स्वयं जो कि एक ओर जहाँ क्षणजीवी की तरह से अस्तित्वमान और विलीन होता हुआ जान पड़ता है, दूसरी दृष्टि से वही अजन्मा, अजर, अमर, शाश्वत्, गौण नित्य भी है, ऐसा भी समझा जा सकता है। किन्तु काल का यह स्वरूप बुद्धि के सक्रिय हो उठने पर, उसके पश्चात् ही जाना जाता है। दूसरी ओर, यह तर्क कि भी इतना ही महत्वपूर्ण है कि बुद्धि स्वयं भी किसी न किसी काल में ही तो उदित / जाग्रत होकर पुनः पुनः विलीन होती रहती है। वस्तुतः काल और बुद्धि का संपूर्णतः एकमेव युगपत् अस्तित्व है और उनमें किसी भेद का होना संभव नहीं है।
'विपश्चिन्नायं' में विपश्चित् का अर्थ हुआ - वि पश्चित् । पश्च से बने शब्द past, post 'बाद में' के द्योतक हैं। जबकि पहले / बाद में, काल या बुद्धि के सन्दर्भ में ही हो सकते हैं।
विपश्चित् का दूसरा अर्थ है जिस किसी ने भी उस अजर अमर नित्य शाश्वत को जान लिया है, उसके इसे जान लिए जाने के बाद वह अपने आपको जिस प्रकार से समझता है।
कठोपनिषद् से उद्धृत उपरोक्त श्लोक में इसलिए विपश्चित् शब्द सर्वथा उपयुक्त है। इसी प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता से जिस श्लोक को उद्धृत किया गया है, उसमें भी 'कदाचित्' शब्द स्थान और प्रसंग के सर्वथा अनुकूल है।
इसके पूर्व के श्लोकों से भी यह स्पष्ट है :
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युद्धस्व भारत।।१८।।
य एवं वेत्ता हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

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Saturday, December 3, 2022

अथवा बहुनैतेन

किं ज्ञातेन तवार्जुन ...।।

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Shrimadbhagvad-gita 10/42

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।

This Manifest World and the consciousness,  the one who observes the world is verily The Lord Himself.

What-so-ever that is claimed by the Physicist is supported by the underlying Reality only, that is ever so Immortal, Inherent Timeless and Unique Consciousness only.

This following link given here sums up quite well as is narrated in the stanza 10/42 of the Text 

श्रीमद्भगवद्गीता :





Sunday, November 20, 2022

ज्ञानं विज्ञानसहितं

ज्ञान और विज्ञान 

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अध्याय ९

श्री भगवानुवाच --

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्नसूयवे।।

ज्ञानं विज्ञानसहितं

यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१।।

संसार में और प्रकृति में अर्थात् अपरा प्रकृति में दो ही प्रकार के लक्षणवाली वस्तुएँ तत्व हैं। जड और चेतन। यह अनुभव / ज्ञान जिसे है -- वह तो चेतन है, और उसमें स्वयं अपना संवेदन जिस भी "मैं" भाव, विचार, अथवा भावना के माध्यम से होता है उसे अहंकार, अहं-वृत्ति, अहं-संकल्प, अहं-प्रत्यय आदि कहा जाता है। अहंकार का अस्तित्व भी क्रमशः अव्यक्त और व्यक्त इन दो प्रकारों में एक ही चेतना (consciousnesses) के सुप्त और जाग्रत प्रकार हैं। जब किसी जैव-प्रणाली में चेतना अभिव्यक्त होती है, तो चेतना इन्हीं दोनों रूपों में अप्रकट और प्रकट होती है। एक ऐसी चेतन जैव-प्रणाली में ही अपने स्वयं के चेतन होने का ज्ञान जाग्रत होता है और इस ज्ञान से अपने संसार में कुछ वस्तुओं को वह अपने ही जैसा चेतन, जबकि शेष को अपने से भिन्न प्रकार का अर्थात् अचेतन या जड समझने लगता है। इस प्रकार जीवन सदा और अपरिहार्यतः भी इस ज्ञान का एक और नाम है। किन्तु जीवन उस प्रकृति अर्थात् समस्त जगत् को भी कहा जाता है जिसमें अपने जैसी अनेक जड और चेतन वस्तुएँ भी हैं। इस प्रकार प्रत्येक चेतन वस्तु में अहंकार होता है, जो कि उसे प्रतीत होनेवाली समस्त जड वस्तुओं को जड प्रकृति, और चेतन वस्तुओं को चेतन प्रकृति में विभाजित कर लेता है।

बुद्धि का प्रस्फुटन और फिर विकास होने पर अहंकार-युक्त उस चेतन में भाषा की उत्पत्ति होती है। विभिन्न अनुभवों को स्मृति में क्रमबद्ध करने पर काल / समय का आभास भी इस ज्ञान में गौण / आनुषंगिक रूप से विद्यमान होता है।

यद्यपि वह काल के स्वरूप को नहीं समझ पाता है, फिर भी वह विभिन्न प्रत्यक्ष घटनाओं में काल के किसी स्वाभाविक क्रम की पहचान कर उसे स्मृति से  समायोजित कर लेता है जो कि उसे उसका अपना जीवन परिभाषित करने में और उसे जीने के लिए पर्याप्त सहायक होता है।

भाषा की उत्पत्ति के बाद वह इस प्रणाली को अपनी बुद्धि की सहायता से और भी व्यवस्थित परिष्कृत और क्रमबद्ध कर लेता है। यह ज्ञान है। यह ज्ञान मनुष्य में अन्य जीवों की तुलना में कुछ भिन्न प्रकार से विकसित होता है और वह निरन्तर इसे और भी अधिक परिवर्धित करते हुए कल्पना कर लेता है कि किसी समय वह ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त कर लेगा जिसे वह परम सत्य कहता है।

इस ज्ञान में अन्तर्निहित इसके तीन तत्व वैसे तो ज्ञाता, ज्ञेय तथा उनको परस्पर संबंधित करनेवाली जानकारी हैं, किन्तु सामान्य रूप से "ज्ञान" शब्द को जानकारी के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। यह जानकारी जिसे होती है उसे ज्ञाता कहा जाता है। जिस विषय में यह जानकारी होती है उस विषय को ज्ञेय कहा जाता है तथा इस जानकारी को ज्ञान।

प्रकृति में जो असंख्य घटनाएँ घटती हैं, और वे किसकी प्रेरणा से घटित होती हैं इसे जानना ही विज्ञान है। विज्ञान के अन्तर्गत जिन विषयों को जाना जाता है और उनके मध्य कारण-कार्य का क्या संबंध है यह इस मान्यता पर आधारित है कि चूँकि इन असंख्य घटनाओं में एक अत्यन्त सुचारु व्यवस्था है, इसलिए उनके मूल में अवश्य ही कोई प्रखर प्रज्ञा (Intelligence) है।  विज्ञान इसलिए कारण-कार्य के जिन वैश्विक, सार्वत्रिक और सार्वकालिक सिद्धान्तों का आविष्कार करता है, उन्हें निरन्तर ही और आगे बढ़ाया जाना होता है और शायद यह एक अन्तहीन प्रयास है।

यह प्रयास भी, जो कि कर्म ही है, उन्हीं कारणों से प्रारंभ होता है, जिनसे सभी प्रकार के कर्मों का प्रारंभ होता है और जिसके बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८ में इस प्रकार से कहा है :

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।

इस प्रकार चेतन ज्ञानयुक्त अहंकार में कर्तृत्व का विचार उत्पन्न होता है और तब उसकी बुद्धि में अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने का विचार जन्म लेता है। चूँकि किसी कर्म के संपन्न हो सकने में मूलतः पाँच निमित्त संयुक्तरूप से मिलकर ही उसे पूर्ण करते हैं इसलिए इसी अध्याय १८ के पिछले श्लोक १६ में अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने की बुद्धि को दुर्मति कहा गया है :

तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।

पश्यत्कृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति।।१६।।

अतः यह तथाकथित विज्ञान जो कि केवल विषयपरक ज्ञान (objective knowledge / information) के अन्तर्गत ही परम ज्ञान की प्राप्ति करने की आशा रखता है, अध्यात्म के उस विज्ञान से अनभिज्ञ रह जाता है जो कि चेतनता और चेतना के स्वरूप का अन्वेषण करता है।

श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा इस अर्थ में सरल और विशिष्ट है कि यह मनुष्य की दो प्रकार की स्वाभाविक निष्ठाओं, साङ्ख्य-योग और कर्म-योग की निष्ठाओं के अनुसार मनुष्य के उसके अपने लिए अनुकूल आध्यात्मिक मार्ग को दर्शाती है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

चूँकि इन दोनों निष्ठाओं से प्राप्त होनेवाला फल एक है, इसलिए उनमें परस्पर विरोध भी नहीं है।

सङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकः साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

अध्याय ५ से भी यही सिद्ध होता है। 

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Sunday, November 13, 2022

निष्ठा, बुद्धि, आस्था और संकल्प

Consciousness and Perception,

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The Text Shrimadbhagvad-gita begins at the battlefield of Kurukshetra where Arjuna was tormented by the great sadness, conflict and agony of fighting against his own family, his  very own kith and kin.

