Geetaa : The Song Celestial. Inspirations, and Aspirations.
Thursday, November 13, 2014
Friday, October 24, 2014
आज का श्लोक, ’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’
आज का श्लोक,
’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’
_____________________
’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’ - राजा सात्यकि,
अध्याय 1, श्लोक 4,
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
--
(अत्र शूराः महेष्वासाः भीमार्जुनसमा युधिः ।
युयुधानः विराटः च द्रुपदः च महारथः ॥)
--
भावार्थ :
यहाँ पर युद्ध में, बड़े-बड़े धनुषोंवाले भीम एवं अर्जुन जैसे शूरवीर जैसे कि युयुधान (सात्यकि), और विराट तथा महारथी जैसे कि राजा द्रुपद, और, ...।
--
’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’ - sātyaki, the king,
Chapter1, śloka 4,
atra śūrā maheṣvāsā
bhīmārjunasamā yudhi |
yuyudhāno virāṭaśca
drupadaśca mahārathaḥ ||
--
(atra śūrāḥ maheṣvāsāḥ
bhīmārjunasamā yudhiḥ |
yuyudhānaḥ virāṭaḥ ca
drupadaḥ ca mahārathaḥ ||)
--
Meaning :
Here are present the warriors like the king yuyudhāna (sātyaki), and virāṭa wielding big bows, and the warriors king drupada, with their magnificent chariots ...
--
’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’
_____________________
’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’ - राजा सात्यकि,
अध्याय 1, श्लोक 4,
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
--
(अत्र शूराः महेष्वासाः भीमार्जुनसमा युधिः ।
युयुधानः विराटः च द्रुपदः च महारथः ॥)
--
भावार्थ :
यहाँ पर युद्ध में, बड़े-बड़े धनुषोंवाले भीम एवं अर्जुन जैसे शूरवीर जैसे कि युयुधान (सात्यकि), और विराट तथा महारथी जैसे कि राजा द्रुपद, और, ...।
--
’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’ - sātyaki, the king,
Chapter1, śloka 4,
atra śūrā maheṣvāsā
bhīmārjunasamā yudhi |
yuyudhāno virāṭaśca
drupadaśca mahārathaḥ ||
--
(atra śūrāḥ maheṣvāsāḥ
bhīmārjunasamā yudhiḥ |
yuyudhānaḥ virāṭaḥ ca
drupadaḥ ca mahārathaḥ ||)
--
Meaning :
Here are present the warriors like the king yuyudhāna (sātyaki), and virāṭa wielding big bows, and the warriors king drupada, with their magnificent chariots ...
--
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’युयुधानः’ / ’yuyudhānaḥ’,
1/4,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Thursday, October 23, 2014
आज का श्लोक, ’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’
आज का श्लोक,
’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’
_________________________________
’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’ - युद्ध की अभिलाषा रखनेवाले,
युयुत्सवः > युयुत्सु का बहुवचन,
अध्याय 1, श्लोक 1,
धृतराष्ट्र उवाच :
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥
--
(धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाः च एव किम् अकुर्वत सञ्जय ॥)
--
भावार्थ :
धृतराष्ट्र बोले :
हे संजय! इस धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने वहाँ पर क्या किया ?
--
’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’ - those who are craving for engaging in war,
युयुत्सवः / yuyutsuḥ > plural of युयुत्सु / yuyutsu,
Chapter 1, śloka 1,
dhṛtarāṣṭra uvāca :
dharmakṣetre kurukṣetre
samavetā yuyutsavaḥ |
māmakāḥ pāṇḍavāścaiva
kimakurvata sañjaya ||
--
(dharmakṣetre kurukṣetre
samavetāḥ yuyutsavaḥ |
māmakāḥ pāṇḍavāḥ ca eva
kim akurvata sañjaya ||)
--
Meaning :
King dhṛtarāṣṭra asked :
Tell me, O sañjaya, driven there by the desire for a fight, what did my sons and they, the sons of pāṇḍu those assembled do at the holy land, at the battle-field of kurukṣetra ?
--
’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’
_________________________________
’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’ - युद्ध की अभिलाषा रखनेवाले,
युयुत्सवः > युयुत्सु का बहुवचन,
धृतराष्ट्र उवाच :
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥
--
(धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाः च एव किम् अकुर्वत सञ्जय ॥)
--
भावार्थ :
धृतराष्ट्र बोले :
हे संजय! इस धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने वहाँ पर क्या किया ?
--
’युयुत्सवः’ / ’yuyutsavaḥ’ - those who are craving for engaging in war,
युयुत्सवः / yuyutsuḥ > plural of युयुत्सु / yuyutsu,
Chapter 1, śloka 1,
dhṛtarāṣṭra uvāca :
dharmakṣetre kurukṣetre
samavetā yuyutsavaḥ |
māmakāḥ pāṇḍavāścaiva
kimakurvata sañjaya ||
--
(dharmakṣetre kurukṣetre
samavetāḥ yuyutsavaḥ |
māmakāḥ pāṇḍavāḥ ca eva
kim akurvata sañjaya ||)
--
Meaning :
King dhṛtarāṣṭra asked :
Tell me, O sañjaya, driven there by the desire for a fight, what did my sons and they, the sons of pāṇḍu those assembled do at the holy land, at the battle-field of kurukṣetra ?
--
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1/1,
आज का श्लोक
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Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’
आज का श्लोक,
’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’
______________________
’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’ - युद्ध करने की अभिलाषा रखनेवाले को,
--
अध्याय 1, श्लोक 28,
--
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच -
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितं ॥
--
(कृपया परया आविष्टः विषीदन् इदम् अब्रवीत् ।
दृष्ट्वा इमम् स्वजनम् कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् ॥)
--
भावार्थ :
उनके प्रति अत्यन्त करुणा-विहवल होकर, शोक करते हुए, (अर्जुन ने) ऐसा कहा ।
अर्जुन ने कहा -
युद्ध में मेरे समक्ष उपस्थित अपने इन स्वजनों को देखकर हे कृष्ण !...
--
’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’
______________________
’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’ - युद्ध करने की अभिलाषा रखनेवाले को,
--
अध्याय 1, श्लोक 28,
--
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच -
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितं ॥
--
(कृपया परया आविष्टः विषीदन् इदम् अब्रवीत् ।
दृष्ट्वा इमम् स्वजनम् कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् ॥)
--
भावार्थ :
उनके प्रति अत्यन्त करुणा-विहवल होकर, शोक करते हुए, (अर्जुन ने) ऐसा कहा ।
अर्जुन ने कहा -
युद्ध में मेरे समक्ष उपस्थित अपने इन स्वजनों को देखकर हे कृष्ण !...
--
’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’ -- to one who is eager to engage in war,
Chapter 1, śloka 28,
kṛpayā parayāviṣṭo
viṣīdannidamabravīt |
arjuna uvāca -
dṛṣṭvemaṃ svajanaṃ kṛṣṇa
yuyutsuṃ samupasthitaṃ ||
--
(kṛpayā parayā āviṣṭaḥ
viṣīdan idam abravīt |
dṛṣṭvā imam svajanam kṛṣṇa
yuyutsum samupasthitam ||)
--
Meaning :
Seeing all his very own dear friends and relatives ready to fight before him, he was filled with deep remorse and with heavy heart said :
O kṛṣṇa! seeing all these relatives and friends arrayed for battle, ...
--
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’युयुत्सुम्’ / ’yuyutsum’,
1/28,
आज का श्लोक
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Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’ये’ / ’ye’
आज का श्लोक, ’ये’ / ’ye’
___________________
’ये’ / ’ye’ - जो (बहुवचन) मनुष्य, लोग, वस्तुएँ, स्त्री, पुरुष आदि,
--
अध्याय 1 श्लोक 7,
अध्याय 1 श्लोक 23,
अध्याय 3 श्लोक 13,
अध्याय 3 श्लोक 31,
अध्याय 3, श्लोक 32,
अध्याय 4 श्लोक 11,
अध्याय 5 श्लोक 22,
अध्याय 7 श्लोक 12,
अध्याय 7 श्लोक 14,
अध्याय 7 श्लोक 29,
अध्याय 7 श्लोक 30,
अध्याय 9 श्लोक 22,
अध्याय 9 श्लोक 23,
अध्याय 9 श्लोक 29,
अध्याय 9 श्लोक 32,
अध्याय 11 श्लोक 22,
अध्याय 11 श्लोक 32,
अध्याय 12 श्लोक 1,
अध्याय 12 श्लोक 2,
अध्याय 12 श्लोक 3,
अध्याय 12 श्लोक 6,
अध्याय 12 श्लोक 20,
अध्याय 13 श्लोक 34,
अध्याय 17 श्लोक 1,
अध्याय 17 श्लोक 5,
--
’ये’ / ’ye’ - who (pronoun, -third person, plural), those who,
--
Chapter 1 śloka 7,
Chapter 1 śloka 23,
Chapter 3 śloka 13,
Chapter 3 śloka 31,
Chapter 3 śloka 32,
Chapter 4 śloka 11,
Chapter 5 śloka 22,
Chapter 7 śloka 12,
Chapter 7 śloka 14,
Chapter 7 śloka 29,
Chapter 7 śloka 30,
Chapter 9 śloka 22,
Chapter 9 śloka 23,
Chapter 9 śloka 29,
Chapter 9 śloka 32,
Chapter 11 śloka 22,
Chapter 11 śloka 32,
Chapter 12 śloka 1,
Chapter 12 śloka 2,
Chapter 12 śloka 3,
Chapter 12 śloka 6,
Chapter 12 śloka 20,
Chapter 13 śloka 34,
Chapter 17 śloka 1,
Chapter 17 śloka 5,
--
___________________
’ये’ / ’ye’ - जो (बहुवचन) मनुष्य, लोग, वस्तुएँ, स्त्री, पुरुष आदि,
--
अध्याय 1 श्लोक 7,
अध्याय 1 श्लोक 23,
अध्याय 3 श्लोक 13,
अध्याय 3 श्लोक 31,
अध्याय 3, श्लोक 32,
अध्याय 4 श्लोक 11,
अध्याय 5 श्लोक 22,
अध्याय 7 श्लोक 12,
अध्याय 7 श्लोक 14,
अध्याय 7 श्लोक 29,
अध्याय 7 श्लोक 30,
अध्याय 9 श्लोक 22,
अध्याय 9 श्लोक 23,
अध्याय 9 श्लोक 29,
अध्याय 9 श्लोक 32,
अध्याय 11 श्लोक 22,
अध्याय 11 श्लोक 32,
अध्याय 12 श्लोक 1,
अध्याय 12 श्लोक 2,
अध्याय 12 श्लोक 3,
अध्याय 12 श्लोक 6,
अध्याय 12 श्लोक 20,
अध्याय 13 श्लोक 34,
अध्याय 17 श्लोक 1,
अध्याय 17 श्लोक 5,
--
’ये’ / ’ye’ - who (pronoun, -third person, plural), those who,
--
Chapter 1 śloka 7,
Chapter 1 śloka 23,
Chapter 3 śloka 13,
Chapter 3 śloka 31,
Chapter 3 śloka 32,
Chapter 4 śloka 11,
Chapter 5 śloka 22,
Chapter 7 śloka 12,
Chapter 7 śloka 14,
Chapter 7 śloka 29,
Chapter 7 śloka 30,
Chapter 9 śloka 22,
Chapter 9 śloka 23,
Chapter 9 śloka 29,
Chapter 9 śloka 32,
Chapter 11 śloka 22,
Chapter 11 śloka 32,
Chapter 12 śloka 1,
Chapter 12 śloka 2,
Chapter 12 śloka 3,
Chapter 12 śloka 6,
Chapter 12 śloka 20,
Chapter 13 śloka 34,
Chapter 17 śloka 1,
Chapter 17 śloka 5,
--
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’ये’ / ’ye’,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’येन’ / ’yena’
आज का श्लोक, ’येन’ / ’yena’
________________________
’येन’ / ’yena’ - जिसके द्वारा,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
--
(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
--
भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 2,
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
--
(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
--
भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे लगता है कि आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
--
अध्याय 4, श्लोक 35,
यज्ज्ञात्वा पुनर्मोहमेवं न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
--
(यत् ज्ञात्वा पुनः मोहम् एवम् न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि आत्मनि अथो मयि ॥)
--
भावार्थ :
जिसको जानकर, तुम पुनः कभी इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होगे, जिसको जानकर, सम्पूर्ण भूतों को वैसे ही (पहले) अपनी आत्मा में देखोगे, जैसा कि (बाद में) मुझमें ।
--
टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में ’यत्’ / ’जो’ अर्थात् ’जिसको’ का सम्बन्ध पूर्व के श्लोक 34 - ’तद्विद्धि प्रणिपातेन ...’ में वर्णित ’तत्’ / ’उसको’ से है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 6,
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
--
(बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥)
--
भावार्थ : (आत्मा के स्वरूप को जानकर) जिसने आत्मा के द्वारा अपने मन और देह आदि को जीत लिया है उसके लिए उसकी आत्मा बन्धु ही है । दूसरी ओर, जो आत्मा के तत्व से अनभिज्ञ है, ऐसे अनात्मवादी से उसकी निज आत्मा ही शत्रुवत् व्यवहार करती है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
--
(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं, वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 10, श्लोक 10,
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
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(तेषाम् सततयुक्तानाम् भजताम् प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगम् तम् येन माम् उपयान्ति ते ॥)
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भावार्थ : उन मुझमें निरन्तर संलग्नचित्त प्रीतिपूर्वक मेरी भक्ति करनेवालों का, वह तत्वज्ञानरूपी योग (मैं) उन्हें प्रदान करता हूँ, जिसकी सहायता से वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
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अध्याय 12, श्लोक 19,
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
--
(तुल्यनिन्दास्तुतिः मौनी सन्तुष्टः येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियः नरः ॥)
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भावार्थ :
प्रशंसा और निन्दा को समान समझनेवाला, मननशील, जिस किसी भी परिस्थिति में हो, जो कभी असंतुष्ट नहीं अनुभव करता, गृहविहीन, स्थिरबुद्धि और भक्ति से परिपूर्ण हृदयवाला, ऐसा मनुष्य मुझे प्रिय है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 20,
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
--
(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
--
भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य सब भूतों में अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
--
(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
--
भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
--
’येन’ / ’yena’ - he, by one who, (instrumental case), by means of which,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
--
(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
--
Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
--
Chapter 3, śloka 2,
vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
--
(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
--
Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good (śreyaḥ) for me.
--
Chapter 4, śloka 35,
yajjñātvā punarmoha-
mevaṃ na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtānyaśeṣeṇa
drakṣyasyātmanyatho mayi ||
--
(yat jñātvā punaḥ moham
evam na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtāni aśeṣeṇa
drakṣyasi ātmani atho mayi ||)
--
Meaning :
Which, having known, you shall not again fall prey to delusion like this. Which, having known, You shall see all beings (first) in the Self, (and there-after like-wise) in ME.
--
Note :
'Which' in this śloka 35 is in reference with 'That' / 'tat' in the earlier śloka 34, ’tadviddhi praṇipātena ...’ meaning:
"Know / learn That (Truth / Brahman) by honoring and listening to the wise through proper enquiry into the Truth and they, who have realized this truth, shall point out to you the same, ..."
--
Chapter 6, śloka 6,
bandhurātmātmanastasya
yenātmaivātmanā jitaḥ |
anātmanastu śatrutve
vartetātmaiva śatruvat ||
--
(bandhuḥ ātmā ātmanaḥ tasya
yena ātmā eva ātmanā jitaḥ |
anātmanaḥ tu śatrutve
varteta ātmā eva śatruvat ||)
--
Meaning :
(Having realized the truth of Self) one who has conquered his self (body, and mind) by Means of (this awareness of the true) Self, finds the Self like a brother. On the other hand, one who is ignorant / unaware of (the truth of) Self, his own self (body and mind) treats with him like an enemy.
--
Chapter 8, śloka 22, - That is worth attainable,
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
--
(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
--
Meaning :
O pārtha (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him, is attained only through devotion extreme.
--
Chapter 10, śloka 10,
teṣāṃ satatayuktānāṃ
bhajatāṃ prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogaṃ taṃ
yena māmupayānti te ||
--
(teṣām satatayuktānām
bhajatām prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogam tam
yena mām upayānti te ||)
--
Meaning :
To those who with their heart and mind dedicated in remembering steadily ME, worshiping ME with deep love always, I give them their own yoga of wisdom (buddhiyoga), by means of which, they attain ME only.
--
Chapter 12, śloka 19,
tulyanindāstutirmaunī
santuṣṭo yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatir-
bhaktimānme priyo naraḥ ||
--
(tulyanindāstutiḥ maunī
santuṣṭaḥ yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatiḥ
bhaktimān me priyaḥ naraḥ ||)
--
Meaning :
One who is alike in praise and blame, whatever be the situation, has no discontent in mind, who owns no house of one's own to live in (is free from the sense of possession over things and people, -relationships with them), who is firm in thought and is dedicated to Me, is dear to Me.
--
Chapter 18, śloka 20,
sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
--
(sarvabhūteṣu yena ekam
bhāvam avyayam īkṣate |
avibhaktam vibhakteṣu
tat-jñānam viddhi sāttvikam ||)
--
Meaning :
The wisdom which helps one in realizing the same imperishable and unique principle as the unique undivided divine one whole, as the underlying one that is the support of all divided into various different forms, is of the sāttvika kind.
