Monday, December 18, 2023

धृतराष्ट्र उवाच

अध्याय १

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ दुर्योधन और उसके भाइयों आदि कौरवों के पिता धृतराष्ट्र के इस प्रश्न से होता है, जिसे वे सञ्जय से पूछते हैं --

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवाः।।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य बदल जाने से कैसे एक ही विचार या मत का तात्पर्य बदल जाता है और कैसे तब विवाद की स्थिति जन्म लेती है, यह इसका एक उदाहरण है।

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जो तात्पर्य प्रतीत होता है, उसे ग्रहण कर पाना बहुत सरल है। राजा दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र सञ्जय से प्रश्न करते हैं कि धर्म के विषय में और कर्म के विषय में, उस उस क्षेत्र में मेरे और मेरे भाई पाण्डु के पुत्रों ने एकत्र होकर क्या किया?

इस श्लोक का यह सरल ऐतिहासिक तात्पर्य हुआ। 

इसे ही दूसरे तरीके से समझें तो इसे राजनीतिक प्रश्न के रूप में भी देखा जा सकता है। राज् - राजति, राजते, राज्यते, राजा, राज्य और राष्ट्र सभी इसी एक ही धातु "राज्" से बने भिन्न भिन्न शब्द हैं, जिनका तात्पर्य भिन्न भिन्न हो सकता है किन्तु सभी परस्पर संबद्ध हैं।

राष्ट्र का अर्थ है संपूर्ण पृथ्वी, जिसमें अनेक राजा राज्य करते हैं और सभी स्वतंत्र होते हैं। जब उनमें से कोई एक सम्पूर्ण पृथ्वी अर्थात् समूचा राष्ट्र को अपने ही अधिकार में रखना चाहता है और अपने विरोधी राजा को सुई की नोंक के बराबर भूमि भी नहीं देना चाहता है तो अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए दूसरे राजा के लिए युद्ध करने का ही एकमात्र विकल्प होता है।

धृतराष्ट्र का परोक्ष रूप से तात्पर्य हुआ अंधी दिशाहीन स्वार्थपरक राजनीति, और उस राजनीति का एकमात्र आधार और आश्रय है - मामकाः या  "मेरा, मेरी और मेरे"। और उस राजनीति की सबसे बड़ी सन्तान है अपने तय लक्ष्य को पाने के लिए घोर और दुर्धर्ष युद्ध करने की प्रबल अभिलाषा, जो कि दुर्योधन है। युद्ध धर्म नहीं, कर्म है, क्योंकि वह किसी भी प्रकार से किसी न किसी कर्म को करने की प्रेरणा प्रदान देता है। इस प्रकार युद्धक्षेत्र, धर्मक्षेत्र ही न रहकर कुरुक्षेत्र का रूप ग्रहण कर लेता है।

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Monday, October 30, 2023

Appearance and The Reality.

अहं मम  और माम् 

I, MY and ME.

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

यह जो है माया यह (तीन) गुणों से युक्त प्रकृति / प्रतीति / 'प्रत्यय' का ही नाम है न कि तत्वतः अस्तित्व विद्यमान कोई वस्तु हो सकती है। इसका निवारण और इसलिए इसका निवारण भी कर पाना अत्यन्त ही कठिन है। और किन्तु वे ही, जो कि मुझ नित्य अस्तित्वमान परमात्मा की प्राप्ति करने की अभीप्सा और अभिलाषा से प्रेरित होकर मुझे जानने की चेष्टा / अभ्यास करते हैं इसका निवारण और निराकरण कर पाते हैं, इसे पार कर तर जाते हैं।

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Transcending this माया / mAYA, that is प्रकृति / Prakriti (and consists of three गुणाः / attributes) is extremely difficult and only those Who-so-ever follow ME can transcend this माया / mAyA.

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अहं / अहम् -  संज्ञा / उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम प्रथम विभक्ति आत्मा / परमात्मा - नित्य अविकारी विद्यमान वस्तु ।

Nominative Case noun / pronoun. 

मम :

- अहं / अहम् संज्ञा / सर्वनाम पद - मैं  I, noun the self or Self.

Relative / possessive Case -- of or own. Indicating "my", it's always changing while I / Self is ever so immutable / unchanging. 

संबंधसूचक षष्ठी विभक्ति - मेरा, मेरी, मेरे जो कि सदैव विकार से ग्रस्त प्रतीति ही होती है और यही माया है। Appearance - what looks true for the moment only.

Time and Space too are appearances and as such always changing. Time is though fixed in the now, but keeps on changing with reference to imagined future or in the memory of the past.