In the Chapter 2, However Lord Shrikrishna explains to him the essence of :

Intelligence (प्रज्ञा),

Awareness (चैतन्य),

Consciousness (चेतना),

Perception (संवेदन),

Conscience (विवेक),

Conviction (निष्ठा),

Intellect (बुद्धि),

Thought (विचार, संकल्प)

Conditioning (आस्था) 

And finally;

The Action (कर्म),

In that order.

This Great Text is only a part of a Chapter from the Great Epic महाभारत  / Mahabharata, from a section भीष्म-पर्व / Bhishma-Parva.

Of this Bhishma-Parva, the chapters 25 to 42  together are titled Shrimadbhagvad-gita.

All these texts like The Veda वेद, The Purana पुराण Mahabharata इतिहास and Mahabharata is said to have been authored by the Great Sage Maharshi Veda-Vyasa  महर्षि वेदव्यास .

The name Maharshi Veda-Vyasa is again may be a title only of one who is perfectly well-versed in the scriptural / the Supreme knowledge, and may not strictly point out to one single individual.

Again, irrespective of the fact, who-so-ever might have written down this text, it is also said that the Sage Veda-Vyasa narrated the same to him. Likewise, the one who-so-ever might have noted down this in script, is said to have the name (The Lord) Ganesha / गणेश.

These titles do suggest that the author who narrated, and the person, -one who scripted, might be a Sage and a Divine Element in that order.

So even if, the text Gita might have been so narrated by the Great Sage Veda-Vyasa to Lord Ganesha, it was there as a theme in the mind of the Sage which He spontaneously and slowly developed in the style and form of a story.

These ancient people of wisdom knew and understood what they conveyed to the other people around them and the scriptures then were recorded in their memory and in the written form also.

This might be understood the Genesis of this text Shrimadbhagvad-gita.

In the Chapter 2 the theme is the Sankhya Principle (साङ्ख्य- सिद्धान्त) of Wisdom (तत्व) that was the only connecting thread of the whole text, -till the Chapter 18 of this concise and essence development Shrimadbhagvad-gita.

Even more so, there is One typical verse / श्लोक, No. 49 of this Chapter 2, that could be referred to be as the essential theme itself.

This is :

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

Where it has been declared that the very conviction (निष्ठा) an aspirant may have, is of the two kinds :

Sankhya (साङ्ख्य) and Karma (कर्म) .

This is how aspirants (seeker of the truth)  differ from one to another.

In the next chapters the same point has been dealt with in details.

Shrimadbhagvad-gita is therefore kind of a Declaration made at this battlefield that is otherwise Kurukshetra indeed, where the  battle was Mahabharata was fought between the Princes of Kuruvansha.

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Saturday, November 12, 2022

कुरुक्षेत्र-घोषणा

Kurukshetra-declaration 

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अध्याय २,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय इस ग्रन्थ की केवल प्रस्तावना मात्र है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनविषादयोगः नामक इस अध्याय में अर्जुन के विषाद को जानकर उस विषाद का निवारण करने के लिए अर्जुन को इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में साङ्ख्य-योग अर्थात् बुद्धियोग का उपदेश देते हैं क्योंकि कर्म स्वरूप से जड होने से किसी नित्यफल की प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। कर्म स्वयं अनित्य होने से जिस किसी भी फल की प्राप्ति करने के लिए सहायक होता है, वह फल स्वयं भी अनित्य ही होता है इसलिए जिसे परम समाधान को प्राप्त करने की अभिलाषा है, वह उस निष्ठा का आश्रय ग्रहण करता है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य किसी कर्म से संलग्न होता है। किन्तु मनुष्य की बुद्धि को कौन सी निष्ठा प्रेरित कर उसे कर्म करने के लिए प्रवृत्त करती है, इसे बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। कर्म परिस्थितियों, इच्छा, आशा और मनुष्य के सामर्थ्य के अनुसार ही संभव हुआ करता है, और कर्म से जो फल प्राप्त होता है वह भी चूँकि अनित्य होता है, इसलिए कर्म की आवश्यकता सदा बनी ही रहती है।

इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि बुद्धि और कर्म परस्पर अत्यन्त ही भिन्न प्रकार के तत्त्व हैं, और कर्म का स्वरूप क्या है इसे तो बुद्धि से जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धि का तत्व क्या है इसे बुद्धियोग से ही जाना जाता है। कर्म नितान्त जड है, जबकि बुद्धि कर्म की अपेक्षा चेतन है। इसलिए कर्म पर बुद्धि से नियंत्रण किया जाता है, तथा बुद्धि पर विवेक अर्थात् बुद्धियोग से। अध्याय ४ में भगवान् श्रीकृष्ण इसे ही स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

पुनः अगले ही श्लोक में बुद्धि से कर्म का क्या संबंध है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है, इसे तो बुद्धि से यद्यपि जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धिमान तो वह है जो कर्म में प्रच्छन्न अकर्म को, तथा अकर्म में प्रच्छन्न कर्म को देख पाता है, जिसे इसके बाद के निम्न श्लोक में स्पष्ट किया गया है :

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।

स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत।।१८।।

कर्म का दूसरा वर्गीकरण अध्याय १८ में उनके सात्त्विक, राजस और तामस गुणों के आधार पर किया गया है :

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।।

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।२३।।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।२५।।

जैसा कि पहले कहा गया, कर्म नितान्त जड है, और किसी भी कर्म के संभव होने हेतु पाँच कारणों का उल्लेख साङ्ख्यशास्त्र अर्थात् वेदान्त शास्त्र में भी किया गया है, फिर भी दुर्मति- युक्त  / दुर्बुद्धि युक्त मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त रहता है :

पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।

तथा सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।

पश्यत्कृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१६।।

अपने आपको कर्ता मानने-रूपी यह कर्तृत्व-बुद्धि अर्थात् :

"मैं ही कर्म का एकमात्र कर्ता हूँ",

इस प्रकार की विषम-बुद्धि को कर्ता कहा जाता है। जिस मनुष्य में इस प्रकार की कर्तृत्व-बुद्धि का अभाव होता है, और जिसकी बुद्धि "मैं कर्ता हूँ" इस प्रकार के अहंकार की भावना से लिप्त नहीं होती, यदि वह इन समस्त लोकों को नष्ट भी कर देता है, तो भी, न तो वह किसी को मारता है, न ही इस कर्म से बँधता है :

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।१७।।

कर्ममात्र की प्रेरक-बुद्धि के तीन कारक-तत्व -- 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।

इस प्रकार कर्म के तत्त्व को बुद्धि से जाना जा सकता है, और तदनुसार कर्म का अनुष्ठान करना ही कर्म-योग है। बुद्धियोग में इस प्रश्न पर ध्यान दिया जाता है कि समस्त ही कर्म जिन मुख्य  पाँच कारणों से होते हैं वे कारण कौन कौन से हैं? जैसा उपरोक्त श्लोक १४ में कहा गया, प्रथम तो है अधिष्ठान अर्थात् चेतना या अस्तित्व का सहज स्वाभाविक भान जो किसी पिण्ड में चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही संभव है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही किसी पिण्ड में अपने एवं अपने से इतर का विभाजन अहं-इदं के रूप में संभव होता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।

(अध्याय २)

तात्पर्य यह कि सत् और चित् एकमेव सत्य हैं।

सत् अर्थात् जो है, उसे जाननेवाला भी कोई है, अन्यथा जो है, उसके होने का क्या प्रमाण होगा! इसी प्रकार इस जानने अर्थात् बोध का अस्तित्व भी अवश्य है। यदि इसका अस्तित्व न हो तो सत् के अस्तित्वमान होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होगा! 