--
Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
--
(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
--
Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
--
________________________
’येन’ / ’yena’ - जिसके द्वारा,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
--
(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
--
भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 2,
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
--
(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
--
भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे लगता है कि आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
--
अध्याय 4, श्लोक 35,
यज्ज्ञात्वा पुनर्मोहमेवं न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
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(यत् ज्ञात्वा पुनः मोहम् एवम् न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि आत्मनि अथो मयि ॥)
--
भावार्थ :
जिसको जानकर, तुम पुनः कभी इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होगे, जिसको जानकर, सम्पूर्ण भूतों को वैसे ही (पहले) अपनी आत्मा में देखोगे, जैसा कि (बाद में) मुझमें ।
--
टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में ’यत्’ / ’जो’ अर्थात् ’जिसको’ का सम्बन्ध पूर्व के श्लोक 34 - ’तद्विद्धि प्रणिपातेन ...’ में वर्णित ’तत्’ / ’उसको’ से है ।
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अध्याय 6, श्लोक 6,
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
--
(बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥)
--
भावार्थ : (आत्मा के स्वरूप को जानकर) जिसने आत्मा के द्वारा अपने मन और देह आदि को जीत लिया है उसके लिए उसकी आत्मा बन्धु ही है । दूसरी ओर, जो आत्मा के तत्व से अनभिज्ञ है, ऐसे अनात्मवादी से उसकी निज आत्मा ही शत्रुवत् व्यवहार करती है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
--
(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं, वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 10,
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
--
(तेषाम् सततयुक्तानाम् भजताम् प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगम् तम् येन माम् उपयान्ति ते ॥)
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भावार्थ : उन मुझमें निरन्तर संलग्नचित्त प्रीतिपूर्वक मेरी भक्ति करनेवालों का, वह तत्वज्ञानरूपी योग (मैं) उन्हें प्रदान करता हूँ, जिसकी सहायता से वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
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अध्याय 12, श्लोक 19,
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
--
(तुल्यनिन्दास्तुतिः मौनी सन्तुष्टः येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियः नरः ॥)
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भावार्थ :
प्रशंसा और निन्दा को समान समझनेवाला, मननशील, जिस किसी भी परिस्थिति में हो, जो कभी असंतुष्ट नहीं अनुभव करता, गृहविहीन, स्थिरबुद्धि और भक्ति से परिपूर्ण हृदयवाला, ऐसा मनुष्य मुझे प्रिय है ।
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अध्याय 18, श्लोक 20,
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
--
(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
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भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य सब भूतों में अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
--
(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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’येन’ / ’yena’ - he, by one who, (instrumental case), by means of which,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
--
(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
--
Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 3, śloka 2,
vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
--
(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
--
Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good (śreyaḥ) for me.
--
Chapter 4, śloka 35,
yajjñātvā punarmoha-
mevaṃ na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtānyaśeṣeṇa
drakṣyasyātmanyatho mayi ||
--
(yat jñātvā punaḥ moham
evam na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtāni aśeṣeṇa
drakṣyasi ātmani atho mayi ||)
--
Meaning :
Which, having known, you shall not again fall prey to delusion like this. Which, having known, You shall see all beings (first) in the Self, (and there-after like-wise) in ME.
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Note :
'Which' in this śloka 35 is in reference with 'That' / 'tat' in the earlier śloka 34, ’tadviddhi praṇipātena ...’ meaning:
"Know / learn That (Truth / Brahman) by honoring and listening to the wise through proper enquiry into the Truth and they, who have realized this truth, shall point out to you the same, ..."
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Chapter 6, śloka 6,
bandhurātmātmanastasya
yenātmaivātmanā jitaḥ |
anātmanastu śatrutve
vartetātmaiva śatruvat ||
--
(bandhuḥ ātmā ātmanaḥ tasya
yena ātmā eva ātmanā jitaḥ |
anātmanaḥ tu śatrutve
varteta ātmā eva śatruvat ||)
--
Meaning :
(Having realized the truth of Self) one who has conquered his self (body, and mind) by Means of (this awareness of the true) Self, finds the Self like a brother. On the other hand, one who is ignorant / unaware of (the truth of) Self, his own self (body and mind) treats with him like an enemy.
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Chapter 8, śloka 22, - That is worth attainable,
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
--
(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
--
Meaning :
O pārtha (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him, is attained only through devotion extreme.
--
Chapter 10, śloka 10,
teṣāṃ satatayuktānāṃ
bhajatāṃ prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogaṃ taṃ
yena māmupayānti te ||
--
(teṣām satatayuktānām
bhajatām prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogam tam
yena mām upayānti te ||)
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Meaning :
To those who with their heart and mind dedicated in remembering steadily ME, worshiping ME with deep love always, I give them their own yoga of wisdom (buddhiyoga), by means of which, they attain ME only.
--
Chapter 12, śloka 19,
tulyanindāstutirmaunī
santuṣṭo yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatir-
bhaktimānme priyo naraḥ ||
--
(tulyanindāstutiḥ maunī
santuṣṭaḥ yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatiḥ
bhaktimān me priyaḥ naraḥ ||)
--
Meaning :
One who is alike in praise and blame, whatever be the situation, has no discontent in mind, who owns no house of one's own to live in (is free from the sense of possession over things and people, -relationships with them), who is firm in thought and is dedicated to Me, is dear to Me.
--
Chapter 18, śloka 20,
sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
--
(sarvabhūteṣu yena ekam
bhāvam avyayam īkṣate |
avibhaktam vibhakteṣu
tat-jñānam viddhi sāttvikam ||)
--
Meaning :
The wisdom which helps one in realizing the same imperishable and unique principle as the unique undivided divine one whole, as the underlying one that is the support of all divided into various different forms, is of the sāttvika kind.
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Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
--
(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
--
Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
--
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Monday, October 20, 2014
आज का श्लोक, ’येषाम्’ / ’yeṣām’
आज का श्लोक, ’येषाम्’ / ’yeṣām’
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’येषाम्’ / ’yeṣām’ - जिनके लिए, जिनमें, जिनके बारे में, जिनके प्रसंग में, जिनसे, जिन्हें,
अध्याय 1, श्लोक 33,
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
--
(येषाम् अर्थे काङ्क्षितम् नः राज्यम् भोगाः सुखानि च ।
ते इमे अवस्थिताः युद्धे प्राणान् त्यक्त्वा धनानि च ॥)
--
भावार्थ :
जिनके लिए इस राज्य, भोगों तथा सुखों की प्राप्ति की हमें आकाङ्क्षा है, वे सब तो अपना सर्वस्व, अपने प्राणों (की आशा) को भी त्यागकर यहाँ युद्ध में खड़े हैं ।
--
अध्याय 2, श्लोक 35,
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
--
(भयात् रणात् उपरतम् मंस्यन्ते त्वाम् महारथा ॥
येषाम् च त्वम् बहुमतः भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥)
--
भावार्थ :
वे ही महारथी जिनकी दृष्टि में पहले कभी तुम बहुत मान्य थे, तुम्हें भय से रण छोड़कर भाग जानेवाला समझेंगे और तुम उनकी दृष्टि में तुच्छ समझे जाओगे ।
--
अध्याय 5, श्लोक 16,
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥
--
(ज्ञानेन तु यत् अज्ञानम् येषाम् नाशितम् आत्मनः ।
तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानम् प्रकाशयति तत् परम् ॥)
--
भावार्थ :
जिन्होंने उस ज्ञान से अपनी आत्मा के अज्ञान को मिटा दिया है, सूर्य सा तेजस्वी वही ज्ञान उनके लिए परमेश्वर के तत्व को भी प्रकाशित कर देता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 19,
--
इहैव तैर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
--
(इह-एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥)
--
जिनका मन समभाव में स्थित हो जाता है उनके द्वारा इस (जीवित अवस्था में ही) संसार जीत लिया जाता है, क्योंकि वे संसार के बंधन से मुक्त होते हैं, और चूँकि वे ब्रह्म में अवस्थित होते हैं, इसलिए सच्चिदानन्घन परमात्मा में स्थित हुए वे ब्रह्मस्वरूप, सम और निर्दोष होते हैं ।
--
अध्याय 7, श्लोक 28,
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
--
(येषाम् तु अन्तगतम् पापम् जनानाम् पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः भजन्ते माम् दृढव्रताः ॥)
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भावार्थ :
(इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व तथा मोह को लेकर ही मनुष्यमात्र जन्म लेता है, ऐसा पिछले श्लोक 27 में कहा गया, उसी के बारे में आगे कहते हैं कि ऐसे मनुष्यों में से भी),
जिन पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्यों का पाप नष्ट हो गया है, द्वन्द्व तथा मोह से मुक्त हुए वे दृढव्रती / दृढ संकल्पयुक्त, मुझे भजते हैं ।
--
टिप्पणी :
देह से युक्त चेतन अपने को देह तक सीमित अनुभव करता हुआ जीव-भाव में बद्ध हो जाता है । अपने चेतन स्वरूप पर देह / जगत् रूपी आवरण तथा जगत् से अपने-आपके भिन्न होने की प्रतीति, ये दोनों उसके (अपने चैतन्य होने के) सहज सत्य पर आवरण डालते हैं और उसकी दृष्टि में विक्षेप पैदा कर देते हैं । ’आवरण’ और ’विक्षेप’ प्रकृति की ये दो शक्तियाँ जीव-भाव को सृजित करती हैं, या कहें कि उससे अभिन्न हैं । जगत् में दुःख की प्रतीति उसे ’अपने’ बारे में चिन्ता करने के लिए बाध्य करती है । वह जगत् में सुख प्राप्ति की आशा करता है, किन्तु कोई कोई ही इस आशा की निरर्थकता को देख-समझ पाता है, और उसे स्पष्ट हो जाता है कि जगत् / संसार में सुख नहीं है, इसलिए प्राप्त भी कैसे होगा, यदि कभी प्राप्त होता प्रतीत भी होता है तो वह मन की सिर्फ़ एक कल्पना चित्त का विक्षेप मात्र है । यह समझ में आना प्रकृति या परमात्मा की ’अनुग्रह’ शक्ति है । जीव-जगत् की लीला इन तीन शक्तियों का विलास मात्र है । आवरण और विक्षेप ही द्वन्द्व तथा मोह हैं जो इच्छा तथा द्वेष से अभिन्न हैं ।
--
अध्याय 10, श्लोक 6,
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥
--
(महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवः तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषाम् लोके इमाः प्रजाः ॥)
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भावार्थ :
सात महर्षि, तथा उनसे भी पहले होनेवाले चार (सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार) आदि ऋषि, तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु, सभी मेरे ही मानस के संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संतान ही यह संसार की समस्त प्रजा है ।
--
’येषाम्’ / ’yeṣām’- to / of those who are concerned, in those who, for those who,
Chapter 1, śloka 33,
yeṣāmarthe kāṅkṣitaṃ no
rājyaṃ bhogāḥ sukhāni ca |
ta ime:'vasthitā yuddhe
prāṇāṃstyaktvā dhanāni ca ||
--
(yeṣām arthe kāṅkṣitam naḥ
rājyam bhogāḥ sukhāni ca |
te ime avasthitāḥ yuddhe
prāṇān tyaktvā dhanāni ca ||)
--
Meaning :
Those, for whom we desire the kingdom and the pleasures, having given up their all and everything, and even the (hopes of) their own lives, are standing here on the battle-field,
--
Chapter 2, śloka 35,
bhayādraṇāduparataṃ
maṃsyante tvāṃ mahārathāḥ |
yeṣāṃ ca tvaṃ bahumato
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||
--
(bhayāt raṇāt uparatam
maṃsyante tvām mahārathā ||
yeṣām ca tvam bahumataḥ
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||)
--
Meaning :
Those great warriors that presently admire you, will think you escaped from the battle because of fear, and will treat you as coward and worthless.
--
Chapter 5, śloka 16,
jñānena tu tadajñānaṃ
yeṣāṃ nāśitamātmanaḥ |
teṣāmādityavajjñānaṃ
prakāśayati tatparam ||
--
(jñānena tu yat ajñānam
yeṣām nāśitam ātmanaḥ |
teṣām ādityavat jñānam
prakāśayati tat param ||)
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Meaning :
Those, who through that realization of the Self, have destroyed the ignorance of the Self, for them, the same realization shining like the Sun, also reveals the Supreme.
--
Chapter 5, śloka 19,
ihaiva tairjito sargo
yeṣāṃ sāmye sthitaṃ manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmādbrahmaṇi te sthitāḥ ||
--
(iha-eva taiḥ jitaḥ sargaḥ
yeṣām sāmye sthitam manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmāt brahmaṇi te sthitāḥ ||)
--
Meaning :
Those who have attained the equipoise of mind have conquered over the crisis of existing in a world full of sorrow and ignorance. They have attained identity with Brahman and are thus stainless and impartial in Him.
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Chapter 7, śloka 28,
yeṣāṃ tvantagataṃ pāpaṃ
janānāṃ puṇyakarmaṇām |
te dvandvamohanirmuktā
bhajante māṃ dṛḍhavratāḥ ||
--
(yeṣām tu antagatam pāpam
janānām puṇyakarmaṇām |
te dvandvamohanirmuktāḥ
bhajante mām dṛḍhavratāḥ ||)
--
Meaning :
(In the previous śloka 27, it has been stated that all and every human being is born with a mind occupied with doubt (dvandva / confusion) and delusion (moha) that are with him because are the result of desire (icchā)and envy (dveṣa)
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Note :
A 'self' in a body is because of desire and ignorance of the true nature of the self / consciousness. Because There is a body, that is 'found' in a world, the consciousness confined within the body is occupied with the idea of being some-one, a 'self'. This limitedness causes sense of incompleteness and desire and envy follow. The two powers of prakṛti / manifestation, namely āvaraṇa and vikṣepa, create desire and envy in the mind of such a 'self'. There is yet another power of anugraha (Grace) there in prakṛti / manifestation, that prompts one to think of this whole game and lets him break the bondage of sorrow, the cycle of birth and rebirth, and regain the Reality inherent.
--
Chapter 10, śloka 6,
maharṣayaḥ sapta pūrve
catvāro manavastathā |
madbhāvā mānasā jātā
yeṣāṃ loka imāḥ prajāḥ ||
--
(maharṣayaḥ sapta pūrve
catvāraḥ manavaḥ tathā |
madbhāvā mānasā jātā
yeṣām loke imāḥ prajāḥ ||)
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Meaning :
Seven Greate sages (sapta rṣi), the four earlier (sanaka, sanātana, sanandana, sanatkumāra) even to those seven, and fourteen manu, (the foremost forefather of the man-kind), all were created by My own very Being / mind (saṃkalpa).