Knowing and Understanding this one can see how time is either Real as in the now or appearance / Unreal as in the sense of past and future.

This Time therefore because of it is given an assumed reality through the thought only. Thought and Time both appear with reference to each other.

According to the aphorisms of the Patanjala Yoga Darshana, Thought is vRtti and memory too is vRitti only.

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#Presently, just unable to find out the location, number and the Chapter of the verse!

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Friday, October 27, 2023

तस्याहं निग्रहं मन्ये

Chapter 6,

Verse 34, 35

अध्याय ६,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

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असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

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उपरोक्त दोनों श्लोकों में ध्यान दिए जाने योग्य महत्वपूर्ण बिन्दु यह है - अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं : हे कृष्ण! मन चञ्चल, हठी, अत्यन्त बलवान् और दृढ है। मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना उसी तरह अत्यन्त कठिन है जैसे कि बहती हुई वायु को रोक सकना।

भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं :

हे महाबाहो अर्जुन! इसमें संशय नहीं है कि मन चञ्चल है और उसका निग्रह कर सकना कठिन भी है। किन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से तो (अवश्य ही) उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ अर्जुन असावधानी से 'मन' और अपने आपको दो भिन्न वस्तुएँ मानकर यह प्रश्न पूछते हैं। "अहं मन्ये" -इस वाक्यांश से यही प्रतीत होता है। भगवान् श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए "अहं" पद का प्रयोग किए बिना ही अर्जुन से कहते हैं : "हे कौन्तेय! मन अवश्य ही चञ्चल है, और उसका निग्रह कर पाना बहुत कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ यह विचारणीय है कि क्या प्रश्नकर्ता अर्जुन का 'मन' उस प्रश्नकर्ता (अर्जुन) से पृथक् कोई भिन्न और अन्य / इतर वस्तु है, या स्वयं 'मन' ही अपने आपको "मैं" और 'मन' में विभाजित कर लेता है?

भगवान् श्रीकृष्ण फिर भी इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देकर अर्जुन की समस्या का समाधान / निराकरण कर देते हैं।

अर्जुन के विषय में कुछ कहने से पहले यह समझ लिया जाना जरूरी है कि क्या हम सभी के साथ ऐसा ही नहीं होता है? कभी तो हम कहते हैं : "मैं प्रसन्न हूँ।" और कभी कहते हैं "मन प्रसन्न है।" ऐसी स्थिति में ध्यान इस ओर नहीं जाता कि जिसे "मैं" कहा जा रहा है, और जिसे "मन" कहा जा रहा है, क्या वह "मैं" और वह 'मन' एक ही वस्तु है, या दोनों दो भिन्न वस्तुएँ हैं! 

स्पष्ट है कि जो सतत परिवर्तित हो रहा है, कभी प्रसन्न तो कभी खिन्न हो रहा है वह 'मन' है, जबकि इस 'मन' को, अपरिवर्तित रहते हुए "जो" जानता है वह "मैं"। 

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Monday, October 23, 2023

यह जो है 'कर्ता'

The Sense of Doer-ship.

कर्तृत्व की भावना

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

18/28,

मोहित बुद्धि से ग्रस्त होने के कारण इच्छा और द्वेष से प्रेरित जो 'मन' कर्तृत्व-भावना से युक्त होता है, उस 'मन' में ही संकल्प का जन्म होता है। 

अतः संकल्पमात्र वास्तविकता के अज्ञान का ही परिणाम है। 'वास्तविकता' न तो विषयी-रूपी ज्ञाता ही है, और न विषय-रूपी ज्ञेय, या इस प्रकार का विषयपरक द्वैतयुक्त ज्ञान ही है। इस प्रकार के विषय-परक द्वैतयुक्त ज्ञान में ही आत्माभास अर्थात् मैं विषयी हूँ और कर्म करनेवाला स्वतंत्र कर्ता, और उस (अवधारणा रूपी कल्पित) कर्म के फल का भोक्ता भी मैं ही हूँ, इस प्रकार के संकल्प का जन्म होता है। इस प्रकार से कर्म, कर्तृत्व और कर्मफल और कर्मफल का भोग करनेवाले का ज्ञान जिसे है, वह भी मैं ही हूँ -- संकल्प के जन्म के ही साथ ऐसी मिथ्या प्रतीति पैदा हो जाती है। 

चूँकि यह सब अपने / आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता या आत्मा के स्वरूप  को न जानने का ही परिणाम होता है, इसलिए ऐसे 'मन' को ही अज्ञ कहा जाता है। चूँकि ऐसा मन विषय-विषयी की सत्यता-बुद्धि पर आश्रित होता है इसलिए वह सत्य पर आश्रित नहीं होता। जबकि श्रद्धा का अर्थ है सत्य पर आश्रित होना।