इसलिए सत् ही चित् अर्थात् सत् का भान या बोध है, और इस भान या बोध का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। 

यही सत्-चित् ब्रह्म है, क्योंकि इसे जाननेवाला इससे भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता। एकमेवोऽद्वितीयः।

इस एकमेव और अद्वितीय की अपरोक्षानुभूति ही साङ्ख्यज्ञान या साङ्ख्यनिष्ठा है। जबकि कर्म-योग के अभ्यास / अनुष्ठान में मनुष्य स्वयं को कर्म का कर्ता मान्य कर लेता है और उसे इसका आभास भी नहीं होता है कि यह मान्यता स्वयं ही एक बड़ी भूल है। 

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Friday, November 11, 2022

या निशा सर्वभूतानां

अध्याय २,

श्लोक ६९

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मेरे एक अन्य ब्लॉग में प्रकाशित पोस्ट से ---





Wednesday, November 9, 2022

संक्षिप्त गीता

श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा :--
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भगवान् महर्षि श्री वेदव्यास ने इस ग्रन्थ की रचना करते समय अर्जुन की मनःस्थिति को समझते हुए इस अत्यन्त पावन और रहस्यमय ब्रह्मविद्या का उपदेश उसे उसकी पात्रता के अनुसार प्रदान किया। अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण के इस सख्य-संवाद के माध्यम से जो उपदेश इस ग्रन्थ में प्रदान किया गया है, उसे ग्रहण करने की पात्रता जिसमें होती है उसके लिए तो यह ग्रन्थ अवश्य ही बारम्बार पठनीय है ही, किन्तु जो मनुष्य कोरा और शुष्क बुद्धिजीवी ही है, वह भी यदि इसका अध्ययन करता है तो उस पर भी अन्ततः प्रभु की कृपा अवश्य ही होगी, और वह इसे ग्रहण कर अपना जीवन धन्य कर सकेगा।
अध्याय २ में साङ्ख्ययोग का उपदेश दिया है, तो इसके बाद के अध्यायों में कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। साथ ही मनुष्य में जिन दो भिन्न प्रकारों की निष्ठा स्वाभाविक रूप से होती है, उस विषय में तीसरे अध्याय के प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वे दो निष्ठाएँ कौन सी हैं :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
दूसरे अध्याय में साङ्ख्य के तत्त्व को स्पष्ट करने के बाद तीसरे अध्याय में उपरोक्त दोनों निष्ठाओं के बारे में कहा गया। अध्याय ४ में यह स्पष्ट किया गया कि कर्मयोग जिसका उपदेश श्रीकृष्ण  परमात्मा ने प्रथम विवस्वान् को प्रदान किया था, वह विवस्वान् से मनु को प्राप्त हुआ और मनु से इक्ष्वाकु को। योग अर्थात् इस  राजयोग को जिसे साङ्ख्य-योग और कर्मयोग दोनों ही निष्ठाओं से राजर्षियों ने प्राप्त किया, वह पुरातन योग जो महान काल के प्रभाव से नष्ट हो गया, उसका ही उपदेश पुनः उन्हीं परमात्मा ने भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में अर्जुन को प्रदान किया। अध्याय ५ के प्रारंभ में इसकी ही पुष्टि इस प्रकार से की गई :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
इस प्रकार की इन दोनों निष्ठाओं से युक्त मनुष्य की बुद्धि में भी यह संशय उत्पन्न हो सकता है कि क्या श्रेयस् की प्राप्ति के लिए कर्म को त्याग दिया जाना अर्थात् कर्म-संन्यास आवश्यक है या कर्म करते हुए भी यह संभव है?
इस अध्याय ५ का प्रारंभ इसी प्रश्न से होता है :
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।। 
यच्छ्रेय एतयोरेकं तुमने ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगौ विशिष्यते।।२।।
ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी ये न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते।।३।।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
संक्षिप्त गीता को यदि इन श्लोकों में व्यक्त किया जाए तो शायद इस प्रकार से कहा जा सकता है :
अर्जुन उवाच :
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।४।।
(अध्याय ४)
श्रीभगवान् उवाच :
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा देवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न पश्यति स दुर्मतिः।।१६।।
(अध्याय १८)
अर्जुन के द्वारा पूछा जा रहा प्रश्न, उसकी इस कर्तृत्व-बुद्धि से उत्पन्न हुआ है, जब तक इस प्रकार की कर्तृत्व-बुद्धि मनुष्य में होती है वह कर्तव्यविमूढ़ रहेगा, उसके मन में यह द्वन्द्व बना ही रहेगा कि मैं क्या करूँ, तब तक वह इस संशय और अनिश्चय से ग्रस्त रहेगा ही कि मेरे लिए क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित है। अपने आपके स्वतन्त्र कर्ता होने की यह मान्यता ही मौलिक अज्ञान और विभ्रम है। साङ्ख्य अथवा योग के उपाय का आलंबन लेने पर जब उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व (की भावना और यह कल्पना) ही समस्त दुःखों का मूल और एकमात्र कारण है तो उसकी प्रज्ञा स्थिर हो जाती है अर्थात् वह समत्व-योग में स्थित हो जाता है।  

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Wednesday, November 2, 2022

शाङ्करभाष्य से उद्धृत

अध्याय ९,

श्लोक २५, २६, २७,

इस अध्याय के श्लोक २५ को शुद्ध रूप में टाइपसेट करने की सुविधा न होने से उपरोक्त की पिक्चर-फ़ाइल पोस्ट कर रहा हूँ। 

अध्याय १०,

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।२३।।

(श्लोक २३),

अध्याय १७,

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।२।।

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो ये यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।४।।

(श्लोक २, ३, ४, ५),

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Wednesday, August 17, 2022

।।भगवच्चरित्रम्।।

।।श्रीराधामाधवरहस्य।। 

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गीता, भागवत् और भगवान्

अस्ति, भाति, प्रीति

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एक दृष्टिकोण से सत्य के तीन परिप्रेक्ष्य भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक हैं, तो दूसरी दृष्टि से अस्ति भाति और प्रीति हैं।

एक ही भगवान् इन तीनों रूपों से व्यक्त और अव्यक्त है। 

उस सत्य का वर्णन भी इसलिए तीन शैलियों में पाया जाता है। 

एक है यथावत् -- जैसा कि वह है, जैसा उसका दर्शन होता है, और जिसे गेयरूप में श्रीमद्भगवद्गीता कहा जाता है।

दूसरा है रूपकात्मक -- जैसा कि वह प्रतीत होता है, और जिसे कथा अर्थात् पुराण के रूप में श्रीमद्भाग्वत महापुराण में पाया जाता है। 

तीसरा रसात्मक -- जैसा कि वह उसके क्रियाकलाप में है, प्रतीत होता है और अनुभव किया जाता है। 

वह जो है -- अस्ति वह न तो प्रतीत होता है, न उसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से देखा जा सकता है और न वह किसी क्रियाकलाप या कर्म में रत है। 

सर्वनाम की दृष्टि से इसी त्रयी को पुनः अहं, इदं तथा तत् इन पदों से जाना जाता है। 

एक अन्य आधार है माधव, माया और जगत्।

- अंग्रेजी भाषा में कहें तो :

Essence, Substance और  Presence तो, 

जैसा कि अध्याय ३ में कहा गया है  :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

तथा, अध्याय ५ में पुनः इसकी पुष्टि भी की गई है :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

पुनः अध्याय ७ में यह कहा गया है :

दैवी एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।७।।

उपरोक्त श्लोक में भी इसे तीन प्रकारों से इंगित किया गया है :

'अहं' पद का द्वितीया एक-वचन रूप 'माम्',

'इदं' पद का स्त्रीलिंग प्रथमा एक-वचन रूप 'एषा' तथा द्वितीया एक-वचन रूप 'मायां' और 'एतां' ।

इसी प्रकार से 'तत्' पद, सर्वनाम बहु-वचन प्रथमा विभक्ति 'ते'।

ऋषि भगवान की उपासना 'अहं' पद के अनुसंधान की सहायता से, साङ्ख्य के माध्यम से करते हैं, मुनि या भक्त उसी तत्त्व का ध्यान 'त्वं' या 'तत्' - ईश्वर पद की भक्ति के द्वारा, जबकि योगी कर्म और अभ्यास के माध्यम से उसी भगवान को जानने अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं।