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’येषाम्’ / ’yeṣām’ - जिनके लिए, जिनमें, जिनके बारे में, जिनके प्रसंग में, जिनसे, जिन्हें,
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
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(येषाम् अर्थे काङ्क्षितम् नः राज्यम् भोगाः सुखानि च ।
ते इमे अवस्थिताः युद्धे प्राणान् त्यक्त्वा धनानि च ॥)
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भावार्थ :
जिनके लिए इस राज्य, भोगों तथा सुखों की प्राप्ति की हमें आकाङ्क्षा है, वे सब तो अपना सर्वस्व, अपने प्राणों (की आशा) को भी त्यागकर यहाँ युद्ध में खड़े हैं ।
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अध्याय 2, श्लोक 35,
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
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(भयात् रणात् उपरतम् मंस्यन्ते त्वाम् महारथा ॥
येषाम् च त्वम् बहुमतः भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥)
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भावार्थ :
वे ही महारथी जिनकी दृष्टि में पहले कभी तुम बहुत मान्य थे, तुम्हें भय से रण छोड़कर भाग जानेवाला समझेंगे और तुम उनकी दृष्टि में तुच्छ समझे जाओगे ।
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अध्याय 5, श्लोक 16,
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥
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(ज्ञानेन तु यत् अज्ञानम् येषाम् नाशितम् आत्मनः ।
तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानम् प्रकाशयति तत् परम् ॥)
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भावार्थ :
जिन्होंने उस ज्ञान से अपनी आत्मा के अज्ञान को मिटा दिया है, सूर्य सा तेजस्वी वही ज्ञान उनके लिए परमेश्वर के तत्व को भी प्रकाशित कर देता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 19,
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इहैव तैर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
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(इह-एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥)
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जिनका मन समभाव में स्थित हो जाता है उनके द्वारा इस (जीवित अवस्था में ही) संसार जीत लिया जाता है, क्योंकि वे संसार के बंधन से मुक्त होते हैं, और चूँकि वे ब्रह्म में अवस्थित होते हैं, इसलिए सच्चिदानन्घन परमात्मा में स्थित हुए वे ब्रह्मस्वरूप, सम और निर्दोष होते हैं ।
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अध्याय 7, श्लोक 28,
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
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(येषाम् तु अन्तगतम् पापम् जनानाम् पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः भजन्ते माम् दृढव्रताः ॥)
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भावार्थ :
(इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व तथा मोह को लेकर ही मनुष्यमात्र जन्म लेता है, ऐसा पिछले श्लोक 27 में कहा गया, उसी के बारे में आगे कहते हैं कि ऐसे मनुष्यों में से भी),
जिन पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्यों का पाप नष्ट हो गया है, द्वन्द्व तथा मोह से मुक्त हुए वे दृढव्रती / दृढ संकल्पयुक्त, मुझे भजते हैं ।
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टिप्पणी :
देह से युक्त चेतन अपने को देह तक सीमित अनुभव करता हुआ जीव-भाव में बद्ध हो जाता है । अपने चेतन स्वरूप पर देह / जगत् रूपी आवरण तथा जगत् से अपने-आपके भिन्न होने की प्रतीति, ये दोनों उसके (अपने चैतन्य होने के) सहज सत्य पर आवरण डालते हैं और उसकी दृष्टि में विक्षेप पैदा कर देते हैं । ’आवरण’ और ’विक्षेप’ प्रकृति की ये दो शक्तियाँ जीव-भाव को सृजित करती हैं, या कहें कि उससे अभिन्न हैं । जगत् में दुःख की प्रतीति उसे ’अपने’ बारे में चिन्ता करने के लिए बाध्य करती है । वह जगत् में सुख प्राप्ति की आशा करता है, किन्तु कोई कोई ही इस आशा की निरर्थकता को देख-समझ पाता है, और उसे स्पष्ट हो जाता है कि जगत् / संसार में सुख नहीं है, इसलिए प्राप्त भी कैसे होगा, यदि कभी प्राप्त होता प्रतीत भी होता है तो वह मन की सिर्फ़ एक कल्पना चित्त का विक्षेप मात्र है । यह समझ में आना प्रकृति या परमात्मा की ’अनुग्रह’ शक्ति है । जीव-जगत् की लीला इन तीन शक्तियों का विलास मात्र है । आवरण और विक्षेप ही द्वन्द्व तथा मोह हैं जो इच्छा तथा द्वेष से अभिन्न हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 6,
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥
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(महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवः तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषाम् लोके इमाः प्रजाः ॥)
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भावार्थ :
सात महर्षि, तथा उनसे भी पहले होनेवाले चार (सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार) आदि ऋषि, तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु, सभी मेरे ही मानस के संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संतान ही यह संसार की समस्त प्रजा है ।
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’येषाम्’ / ’yeṣām’- to / of those who are concerned, in those who, for those who,
Chapter 1, śloka 33,
yeṣāmarthe kāṅkṣitaṃ no
rājyaṃ bhogāḥ sukhāni ca |
ta ime:'vasthitā yuddhe
prāṇāṃstyaktvā dhanāni ca ||
--
(yeṣām arthe kāṅkṣitam naḥ
rājyam bhogāḥ sukhāni ca |
te ime avasthitāḥ yuddhe
prāṇān tyaktvā dhanāni ca ||)
--
Meaning :
Those, for whom we desire the kingdom and the pleasures, having given up their all and everything, and even the (hopes of) their own lives, are standing here on the battle-field,
--
Chapter 2, śloka 35,
bhayādraṇāduparataṃ
maṃsyante tvāṃ mahārathāḥ |
yeṣāṃ ca tvaṃ bahumato
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||
--
(bhayāt raṇāt uparatam
maṃsyante tvām mahārathā ||
yeṣām ca tvam bahumataḥ
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||)
--
Meaning :
Those great warriors that presently admire you, will think you escaped from the battle because of fear, and will treat you as coward and worthless.
--
Chapter 5, śloka 16,
jñānena tu tadajñānaṃ
yeṣāṃ nāśitamātmanaḥ |
teṣāmādityavajjñānaṃ
prakāśayati tatparam ||
--
(jñānena tu yat ajñānam
yeṣām nāśitam ātmanaḥ |
teṣām ādityavat jñānam
prakāśayati tat param ||)
--
Meaning :
Those, who through that realization of the Self, have destroyed the ignorance of the Self, for them, the same realization shining like the Sun, also reveals the Supreme.
--
Chapter 5, śloka 19,
ihaiva tairjito sargo
yeṣāṃ sāmye sthitaṃ manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmādbrahmaṇi te sthitāḥ ||
--
(iha-eva taiḥ jitaḥ sargaḥ
yeṣām sāmye sthitam manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmāt brahmaṇi te sthitāḥ ||)
--
Meaning :
Those who have attained the equipoise of mind have conquered over the crisis of existing in a world full of sorrow and ignorance. They have attained identity with Brahman and are thus stainless and impartial in Him.
--
Chapter 7, śloka 28,
yeṣāṃ tvantagataṃ pāpaṃ
janānāṃ puṇyakarmaṇām |
te dvandvamohanirmuktā
bhajante māṃ dṛḍhavratāḥ ||
--
(yeṣām tu antagatam pāpam
janānām puṇyakarmaṇām |
te dvandvamohanirmuktāḥ
bhajante mām dṛḍhavratāḥ ||)
--
Meaning :
(In the previous śloka 27, it has been stated that all and every human being is born with a mind occupied with doubt (dvandva / confusion) and delusion (moha) that are with him because are the result of desire (icchā)and envy (dveṣa)
--
Note :
A 'self' in a body is because of desire and ignorance of the true nature of the self / consciousness. Because There is a body, that is 'found' in a world, the consciousness confined within the body is occupied with the idea of being some-one, a 'self'. This limitedness causes sense of incompleteness and desire and envy follow. The two powers of prakṛti / manifestation, namely āvaraṇa and vikṣepa, create desire and envy in the mind of such a 'self'. There is yet another power of anugraha (Grace) there in prakṛti / manifestation, that prompts one to think of this whole game and lets him break the bondage of sorrow, the cycle of birth and rebirth, and regain the Reality inherent.
--
Chapter 10, śloka 6,
maharṣayaḥ sapta pūrve
catvāro manavastathā |
madbhāvā mānasā jātā
yeṣāṃ loka imāḥ prajāḥ ||
--
(maharṣayaḥ sapta pūrve
catvāraḥ manavaḥ tathā |
madbhāvā mānasā jātā
yeṣām loke imāḥ prajāḥ ||)
--
Meaning :
Seven Greate sages (sapta rṣi), the four earlier (sanaka, sanātana, sanandana, sanatkumāra) even to those seven, and fourteen manu, (the foremost forefather of the man-kind), all were created by My own very Being / mind (saṃkalpa).
--
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आज का श्लोक
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Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’
आज का श्लोक,
’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’
_________________________
’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’ - योग के माध्यम से प्राप्त किए जाने के लिए उपयुक्त,
अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
--
(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’
_________________________
’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’ - योग के माध्यम से प्राप्त किए जाने के लिए उपयुक्त,
अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
--
(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’ - worth attained by following the discipline of yoga,
Chapter 6, śloka 23,
taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
--
(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
--
Meaning :
Know what is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
--
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’योक्तव्यः’ / ’yoktavyaḥ’,
6/23,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’
आज का श्लोक,
’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’
____________________________
’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’ - कुशल-क्षेम (के दायित्व) को,
अध्याय 9, श्लोक 22,
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
--
(अनन्याः चिन्तयन्तः माम् ये जनाः पर्युपासते ।
तेषाम् नित्याभियुक्तानाम् योगक्षेमम् वहामि अहम् ॥)
--
भावार्थ :
अपने आपको मुझसे अभिन्न जानते हुए, अनन्य-भक्ति (मैं और वे परस्पर अन्य नहीं, एकमेव हैं, इस भावना) सहित जो मेरा चिन्तन (ध्यान) करते हुए मेरी निष्काम उपासना करते हैं, उन मुझमें नित्य युक्त बुद्धि वाले भक्तों की आवश्यकताओं और कुशलता की चिन्ता मैं ही वहन करता हूँ ।
--
’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’ - the responsibilty of (his) well-being (who has dedicated himself unconditionally to Me).
Chapter 9, śloka 22,
ananyāścintayanto māṃ
ye janāḥ paryupāsate |
teṣāṃ nityābhiyuktānāṃ
yogakṣemaṃ vahāmyaham ||
--
(ananyāḥ cintayantaḥ mām
ye janāḥ paryupāsate |
teṣām nityābhiyuktānām
yogakṣemam vahāmi aham ||)
--
Meaning :
Those who have dedicated themselves unreservedly to Me, and always think of Me as their own very Being, and Worship Me through this conviction I carry the burden of all their worries, protect them and care for their wellness.
--
’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’
____________________________
’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’ - कुशल-क्षेम (के दायित्व) को,
अध्याय 9, श्लोक 22,
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
--
(अनन्याः चिन्तयन्तः माम् ये जनाः पर्युपासते ।
तेषाम् नित्याभियुक्तानाम् योगक्षेमम् वहामि अहम् ॥)
--
भावार्थ :
अपने आपको मुझसे अभिन्न जानते हुए, अनन्य-भक्ति (मैं और वे परस्पर अन्य नहीं, एकमेव हैं, इस भावना) सहित जो मेरा चिन्तन (ध्यान) करते हुए मेरी निष्काम उपासना करते हैं, उन मुझमें नित्य युक्त बुद्धि वाले भक्तों की आवश्यकताओं और कुशलता की चिन्ता मैं ही वहन करता हूँ ।
--
’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’ - the responsibilty of (his) well-being (who has dedicated himself unconditionally to Me).
Chapter 9, śloka 22,
ananyāścintayanto māṃ
ye janāḥ paryupāsate |
teṣāṃ nityābhiyuktānāṃ
yogakṣemaṃ vahāmyaham ||
--
(ananyāḥ cintayantaḥ mām
ye janāḥ paryupāsate |
teṣām nityābhiyuktānām
yogakṣemam vahāmi aham ||)
--
Meaning :
Those who have dedicated themselves unreservedly to Me, and always think of Me as their own very Being, and Worship Me through this conviction I carry the burden of all their worries, protect them and care for their wellness.
--
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’योगक्षेमम्’ / ’yogakṣemam’,
9/22,
आज का श्लोक
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Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’
आज का श्लोक,
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’
___________________________
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - योगविषयक लक्ष्य पर एकाग्र होने के प्रति,
अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - in the effort of fixing the attention on the object of yoga,
Chapter 8, śloka 12,
--
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--
Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy ((प्राण / prāṇa-s) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’
___________________________
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - योगविषयक लक्ष्य पर एकाग्र होने के प्रति,
अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - in the effort of fixing the attention on the object of yoga,
Chapter 8, śloka 12,
--
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--
Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy ((प्राण / prāṇa-s) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--
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’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’,
8/12,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगबलेन’ / ’yogabalena’
आज का श्लोक,
’योगबलेन’ / ’yogabalena’
___________________________
’योगबलेन’ / ’yogabalena’ - योगसामर्थ्य से,
अध्याय 8, श्लोक 10,
प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यं ॥
--
(प्रयाणकाले मनसा अचलेन ।
भक्त्या युक्तः योगबलेन च एव ।
भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक्
सः तम् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम् ॥)
--
भावार्थ :
(और) अन्त-समय आने पर अचल मन, भक्ति तथा (श्लोक 8 में कहे गए पूर्व में किए गए अभ्यास से सिद्ध हुए) योगबल की सहायता से ही वह भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित (आविष्ट) करते हुए वह उस परम पुरुष परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।
--
टिप्पणी :
उपदेशसार में भगवान् श्री रमण कहते हैं :
चित्तवायवः चित्क्रियायुताः ।
शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ॥
(श्लोक 12)
जिसका अर्थ यह है कि चित्त और प्राण जो क्रमशः बोध (अर्थात् भान) एवं क्रिया अर्थात् स्थूल भौतिक शक्ति के प्रभाव इन दो से युक्त होते हैं । किन्तु वस्तुतः वे दोनों एक ही मूलशक्ति के दो रूप मात्र होते हैं । अर्थात् ज्ञानशक्ति (’चित्’) और क्रियाशक्ति ’चेतना’ तथा भौतिक बल (प्राण) परस्पर एक दूसरे से अभिन्न हैं । इसलिए इनमें से किसी भी एक का अवलंबन लेकर दूसरे पर भी नियन्त्रण पाया जा सकता है । ज्ञानयोगी चित्त को सीधे ही उसके स्रोत की ओर ले जाता है, जबकि ध्यानयोगी पहले प्राणों को एकाग्र कर लेता है, और फिर संकल्प के बल से चित्त को लक्ष्य पर एकाग्र रखता है । दोनों ही कार्य तत्वतः एक ही फल उत्पन्न करते हैं । चित्त में निहित ’चित्’ (attention) या तो अपने पीछे प्राणों, इन्द्रियों आदि को खींचता है, या प्राणों की एकाग्रता के अभास में समर्थ हुए मनुष्य के चित्त को ’लक्ष्य’ में स्थिर रखता है । चित्त को गति करने के लिए प्राण का आधार चाहिए, वहीं चित्त में जिस लक्ष्य के प्रति आकर्षण होगा, चित्त उसी दिशा में जाएगा और अपने पीछे मन, बुद्धि इन्द्रियों को भी बलपूर्वक ले जाता है । उक्त श्लोक में दोनों ही विधियों का सुन्दर समावेश है ।
--
’योगबलेन’ / ’yogabalena’ - by means of the power of yoga,
Chapter 8, śloka 10,
prayāṇakāle manasācalena
bhaktyā yukto yogabalena caiva |
bhruvormadhye prāṇamāveśya samyak
sa taṃ paraṃ puruṣamupaiti divyaṃ ||
--
(prayāṇakāle manasā acalena |
bhaktyā yuktaḥ yogabalena ca eva |
bhruvoḥ madhye prāṇam āveśya samyak
saḥ tam param puruṣam upaiti divyam ||)
--
Meaning :
(Please see this shloka along-with shloka 1of this chapter. Those who by their whole devtion to Him, have mastered the skill of remembering Him (The Supreme Reality, / ’brahman’ / 'Self', / śrīkṛṣṇa paramātman) get stabilized in 'Heart', which is the Spiritual Heart / Love of Him, as Pure Consciousness Principle. Sri has emphasized that one who remembers Him through 'Self-Enquiry' need not and should not go through the circuitous path of yoga as is advised by the ardent supporters of yoga and yogik methods. The 'Self-Enquiry' can not proceed until there is devotion to The Lord, and if there is this devotion, Even the 'Self-Enquiry' is but an excuse only, and one shall reach and attain The Lord, with no exception. However, those who are inclined, interested and able enough to discover the 'prāṇa' (vital-breath) and ' cetanā ' (the awareness / consciousness associated with 'prāṇa'), and reach their common and the only source, wherefrom they emerge-out, take the manifest form and appear as different from one-another, as two, which is the 'Heart', they will find the same Reality as Self, There.
Such a devotee can easily bring the attention at the place where the two paths of 'prāṇa' change their course of movement along the 'kuṃḍalinī'. This happens only through pure devtion and by no other means. And such a devotee can thus bringing the at that prāṇa-centre, having attention there and remembering 'Me' That is, The Lord śrīkṛṣṇa paramātman, or 'Self' as 'Me' (I-Consciousness).
But again this is a secondary path, and in an earlier shloka 6, Lord has clearly pointed out that whatever one remembers and thinks of at the time of death, one attains the same state after his death. So one should always remember the Lord / Self.
--
Note :
In His short work 'upadeśasāra’ bhagavān śrī ramaṇa maharṣi says :
चित्तवायवः चित्क्रियायुताः ।
शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ॥
(श्लोक 12)
cittavāyavaḥ citkriyāyutāḥ |
śākhayordvayī śaktimūlakā ||
(śloka 12)
This means that ’चित्’ / ’cit’ - 'attention' / consciousness, and ’प्राण’ / ’prāṇa’, - 'material-energy' / physical force, are the two modes of the same power of manifestation, namely ’ज्ञानशक्ति’ / ’jñānaśakti’, - 'awareness', and, ’क्रियाशक्ति’ / ’kriyāśakti’, - the physical force. This way, one can according to his temperament, can either let the vital breath follow the consciousness / attention, or let the attention get fixed / concentrated on the object of meditation. In both these methods, there is a slight difference in practicing them, but the result is the same.
The above śloka 10 of Chapter 8, in an excellent way, deals with both of these .
--
’योगबलेन’ / ’yogabalena’
___________________________
’योगबलेन’ / ’yogabalena’ - योगसामर्थ्य से,
अध्याय 8, श्लोक 10,
प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यं ॥
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(प्रयाणकाले मनसा अचलेन ।
भक्त्या युक्तः योगबलेन च एव ।
भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक्
सः तम् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम् ॥)
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भावार्थ :
(और) अन्त-समय आने पर अचल मन, भक्ति तथा (श्लोक 8 में कहे गए पूर्व में किए गए अभ्यास से सिद्ध हुए) योगबल की सहायता से ही वह भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित (आविष्ट) करते हुए वह उस परम पुरुष परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।
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टिप्पणी :
उपदेशसार में भगवान् श्री रमण कहते हैं :
चित्तवायवः चित्क्रियायुताः ।
शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ॥
(श्लोक 12)
जिसका अर्थ यह है कि चित्त और प्राण जो क्रमशः बोध (अर्थात् भान) एवं क्रिया अर्थात् स्थूल भौतिक शक्ति के प्रभाव इन दो से युक्त होते हैं । किन्तु वस्तुतः वे दोनों एक ही मूलशक्ति के दो रूप मात्र होते हैं । अर्थात् ज्ञानशक्ति (’चित्’) और क्रियाशक्ति ’चेतना’ तथा भौतिक बल (प्राण) परस्पर एक दूसरे से अभिन्न हैं । इसलिए इनमें से किसी भी एक का अवलंबन लेकर दूसरे पर भी नियन्त्रण पाया जा सकता है । ज्ञानयोगी चित्त को सीधे ही उसके स्रोत की ओर ले जाता है, जबकि ध्यानयोगी पहले प्राणों को एकाग्र कर लेता है, और फिर संकल्प के बल से चित्त को लक्ष्य पर एकाग्र रखता है । दोनों ही कार्य तत्वतः एक ही फल उत्पन्न करते हैं । चित्त में निहित ’चित्’ (attention) या तो अपने पीछे प्राणों, इन्द्रियों आदि को खींचता है, या प्राणों की एकाग्रता के अभास में समर्थ हुए मनुष्य के चित्त को ’लक्ष्य’ में स्थिर रखता है । चित्त को गति करने के लिए प्राण का आधार चाहिए, वहीं चित्त में जिस लक्ष्य के प्रति आकर्षण होगा, चित्त उसी दिशा में जाएगा और अपने पीछे मन, बुद्धि इन्द्रियों को भी बलपूर्वक ले जाता है । उक्त श्लोक में दोनों ही विधियों का सुन्दर समावेश है ।
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’योगबलेन’ / ’yogabalena’ - by means of the power of yoga,
Chapter 8, śloka 10,
prayāṇakāle manasācalena
bhaktyā yukto yogabalena caiva |
bhruvormadhye prāṇamāveśya samyak
sa taṃ paraṃ puruṣamupaiti divyaṃ ||
--
(prayāṇakāle manasā acalena |
bhaktyā yuktaḥ yogabalena ca eva |
bhruvoḥ madhye prāṇam āveśya samyak
saḥ tam param puruṣam upaiti divyam ||)
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Meaning :
(Please see this shloka along-with shloka 1of this chapter. Those who by their whole devtion to Him, have mastered the skill of remembering Him (The Supreme Reality, / ’brahman’ / 'Self', / śrīkṛṣṇa paramātman) get stabilized in 'Heart', which is the Spiritual Heart / Love of Him, as Pure Consciousness Principle. Sri has emphasized that one who remembers Him through 'Self-Enquiry' need not and should not go through the circuitous path of yoga as is advised by the ardent supporters of yoga and yogik methods. The 'Self-Enquiry' can not proceed until there is devotion to The Lord, and if there is this devotion, Even the 'Self-Enquiry' is but an excuse only, and one shall reach and attain The Lord, with no exception. However, those who are inclined, interested and able enough to discover the 'prāṇa' (vital-breath) and ' cetanā ' (the awareness / consciousness associated with 'prāṇa'), and reach their common and the only source, wherefrom they emerge-out, take the manifest form and appear as different from one-another, as two, which is the 'Heart', they will find the same Reality as Self, There.
Such a devotee can easily bring the attention at the place where the two paths of 'prāṇa' change their course of movement along the 'kuṃḍalinī'. This happens only through pure devtion and by no other means. And such a devotee can thus bringing the at that prāṇa-centre, having attention there and remembering 'Me' That is, The Lord śrīkṛṣṇa paramātman, or 'Self' as 'Me' (I-Consciousness).
But again this is a secondary path, and in an earlier shloka 6, Lord has clearly pointed out that whatever one remembers and thinks of at the time of death, one attains the same state after his death. So one should always remember the Lord / Self.
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Note :
In His short work 'upadeśasāra’ bhagavān śrī ramaṇa maharṣi says :
चित्तवायवः चित्क्रियायुताः ।
शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ॥
(श्लोक 12)
cittavāyavaḥ citkriyāyutāḥ |
śākhayordvayī śaktimūlakā ||
(śloka 12)
This means that ’चित्’ / ’cit’ - 'attention' / consciousness, and ’प्राण’ / ’prāṇa’, - 'material-energy' / physical force, are the two modes of the same power of manifestation, namely ’ज्ञानशक्ति’ / ’jñānaśakti’, - 'awareness', and, ’क्रियाशक्ति’ / ’kriyāśakti’, - the physical force. This way, one can according to his temperament, can either let the vital breath follow the consciousness / attention, or let the attention get fixed / concentrated on the object of meditation. In both these methods, there is a slight difference in practicing them, but the result is the same.
The above śloka 10 of Chapter 8, in an excellent way, deals with both of these .
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Labels:
’योगबलेन’ / ’yogabalena’,
8/10,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Sunday, October 19, 2014
आज का श्लोक, ’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’
आज का श्लोक,
’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’
_________________________
’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’ - योगसाधन में अपूर्ण रह जानेवाला,
अध्याय 6, श्लोक 41,
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
--
(प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा कि पूर्वश्लोक क्रमांक 40 में कहा, श्रद्धावान् किन्तु चञ्चल मनवाले, योग में अस्थिरतापूर्वक संलग्न योगाभ्यासी का न तो इस लोक में और न मरणोत्तर प्राप्त होनेवाले लोक में विनाश होता है, हाँ वह कुछ समय के लिए मार्गच्युत हो सकता है किन्तु, फिर...) उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत काल तक निवास करने के बाद, शुद्ध आचरणवाले गृहस्थ के कुल में जन्म लेता है ।
--
’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’ - one who could not attain perfection in the practice of yoga,
Chapter 6, śloka 41,
prāpya puṇyakṛtāṃ lokān-
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnāṃ śrīmatāṃ gehe
yogabhraṣṭo:'bhijāyate ||
--
(prāpya puṇyakṛtām lokān
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnām śrīmatām gehe
yogabhraṣṭaḥ abhijāyate ||)
--
Meaning :
In the preceding śloka-s 37, 38, 39 and 40, arjuna raised a doubt about the state of one practicing yoga with due trust, but because of the unsteady mind fails to attain the goal, because of the unsteady mind. To which (bhagavān śrīkṛṣṇa) replies :
Such a man after living for many years (according to his good deeds before death in the previous life) in the worlds of higher realms (loka-s - like those of heavens), gets the next birth in the family of men of pure and chaste minds.
--
’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’
_________________________
’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’ - योगसाधन में अपूर्ण रह जानेवाला,
अध्याय 6, श्लोक 41,
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
--
(प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा कि पूर्वश्लोक क्रमांक 40 में कहा, श्रद्धावान् किन्तु चञ्चल मनवाले, योग में अस्थिरतापूर्वक संलग्न योगाभ्यासी का न तो इस लोक में और न मरणोत्तर प्राप्त होनेवाले लोक में विनाश होता है, हाँ वह कुछ समय के लिए मार्गच्युत हो सकता है किन्तु, फिर...) उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत काल तक निवास करने के बाद, शुद्ध आचरणवाले गृहस्थ के कुल में जन्म लेता है ।
--
’योगभ्रष्टः’ / ’yogabhraṣṭaḥ’ - one who could not attain perfection in the practice of yoga,
Chapter 6, śloka 41,
prāpya puṇyakṛtāṃ lokān-
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnāṃ śrīmatāṃ gehe
yogabhraṣṭo:'bhijāyate ||
--
(prāpya puṇyakṛtām lokān
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnām śrīmatām gehe
yogabhraṣṭaḥ abhijāyate ||)
--
Meaning :
In the preceding śloka-s 37, 38, 39 and 40, arjuna raised a doubt about the state of one practicing yoga with due trust, but because of the unsteady mind fails to attain the goal, because of the unsteady mind. To which (bhagavān śrīkṛṣṇa) replies :
Such a man after living for many years (according to his good deeds before death in the previous life) in the worlds of higher realms (loka-s - like those of heavens), gets the next birth in the family of men of pure and chaste minds.
--
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6/41,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’
आज का श्लोक,
’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’
__________________________________
’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’ -योगमाया* में आवरित,
अध्याय 7, श्लोक 25,
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजव्ययम् ॥
--
(न अहम् प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढः अयम् न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
अपनी योगमाया* में अच्छी तरह से आवरित मैं सबको प्रत्यक्ष प्रकटतः नहीं दिखलाई देता । यह मूढ संसार मुझ जन्मरहित अविनाशी मेरे स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है ।
--
*टिप्पणी :
(भगवान् की योगमाया के तीन पक्ष हैं - आवरण, विक्षेप और अनुग्रह । इन तीन शक्तियों के प्रभाव से ही आत्मा जीव के रूप में बन्धनग्रस्त होती है और फिर मुक्ति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप (भगवान्) में समाहित हो जाती है ।
--
’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’
__________________________________
’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’ -योगमाया* में आवरित,
अध्याय 7, श्लोक 25,
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजव्ययम् ॥
--
(न अहम् प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढः अयम् न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
अपनी योगमाया* में अच्छी तरह से आवरित मैं सबको प्रत्यक्ष प्रकटतः नहीं दिखलाई देता । यह मूढ संसार मुझ जन्मरहित अविनाशी मेरे स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है ।
--
*टिप्पणी :
(भगवान् की योगमाया के तीन पक्ष हैं - आवरण, विक्षेप और अनुग्रह । इन तीन शक्तियों के प्रभाव से ही आत्मा जीव के रूप में बन्धनग्रस्त होती है और फिर मुक्ति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप (भगवान्) में समाहित हो जाती है ।
--
’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’ - hidden under the veil of illusion caused because of my power of manifestation.
Chapter 7, śloka 25,
nāhaṃ prakāśaḥ sarvasya
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍho:'yaṃ nābhijānāti
loko māmajavyayam ||
--
(na aham prakāśaḥ sarvasya
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍhaḥ ayam na abhijānāti
lokaḥ mām ajam avyayam ||)
--
Meaning :
Hidden under My yogamāyā*, I AM not visible to all. So, this world ignorant of My Reality, is unable to know Me, -The Unborn and The Imperishable principle.
--
*Note :
yogamāyā is the power that manifests in the 3 forms as : āvaraṇa, vikṣepa, anugraha,
āvaraṇa, conceals the Reality from our eyes.
vikṣepa, imposes upon us something else as true.
anugraha, is the Grace, that enables to free ourselves from these two kinds which keep us in bondage.
--
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’
आज का श्लोक,
’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’
_____________________________
’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’ - योग के अभ्यास रूपी यज्ञ,
अध्याय 4, श्लोक 28,
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥
--
(द्रव्ययज्ञाः तपोयज्ञाः योगयज्ञाः तथा अपरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः च यतयः संशितव्रताः ॥)
--
भावार्थ :
कुछ लोग द्रव्य से संबंधित यज्ञ करते हैं, कुछ योगरूपी यज्ञ, अन्य कुछ स्वाध्याय तथा ज्ञान रूपी यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, जबकि कुछ तीक्ष्ण और कठिन व्रतों वाले यज्ञ करते हैं।
--
’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’ - the path of yoga,
Chapter 4, śloka 28,
dravyayajñāstapoyajñā
yogayajñāstathāpare |
svādhyāyajñānayajñāśca
yatayaḥ saṃśitavratāḥ ||
--
(dravyayajñāḥ tapoyajñāḥ
yogayajñāḥ tathā apare |
svādhyāyajñānayajñāḥ ca
yatayaḥ saṃśitavratāḥ ||)
--
Meaning :
Some perform sacrifice by means of offering the materials (dravyayajña), either in sacrificial Fires or donating the same to the needy and eligible recipients, Some observe austerities (tapoyajña), others follow the path of yoga (yogayajña), while aspirants (yatayaḥ) / seekers of Reality perform meditating upon 'brahman', studying scriptures (svādhyāyajña), and still others do hard kinds of penance (saṃśitavratāḥ) and rituals.
--
’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’
_____________________________
’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’ - योग के अभ्यास रूपी यज्ञ,
अध्याय 4, श्लोक 28,
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥
--
(द्रव्ययज्ञाः तपोयज्ञाः योगयज्ञाः तथा अपरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः च यतयः संशितव्रताः ॥)
--
भावार्थ :
कुछ लोग द्रव्य से संबंधित यज्ञ करते हैं, कुछ योगरूपी यज्ञ, अन्य कुछ स्वाध्याय तथा ज्ञान रूपी यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, जबकि कुछ तीक्ष्ण और कठिन व्रतों वाले यज्ञ करते हैं।
--
’योगयज्ञाः’ / ’yogayajñāḥ’ - the path of yoga,
Chapter 4, śloka 28,
dravyayajñāstapoyajñā
yogayajñāstathāpare |
svādhyāyajñānayajñāśca
yatayaḥ saṃśitavratāḥ ||
--
(dravyayajñāḥ tapoyajñāḥ
yogayajñāḥ tathā apare |
svādhyāyajñānayajñāḥ ca
yatayaḥ saṃśitavratāḥ ||)
--
Meaning :
Some perform sacrifice by means of offering the materials (dravyayajña), either in sacrificial Fires or donating the same to the needy and eligible recipients, Some observe austerities (tapoyajña), others follow the path of yoga (yogayajña), while aspirants (yatayaḥ) / seekers of Reality perform meditating upon 'brahman', studying scriptures (svādhyāyajña), and still others do hard kinds of penance (saṃśitavratāḥ) and rituals.
--
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4/28,
आज का श्लोक
आज का श्लोक, ’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’
आज का श्लोक,
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’
________________________
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - योग का अवलंबन लेनेवाला,
अध्याय 5, श्लोक 6,
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
--
(संन्यासः तु महा बाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तः मुनिर्ब्रह्म नचिरेण अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन) योग का अवलंबन लिए बिना कर्म का सम्यक् और परिपूर्ण त्याग करने का प्रयास क्लेश का कारण होता है । जबकि योग का अवलंबन लेनेवाला मुनि (अभ्यासरत मनुष्य) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 7,
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतातात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
--
(योगयुक्तः विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में सम्यकतया स्थित हुआ विशुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य जिसने अपने मन-बुद्धि इन्द्रियों को विवेकपूर्वक वश में कर लिया है, ऐसा वह आत्मा (मनुष्य) जिसने सबमें विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय चेतना) और अपने में विद्यमान अपने अस्तित्व की चेतना की परस्पर अभिन्नता को जान लिया हो, (प्रारब्धवश) विभिन्न कर्मों को करते हुए भी, स्वयं के अपने ’स्वतन्त्र कर्ता’ होने के, कर्तापन के अभिमान में लिप्त नहीं होता ।
--
अध्याय 8, श्लोक 27,
--
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
--
(न एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्-सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥)
--
भावार्थ :
इन दोनों मार्गों को* जानता हुआ कोई भी योगी मोहबुद्धि से ग्रस्त नहीं होता, अर्थात् मृत्यु के बाद भविष्य में होनेवाली उसकी गति / अवस्था के बारे में उसे दुविधा नहीं होती ।
इसलिए हे अर्जुन! तुम सभी कालों में, सदैव ही योगयुक्त हो रहो ।
(*इसी अध्याय 8 में पिछले श्लोक, क्रमांक 26 में वर्णित ’शुक्ल’ तथा ’कृष्ण’ गतियाँ)
--
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - one following the way of yoga with due understanding of its fundamentals.
Chapter 5, śloka 6,
saṃnyāsastu mahābāho
duḥkhamāptumayogataḥ |
yogayukto munirbrahma
nacireṇādhigacchati ||
--
(saṃnyāsaḥ tu mahā bāho
duḥkham āptum ayogataḥ |
yogayuktaḥ munirbrahma
nacireṇa adhigacchati ||)
--
Meaning :
Right Renunciation of action (karma) happens with the help of yoga only O mahābāhu, (arjuna) ! Without right understanding of the basis of yoga, one has to suffer a lot in achieving such disposition of mind where one can do this (right renuciation of action). With the help of yoga a practicing noble aspirant realizes Brahman without delay.
--
Chapter 5, śloka 7,
yogayukto viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātātmā
kurvannapi na lipyate ||
--
(yogayuktaḥ viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātmā
kurvan api na lipyate ||)
--
Meaning :
Such a One of pure mind and with the help of discrimination who has control over his mind (intellect), body and organs, so well-established in yoga, one who has realized the identity of the consciousness of one's own as the Consciousness that is manifest as world and all the beings of the world, though lets the actions happen (or not happen) in their own course, never entertains the idea that he is in any way, involved in doing those actions that seem to be done by him.
--
Chapter 8, śloka 27,
naite sṛtī pārtha jānan-
yogī muhyati kaścana |
tasmātsarveṣu kāleṣu
yogayukto bhavārjuna ||
--
(na ete sṛtī pārtha jānan
yogī muhyati kaścana |
tasmāt-sarveṣu kāleṣu
yogayuktaḥ bhavārjuna ||)
--
--
Meaning :
These two different paths* are available to one who practises the way of 'Yoga'. Therefore O arjuna! keep on practising Yoga at all times.
( *The two paths (’शुक्ल’, shukla and ’कृष्ण’/ ’kṛṣṇa’) as described in the previous śloka 26 of this chapter 8)
--
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’
________________________
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - योग का अवलंबन लेनेवाला,
अध्याय 5, श्लोक 6,
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
--
(संन्यासः तु महा बाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तः मुनिर्ब्रह्म नचिरेण अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन) योग का अवलंबन लिए बिना कर्म का सम्यक् और परिपूर्ण त्याग करने का प्रयास क्लेश का कारण होता है । जबकि योग का अवलंबन लेनेवाला मुनि (अभ्यासरत मनुष्य) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 7,
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतातात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
--
(योगयुक्तः विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में सम्यकतया स्थित हुआ विशुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य जिसने अपने मन-बुद्धि इन्द्रियों को विवेकपूर्वक वश में कर लिया है, ऐसा वह आत्मा (मनुष्य) जिसने सबमें विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय चेतना) और अपने में विद्यमान अपने अस्तित्व की चेतना की परस्पर अभिन्नता को जान लिया हो, (प्रारब्धवश) विभिन्न कर्मों को करते हुए भी, स्वयं के अपने ’स्वतन्त्र कर्ता’ होने के, कर्तापन के अभिमान में लिप्त नहीं होता ।
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अध्याय 8, श्लोक 27,
--
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
--
(न एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्-सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥)
--
भावार्थ :
इन दोनों मार्गों को* जानता हुआ कोई भी योगी मोहबुद्धि से ग्रस्त नहीं होता, अर्थात् मृत्यु के बाद भविष्य में होनेवाली उसकी गति / अवस्था के बारे में उसे दुविधा नहीं होती ।
इसलिए हे अर्जुन! तुम सभी कालों में, सदैव ही योगयुक्त हो रहो ।
(*इसी अध्याय 8 में पिछले श्लोक, क्रमांक 26 में वर्णित ’शुक्ल’ तथा ’कृष्ण’ गतियाँ)
--
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - one following the way of yoga with due understanding of its fundamentals.