माधव और उद्धव

उस तत्त्व को जो कि माया का स्वामी है, माधव कहा जाता है, क्योंकि माया उसी से प्रेरित होकर अपने / उसके समस्त कार्य करती है। वस्तुतः न तो कोई कर्ता है, न कार्य और चूँकि समस्त कर्म भी केवल अवधारणा ही है, उनमें से किसी का भी स्वतंत्र अस्तित्व संभव नहीं है, और क्योंकि इसलिए कर्ता, कार्य, और कर्म तीनों की ही स्वतंत्र सत्यता भी संदिग्ध है।

किन्तु जैसे ही त्रिगुणात्मिका माया के कार्य को सत्यता दी जाती है, उसे सत्यता देनेवाला 'कोई' होता है, जो इस त्रिगुणात्मिका माया के वशीभूत होता है और जिसे मनुष्य 'मैं' शब्द देता है। वह 'मैं' कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व इन चार रूपों में स्वतंत्र प्रतीत होता है। इस प्रकार वह स्वयंभू 'मैं' नित्य ही माया से उत्पन्न और उससे ही प्रेरित होकर आभासी रूप में विद्यमान प्रतीत होता है।  किसे?  - बुद्धि को और बुद्धि में। पुनः यह बुद्धि भी स्वयं अपना प्रमाण नहीं हो सकती, क्योंकि वह आभासी रूप इसे 'मेरा' कहकर स्वयं को इसका स्वामी मान्य करता है। 

इस प्रकार वह ज्ञातृत्व जो बुद्धि के रूप में क्षण-प्रतिक्षण प्रकट और विलुप्त होता है, भोक्तृत्व, कर्तृत्व तथा स्वामित्व का ही एक रूप है और यही अपने शुद्ध रूप में चिदाभास मात्र है।

जो माया का स्वामी है, वह तो माधव है, जबकि इस माया और अपने स्वामी होने की कल्पना से भी जो ऊपर उठ चुका है, वह उद्धव है।

माया का ही विस्तार से वर्णन रूपकात्मक शैली में पुराणों आदि में किया जाता है और उनमें वर्णित विषयों की सत्यता का कोई स्वतंत्र प्रमाण दिया जाना संभव नहीं है।

श्रीमद्भाग्वत् महापुराण भी अन्य पुराणों जैसा ही एक पुराण है। 

अब यदि श्रीमद्भगवद्गीता पर विचार करें तो इसमें परम श्रेयस् अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए दो ही उपायों अर्थात् निष्ठाओं का उल्लेख किया गया है और स्पष्ट किया गया है कि चूँकि इन दोनों ही निष्ठाओं का फल एक ही है, इसलिए जो जिस प्रकार की निष्ठा से युक्त होता है, वह उससे प्रेरित होकर तदनुसार इसी फल को प्राप्त कर सकता है।

वे दोनों उपाय इस प्रकार से हैं : 

ज्ञाननिष्ठा के रूप में साङ्ख्य दर्शन की रीति से आत्मानुसन्धान करना, अथवा निष्काम कर्मयोग का अनुष्ठान करते हुए समस्त कर्मों और फलों को ईश्वरार्पित कर देना।

√राध् -आराधायति से बना राधा शब्द आराधना और उपासना का द्योतक है। इस प्रकार भगवान के प्रति पूर्ण अव्यभिचारी समर्पण ही भक्ति है। 

श्रीमद्भाग्वत इसी शैली का ग्रन्थ है और इसमें राधा और माधव के, अर्थात् भक्त और भगवान के परस्पर प्रेम अर्थात् प्रीति के रहस्य का उद्घाटन किया गया है। और चूँकि यह भगवद्-तत्त्व रसात्मक है; -- रसो वै सः, इसलिए प्रवृत्तिमार्ग की साधना करने वालों के लिए बहुत अनुकूल है।

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Friday, August 5, 2022

RUMI / Are You Am I ??

Chapter 4,

Stanza : 16, 17, 18 .

This is not a comment about RUMI, 

This just occurred to me how it relates! 

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Sunday, July 10, 2022

Look-alikes.

येन सर्वमिदं ततम्... 

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अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

(अध्याय २)

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य येन सर्वमिदं ततम्।।४६।।

(अध्याय १८)

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2/17, 18/46,

Monday, June 27, 2022

जैसा संग, वैसा रंग

आज का व्हॉट्स ऐप् सन्देश

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एक मित्र ने फोटो शेयर किया :

"जैसा संग, वैसा रंग!"

मैंने रिप्लाय किया :

ध्यायतो विषयान्पुन्सो सङ्गस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते।।६२।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।६३।।

(अध्याय २)

ध्यान निर्गुण है, काम रजोगुण है, क्रोध तमोगुण है। 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।१४।।

(अध्याय ७)

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Tuesday, June 14, 2022

लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ

माम् एकम्।। 

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सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।। 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।६६।।

(अध्याय १८)

वाच्यार्थ :

समस्त धर्मों का त्याग कर मुझ एक (कृष्ण की) शरण में आओ।

शोक मत करो, मैं (कृष्ण) तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा ।

लक्ष्यार्थ :

समस्त धर्मों को त्याग कर मेरे (एकमेव आत्मा के) एक धर्म की शरण में आओ।

शोक मत करो, मेरी / तुम्हारी अपनी यह आत्मा ही तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर देगी।

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धर्म अर्थात् आचरण, -- आचरण किन्हीं परंपराओं, सुनिश्चित तौर तरीकों, सिद्धान्तों पर आधारित हो सकता है और जो आचरण किसी एक परंपरा में पुण्य है, उसे किसी दूसरी परंपरा में पाप भी माना जा सकता है। भिन्न भिन्न परंपराओं के मतभेदों को महत्व मत दो, और मेरे (आत्मा के) धर्म की शरण लो। किन्तु इसके लिए पहले, तुम्हें आत्मा का स्वरूप और धर्म क्या है इसे जानना होगा। और चूँकि यह आत्मा तो सबमें विद्यमान समान आधारभूत तत्व है, इसलिए उसे जानना और प्राप्त कर लेना ही एकमात्र ऐसा उपाय है, जिसका सहारा सभी ले सकते हैं, चाहे उनका आचरण, आचार-विचार एक दूसरे से कितना ही अलग क्यों न हो।

गीता के तात्पर्य को ग्रहण करने में जहाँ जहाँ सर्वनाम अस्मद् के रूपों :

'अहं' - प्रथमा एक-वचन - संज्ञा या सर्वनाम,

'माम्' / - 'मा' - द्वितीया एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम, 

'मया' / - तृतीया एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

'मह्यम्' / 'मे' - चतुर्थी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

'मत्' - पञ्चमी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम, 

'मम' / 'मे' - षष्ठी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

'मयि' - सप्तमी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

दृष्टव्य है कि उपरोक्त पदों को जब संज्ञा (आत्मा) माना जाता है, और तदनुसार उनका अर्थ ग्रहण किया जाता है, तो वह उस तात्पर्य से भिन्न हो सकता है, जो इन्हें सर्वनाम पद माना जाने से प्राप्त हो सकता है। 

एक बहुत अच्छा उदाहरण निम्न श्लोक में देखा जा सकता है :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

(अध्याय ४)

'मे' तथा 'अहं' पदों को संज्ञा (आत्मा) के अर्थ में या सर्वनाम के अर्थ में ग्रहण किया जाए किया जाए तो भिन्न भिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं। वाच्यार्थ की दृष्टि से आत्मा को कृष्ण (व्यक्ति विशेष) मानकर, अन्य पुरुष एक-वचन के प्रयोग के अनुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है तो अर्जुन की ही तरह उनके भी बहुत से जन्म हुए, -- ऐसा निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है । इस अर्थ की पुष्टि उक्त श्लोक में प्रयुक्त विद् -क्रियापद - 'वेद' के ल-कार से भी होती है।

'वेद' :

लट् ल-कार - अन्य पुरुष एक-वचन, या उत्तम पुरुष एक-वचन हो सकता है। 

लट् ल-कार (वर्तमान काल) में 'विद्' क्रियापद का प्रचलित रूप यह है :

वेत्ति विदतः विदन्ति -- अन्य पुरुष (Third Person)

वेत्सि वित्थः वित्थ -- मध्यम पुरुष (Second Person)

वेद्मि विद्वः विद्मः -- उत्तम पुरुष (First Person) 

और विकल्प की तरह --

वेद विदतुः विदुः - अन्य पुरुष  (Third Person) 

वेत्थ विदथुः विद - मध्यम पुरुष  (Second Person) 

वेद विद्व विद्म - उत्तम पुरुष  (First Person) 

भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। 

'वेत्थ' तो अवश्य ही मध्यम पुरुष एक-वचन ही है ।

तानि अहं वेद सर्वाणि में :

'अहं' पद का अर्थ इस प्रकार से आत्मा और व्यक्ति विशेष दोनों ही अर्थों में भिन्न भिन्न रूपों में समझा जा सकता है।

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Saturday, May 14, 2022

उद्वेग, उद्विग्नता

उद्विजेत्, उद्विजते

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न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।। 

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।२०।।

(अध्याय ५)

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यस्माद्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।। 

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।

(अध्याय १२)

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Sunday, April 24, 2022

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

।। प्रथमोप्रथमः गीतायाम् ।।

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श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम और प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार से है :

धृतराष्ट्र उवाच --

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।। 

मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

इस प्रकार एक ओर तो यह ग्रन्थ धर्म-विषयक है ही, वहीं यह कर्म-विषयक भी है। किन्तु यहाँ क्षेत्र पद का सन्दर्भ और अर्थ प्रसंगवश अध्याय १३ के प्रथम निम्नलिखित श्लोक से भी ग्रहण किया जा सकता है। यह श्लोक इस प्रकार से है --

श्रीभगवानुवाच --

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।। 

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१।।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।। 

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।

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तात्पर्य यह हुआ कि यह शरीर ही क्षेत्र कहलाता है। इस प्रकार से जो जानता है, उस जाननेवाले को तत्त्वविद् क्षेत्रज्ञ कहते हैं। पुनः, सभी क्षेत्रों में अर्थात् शरीरों में विद्यमान जो क्षेत्रज्ञ है उसे भी, हे अर्जुन! तुम मुझे ही जानो।

इस प्रकार से क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के विषय का जो ज्ञान है, वह ज्ञान ही मेरे मत में वास्तविक ज्ञान है!

यह स्थूल शरीर, पाँच स्थूल महाभूतों का, प्रकृति से बना संयोग है, और यह शरीर, जड प्रकृति  (insentient) के नियमों से परिचालित होता है। इस शरीर में विद्यमान प्राण भी इसी प्रकार जड अर्थात् insentient हैं, किन्तु इस शरीर को और शरीर में विद्यमान प्राणों को जाननेवाला, और उन्हें "मेरा" कहनेवाला, इनका ज्ञाता, जड (insentient) कदापि नहीं है, बल्कि कोई चेतन (sentient) तत्व है, जो स्वयं ही स्वयं का द्योतक और प्रमाण भी है। प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में जिस धृतराष्ट्र का उल्लेख है यद्यपि अन्धा है, किन्तु उसकी स्त्री गांधारी अन्धी न होते हुए भी केवल पति की अनुगामिनी होने से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर अन्धे की तरह रहती है।

राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार से हर उस मनुष्य का प्रतीक है जिसमें अभी विवेक जागृत नहीं हुआ है, और जिसकी बुद्धि ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। 

इस प्रकार जिसके शरीर और इन्द्रियाँ आदि यद्यपि अपने अपने धर्म का अनायास ही पालन करते हैं, शरीर रूपी राष्ट्र का स्वामी धृतराष्ट्र की तरह विवेकशून्य है। उसके एक सौ पुत्र हैं, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा या प्रमुख है। ये एक सौ पुत्र शरीर से संबद्ध मन के ही विभिन्न रूप हैं।

दूसरी ओर, पाण्डवों के रूप में पाँच भाई पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और जीवन में संघर्ष अर्थात् युद्ध में स्थिर, धीर रहनेवाला विवेक ही युधिष्ठिर है। बल भीम, तथा अर्जुन कुशल बुद्धि है। नकुल नेवले की तरह सतर्क, सावधान चपल चतुराई है, और सहदेव इनके साथ रहनेवाला सद्गुण है। 

यह संपूर्ण शरीर ही धर्म का क्षेत्र है जबकि समस्त कर्मेन्द्रियाँ कर्मक्षेत्र या कुरुक्षेत्र हैं। 

इस प्रकार मनुष्य का मन ही वह धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र है, जहाँ यह युद्ध सतत चलता रहता है। 

मामका पद का प्रयोग धृतराष्ट्र द्वारा अपने पुत्रों के अर्थ में किया गया है। धृतराष्ट्र की तरह हर मनुष्य अपने आप अर्थात् अहंकार को अपने जीवन के विधाता, स्वामी, ज्ञाता और भोक्ता की तरह स्वतंत्र मानते हुए भी सतत संघर्ष और संशय से ग्रस्त है। 

पुनः यद्यपि हर मनुष्य अपने आपको इस प्रकार से एक स्वतंत्र व्यक्ति तो मानता है, फिर भी हर कोई भविष्य से अनजान और अनभिज्ञ, आशंकित होता है।

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः इस सच्चाई की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं कि यद्यपि सभी शरीरों में विद्यमान और उनसे संबद्ध अहंकार क्षेत्रज्ञ की तरह स्वयं को एक अलग और स्वतंत्र व्यक्ति मानता है, उन सभी शरीरों / क्षेत्रों में हे अर्जुन! तुम मुझे, मुझ परमात्मा को ही सबमें विद्यमान सबका अन्तर्यामी जानो।

हे अर्जुन! इस प्रकार का क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ से संबंधित ज्ञान ही मेरे मत में वास्तविक ज्ञान है। 

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Sunday, April 17, 2022

सम्मोह, स्मृति और ध्यान

अध्याय २

ध्यायतो विषयान्पुन्सः संगस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।६२।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

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अध्याय ६

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्लमस्थिरम्।। 

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

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अध्याय ७

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

अध्याय १८

श्रीभगवानुवाच --

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।। 

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।। ७२।।

अर्जुन उवाच --

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा  त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

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जब पुरुष / मनुष्य जिस भी किसी विषय का ध्यान करता है, या जब किसी विषय पर उसका ध्यान होता है तो उसका चित्त उस विषय से जुड़ जाता है। इस प्रकार किसी भी विषय से जुड़ते ही उस विषय से संबंधित कामना जन्म लेती है और उस कामना के पूर्ण न होने से, या कामना से विपरीत, अनचाहा अनुभव प्राप्त होने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध के परिणाम से सम्मोह चित्त को अभिभूत कर लेता है। सम्मोह के प्रभाव से स्मृति का भ्रंश होकर स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति के भ्रष्ट होने का तात्पर्य है, विभिन्न स्थितियों, वस्तुओं आदि को उनके वास्तविक स्वरूप से न देखकर अन्य किसी और ही कल्पना को विषय पर आरोपित कर दिया जाता है। तब मनुष्य की बुद्धि में भी विकार उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार बुद्धि के नष्ट हो जाने से मनुष्य भी नष्ट हो जाता है। 

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चञ्चल मन जहाँ जहाँ भटकता हो, वहाँ वहाँ से उसे पुनः पुनः लौटकर अपनी आत्मा के ही वश में लाया जाना आवश्यक है, (ताकि वह विषयों से संलग्न ही न हो।)

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हे परन्तप! मनुष्य-मात्र में, जन्मजात ही (सुख-प्राप्ति की) इच्छा और (दुःख प्राप्त न हो, या दुःख से भयरूपी) द्वेष की भावना  भावना विद्यमान होती है। और उन दोनों के बीच द्वन्द्व-रूपी मोह होने से निरपवाद रूप से प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही संभ्रम-युक्त मोह से ग्रस्त होता है।

--

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा --

हे अर्जुन! मैंने तुमसे जो कुछ भी कहा, क्या एकाग्र-चित्त होकर तुमने उसका श्रवण किया? क्या तुम्हारा अज्ञान और संशय पूरी तरह से नष्ट हुआ?