Chapter 5, śloka 6,
saṃnyāsastu mahābāho
duḥkhamāptumayogataḥ |
yogayukto munirbrahma
nacireṇādhigacchati ||
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(saṃnyāsaḥ tu mahā bāho
duḥkham āptum ayogataḥ |
yogayuktaḥ munirbrahma
nacireṇa adhigacchati ||)
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Meaning :
Right Renunciation of action (karma) happens with the help of yoga only O mahābāhu, (arjuna) ! Without right understanding of the basis of yoga, one has to suffer a lot in achieving such disposition of mind where one can do this (right renuciation of action). With the help of yoga a practicing noble aspirant realizes Brahman without delay.
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Chapter 5, śloka 7,
yogayukto viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātātmā
kurvannapi na lipyate ||
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(yogayuktaḥ viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātmā
kurvan api na lipyate ||)
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Meaning :
Such a One of pure mind and with the help of discrimination who has control over his mind (intellect), body and organs, so well-established in yoga, one who has realized the identity of the consciousness of one's own as the Consciousness that is manifest as world and all the beings of the world, though lets the actions happen (or not happen) in their own course, never entertains the idea that he is in any way, involved in doing those actions that seem to be done by him.
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Chapter 8, śloka 27,
naite sṛtī pārtha jānan-
yogī muhyati kaścana |
tasmātsarveṣu kāleṣu
yogayukto bhavārjuna ||
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(na ete sṛtī pārtha jānan
yogī muhyati kaścana |
tasmāt-sarveṣu kāleṣu
yogayuktaḥ bhavārjuna ||)
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Meaning :
These two different paths* are available to one who practises the way of 'Yoga'. Therefore O arjuna! keep on practising Yoga at all times.
( *The two paths (’शुक्ल’, shukla and ’कृष्ण’/ ’kṛṣṇa’) as described in the previous śloka 26 of this chapter 8)
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5/7,
8/27,
आज का श्लोक
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Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’
आज का श्लोक,
’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’
___________________________
’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’ - योग में भली-भाँति स्थित हुआ,
अध्याय 6, श्लोक 29,
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
--
(सर्वभूतस्थम् आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥)
--
भावार्थ :
जो सम्पूर्ण भूतों में एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) को तथा सम्पूर्ण भूतों को एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) में देखता है, इस प्रकार से योग में स्थित हुआ सर्वत्र विद्यमान और एक समान एक ही तत्व का दर्शन करता है ।
--
’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’
___________________________
’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’ - योग में भली-भाँति स्थित हुआ,
अध्याय 6, श्लोक 29,
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
--
(सर्वभूतस्थम् आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥)
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भावार्थ :
जो सम्पूर्ण भूतों में एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) को तथा सम्पूर्ण भूतों को एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) में देखता है, इस प्रकार से योग में स्थित हुआ सर्वत्र विद्यमान और एक समान एक ही तत्व का दर्शन करता है ।
--
’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’ -firmly established in yoga,
Chapter 6, śloka 29,
sarvabhūtasthamātmānaṃ
sarvabhūtāni cātmani |
īkṣate yogayuktātmā
sarvatra samadarśanaḥ ||
--
(sarvabhūtastham ātmānam
sarvabhūtāni ca ātmani |
īkṣate yogayuktātmā
sarvatra samadarśanaḥ ||)
--
Meaning :
The one who sees the same Self in all beings, and all beings in the Self, such a One having realized and identified with Brahman sees everything as the same Reality.
--
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’योगयुक्तात्मा’ / ’yogayuktātmā’,
6/29,
आज का श्लोक
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Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’
आज का श्लोक,
’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’
___________________________
’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’ - योग के तत्त्व को अधिक अच्छी तरह से जाननेवाले,
अध्याय 12, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच :
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।
--
(एवं सततयुक्ताः ये भक्ताः त्वाम् पर्युपासते ।
ये च अपि अक्षरम्-अव्यक्तम् तेषाम् के योगवित्तमाः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया :
और वे भक्त जो निरंतर आपका स्मरण करते हुए आपकी उपासना करते हैं, तथा वे जो आपके अक्षर और अव्यक्त (ब्रह्म के) स्वरूप की उपासना करते हैं, उनमें से किसे उत्तम योगविद् कहा जा सकता है?
--
’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’ -those who know the essence of yoga better than the rest,
Chapter 12, śloka 1,
arjuna uvāca :
evaṃ satatayuktā ye
bhaktāstvāṃ paryupāsate |
ye cāpyakṣaramavyaktaṃ
teṣāṃ ke yogavittamāḥ |
--
(evaṃ satatayuktāḥ ye
bhaktāḥ tvām paryupāsate |
ye ca api akṣaram-avyaktam
teṣām ke yogavittamāḥ ||)
--
Meaning :
arjuna asked :
Out of Those who keep on remembering you every moment with utter devotion and those also, who worship you as the Imperishable, Formless Reality (brahman), Who of them could be said of having a higher attainment?
--
’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’
___________________________
’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’ - योग के तत्त्व को अधिक अच्छी तरह से जाननेवाले,
अध्याय 12, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच :
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।
--
(एवं सततयुक्ताः ये भक्ताः त्वाम् पर्युपासते ।
ये च अपि अक्षरम्-अव्यक्तम् तेषाम् के योगवित्तमाः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया :
और वे भक्त जो निरंतर आपका स्मरण करते हुए आपकी उपासना करते हैं, तथा वे जो आपके अक्षर और अव्यक्त (ब्रह्म के) स्वरूप की उपासना करते हैं, उनमें से किसे उत्तम योगविद् कहा जा सकता है?
--
’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’ -those who know the essence of yoga better than the rest,
Chapter 12, śloka 1,
arjuna uvāca :
evaṃ satatayuktā ye
bhaktāstvāṃ paryupāsate |
ye cāpyakṣaramavyaktaṃ
teṣāṃ ke yogavittamāḥ |
--
(evaṃ satatayuktāḥ ye
bhaktāḥ tvām paryupāsate |
ye ca api akṣaram-avyaktam
teṣām ke yogavittamāḥ ||)
--
Meaning :
arjuna asked :
Out of Those who keep on remembering you every moment with utter devotion and those also, who worship you as the Imperishable, Formless Reality (brahman), Who of them could be said of having a higher attainment?
--
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’योगवित्तमाः’ / ’yogavittamāḥ’,
12/1,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Saturday, October 18, 2014
आज का श्लोक, ’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’
आज का श्लोक,
’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’
_________________________
’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’ - जिसे योग कहा जाता है, योग नामक वस्तु,
अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
--
(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’
_________________________
’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’ - जिसे योग कहा जाता है, योग नामक वस्तु,
अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
--
(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’ -what is named as 'yoga'. what is called 'yoga',
Chapter 6, śloka 23,
taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
--
(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
--
Meaning :
Know what is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
--
Labels:
’योगसञ्ज्ञितम्’ / ’yogasaṃjñitam’,
6/23,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ / ’yogasaṃnyastakarmāṇam’
आज का श्लोक,
’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ /
’yogasaṃnyastakarmāṇam’
______________________
’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ / ’yogasaṃnyastakarmāṇam’ -जिसने योग का आश्रय लेते हुए कर्मों का सम्यक् न्यास कर दिया है उसको,
अध्याय 4, श्लोक 41,
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥
--
(योगसंन्यस्तकर्माणम् ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तम् न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥)
--
भावार्थ :
जिसने योग के अनुष्ठान (आचरण) के द्वारा कर्मों का समग्रतः न्यास कर दिया है, तथा ज्ञान के द्वारा जिसने सम्पूर्ण संशय का निवारण कर दिया है, उस आत्मवान को हे धनञ्जय (अर्जुन)! कर्म नहीं बाँधते ।
--
टिप्पणी :
(योगसंन्यस्तकर्माणम् > संन्यस्तानि कर्माणि येन, तम्) - जिसके द्वारा कर्म का समग्रतः न्यास कर दिया गया है, -उसको,
--
’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ / ’yogasaṃnyastakarmāṇam’ - To one, who has by practicing yoga has disposed of His all action (karma)
Chapter 4, śloka 41,
yogasaṃnyastakarmāṇaṃ
jñānasañchinnasaṃśayam |
ātmavantaṃ na karmāṇi
nibadhnanti dhanañjaya ||
--
(yogasaṃnyastakarmāṇam
jñānasañchinnasaṃśayam |
ātmavantam na karmāṇi
nibadhnanti dhanañjaya ||)
--
Meaning :
O dhanañjaya (arjuna)! Action (karma) no more binds the one, who has disposed of his allotted duties well, has done conscientious discharge of all his legitimate duties, and has, by means of wisdom, got cleared all his doubt (saṃśaya).
--
’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ /
’yogasaṃnyastakarmāṇam’
______________________
’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ / ’yogasaṃnyastakarmāṇam’ -जिसने योग का आश्रय लेते हुए कर्मों का सम्यक् न्यास कर दिया है उसको,
अध्याय 4, श्लोक 41,
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥
--
(योगसंन्यस्तकर्माणम् ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तम् न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥)
--
भावार्थ :
जिसने योग के अनुष्ठान (आचरण) के द्वारा कर्मों का समग्रतः न्यास कर दिया है, तथा ज्ञान के द्वारा जिसने सम्पूर्ण संशय का निवारण कर दिया है, उस आत्मवान को हे धनञ्जय (अर्जुन)! कर्म नहीं बाँधते ।
--
टिप्पणी :
(योगसंन्यस्तकर्माणम् > संन्यस्तानि कर्माणि येन, तम्) - जिसके द्वारा कर्म का समग्रतः न्यास कर दिया गया है, -उसको,
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’योगसंन्यस्तकर्माणम्’ / ’yogasaṃnyastakarmāṇam’ - To one, who has by practicing yoga has disposed of His all action (karma)
Chapter 4, śloka 41,
yogasaṃnyastakarmāṇaṃ
jñānasañchinnasaṃśayam |
ātmavantaṃ na karmāṇi
nibadhnanti dhanañjaya ||
--
(yogasaṃnyastakarmāṇam
jñānasañchinnasaṃśayam |
ātmavantam na karmāṇi
nibadhnanti dhanañjaya ||)
--
Meaning :
O dhanañjaya (arjuna)! Action (karma) no more binds the one, who has disposed of his allotted duties well, has done conscientious discharge of all his legitimate duties, and has, by means of wisdom, got cleared all his doubt (saṃśaya).
--
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Friday, October 17, 2014
आज का श्लोक, ’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’
आज का श्लोक,
’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’
____________________________
’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’ - योग की पूर्णता हो जाने पर,
अध्याय 4, श्लोक 38,
--
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
--
(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
--
भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
--
’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’
____________________________
’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’ - योग की पूर्णता हो जाने पर,
अध्याय 4, श्लोक 38,
--
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
--
(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
--
भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
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योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’ - when the perfection of yoga is accomplished.
Chapter 4, śloka 38,
na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||
--
(na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||)
--
Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
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’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’,
4/38,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगसंसिद्धिम्’ / ’yogasaṃsiddhim’
आज का श्लोक,
’योगसंसिद्धिम्’ / ’yogasaṃsiddhim’
____________________________
’योगसंसिद्धिम्’ / ’yogasaṃsiddhim’ - योग की पूर्णता की स्थिति को,
अध्याय 6, श्लोक 37,
अर्जुन उवाच :
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
--
(अयतिः श्रद्धया उपेतः योगात्-चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन बोले :
जिस मनुष्य की योग में स्वाभाविक निष्ठा है, किन्तु मन तथा इन्द्रियों आदि पर जिसका यथेष्ट संयम न होने से जो योग की पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सका है, हे कृष्ण! ऐसा मनुष्य (जीवन के अन्त में) किस गति को प्राप्त होता है?
--
’योगसंसिद्धिम्’ / ’yogasaṃsiddhim’
____________________________
’योगसंसिद्धिम्’ / ’yogasaṃsiddhim’ - योग की पूर्णता की स्थिति को,
अध्याय 6, श्लोक 37,
अर्जुन उवाच :
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
--
(अयतिः श्रद्धया उपेतः योगात्-चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन बोले :
जिस मनुष्य की योग में स्वाभाविक निष्ठा है, किन्तु मन तथा इन्द्रियों आदि पर जिसका यथेष्ट संयम न होने से जो योग की पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सका है, हे कृष्ण! ऐसा मनुष्य (जीवन के अन्त में) किस गति को प्राप्त होता है?
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’योगसंसिद्धिम्’ / ’yogasaṃsiddhim’ - The state of perfection in yoga,
Chapter 6, śloka 37,
arjuna uvāca :
ayatiḥ śraddhayopeto
yogāccalitamānasaḥ |
aprāpya yogasaṃsiddhiṃ
kāṃgatiṃ kṛṣṇa gacchati||
--
(ayatiḥ śraddhayā upetaḥ
yogāt-calitamānasaḥ |
aprāpya yogasaṃsiddhim
kām gatim kṛṣṇa gacchati ||)
--
Meaning :
arjuna said:
One who has enough trust in yoga, but because of lack of control over the senses and mind, could not attain perfection in this endeavor, O kṛṣṇa! what fate he comes across (at the end of his life)?
--
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Thursday, October 16, 2014
॥श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ... ॥
आज का श्लोक,
अध्याय 12, श्लोक 12,
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
--
उपरोक्त श्लोक का भाव समझने के लिए हम एक उदाहरण के रूप में ’ब्रह्मचर्य’ को देखें :
ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रायः केवल इन्द्रिय-निग्रह के रूप में ग्रहण किया जाता है । और हमें लगता है कि हमें ब्रह्मचर्य क्या है, इस बारे में और जानने की आवश्यकता नहीं है । किन्तु क्या इतना अर्थ ग्रहण कर लेने मात्र से मनुष्य के लिए इन्द्रिय-निग्रह कर पाना आसान हो जाता है? इतना अर्थ जानने के बाद जब मनुष्य किसी प्रेरणा, कर्तव्य या बाध्यता के कारण इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता अनुभव भी करता है, तो क्या वह आसानी से ऐसा कर पाता है? जैसा कि इस ग्रन्थ के अध्याय 8 के श्लोक 11 बतलाया गया है,
’जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा करते हुए वेदविद, यती तथा वीतराग पुरुष भी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस पद को मैं सार-रूप में तुम्हारे लिए निरूपित करूँगा ।’
--
अध्याय 8, श्लोक 11,
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं, और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
--
तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
--
अध्याय 2, श्लोक 67,
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
--
(इन्द्रियाणाम् हि चरताम् यत् मनः अनु-विधीयते ।
तत् अस्य हरति प्रज्ञाम् वायुः नावम् इव अम्भसि ॥)
--
भावार्थ :
इंद्रियों के विषयों में रत होते हुए जो / जिसका मन उनमें संलग्न होता है, उसे उसकी इन्द्रियाँ वैसे ही भोगों में बरबस खींच ले जाती हैं जैसे पानी में (पालदार) नौका को बहती वायु अपनी दिशा में ले जाती है ।
--
इसलिए वह मन अर्थात् चित्त को उन (इन्द्रियों) का अनुसरण नहीं करने देता । प्रथम के साथ यह समस्या है कि भोगों के प्रति आकर्षण और भोगों में सुख का आभास होने के कारण उसका मन वैसे ही उन भोगों का चिन्तन करता रहता है, और भोगों की कामना को तृप्त करने के लिए अवसर खोजता रहता है । उसे इसकी कल्पना तक नहीं होती कि भोगों में प्रतीत होनेवाला सुख एक अस्थायी अवस्था होने से वास्तव में दुःख का ही एक प्रकार मात्र है, न कि वास्तविक सुख । फिर भोगों का चित्त पर पड़ा सुखबुद्धि का संस्कार उसे पुनः पुनः भोगों की ओर खींचता रहता है । ऐसा मनुष्य का ध्यान कभी-न कभी उन भोगों से त्रस्त भी होने पर ’इन्द्रिय-निग्रह’ के महत्व की ओर भी जा सकता है, किन्तु चित्त पर पड़े संस्कार उसे यह समझने नहीं देते कि इसे कैसे किया जाए । उसके लिए इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इसलिए भर है कि वह भोगों से त्रस्त और व्याकुल हो गया है । उसके लिए ’ब्रह्मचर्य’ शायद एक ’आदर्श’ भी हो सकता है, किन्तु उसमें उसे कोई नई उपलब्धि होने की वैसी आशा या कल्पना तक नहीं है, जैसी कि दूसरे मनुष्य (वेदविद, यती, वीतराग, आदि) को होती है ।
--
इस प्रकार ’ब्रह्मचर्य’ का अभ्यास ज्ञानरहित अथवा ज्ञानसहित दो तरीकों से किया जाना संभव है ।
--
इसी आधार पर हम ’धर्म’ की भी विवेचना कर सकते हैं ।
न तो Celibacy शब्द ’ब्रह्मचर्य' के अर्थ का उपयुक्त द्योतक है, न religion धर्म के अर्थ का उपयुक्त द्योतक, और शायद इसीलिए आज के मनुष्य को तथाकथित बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों से कोई सहायता नहीं मिल पा रही है ।
अध्याय 12, श्लोक 12,
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
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उपरोक्त श्लोक का भाव समझने के लिए हम एक उदाहरण के रूप में ’ब्रह्मचर्य’ को देखें :
ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रायः केवल इन्द्रिय-निग्रह के रूप में ग्रहण किया जाता है । और हमें लगता है कि हमें ब्रह्मचर्य क्या है, इस बारे में और जानने की आवश्यकता नहीं है । किन्तु क्या इतना अर्थ ग्रहण कर लेने मात्र से मनुष्य के लिए इन्द्रिय-निग्रह कर पाना आसान हो जाता है? इतना अर्थ जानने के बाद जब मनुष्य किसी प्रेरणा, कर्तव्य या बाध्यता के कारण इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता अनुभव भी करता है, तो क्या वह आसानी से ऐसा कर पाता है? जैसा कि इस ग्रन्थ के अध्याय 8 के श्लोक 11 बतलाया गया है,
’जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा करते हुए वेदविद, यती तथा वीतराग पुरुष भी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस पद को मैं सार-रूप में तुम्हारे लिए निरूपित करूँगा ।’
--
अध्याय 8, श्लोक 11,
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
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(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
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भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं, और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
--
तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
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अध्याय 2, श्लोक 67,
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
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(इन्द्रियाणाम् हि चरताम् यत् मनः अनु-विधीयते ।
तत् अस्य हरति प्रज्ञाम् वायुः नावम् इव अम्भसि ॥)
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भावार्थ :
इंद्रियों के विषयों में रत होते हुए जो / जिसका मन उनमें संलग्न होता है, उसे उसकी इन्द्रियाँ वैसे ही भोगों में बरबस खींच ले जाती हैं जैसे पानी में (पालदार) नौका को बहती वायु अपनी दिशा में ले जाती है ।
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इसलिए वह मन अर्थात् चित्त को उन (इन्द्रियों) का अनुसरण नहीं करने देता । प्रथम के साथ यह समस्या है कि भोगों के प्रति आकर्षण और भोगों में सुख का आभास होने के कारण उसका मन वैसे ही उन भोगों का चिन्तन करता रहता है, और भोगों की कामना को तृप्त करने के लिए अवसर खोजता रहता है । उसे इसकी कल्पना तक नहीं होती कि भोगों में प्रतीत होनेवाला सुख एक अस्थायी अवस्था होने से वास्तव में दुःख का ही एक प्रकार मात्र है, न कि वास्तविक सुख । फिर भोगों का चित्त पर पड़ा सुखबुद्धि का संस्कार उसे पुनः पुनः भोगों की ओर खींचता रहता है । ऐसा मनुष्य का ध्यान कभी-न कभी उन भोगों से त्रस्त भी होने पर ’इन्द्रिय-निग्रह’ के महत्व की ओर भी जा सकता है, किन्तु चित्त पर पड़े संस्कार उसे यह समझने नहीं देते कि इसे कैसे किया जाए । उसके लिए इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इसलिए भर है कि वह भोगों से त्रस्त और व्याकुल हो गया है । उसके लिए ’ब्रह्मचर्य’ शायद एक ’आदर्श’ भी हो सकता है, किन्तु उसमें उसे कोई नई उपलब्धि होने की वैसी आशा या कल्पना तक नहीं है, जैसी कि दूसरे मनुष्य (वेदविद, यती, वीतराग, आदि) को होती है ।
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इस प्रकार ’ब्रह्मचर्य’ का अभ्यास ज्ञानरहित अथवा ज्ञानसहित दो तरीकों से किया जाना संभव है ।
--
इसी आधार पर हम ’धर्म’ की भी विवेचना कर सकते हैं ।
न तो Celibacy शब्द ’ब्रह्मचर्य' के अर्थ का उपयुक्त द्योतक है, न religion धर्म के अर्थ का उपयुक्त द्योतक, और शायद इसीलिए आज के मनुष्य को तथाकथित बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों से कोई सहायता नहीं मिल पा रही है ।
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Labels:
’ब्रह्मचर्य'/celibacy,
12/12,
2/67,
8/11,
कर्म या ज्ञान ?,
धर्म/religion
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगसेवया’ / ’yogasevayā’
आज का श्लोक,
’योगसेवया’ / ’yogasevayā’
______________________________
योगसेवया’ / ’yogasevayā’ - योग का आश्रय लेते हुए,
अध्याय 6, श्लोक 20,
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
--
(यत्र उपरमते चित्तम् निरुद्धम् योगसेवया ।
यत्र च एवआत्मानम् पश्यन् आत्मनि तुष्यति ॥)
--
भावार्थ :
जहाँ इस योग साधन के अभ्यास से निरुद्ध हुई जागरूक चित्त-वृत्ति (शान्त हुआ चित्त), अनायास सुस्थिर और शान्त हो जाती है, और जहाँ अपने-आप (आत्मा) को अपने-आप (आत्मा) में देखते हुए, आत्मा में संतोष पाया जाता है, ...
--
योगसेवया’ / ’yogasevayā’ -Through this practice of yoga,
Chapter 6, śloka 20,
yatroparamate cittaṃ
niruddhaṃ yogasevayā |
yatra caivātmanātmānaṃ
paśyannātmani tuṣyati ||
--
(yatra uparamate cittam
niruddham yogasevayā |
yatra ca evaātmānam
paśyan ātmani tuṣyati ||)
--
Meaning :
Through this practice of yoga, where the modes of the mind (citta-vṛttis) are brought to utter stillness and it enjoys peace effortless and natural, Through this practice of yoga, where one realizes the Self in Self and through Self, and is content in one's own That Self.
--
’योगसेवया’ / ’yogasevayā’
______________________________
योगसेवया’ / ’yogasevayā’ - योग का आश्रय लेते हुए,
अध्याय 6, श्लोक 20,
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
--
(यत्र उपरमते चित्तम् निरुद्धम् योगसेवया ।
यत्र च एवआत्मानम् पश्यन् आत्मनि तुष्यति ॥)
--
भावार्थ :
जहाँ इस योग साधन के अभ्यास से निरुद्ध हुई जागरूक चित्त-वृत्ति (शान्त हुआ चित्त), अनायास सुस्थिर और शान्त हो जाती है, और जहाँ अपने-आप (आत्मा) को अपने-आप (आत्मा) में देखते हुए, आत्मा में संतोष पाया जाता है, ...
--
योगसेवया’ / ’yogasevayā’ -Through this practice of yoga,
Chapter 6, śloka 20,
yatroparamate cittaṃ
niruddhaṃ yogasevayā |
yatra caivātmanātmānaṃ
paśyannātmani tuṣyati ||
--
(yatra uparamate cittam
niruddham yogasevayā |
yatra ca evaātmānam
paśyan ātmani tuṣyati ||)
--
Meaning :
Through this practice of yoga, where the modes of the mind (citta-vṛttis) are brought to utter stillness and it enjoys peace effortless and natural, Through this practice of yoga, where one realizes the Self in Self and through Self, and is content in one's own That Self.
--
Labels:
’योगसेवया’ / ’yogasevayā’,
6/20,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगस्थः’ / ’yogasthaḥ’
आज का श्लोक,
’योगस्थः’ / ’yogasthaḥ’
___________________________
’योगस्थः’ / ’yogasthaḥ’ -योग में अवस्थित, स्थिर होकर,
अध्याय 2, श्लोक 48,
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
--
(योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
--
’योगत्स्थः’ / ’yogasthaḥ’ - having established in yoga,
Chapter 2, śloka 48,
yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
--
(yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgam tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
--
Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself with the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
--
’योगस्थः’ / ’yogasthaḥ’
___________________________
’योगस्थः’ / ’yogasthaḥ’ -योग में अवस्थित, स्थिर होकर,
अध्याय 2, श्लोक 48,
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
--
(योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
--
’योगत्स्थः’ / ’yogasthaḥ’ - having established in yoga,
Chapter 2, śloka 48,
yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
--
(yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgam tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
--
Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself with the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
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’योगस्थः’ / ’yogasthaḥ’,
2/48,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
Wednesday, October 15, 2014
आज का श्लोक, ’योगस्य’ / ’yogasya’
आज का श्लोक, ’योगस्य’ / ’yogasya’
____________________________
’योगस्य’ / ’yogasya’ - योग का, योग-विषयक,
अध्याय 6, श्लोक 44,
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ॥
--
(पूर्वाभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि-अवशः अपि सः ।
जिज्ञासुः अपि योगस्य शब्दब्रह्म-अतिवर्तते ॥)
--
भावार्थ :
जिस योगी की मृत्यु योग की पूर्णता को प्राप्त करने से पहले हो जाती है, ऐसा मनुष्य भी अपने संस्कारों के बल से खींचा जाकर किसी उपयुक्त कुल में जन्म लेता है, जहाँ उसे ऐसा उचित वातावरण मिलता है, जिससे वह पुनः सम्यक मार्ग को ग्रहण कर लेता है, और ब्रह्म के शाब्दिक रूप से परे जाकर तत्व को प्राप्त हो जाता है ।
--
’योगस्य’ / ’yogasya’ - of yoga,
Chapter 6, śloka 44,
pūrvābhyāsena tenaiva
hriyate hyavaśo:'pi saḥ |
jijñāsurapi yogasya
śabdabrahmāti vartate ||
--
(pūrvābhyāsena tena eva
hriyate hi-avaśaḥ api saḥ |
jijñāsuḥ api yogasya
śabdabrahma-ativartate ||)
--
Meaning :
A yogī, the aspirant for Truth, never falls from the path of yoga, Though if dies before reaching the goal of Self-realization, because 'drawn' by the force of the latent tendencies (saṃskāra), he is 'reborn' in a noble clan where he comes again in touch with the right teachings that leads him onto the right path, transcends the mere verbal descriptions of Brahman and attains the Reality (Brahman) in true sense of the word.
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’योगस्य’ / ’yogasya’ - योग का, योग-विषयक,
अध्याय 6, श्लोक 44,
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ॥
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(पूर्वाभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि-अवशः अपि सः ।
जिज्ञासुः अपि योगस्य शब्दब्रह्म-अतिवर्तते ॥)
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भावार्थ :
जिस योगी की मृत्यु योग की पूर्णता को प्राप्त करने से पहले हो जाती है, ऐसा मनुष्य भी अपने संस्कारों के बल से खींचा जाकर किसी उपयुक्त कुल में जन्म लेता है, जहाँ उसे ऐसा उचित वातावरण मिलता है, जिससे वह पुनः सम्यक मार्ग को ग्रहण कर लेता है, और ब्रह्म के शाब्दिक रूप से परे जाकर तत्व को प्राप्त हो जाता है ।
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’योगस्य’ / ’yogasya’ - of yoga,
Chapter 6, śloka 44,
pūrvābhyāsena tenaiva
hriyate hyavaśo:'pi saḥ |
jijñāsurapi yogasya
śabdabrahmāti vartate ||
--
(pūrvābhyāsena tena eva
hriyate hi-avaśaḥ api saḥ |
jijñāsuḥ api yogasya
śabdabrahma-ativartate ||)
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Meaning :
A yogī, the aspirant for Truth, never falls from the path of yoga, Though if dies before reaching the goal of Self-realization, because 'drawn' by the force of the latent tendencies (saṃskāra), he is 'reborn' in a noble clan where he comes again in touch with the right teachings that leads him onto the right path, transcends the mere verbal descriptions of Brahman and attains the Reality (Brahman) in true sense of the word.
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6/44,
आज का श्लोक
Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
आज का श्लोक, ’योगम्’ / ’yogam’
आज का श्लोक, ’योगम्’ / ’yogam’
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’योगम्’ / ’yogam’ - योग की पूर्णता को, योग की उपयुक्त स्थिति को,
अध्याय 2, श्लोक 53,
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श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
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(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
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भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें योग (रूपी लक्ष्य) की उपलब्धि हो जाएगी ।
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अध्याय 4, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
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(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
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भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
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अध्याय 4, श्लोक 42,
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
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(तस्मात् अज्ञानसंभूतम् हृत्स्थम् ज्ञानासिना आत्मनः ।
छित्त्वा एनम् संशयम् योगम् आतिष्ठ उत्तिष्ठ भारत ॥)
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भावार्थ :
अतः हे भारत (अर्जुन)! उठो, तुम्हारे अन्तःकरण में अज्ञान से उत्पन्न हुए और स्थित, इस संशय को विवेक रूपी तलवार से काटकर, योग में दृढता से स्थित हो जाओ !
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अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
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(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
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अध्याय 5, श्लोक 5,
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पस्यति ॥
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(यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानम् तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकम् साङ्ख्यम् च योगम् च यह पश्यति सः पश्यति ॥)
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भावार्थ :
जो (परम श्रेष्ठ) स्थान साङ्ख्य-योगियों (अर्थात् ज्ञानयोगियों) के द्वारा पाया जाता है, योगियों (अर्थात् कर्म-योगियों) द्वारा भी उसे ही प्राप्त किया जाता है । जो यह देखता है कि साङ्ख्य (अर्थात् ज्ञान) तथा योग (अर्थात् कर्मयोग) स्वरूपतः एकमेव हैं, वही (इनके स्वरूप) को (वस्तुतः) देख पाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
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(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
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भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
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अध्याय 6, श्लोक 3,
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
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(आरुरुक्षोः मुनेः योगम् कर्म कारणम् उच्यते ।
योगारूढस्य तस्य एव शमः कारणम् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में आरूढ होने की इच्छा जिसे होती है, उस मननशील (योग का अभ्यास करनेवाले) के लिए इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करना ही पर्याप्त कारण होता है । और जो योग में आरूढ हो चुका होता है, उसके लिए संकल्पमात्र का शमन हो जाना ही योग में उसकी नित्यस्थिति के लिए पर्याप्त कारण होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 12,
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
--
(तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म-विशुद्धये ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक 11 से आगे, ...)