अर्जुन ने कहा --

हे अच्युत! तुम्हारी कृपा के प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया और मेरी स्मृति भी दोषरहित होकर पुनः मुझे प्राप्त हो गयी। अब मेरे हृदय से सन्देह भी दूर हो गया है, इसलिए अब मैं वही करूँगा, जैसा करने के लिए तुमने मुझसे कहा है।

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Sunday, April 10, 2022

गीता में ध्यान-योग

साङ्ख्य-निष्ठा और कर्म-निष्ठा

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ज्ञान अर्थात् साङ्ख्य-ज्ञान / साङ्ख्य-योग और कर्म-योग यही दो प्रकार की निष्ठाएँ ही श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ का प्रधान विषय है। निम्न श्लोक में इसी को सूत्र-रूप में व्यक्त किया गया है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

यहाँ ज्ञान को साङ्ख्य ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान, दोनों के अर्थ में सन्दर्भ के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु ध्यान का संकेत यहाँ महर्षि पतञ्जलि-कृत योगशास्त्र के सन्दर्भ में लिया जाना, अधिक सार्थक तथा समीचीन होगा। क्योंकि किसी भी ध्यान के अभ्यास में ध्याता (अर्थात् विषयी / subject), ध्येय (अर्थात् विषय / object) और दोनों के एक-दूसरे से संबंधित होने में, ध्यान ( -विषय और विषयी का संयोग / attention) भी एक कारक (factor) तो होता ही है। इसीलिए पतञ्जलि महर्षि ने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (समाधिपाद) के प्रारंभ में ही योग को परिभाषित करते हुए :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

का उल्लेख किया है।

तृतीय अध्याय में :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

के पश्चात् धारणा, ध्यान तथा समाधि तीनों के एकत्र होने को संयम कहा है :

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

तज्जयात् प्रज्ञालोकः।।५।।

(उपरोक्त सूत्र ५ को श्रीमद्भगवद्गीता के  श्लोकों 2/54, 2/55, 2/56, 2/57, 2/58, और 2/61 के संदर्भ में ग्रहण किया जाना प्रासंगिक होगा।) 

तस्य भूमिषु विनियोगः।।६।।

इस प्रकार की भूमिका के बाद चित्त की वृत्ति पर होनेवाले तीनों प्रकारों के परिणामों - क्रमशः निरोध-परिणाम, समाधि-परिणाम तथा एकाग्रता-परिणाम के चित्त पर होनेवाले प्रभाव को स्पष्ट किया गया है। इन प्रभावों से ही पुनः चित्त के धर्म, लक्षण और अवस्था परिणामों की व्याख्या की गई है :

एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः।।१३।।

उपरोक्त विवरण यहाँ इस संबंध में महत्वपूर्ण है कि जब भक्ति (रूपी कर्म) के माध्यम से इष्ट के स्वरूप की मानसिक प्रतिमा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है उस समय भी चित्त पर (जानते हुए या अनजाने ही) उक्त परिणाम होते हैं।

पातञ्जल योगसूत्र में साधनपाद में कहा गया है :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

इसी दृष्टा का वर्णन समाधिपाद में :

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।३।।

के द्वारा किया गया है। 

सैद्धान्तिक विवेचना की दृष्टि से यह सब उपयोगी है, किन्तु यह फल तो अभ्यास से ही सिद्ध होता है, केवल कठिन और दुरूह शब्दावलि से परिचित होने मात्र से नहीं।

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Saturday, April 9, 2022

कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग

अभ्यास-योग

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वैसे तो इन दो प्रकार की निष्ठाओं के अनुसार मनुष्य ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग में से किसी एक का ही अधिकारी हो सकता है, किन्तु कोई बिरला ही इस बारे में जागरूक होता है। यह जानने से पहले प्रायः सभी मनुष्य संसार में निरंतर सुख पाते रहना एवं कष्टों से बचते रहना ही चाहते हैं। जब तक मनुष्य यह नहीं देख पाता कि सुख और दुःख परिस्थितियों और समय के साथ साथ अपना रंग-रूप बदलते रहते हैं तब तक मनुष्य सदैव सुखी रहने और दुःख से बचे रहने की लालसा से ग्रस्त रहता है। किन्तु जब उसे दुःख से बचने का कोई रास्ता दिखाई देना बन्द हो जाता है, तब वह या तो किसी भगवान, ईश्वर, देवता आदि की शरण लेता है, या संसार तब उसे सतत बदलते दिखाई देनेवाले दुःख का ही दूसरा नाम प्रतीत होता है। इस स्थिति में भी भगवान, ईश्वर या देवता कौन / क्या है, यद्यपि इसकी भी उसे कल्पना, ज्ञान और इसका कोई महत्व तक नहीं होता, फिर भी वह केवल आशा-अपेक्षा और संभावना की दृष्टि से वह ऐसे किसी इष्ट में विश्वास करना चाहता है, -न कि उसे ऐसा कोई विश्वास वस्तुतः होता है, किन्तु  फिर भी ऐसे विश्वास से उसे मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ सान्त्वना मिलती हुई भी प्रतीत हो सकती है। या फिर आसपास के दूसरों लोगों के संपर्क से भी वह ऐसी किसी आस्था को जाने या अनजाने ग्रहण कर लेता है, जो कि उसकी एक धारणा ही होती है, न कि यथार्थ वस्तुस्थिति। 

फिर भी दोनों ही स्थितियों में उसे संसार से भय लगने लगता है, या वैराग्य ही हो जाता है। यह वैराग्य उस विराग से बहुत अलग प्रकार का होता है, जिसमें मन एक विषय से ऊब जाने से किसी दूसरे विषय की ओर आकर्षित होने लगता है।

तब मनुष्य यद्यपि नित्य सुख और अनित्य सुख के भेद को तो समझ लेता है, किन्तु फिर भी उसे यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि नित्य और अनित्य जिसे कहा जाता है, वह (तत्व) वस्तुतः क्या है?

इस प्रकार परिपक्व मन, बुद्धि वाला, धैर्यशील तथा वैराग्य-युक्त कोई बिरला ही उस नित्य तत्व की खोज में प्रवृत्त होता है और उसे ठीक ठीक जानकर आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर, चेतन, चैतन्य-मात्र,  चेतना, भान, बोध या निजता आदि का नाम देता है। या यह भी संभव है कि तब वह उसे कोई नाम ही न दे, और मौन रहते हुए वाणी का प्रयोग केवल व्यावहारिक रूप से बहुत आवश्यक होने पर ही करे।

किसी भी स्थिति में मनुष्य को प्रारंभ में कोई न कोई अभ्यास तो करना ही होता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय१२)

यहाँ 'ज्ञान' का तात्पर्य केवल सापेक्ष, बौद्धिक, या साङ्ख्य-ज्ञान (निरपेक्ष) के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि ध्यान के अभ्यास में ध्याता, ध्येय और ध्यान की गतिविधि रूपी त्रिपुटी होती है, किन्तु निरपेक्ष अर्थात् साङ्ख्य ज्ञान में इस त्रिपुटी का विलय हो जाता है। 

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Friday, April 8, 2022

सफलता के मंत्र-मूल

सफलता / असफलता

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श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ का प्रारंभ अर्जुन की विषण्ण मनःस्थिति से होता है, और प्रथम अध्याय का आरंभ :

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।। 

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

इस श्लोक से। 

यह इसी का द्योतक है कि शरीर, मन, बुद्धि रूपी धर्मों के क्षेत्र में पृथक् पृथक् किन्तु व्यवहार रूपी कर्म / आचरण के क्षेत्र में एक दूसरे से भिन्न भिन्न, फिर भी एक साथ विद्यमान कुरुवंश के उन  वंशजों ने क्या किया। क्योंकि शरीर, मन, बुद्धि एवं चेतना सभी अपने अपने विशिष्ट धर्मों को त्याग नहीं सकते जबकि कर्म एक ऐसी वस्तु है जो घटना के रूप में काल-स्थान के अन्तर्गत घटित होनेवाला तथ्य है, किन्तु भिन्न भिन्न शरीरों में अवस्थित विभिन्न मनुष्य उसे भिन्न भिन्न प्रकार से परिभाषित और ग्रहण करते हैं।  इस प्रकार धर्म एक काल-स्थान निरपेक्ष सत्य है, जबकि कर्म एक निष्कर्ष है जो धारणा / धृति के रूप में मनुष्य के स्वभाव की आधारभूत वास्तविकता।

यह स्वभाव गुण-कर्म का संयोग है और यही चार मूल वर्णों का कारण है। उल्लेखनीय है कि ये चार वर्ण यद्यपि जन्म के अर्थ में जातिवाचक हैं किन्तु सामाजिक भेद की उस भावना के अर्थ में मनुष्यों का वर्गीकरण नहीं करते जैसा कि जाति शब्द से समझा जाता है। जाति पुनः मूल वर्ण का लक्षण हो सकता है, या फिर इन गुण-कर्मों के विभिन्न अनुपात में संयुक्त होने का परिणाम भी हो सकता है। इसलिए कोई भी मनुष्य जो किसी भी जाति में क्यों न पैदा हुआ हो, अपने स्वभाव / गुण-कर्म के अनुसार ही किसी कार्य को करने में प्रवृत्त होता है, प्रवृति ही से प्राप्त उसके संस्कारों से उसमें किसी कार्य को करने के लिए इच्छा-अनिच्छा, रुचि-अरुचि, संकल्प-विकल्प आदि उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से उसमें कर्म करने की भावना का उद्भव होता है और तब उसमें अज्ञान और प्रमादवश अपने आपके एक स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने की भावना के रूप में अहंवृत्ति का जन्म होता है। चेतना (consciousness) की अपनी भूमिका इस पूरे क्रम में केवल उस अविकारी (immutable) आधारभूत अधिष्ठान (underlying principle) की होती है जो प्रवृत्ति के कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं करती । किन्तु प्रवृत्ति से संलग्न अज्ञान और प्रमाद ही इस स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता एवं स्वामी में ही अपने आपके स्वयं के एक स्वतंत्र व्यक्ति होने का आभास पैदा करते हैं। यहीं से कर्म की अवधारणा पैदा होती है, जो बुद्धि को आवरित कर लेती है। 

ऐसे स्वतंत्र कर्ता और प्रतीत होने वाले कर्म की अवधारणा की सत्यता की परीक्षा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि केवल चेतना ही अस्तित्वमान एकमात्र वास्तविकता है। 

यह हुई साङ्ख्य अर्थात् ज्ञाननिष्ठा जिसका वर्णन अध्याय २ के अन्तर्गत किया गया है।

जब मनुष्य इस प्रकार की परीक्षा करने में असमर्थ होता है, तो उसमें किंकर्तव्यविमूढता की भावना उत्पन्न होती है, और वह यह भी नहीं देख पाता, कि क्या वास्तव में वह कर्म करने या न करने के लिए स्वतंत्र है भी या नहीं?

किन्तु इस स्थिति में भी उसमें कर्म किए जाने की आवश्यकता का आग्रह तो होता ही है। इसे ही कर्मयोग अर्थात् ज्ञाननिष्ठा भी कहा जाता है। चूँकि दोनों ही प्रकार की निष्ठा से अंततः एक ही फल प्राप्त होता है, इसलिए अध्यात्म के तत्व के जिज्ञासु मनुष्य को चाहिए, कि पहले अपने में विद्यमान स्वाभाविक निष्ठा इनमें से कौन सी है इसे ठीक ठीक समझ ले। 

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Friday, April 1, 2022

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य

...निबन्धायासुरी मता।। 

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पुरुषोत्तमयोग नामक अध्याय १५ का उपसंहार निम्न दो श्लोकों से किया गया है :

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।। 

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।१९।।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।।

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।२०।।

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संसारमोक्षाय दैवी प्रकृतिः --

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यास्तपमार्जवम्।।१।।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।।

दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।२।।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।।

भवन्ति सम्पदं दैवमभिजातस्य भारत।।३।।

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निबन्धायासुरी च राक्षसी --

दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।४।।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।

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द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।। 

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।६।।

(अध्याय १६)

किसी भी मनुष्य को अपनी दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के अनुसार ही क्रमशः दैवी और आसुरी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं।

इसी प्रकार दैवी प्रकृति से संपन्न ही किसी मनुष्य की निष्ठा भी दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार की होती है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

इसलिए यद्यपि तप, दान, ज्ञान, यज्ञ आदि विभिन्न कर्म क्रमशः सात्त्विक, राजस या तामस होने पर भी, अपनी अपनी दैवी या आसुरी संपदाओं और निष्ठा के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। एक ही मनुष्य में स्वभाव अर्थात् प्रकृति से ही ज्ञाननिष्ठा अर्थात् साङ्ख्य की ज्ञान-रूपी सहजनिष्ठा अथवा कर्मनिष्ठा -- निष्काम कर्म, भक्ति, ईश्वर-प्रणिधान आदि में से प्रधान रूप से एक ही निष्ठा विद्यमान होती है।

अपनी निष्ठा और अधिकार के अनुसार कोई भी मनुष्य निष्काम कर्मयोग अथवा साङ्ख्य-ज्ञान का अवलंबन लेकर परम श्रेयस् की प्राप्ति कर सकता है।

जिनमें ज्ञाननिष्ठा प्रधान और कर्मनिष्ठा गौण होती है, परमार्थ के ऐसे जिज्ञासुओं की बुद्धि तो ईश्वर, ब्रह्म, तत्त्व,धर्म, सत्य अथवा आत्मा को जानने की प्रवृत्ति से प्रेरित होती है, परन्तु जिनमें यह संकल्प विद्यमान होता है कि मैं कर्ता, भोक्ता, स्वामी और ज्ञाता आदि के रूप में जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ जीव हूँ, वे भी अनुमान से भी उस परमेश्वर की कल्पना कर सकते हैं जो इस समस्त जगत् का संचालन करता है, और उस कल्पित ईश्वर के स्वरूप का आश्रय लेकर अंततः उसके यथार्थ स्वरूप को भी जानकर उससे तादात्म्य रूपी सायुज्य, सामीप्य, सान्निध्य तथा सारूप्य प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हें यह अभ्यास भी कठिन जान पड़ता है, उनके लिए गीता से यह निर्देश प्राप्त होता है :

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

अथैतदप्यशक्त्योऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।

क्योंकि --

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

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Thursday, March 24, 2022

I just don't know ...

About :

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I just don't know,

Who is / are viewing this blog,

For whatsoever reasons.

But I would sure like to thank them all.

Obeisance :

At the Holy feet of Lord Sri-Krishna, who dwells in the heart of all and everyone! 

Regards!

May Krishna shower His Blessings / grace upon all who go through / study / worship / adore / follow this great text.

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श्री भगवानुवाच :

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।। 

भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।। 

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।६२।।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।। 

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।६३।।

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।। 

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।।६४।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।। 

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।६५।।

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।। 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।६६।।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।६७।।

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।। 

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।६८।।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।६९।।

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।। 

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।७०।।

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।। 

सोऽपि मुक्तः शुभान्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।७१।।

कच्चितैच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।।

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।७२।।

अर्जुन उवाच :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

सञ्जय उवाच :

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।। 

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।७४।।

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।। 

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।७५।।

राजन्स्मृसंत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।। 

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।७६।।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।। 

विस्मयो मे महान्-राजन्-हृष्यामि च पुनः पुनः।।७७।।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।। 

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।७८।।

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समाप्तमिदं गीताशास्त्रम् ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।

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Wednesday, February 16, 2022

3 "I".

Incision into :

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The Inclination,

The Involvement, and

The Indulgence.

Gita chapter 1 is about the foreground what Maharshi VEDAVYASA turned into a greatest classic of all times.

This chapter 1 narrates about the situation in the battlefield where the Great war took place. And it was but natural that Arjuna was overwhelmed by self-pity and could not see what the war meant and was of worth.

So far, so good.

Sri-Krishna explained to him the essentials of Sankhya angle in the next chapter 2.

Arjuna was unable to grasp this teaching of the Sankhya Darshana so a dialogue started between the two. 

From the chapter 2 onwards till the end, that is the chapter 18, throughout this whole text of Gita, Sri-Krisna deals with Yoga aspect of the Karma-Darshana, on the (pretext of the) assumption that this may help Arjuna to take a decision with confidence.

In a way Sri-Krishna performed the role of a motivational speaker / Guru only. 

But the crux / the climax of this text comes and is to be seen in the chapter 18, where Sri-Krishna, - though well aware that Karma (deed), JnAna (knowledge) and the Karta (the notion of 'some-one' who is supposed to execute / perform the deed) are hypothetical, appear and disappear in thought only and as such they have no intrinsic truth whatever, assumes them as to be true for helping and convincing Arjuna.

Though Arjuna is quite unaware of this fact, he listens to Sri-Krishna with all due respect, care, and attention and follows his words.

Sri-Krishna further elaborates His point and takes it for granted, that not only the Karma (deed), but also the Karta (the one who is supposed to execute / perform a deed) along-with the JnAna (knowledge) are as much real and true, the result of the deed / action, -the  (Karma-phala) -is real.

That is how Sri-Krishna then classifies and categorizes the three hypothetical ideas / notions, namely the Karta, the Karma, and the JnAna, accordingly in terms of the three kinds of  satvika, rajasika and tamasika tendencies respectively.

satvika, rajasika and tamasika are the kinds of tendencies of mind that could be treated again as the synonyms of

The Inclination,

The Involvement, and

The Indulgence.

Accordingly the Karta, the Karma and the JnAna are also described in terms of these three tendencies, which are basically the 3 constituents of Maya only.