वहाँ, उस शुद्ध स्वच्छ भूमि पर, ... मन को एकाग्र अर्थात् मन में एक संकल्प को आगे रखते हुए, चित्त तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयत / नियन्त्रण में रखते हुए, आसन पर बैठकर, आत्म-शुद्धि के लिए योग का अवलंबन ले ।
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टिप्पणी :
मन में एक संकल्प के रहने पर अन्य सब संकल्प उसमें लीन हो जाते हैं और अन्ततः वह संकल्प भी आधारभूत चेतना में लीन हो जाता है । यह सिद्धान्त अर्थात् योग का विज्ञान है जिसे प्रयोग द्वारा परीक्षित और सिद्ध किया जाना चाहिए ।
चित्त तथा इन्द्रियों को संयत करने से आशय है कि ध्यानपूर्वक उन्हें बाह्य विषयों से परावृत कर (लौटाकर) अपने विशिष्ट संकल्प की ओर लाने का अभ्यास किया जाए । यह संकल्प इष्ट देवता की साकार आकृति, नाम, मन्त्र, या श्वासोच्छ्वास की गतिविधि भी हो सकता है । यह संकल्प प्रश्न-रूप में अपने / आत्मा / परमात्मा के स्वरूप या ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में जिज्ञासा के रूप में भी हो सकता है । यह संकल्प, वृत्तिमात्र की प्रकृति को समझने की चेष्टा, या वृत्ति के स्रोत को जानने के प्रयास के रूप में भी हो सकता है । यह इस पर निर्भर है कि साधक का मन तथा संस्कार उसे किस ओर प्रवृत्त करते हैं । कोई-कोई सिद्धि या भौतिक कामनाओं की पूर्ति या कौतूहल से प्रेरित होकर भी किसी विशेष प्रयास में संलग्न हो सकता है, किन्तु तब प्राय उसे अन्त में निराशा ही हाथ लगती है । इसलिए ’आत्म-विशुद्धि’ बुनियादी आवश्यकता है, जिसके लिए योगसाधन किया जाना चाहिए । ध्यान तथा आत्मानुसंधान का भेद समझना भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान् श्री रमणमहर्षि द्वारा रचित् ’उपदेश-सार’ तथा ’सद्दर्शनम्’ संक्षेप में बहुत गूढ शिक्षा प्रदान करते हैं, विस्तार से समझने के लिए इनका अवलोकन अवश्य करना चाहिए, ऐसा कहा जा सकता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
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(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
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जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
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(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
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भावार्थ 2:
हे पार्थ, ’अहम्’ / ’आत्मा’ / अपने-आप से अत्यन्त प्रेम करते हुए अपने ही अन्तर्हृदय में गहरे डूबकर, जहाँ से ’अहं-वृत्ति’ का तथा अन्य सभी गौण वृत्तियों का भी उठना-विलीन होना होता है, उसे जानने पर तुम कैसे समग्रतः आत्मा को जान लोगे, इसे मुझसे सुनो ।
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अध्याय 9, श्लोक 5,
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
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(न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृत् न च भूतस्थः मम आत्मा भूतभावनः ॥)
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भावार्थ :
मेरे ईश्वरीय योग-सामर्थ्य को देखो कि यद्यपि ये भूत मुझमें नहीं हैं किन्तु फिर भी समस्त भूतों में उनके आधारभूत की तरह स्थित हुआ मैं ही उनका पालन-पोषण करता हूँ और मेरी आत्मा अर्थात् स्वरूप उन्हें अत्यन्त प्रिय है ।
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अध्याय 10, श्लोक 7,
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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
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(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
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अध्याय 10, श्लोक 18,
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
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(विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि शृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् ॥)
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भावार्थ :
हे जनार्दन (कृष्ण)! आप अपनी योगमाया की शक्ति और विभूतियों का पुनः और अधिक विस्तार से वर्णन करें, क्योंकि आपके इन अमृत-वचनों को सुनते हुए मुझ सुननेवाले की और सुनने की उत्कण्ठा अतृप्त ही रहती है ।
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अध्याय 11, श्लोक 8,
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
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(न तु माम् शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्वचक्षुषा ।
दिव्यम् ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगम्-ऐश्वरम् ॥)
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भावार्थ :
मुझे तुम अपने इस (प्रकृतिप्रदत्त/ स्थूल) नेत्र से नहीं देख सकते हो । इसके लिए मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ, इससे तुम मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देखो ।
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अध्याय 18, श्लोक 75,
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥
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(व्यास-प्रसादात् श्रुतवान्-एतत्-गुह्यम्-अहम् परम् ।
योगम् योगेश्वरात्-कृष्णात्-साक्षात्-कथयतः स्वयम् ॥)
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स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे जाते हुए इस परम गोपनीय योग को महर्षि श्री व्यासजी के अनुग्रह से (दिव्य-दृष्टि पाकर) मैंने स्वयं प्रत्यक्ष सुना ।
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’योगम्’ / ’yogam’- the objective that is 'yoga', perfection in yoga,
Chapter 2, śloka 53,
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śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
--
(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
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Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
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Chapter 4, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
imaṃ vivasvate yogaṃ
proktavānahamavyayam |
vivasvānmanave prāha
manurikṣvākave:'bravīt ||
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(imam vivasvate yogam
proktavān aham avyayam |
vivasvān manave prāha
manuḥ ikṣvākave abravīta ||)
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Meaning :
I, the Eternal Self-Divine imparted this element of yoga to vivasvān (Sun*), vivasvān to manu*, and then manu to ikṣvāku,
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Chapter 4, śloka 42,
tasmādajñānasaṃbhūtaṃ
hṛtsthaṃ jñānāsinātmanaḥ |
chittvainaṃ saṃśayaṃ yogam-
ātiṣṭhottiṣṭha bhārata ||
--
(tasmāt ajñānasaṃbhūtam
hṛtstham jñānāsinā ātmanaḥ |
chittvā enam saṃśayam yogam
ātiṣṭha uttiṣṭha bhārata ||)
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Meaning :
Therefore O bhārata (arjuna)! Arise, stand up with determination, and by means of the sword of the wisdom, cut down the doubt born of ignorance and is rooted deep down there in your mind.
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Chapter 5, śloka 1,
arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
--
(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekaṃ
tat me brūhi suniścitam ||)
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Meaning :
arjuna said : O kṛṣṇa! You speak of Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
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Chapter 5, śloka 5,
yatsāṅkhyaiḥ prāpyate sthānaṃ
tadyogairapi gamyate |
ekaṃ sāṅkhyaṃ ca yogaṃ ca
yaḥ paśyati sa pasyati ||
--
(yat sāṅkhyaiḥ prāpyate sthānam
tat yogaiḥ api gamyate |
ekam sāṅkhyam ca yogam ca
yaha paśyati saḥ paśyati ||)
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Meaning :
The (Supreme) state that is attained by those sāṅkhya-yogin-s who abide in wisdom (sāṅkhya), is the same as that is attained by the karma-yogin-s (yogin-s). One who realizeds that the two are one and the same, sees the truth indeed.
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Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
--
(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
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Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire (saṅkalpa-vṛtti).
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Chapter 6, śloka 3,
ārurukṣormuneryogaṃ
karma kāraṇamucyate |
yogārūḍhasya tasyaiva
śamaḥ kāraṇamucyate ||
--
(ārurukṣoḥ muneḥ yogam
karma kāraṇam ucyate |
yogārūḍhasya tasya eva
śamaḥ kāraṇam ucyate ||)
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Meaning :
There are two stages in acquiring and stabilising yoga. The first (ārurukṣa > aspiring to attain yoga), that means practicing (karma), efforts that are accompanied by self-less action (niṣkāma karma), and the next is (yogārūḍha) when one has to free the mind from thought (saṃkalpa / vṛtti), that means subsiding / elimination of thought in all its forms (modes of mind. This includes the key-thought that is the source of all thought as such. This prime thought is I-thought (aham-vṛtti / aham-saṅkalpa).
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When all thought is calmed down, the aspirant is said to have firmly established in Yoga (sthita-dhī / sthitaprajña). --And the practice therefore in the second / advanced stage of yoga is to pacify the thought (śama). This may further intensified by means of 'Self-Enquiry' as is taught by (bhagavān śrī ramaṇa maharṣi).
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Note : śamaḥ is about purification of mind. damaḥ is about the control of the senses. Mind is subtle than senses. It is the mind that gets involved in senses and the functioning of them. But if the senses forcibly drive the mind, it should be taken care of. This happens because mind finds gratification in the pleasures obtained throuh the indulgence in senses. This 'pleasure' is transitory and is soon lost. That is the reason why mind should prevail over the senses and this much is enough to control them. Mind is no doubt stronger and has more power than the senses. So damaḥ is for the senses, while śamaḥ is for the mind. The mind that is purified itself becomes strong, calm and peaceful.
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Chapter 6, śloka 12,
tatraikāgraṃ manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśyāsane yuñjyād-
yogamātmaviśuddhaye ||
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(tatra ekāgram manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśya āsane yuñjyāt
yogam ātma-viśuddhaye ||)
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Meaning :
(starting from the preceding śloka 11, ... There on the clean ground, one should fix the seat for meditation, ...) and keeping the mind one-pointed, controlling the senses and the intellect / thought / (citta), not allowing the attention to go outward toward the objects of the mind and the senses, one should sit comfortably on this seat, and try to fix the attention on the 'Self' / 'self' in whatever way one can start with with the purpose of purification of the mind.
--
Note :
According to one's temperament and conditioning of the mind, predisposition, one can either contemplate about the nature of consciousness, or keep a single thought at the fore, excluding all other thought(s), either through effort, or through ignoring them and reminding oneself of the purpose of meditation repeatedly. One can also chant a sacred syllable / mantra, or visualize the form of some divine aspect of the Supreme Reality, in what-ever one would like to. One can investigate in a hundred ways and meditate in a thousand ways, but the core aim here is the purification of the mind. If you miss this, you miss all.
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Chapter 6, śloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
--
(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
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Captter 7, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
--
(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
--
Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
--
Chapter 9, śloka 5,
na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogamaiśvaram |
bhūtabhṛnna ca bhūtastho
mamātmā bhūtabhāvanaḥ ||
--
(na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogam aiśvaram |
bhūtabhṛt na ca bhūtasthaḥ
mama ātmā bhūtabhāvanaḥ ||)
--
Meaning :
See My Divine splendor of Yoga! These beings are not there in Me, though I AM ever there, in the core of their very being and I sustain them. I AM their Beloved and keep them happy.
--
Chapter 10, śloka 7,
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
--
Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms (vibhūti) andthe Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
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Chapter 10, śloka 18,
vistareṇātmano yogaṃ
vibhūtiṃ ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi
śṛṇvato nāsti me:'mṛtam ||
--
(vistareṇa ātmanaḥ yogam
vibhūtim ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptiḥ hi
śṛṇvataḥ na asti me amṛtam ||)
--
Meaning :
O janārdana (kṛṣṇa) ! Please describe for me Your divine power of yogamāyā and the divine glories in details, because while hearing your ambrosial words, my thirst is not quenched and asks for even more.
--
Chapter 11, śloka 8,
na tu māṃ śakyase draṣṭum-
anenaiva svacakṣuṣā |
divyaṃ dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogamaiśvaram ||
--
(na tu mām śakyase draṣṭum
anena eva svacakṣuṣā |
divyam dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogam-aiśvaram ||)
--
Meaning :
Through your this physical eye, it is not possible for you to see MY Divine affluence. To see My Majestic form, The Divine power of yoga (yogamaiśvaram), I give you this divine-eye, See Me through this.
--
Chapter 18, śloka 75,
vyāsaprasādācchrutavān-
etadguhyamahaṃ param |
yogaṃ yogeśvarātkṛṣṇāt-
sākṣātkathayataḥ svayam ||
--
(vyāsa-prasādāt śrutavān-
etat-guhyam-aham param |
yogam yogeśvarāt-kṛṣṇāt-
sākṣāt-kathayataḥ svayam ||)
--
Meaning :
By the Grace of maharṣi śrī vyāsa, Having acquired the divine vision, I have heard these most confidential talks directly from the Lord of all yoga, yogeśvara bhagavān śrīkṛṣṇa. And I myself before my own eyes, saw Him Himself imparting this to Arjuna.
--
______________________________
’योगम्’ / ’yogam’ - योग की पूर्णता को, योग की उपयुक्त स्थिति को,
अध्याय 2, श्लोक 53,
--
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
--
(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
--
भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें योग (रूपी लक्ष्य) की उपलब्धि हो जाएगी ।
--
अध्याय 4, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
--
(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
--
भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
--
अध्याय 4, श्लोक 42,
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
--
(तस्मात् अज्ञानसंभूतम् हृत्स्थम् ज्ञानासिना आत्मनः ।
छित्त्वा एनम् संशयम् योगम् आतिष्ठ उत्तिष्ठ भारत ॥)
--
भावार्थ :
अतः हे भारत (अर्जुन)! उठो, तुम्हारे अन्तःकरण में अज्ञान से उत्पन्न हुए और स्थित, इस संशय को विवेक रूपी तलवार से काटकर, योग में दृढता से स्थित हो जाओ !
--
अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
--
अध्याय 5, श्लोक 5,
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पस्यति ॥
--
(यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानम् तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकम् साङ्ख्यम् च योगम् च यह पश्यति सः पश्यति ॥)
--
भावार्थ :
जो (परम श्रेष्ठ) स्थान साङ्ख्य-योगियों (अर्थात् ज्ञानयोगियों) के द्वारा पाया जाता है, योगियों (अर्थात् कर्म-योगियों) द्वारा भी उसे ही प्राप्त किया जाता है । जो यह देखता है कि साङ्ख्य (अर्थात् ज्ञान) तथा योग (अर्थात् कर्मयोग) स्वरूपतः एकमेव हैं, वही (इनके स्वरूप) को (वस्तुतः) देख पाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
--
(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
--
भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
--
अध्याय 6, श्लोक 3,
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
--
(आरुरुक्षोः मुनेः योगम् कर्म कारणम् उच्यते ।
योगारूढस्य तस्य एव शमः कारणम् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में आरूढ होने की इच्छा जिसे होती है, उस मननशील (योग का अभ्यास करनेवाले) के लिए इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करना ही पर्याप्त कारण होता है । और जो योग में आरूढ हो चुका होता है, उसके लिए संकल्पमात्र का शमन हो जाना ही योग में उसकी नित्यस्थिति के लिए पर्याप्त कारण होता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 12,
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
--
(तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म-विशुद्धये ॥)
--
भावार्थ :
(पिछले श्लोक 11 से आगे, ...)
वहाँ, उस शुद्ध स्वच्छ भूमि पर, ... मन को एकाग्र अर्थात् मन में एक संकल्प को आगे रखते हुए, चित्त तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयत / नियन्त्रण में रखते हुए, आसन पर बैठकर, आत्म-शुद्धि के लिए योग का अवलंबन ले ।
--
टिप्पणी :
मन में एक संकल्प के रहने पर अन्य सब संकल्प उसमें लीन हो जाते हैं और अन्ततः वह संकल्प भी आधारभूत चेतना में लीन हो जाता है । यह सिद्धान्त अर्थात् योग का विज्ञान है जिसे प्रयोग द्वारा परीक्षित और सिद्ध किया जाना चाहिए ।
चित्त तथा इन्द्रियों को संयत करने से आशय है कि ध्यानपूर्वक उन्हें बाह्य विषयों से परावृत कर (लौटाकर) अपने विशिष्ट संकल्प की ओर लाने का अभ्यास किया जाए । यह संकल्प इष्ट देवता की साकार आकृति, नाम, मन्त्र, या श्वासोच्छ्वास की गतिविधि भी हो सकता है । यह संकल्प प्रश्न-रूप में अपने / आत्मा / परमात्मा के स्वरूप या ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में जिज्ञासा के रूप में भी हो सकता है । यह संकल्प, वृत्तिमात्र की प्रकृति को समझने की चेष्टा, या वृत्ति के स्रोत को जानने के प्रयास के रूप में भी हो सकता है । यह इस पर निर्भर है कि साधक का मन तथा संस्कार उसे किस ओर प्रवृत्त करते हैं । कोई-कोई सिद्धि या भौतिक कामनाओं की पूर्ति या कौतूहल से प्रेरित होकर भी किसी विशेष प्रयास में संलग्न हो सकता है, किन्तु तब प्राय उसे अन्त में निराशा ही हाथ लगती है । इसलिए ’आत्म-विशुद्धि’ बुनियादी आवश्यकता है, जिसके लिए योगसाधन किया जाना चाहिए । ध्यान तथा आत्मानुसंधान का भेद समझना भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान् श्री रमणमहर्षि द्वारा रचित् ’उपदेश-सार’ तथा ’सद्दर्शनम्’ संक्षेप में बहुत गूढ शिक्षा प्रदान करते हैं, विस्तार से समझने के लिए इनका अवलोकन अवश्य करना चाहिए, ऐसा कहा जा सकता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
--
(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
--
जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
--
(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
--
भावार्थ 2:
हे पार्थ, ’अहम्’ / ’आत्मा’ / अपने-आप से अत्यन्त प्रेम करते हुए अपने ही अन्तर्हृदय में गहरे डूबकर, जहाँ से ’अहं-वृत्ति’ का तथा अन्य सभी गौण वृत्तियों का भी उठना-विलीन होना होता है, उसे जानने पर तुम कैसे समग्रतः आत्मा को जान लोगे, इसे मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 9, श्लोक 5,
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
--
(न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृत् न च भूतस्थः मम आत्मा भूतभावनः ॥)
--
भावार्थ :
मेरे ईश्वरीय योग-सामर्थ्य को देखो कि यद्यपि ये भूत मुझमें नहीं हैं किन्तु फिर भी समस्त भूतों में उनके आधारभूत की तरह स्थित हुआ मैं ही उनका पालन-पोषण करता हूँ और मेरी आत्मा अर्थात् स्वरूप उन्हें अत्यन्त प्रिय है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 7,
--
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
--
(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
--
भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
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अध्याय 10, श्लोक 18,
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
--
(विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि शृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् ॥)
--
भावार्थ :
हे जनार्दन (कृष्ण)! आप अपनी योगमाया की शक्ति और विभूतियों का पुनः और अधिक विस्तार से वर्णन करें, क्योंकि आपके इन अमृत-वचनों को सुनते हुए मुझ सुननेवाले की और सुनने की उत्कण्ठा अतृप्त ही रहती है ।
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अध्याय 11, श्लोक 8,
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
--
(न तु माम् शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्वचक्षुषा ।
दिव्यम् ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगम्-ऐश्वरम् ॥)
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भावार्थ :
मुझे तुम अपने इस (प्रकृतिप्रदत्त/ स्थूल) नेत्र से नहीं देख सकते हो । इसके लिए मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ, इससे तुम मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देखो ।
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अध्याय 18, श्लोक 75,
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥
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(व्यास-प्रसादात् श्रुतवान्-एतत्-गुह्यम्-अहम् परम् ।
योगम् योगेश्वरात्-कृष्णात्-साक्षात्-कथयतः स्वयम् ॥)
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स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे जाते हुए इस परम गोपनीय योग को महर्षि श्री व्यासजी के अनुग्रह से (दिव्य-दृष्टि पाकर) मैंने स्वयं प्रत्यक्ष सुना ।
--
’योगम्’ / ’yogam’- the objective that is 'yoga', perfection in yoga,
Chapter 2, śloka 53,
--
śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
--
(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
--
Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
--
Chapter 4, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
imaṃ vivasvate yogaṃ
proktavānahamavyayam |
vivasvānmanave prāha
manurikṣvākave:'bravīt ||
--
(imam vivasvate yogam
proktavān aham avyayam |
vivasvān manave prāha
manuḥ ikṣvākave abravīta ||)
--
Meaning :
I, the Eternal Self-Divine imparted this element of yoga to vivasvān (Sun*), vivasvān to manu*, and then manu to ikṣvāku,
--
Chapter 4, śloka 42,
tasmādajñānasaṃbhūtaṃ
hṛtsthaṃ jñānāsinātmanaḥ |
chittvainaṃ saṃśayaṃ yogam-
ātiṣṭhottiṣṭha bhārata ||
--
(tasmāt ajñānasaṃbhūtam
hṛtstham jñānāsinā ātmanaḥ |
chittvā enam saṃśayam yogam
ātiṣṭha uttiṣṭha bhārata ||)
--
Meaning :
Therefore O bhārata (arjuna)! Arise, stand up with determination, and by means of the sword of the wisdom, cut down the doubt born of ignorance and is rooted deep down there in your mind.