In conclusion, the whole text of Gita deals with beautifully and fits perfectly well with the way one would approach the Reality.

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This Reminds me of -

(Thus spake Sri Nisargadatta Maharaj:)

"If you know what you teach, you can teach what you know".

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Sunday, February 13, 2022

नासतो विद्यते भावो

श्रीमद्भगवद्गीता :

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अध्याय २,

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

अध्याय ४,

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।३४।।

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भगवान् श्री रमण महर्षि कृत सद्दर्शनम् :

सत्प्रत्ययाः किन्नु विहाय सन्तं ।

हद्येष चिन्तारहितं हृदाख्यः ।।

कथं स्मरामस्तममेयमेकम् ।

तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा ।।१।।

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प्रस्तुत प्रविष्टि (पोस्ट) के प्रारंभ के ३ श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता से उद्धृत किए गए हैं किन्तु यहाँ इसका उद्दिष्ट प्रयोजन, श्री रमण महर्षि-कृत सद्दर्शनम् नामक ग्रन्थ के प्रारंभ में उल्लिखित :

"सत्प्रत्ययाः"

पद की विवेचना करना है।

जिस सत् (Reality) पद को अहम्, निज, सत्य, ब्रह्म, आत्मा, अव्यय, अविनाशी, ईश्वर, इत्यादि पदों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है वह वाणी का विषय नहीं होने से उसका वर्णन करना  बहुत कठिन है। 

अतः उसके बारे में जानने और कहने के लिए एकमात्र उपलब्ध और संभव उपाय यही है, कि उस 'सत्' नामक तत्त्व के द्योतक उसके चिह्नों और लक्षणों, उसके अर्थात् उसे इंगित करने वाले उन संकेतों के माध्यम से ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास किया जाए। 

उसके ऐसे कौन से चिह्न, लक्षण, द्योतक संकेत हैं, जिनके द्वारा  शास्त्रों में उसे इंगित किया गया है, और जिन्हें सामान्य बुद्धि से युक्त मनुष्य भी सफलतापूर्वक ग्रहण कर अन्ततः हृदयङ्गम कर सकता है?

अथर्वशीर्ष ऐसा ही एक उपक्रम है जिसका पाठ, अध्ययन कर अल्पबुद्धियुक्त ऐसा मनुष्य जिसका चित्त निर्मल, मन परिपक्व और विवेक जागृत हो, उस तत्त्व का साक्षात्कार कर सकता है। अथर्वशीर्ष उस परमात्मा के ऐसे चिह्नों या संकेतों के माध्यम से उसकी उपासना और स्तवन करने का अनुष्ठान है ।

संक्षेप में :

त्वं, अहम् तथा तत् (एवं यह) इन तीन सर्वनामों के माध्यम से उसे ही क्रमशः गणपति, रुद्र, देवी, नारायण तथा सूर्य आदि की संज्ञा देकर उसके ही स्वरूप का वर्णन श्री गणपति-अथर्वशीर्ष, शिव-अथर्वशीर्ष, श्री देवी-अथर्वशीर्ष, नारायण-अथर्वशीर्ष तथा सूर्य-अथर्वशीर्ष के रूप में किया गया है ।

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Wednesday, February 2, 2022

मनश्चञ्चलमस्थिरम् ...

गीता अध्याय ६
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।२६।।
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(Gita 6/26)
Latent and Blatant :
Exactly, "Who" is there that is supposed to go through this exercise?
Is there another mind that is supposed to bring back home (home is where the heart is!) this wandering mind to its home / heart?
Here, may be the heart the same that has been pointed out in the following verses 4/42 and 61/18 of the chapter 4 and 18 respectively?  :
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।४२।।
and, 
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।६१।।
This way for the time being, let us consider the two salient modes of mind. 
One is the superficial mind that is restless and keeps moving from one to another object.
There is yet another underlying deeper mind that is silent, taciturn, reticent, sitting at the core of the heart.
Though this division of mind into the superficial and the deeper too helps to some extent, the prime factor that governs the whole of this mind is the "attention" only that is the ever-existing fact within the grasp of all of us.
Still, the attention could be further viewed as the one and the same thing that has 3 components inseparable to one-another. This 3 components or the aspects of the "attention" could be again termed as the sense of being as the "I AM", the consciousness (knowing) and the intellect --the tendency of the mind.
The three aspects could be understood in the form of the Rudra-principle, the DevI-principle, and the gaNesha-principle as well.
Bringing back the wandering mind to its natural abode,  - the heart, could be done when these 3 principles are seen as the three marks of Reality that could be at once grasped by means of any or all of them together.
This is how one could 'meditate' and discover by reciting pATha of the three Atharva SheerShaM, namely :
The gaNesha Atharva SheerShaM, 
The Shiva Atharva SheerShaM, and the
Devi Atharva SheerShaM.
In the very process of reciting the pATha or the stotram one gradually discovers the mechanism of the mind at the two levels referred to above.

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Tuesday, January 18, 2022

In First Person.

पुरुषोत्तम योग 

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(पुरुषसूक्त नामक यह स्तवन - ऋग्वेद् -मण्डल १० वें के सूक्त ९०, शुक्ल यजुर्वेद -अध्याय ३१ / १-१६, तथा अथर्ववेद -१९ वें काण्ड के छठे सूक्त, तैत्तिरीय संहिता, और तैत्तिरीय आरण्यक आदि में भी पाठान्तर सहित प्राप्त होता है। यहाँ पर गीताप्रेस, गोरखपुर के पुस्तक क्रमांक 1800, पञ्चदेव अथर्वशीर्ष संग्रह नामक ग्रन्थ से प्राप्त 'पुरुषसूक्त' से उद्धृत किया जा रहा है।)

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ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।

स भूमिं सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।१।।

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।२।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।३।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनाशने अभि ।।४।।

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।।५।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।६।।

तस्मात्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।।

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।७।।

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ।।८।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।।

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ।।९।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ।।१०।।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।११।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।।१२।।

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णौ द्यौः समवर्तत ।।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ।।१३।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ।।१४।।

सप्तस्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।।

देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।१५।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्या सन्ति देवाः ।।१६।।

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सन्दर्भ :

(१) मृत्युञ्जयमन्त्र :

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्यो र्मुक्षीय माऽमृतात् ।।

(२) महामृत्युञ्जयमन्त्र :

ओं हौं जूं सः ओं भूर्भुवः स्वः ओं त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्यो र्मुक्षीय मामृतात् ।। ॐ स्वः भुवः भूः ओं यः सः जूं हौं ओं ।।

कृपया उपरोक्त मन्त्रों के शुद्ध रूप की पुष्टि किसी विद्वान से अवश्य करें। क्योंकि यहाँ केवल जानकारी के उद्देश्य से इसे प्रस्तुत किया जा रहा है। 

(३) श्वेताश्वतरोपनिषद्  -- अध्याय ३,

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।

स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।१४।।

(४) दशाङ्गुलम् :

नाभि ही भूमि है। नाभि से दश अङ्गुल ऊपर हृदय है। यही उस परमात्मा का निज धाम है जिसके संबंध में कहा गया है :

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।२०।।

(अध्याय १०)

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्चाद्राज्ये सचराचरम् ।।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्दृष्टुमिच्छसि  ।।७।।

(अध्याय ११)

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति  ।।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया  ।।६१।।

(अध्याय १८)

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Wednesday, January 12, 2022

गीता : शिक्षा का प्रयोजन

गीता : प्रयोजन की शिक्षा

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भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।।

विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।।

भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

(ज्ञान-कर्म-सन्न्यास-योग, अध्याय ४)

इससे पूर्व अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग की शिक्षा दी थी । इसी अध्याय के अन्तर्गत भगवान् श्रीकृष्ण ने मनुष्य में विद्यमान उस स्वाभाविक निष्ठा का वर्णन किया, जिसे साङ्ख्य-योग के सन्दर्भ में ज्ञान तथा कर्म-योग के सन्दर्भ में कर्म कहा जाता है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ  ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

और इससे भी पहले अध्याय २ में अर्जुन को साङ्ख्य-योग की शिक्षा दी थी।

इस प्रकार से, शिक्षा का प्रयोजन अपने भीतर उस मौलिक निष्ठा की पहचान कर लेना है, जिसके आधार पर अपने मार्ग को जान लिया जाता है।

किन्तु उस प्रयोजन की शिक्षा का प्राप्त हो जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है। 

इसी ओर संकेत करते हुए अगले अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।

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