--
Chapter 5, śloka 1,
arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
--
(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekaṃ
tat me brūhi suniścitam ||)
--
Meaning :
arjuna said : O kṛṣṇa! You speak of Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
--
Chapter 5, śloka 5,
yatsāṅkhyaiḥ prāpyate sthānaṃ
tadyogairapi gamyate |
ekaṃ sāṅkhyaṃ ca yogaṃ ca
yaḥ paśyati sa pasyati ||
--
(yat sāṅkhyaiḥ prāpyate sthānam
tat yogaiḥ api gamyate |
ekam sāṅkhyam ca yogam ca
yaha paśyati saḥ paśyati ||)
--
Meaning :
The (Supreme) state that is attained by those sāṅkhya-yogin-s who abide in wisdom (sāṅkhya), is the same as that is attained by the karma-yogin-s (yogin-s). One who realizeds that the two are one and the same, sees the truth indeed.
--
Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
--
(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
--
Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire (saṅkalpa-vṛtti).
--
Chapter 6, śloka 3,
ārurukṣormuneryogaṃ
karma kāraṇamucyate |
yogārūḍhasya tasyaiva
śamaḥ kāraṇamucyate ||
--
(ārurukṣoḥ muneḥ yogam
karma kāraṇam ucyate |
yogārūḍhasya tasya eva
śamaḥ kāraṇam ucyate ||)
--
Meaning :
There are two stages in acquiring and stabilising yoga. The first (ārurukṣa > aspiring to attain yoga), that means practicing (karma), efforts that are accompanied by self-less action (niṣkāma karma), and the next is (yogārūḍha) when one has to free the mind from thought (saṃkalpa / vṛtti), that means subsiding / elimination of thought in all its forms (modes of mind. This includes the key-thought that is the source of all thought as such. This prime thought is I-thought (aham-vṛtti / aham-saṅkalpa).
--
When all thought is calmed down, the aspirant is said to have firmly established in Yoga (sthita-dhī / sthitaprajña). --And the practice therefore in the second / advanced stage of yoga is to pacify the thought (śama). This may further intensified by means of 'Self-Enquiry' as is taught by (bhagavān śrī ramaṇa maharṣi).
--
Note : śamaḥ is about purification of mind. damaḥ is about the control of the senses. Mind is subtle than senses. It is the mind that gets involved in senses and the functioning of them. But if the senses forcibly drive the mind, it should be taken care of. This happens because mind finds gratification in the pleasures obtained throuh the indulgence in senses. This 'pleasure' is transitory and is soon lost. That is the reason why mind should prevail over the senses and this much is enough to control them. Mind is no doubt stronger and has more power than the senses. So damaḥ is for the senses, while śamaḥ is for the mind. The mind that is purified itself becomes strong, calm and peaceful.
--
Chapter 6, śloka 12,
tatraikāgraṃ manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśyāsane yuñjyād-
yogamātmaviśuddhaye ||
--
(tatra ekāgram manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśya āsane yuñjyāt
yogam ātma-viśuddhaye ||)
--
Meaning :
(starting from the preceding śloka 11, ... There on the clean ground, one should fix the seat for meditation, ...) and keeping the mind one-pointed, controlling the senses and the intellect / thought / (citta), not allowing the attention to go outward toward the objects of the mind and the senses, one should sit comfortably on this seat, and try to fix the attention on the 'Self' / 'self' in whatever way one can start with with the purpose of purification of the mind.
--
Note :
According to one's temperament and conditioning of the mind, predisposition, one can either contemplate about the nature of consciousness, or keep a single thought at the fore, excluding all other thought(s), either through effort, or through ignoring them and reminding oneself of the purpose of meditation repeatedly. One can also chant a sacred syllable / mantra, or visualize the form of some divine aspect of the Supreme Reality, in what-ever one would like to. One can investigate in a hundred ways and meditate in a thousand ways, but the core aim here is the purification of the mind. If you miss this, you miss all.
--
Chapter 6, śloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
--
(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
--
Captter 7, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
--
(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
--
Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
--
Chapter 9, śloka 5,
na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogamaiśvaram |
bhūtabhṛnna ca bhūtastho
mamātmā bhūtabhāvanaḥ ||
--
(na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogam aiśvaram |
bhūtabhṛt na ca bhūtasthaḥ
mama ātmā bhūtabhāvanaḥ ||)
--
Meaning :
See My Divine splendor of Yoga! These beings are not there in Me, though I AM ever there, in the core of their very being and I sustain them. I AM their Beloved and keep them happy.
--
Chapter 10, śloka 7,
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
--
Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms (vibhūti) andthe Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
--
Chapter 10, śloka 18,
vistareṇātmano yogaṃ
vibhūtiṃ ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi
śṛṇvato nāsti me:'mṛtam ||
--
(vistareṇa ātmanaḥ yogam
vibhūtim ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptiḥ hi
śṛṇvataḥ na asti me amṛtam ||)
--
Meaning :
O janārdana (kṛṣṇa) ! Please describe for me Your divine power of yogamāyā and the divine glories in details, because while hearing your ambrosial words, my thirst is not quenched and asks for even more.
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Chapter 11, śloka 8,
na tu māṃ śakyase draṣṭum-
anenaiva svacakṣuṣā |
divyaṃ dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogamaiśvaram ||
--
(na tu mām śakyase draṣṭum
anena eva svacakṣuṣā |
divyam dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogam-aiśvaram ||)
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Meaning :
Through your this physical eye, it is not possible for you to see MY Divine affluence. To see My Majestic form, The Divine power of yoga (yogamaiśvaram), I give you this divine-eye, See Me through this.
--
Chapter 18, śloka 75,
vyāsaprasādācchrutavān-
etadguhyamahaṃ param |
yogaṃ yogeśvarātkṛṣṇāt-
sākṣātkathayataḥ svayam ||
--
(vyāsa-prasādāt śrutavān-
etat-guhyam-aham param |
yogam yogeśvarāt-kṛṣṇāt-
sākṣāt-kathayataḥ svayam ||)
--
Meaning :
By the Grace of maharṣi śrī vyāsa, Having acquired the divine vision, I have heard these most confidential talks directly from the Lord of all yoga, yogeśvara bhagavān śrīkṛṣṇa. And I myself before my own eyes, saw Him Himself imparting this to Arjuna.
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आज का श्लोक, ’योगः’ / ’yogaḥ’
आज का श्लोक, ’योगः’ / ’yogaḥ’
__________________________
’योगः’ / ’yogaḥ’ - योग की विधि,
अध्याय 2, श्लोक 48,
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
--
(योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 50,
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
--
(बुद्धियुक्तः जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्मात्-योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।)
--
भावार्थ :
समबुद्धि रखनेवाला मनुष्य शुभ तथा अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों को इसी लोक में (जीवित रहते हुए ही) भली प्रकार से त्याग देता है (-कर्मसंन्यास), इसलिए (समत्वबुद्धि के माध्यम से योगरत हो जाओ, क्योंकि योग का तात्पर्य है कर्म करने के कौशल में कुशल हो जाना ।
--
अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
--
(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परंतपः ॥)
--
भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
--
अध्याय 4, श्लोक 3,
--
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
--
अध्याय 6, श्लोक 16,
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
--
(न अति अश्नतः योगः अस्ति न च एकान्तम् अनश्नतः ।
न च अति स्वप्नशीलस्य जाग्रतः न एव च अर्जुन ॥)
--
भावार्थ :
यह योगसाधन हे अर्जुन ! न तो बहुत खानेवाले के लिए और न बिल्कुल ही न खाने वाले के लिए, न तो बहुत सोनेवाले के लिए, और न बहुत जागते रहने वाले के लिए सरल है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 17,
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
--
(युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगः भवति दुःखहा ॥)
--
भावार्थ :
जिसका आहार-विहार मर्यादित है, जिसकी विभिन्न कर्मों में की जानेवाली चेष्टाएँ भी इसी भाँति मर्यादित हैं, जिसकी निद्रा तथा जागृति भी मर्यादा में है, उसके लिए योग दुःखों का नाश करनेवाला हो जाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
--
(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
अध्याय 6, श्लोक 33
अर्जुन उवाच :
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
--
(यः अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्य अहम् न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिम् स्थिराम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा; ’हे मधुसूदन (कृष्ण)! आपके द्वारा (श्लोक 29 से 32 तक) समतायुक्त योग के विषय में यह जो कहा गया, अपने मन के चञ्चल होने से मैं उसका नित्य आचरण करने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ ।
--
अध्याय 6, श्लोक 36,
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
--
(असंयतात्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्यः अवाप्तुम् उपायतः ॥)
--
भावार्थ :
जिसके मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि वश में नहीं हैं, उसके लिए योग की प्राप्ति करना अत्यन्त कठिन है, ऐसा मेरा मत है । किन्तु जिसके मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ वश में हैं उसके द्वारा यत्न किए जाने पर उचित उपाय द्वारा उसे योग की प्राप्ति अवश्य संभव है ।
--
Chapter 2, śloka 48,
yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
--
(yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgam tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
--
Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself with the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
--
’योगः’ / ’yogaḥ’ - the practice of yoga,
Chapter 2, śloka 50,
buddhiyukto jahātīha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmādyogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam ||
--
(buddhiyuktaḥ jahāti iha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmāt-yogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam |)
--
Meaning :
One, who has attained Wisdom, is Wise, renounces the noble and ignoble both kinds of actions (by understanding the fact and refusing to accept the notion ; 'I do' / 'I don't do', - he is aware that actions / incidences, happen on their own.)
--
Chapter 4, śloka 2,
evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
--
(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
--
Meaning :
This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
--
Chapter 4, śloka 3,
sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
--
(saḥ eva ayam mayā te adya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
--
Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
--
Chapter 6, śloka 16,
nātyaśnatastu yogo:'sti
na caikāntamanaśnataḥ |
na cāti svapnaśīlasya
jāgrato naiva cārjuna ||
--
(na ati aśnataḥ yogaḥ asti
na ca ekāntam anaśnataḥ |
na ca ati svapnaśīlasya
jāgrataḥ na eva ca arjuna ||)
--
Meaning :
This practice of yoga is not (easy) for one who takes food in big quantities, neither for one, who keeps on fasting strictly. This practice of yoga is not (easy) for one who sleeps too much, nor for one who keeps awake always.
--
Note :
In summary, yoga is (easy) for one, who is moderate in food and sleep.
--
Chapter 6, śloka 17,
yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogo bhavati duḥkhahā ||
--
(yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogaḥ bhavati duḥkhahā ||)
--
Meaning :
One taking diet in moderate quantities, who makes efforts in various actions according to the need of the moment and his within abilities, who has regular sleep and waking hours, yoga removes all his sufferings
--
Chapter 6, śloka 23,
taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
--
(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
--
Meaning :
Know what is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
--
Chapter 6, śloka 33
arjuna uvāca :
yo:'yaṃ yogastvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasyāhaṃ na paśyāmi
cañcalatvātsthitiṃ sthirām ||
--
(yaḥ ayam yogaḥ tvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasya aham na paśyāmi
cañcalatvāt sthitim sthirām ||)
--
Meaning :
arjuna said :
"O madhusūdana (kṛṣṇa)!" I am unable to see how with this fickle nature of mind, I could practice with steady and firm efforts, this yoga, which has been described by You for me!"
--
Chapter 6, śloka 36,
asaṃyatātmanā yogo
duṣprāpa iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyo:
'vāptumupāyataḥ ||
--
(asaṃyatātmanā yogaḥ
duṣprāpaḥ iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyaḥ
avāptum upāyataḥ ||)
--
Meaning :
I say: attaining yoga is very difficult for one who has no control over his body, mind and senses. And it is also true that Yoga is attainable for one who, keeping his body mind and senses under control makes right efforts for this goal.
--
__________________________
’योगः’ / ’yogaḥ’ - योग की विधि,
अध्याय 2, श्लोक 48,
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
--
(योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 50,
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
--
(बुद्धियुक्तः जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्मात्-योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।)
--
भावार्थ :
समबुद्धि रखनेवाला मनुष्य शुभ तथा अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों को इसी लोक में (जीवित रहते हुए ही) भली प्रकार से त्याग देता है (-कर्मसंन्यास), इसलिए (समत्वबुद्धि के माध्यम से योगरत हो जाओ, क्योंकि योग का तात्पर्य है कर्म करने के कौशल में कुशल हो जाना ।
--
अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
--
(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परंतपः ॥)
--
भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
--
अध्याय 4, श्लोक 3,
--
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
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अध्याय 6, श्लोक 16,
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
--
(न अति अश्नतः योगः अस्ति न च एकान्तम् अनश्नतः ।
न च अति स्वप्नशीलस्य जाग्रतः न एव च अर्जुन ॥)
--
भावार्थ :
यह योगसाधन हे अर्जुन ! न तो बहुत खानेवाले के लिए और न बिल्कुल ही न खाने वाले के लिए, न तो बहुत सोनेवाले के लिए, और न बहुत जागते रहने वाले के लिए सरल है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 17,
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
--
(युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगः भवति दुःखहा ॥)
--
भावार्थ :
जिसका आहार-विहार मर्यादित है, जिसकी विभिन्न कर्मों में की जानेवाली चेष्टाएँ भी इसी भाँति मर्यादित हैं, जिसकी निद्रा तथा जागृति भी मर्यादा में है, उसके लिए योग दुःखों का नाश करनेवाला हो जाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
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(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
अध्याय 6, श्लोक 33
अर्जुन उवाच :
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
--
(यः अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्य अहम् न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिम् स्थिराम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा; ’हे मधुसूदन (कृष्ण)! आपके द्वारा (श्लोक 29 से 32 तक) समतायुक्त योग के विषय में यह जो कहा गया, अपने मन के चञ्चल होने से मैं उसका नित्य आचरण करने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ ।
--
अध्याय 6, श्लोक 36,
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
--
(असंयतात्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्यः अवाप्तुम् उपायतः ॥)
--
भावार्थ :
जिसके मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि वश में नहीं हैं, उसके लिए योग की प्राप्ति करना अत्यन्त कठिन है, ऐसा मेरा मत है । किन्तु जिसके मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ वश में हैं उसके द्वारा यत्न किए जाने पर उचित उपाय द्वारा उसे योग की प्राप्ति अवश्य संभव है ।
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Chapter 2, śloka 48,
yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
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(yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgam tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
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Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself with the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
--
’योगः’ / ’yogaḥ’ - the practice of yoga,
Chapter 2, śloka 50,
buddhiyukto jahātīha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmādyogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam ||
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(buddhiyuktaḥ jahāti iha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmāt-yogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam |)
--
Meaning :
One, who has attained Wisdom, is Wise, renounces the noble and ignoble both kinds of actions (by understanding the fact and refusing to accept the notion ; 'I do' / 'I don't do', - he is aware that actions / incidences, happen on their own.)
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Chapter 4, śloka 2,
evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
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(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
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Meaning :
This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
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Chapter 4, śloka 3,
sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
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(saḥ eva ayam mayā te adya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
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Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
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Chapter 6, śloka 16,
nātyaśnatastu yogo:'sti
na caikāntamanaśnataḥ |
na cāti svapnaśīlasya
jāgrato naiva cārjuna ||
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(na ati aśnataḥ yogaḥ asti
na ca ekāntam anaśnataḥ |
na ca ati svapnaśīlasya
jāgrataḥ na eva ca arjuna ||)
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Meaning :
This practice of yoga is not (easy) for one who takes food in big quantities, neither for one, who keeps on fasting strictly. This practice of yoga is not (easy) for one who sleeps too much, nor for one who keeps awake always.
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Note :
In summary, yoga is (easy) for one, who is moderate in food and sleep.
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Chapter 6, śloka 17,
yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogo bhavati duḥkhahā ||
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(yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogaḥ bhavati duḥkhahā ||)
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Meaning :
One taking diet in moderate quantities, who makes efforts in various actions according to the need of the moment and his within abilities, who has regular sleep and waking hours, yoga removes all his sufferings
--
Chapter 6, śloka 23,
taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
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(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
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Meaning :
Know what is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
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Chapter 6, śloka 33
arjuna uvāca :
yo:'yaṃ yogastvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasyāhaṃ na paśyāmi
cañcalatvātsthitiṃ sthirām ||
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(yaḥ ayam yogaḥ tvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasya aham na paśyāmi
cañcalatvāt sthitim sthirām ||)
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Meaning :
arjuna said :
"O madhusūdana (kṛṣṇa)!" I am unable to see how with this fickle nature of mind, I could practice with steady and firm efforts, this yoga, which has been described by You for me!"
--
Chapter 6, śloka 36,
asaṃyatātmanā yogo
duṣprāpa iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyo:
'vāptumupāyataḥ ||
--
(asaṃyatātmanā yogaḥ
duṣprāpaḥ iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyaḥ
avāptum upāyataḥ ||)
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Meaning :
I say: attaining yoga is very difficult for one who has no control over his body, mind and senses. And it is also true that Yoga is attainable for one who, keeping his body mind and senses under control makes right efforts for this goal.
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Location:
Ujjain, Madhya Pradesh, India
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