ऐसे ही 'मन' में स्मृति-रूपी अतीत और कल्पना के रूप में भविष्य का आभास उत्पन्न होता है और अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता होने की भावना भी विद्यमान होती है इसलिए अपने कार्य में सफल होने या असफल होने की दुविधा या संशय भी होता ही है।

ऐसे ही 'मन' में अर्थात् "मैं स्वतन्त्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता तथा स्वामी भी हूँ" यह बुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार की बुद्धि से ग्रस्त 'मन' अर्थात् इस संशयात्मा का विनाश अवश्यंभावी होता है :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

(अध्याय ४) 4/40,

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Monday, October 9, 2023

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः.

Long Lasting Wars. 

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकः अलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

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The sense / idea of "doer-ship" / thinking that I am independently the one who performs an action is the assumption because of that  such a man is called kind of tAmasaH / तामसः.

In simple words, such a man is caught in the thought, assumes and identifies oneself the whole, sole and the only cause of achieving the desired goal.

This makes one अयुक्तः / unfit for the Yoga, प्राकृतः / instrumental, स्तब्धः / stupefied, शठः / stubborn, नैष्कृतिकः / indolent, अलसः / idle, विषादी / sad,  दीर्घसूत्री /  with the tendency of  postponement / procrastination.

The present situation of war between Islam and Jew in the West Asia or the Middle East, is typical example of this verse.

It's really funny that each one of the three Abrahmic Religions have been engaged in this war aimed at annihilating "the other".

The unending war where only something on the part of the Unknown, Unidentified and Invisible Cause ordaining and controlling it may possibly end.

Only the time will tell if it is the ultimate, the final end for the whole human civilization.

If and Who-So-Ever might be The Lord of your choice, Pray to Him!

And if you don't believe in the existence of any such a Lord / Savior, be prepared to meet the extinction of the mankind from the earth. For, who knows if somewhere in the universe, there is another earth to be lived at! 

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Wednesday, September 27, 2023

The Thinking.

Thinking, Thought and Thinker.

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निर्विषय चेतना  / The consciousness devoid of object is ever so in the same way is also devoid of the विषयी / subject as well.

Wherever / यत्र through the sense-organs / ज्ञानेन्द्रिय, there is contact / सङ्गः between this pure consciousness associated with a living being (person - विषयी / पुरुष / पुंसः) with an object / विषय, the person as the Thinker / विषयी and the object / विषय as the World appear together at the same time.

Memory creates the illusion आभास / प्रत्यय that the निर्विषय चेतना / pure consciousness where this division takes place is the Thinker, and still the memory persists in the background as a Thought.

I-sense, as the Timeless Reality remains unaffected throughout.

A Practicing Yogi tries to exclude vRitti / Thought either by removing all the 5 kinds of vRitti, or attention fixed on one specific - a mantra or any such object of meditation.

The practice of removing all vRitti  वृत्ति  is called वृत्तिनिरोधः / vRitti-nirodhaH.

The practice of fixing the attention on a specific vRitti वृत्ति is called the एकाग्रता / ekAGratA.

Abidance in a specific vRitti for a long time is called समाधि / samAdhi.

The perfection संयम / samyama of Yoga is the state of the mind when the above,

विवेकवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।  

निरोध-परिणामः / the nirodha-pariNama,

एकाग्रता परिणामः / the ekAgratA-pariNama

and

the समाधि-परिणाम / samAdhi-pariNama are combined in one whole.

Maharshi Patanjali has described how this संयम / samyama is further applied in different ways so as to attain any occult or mystic power : सिद्धि / a siddhi.

This is the Yoga of कर्म / Karma.

However, the Way of  साँख्य / sAmkhya is the one where through inquiry into the Core Reality is attempted.

Where one through this enquiry, that begins with the question :

What is that abides for ever and what is that not so?

नित्य क्या है और अनित्य क्या है?

A sincere and earnest seeker soon or later on discovers and comes onto the realization that the दृक् / consciousness alone might be the origin, foundation and the very first, the prime source of and from where arises the appearance - the दृश्य प्रपञ्च Phenomenal Existence.

Accordingly the two spiritual paths are available for all and every sincere and earnest seeker / aspirant.

But in effect both the above two kind of seekers attain the same Realization at the end of their practice.

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2/59 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य योगिनः।।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(अध्याय 2, Chapter 2, verse 59)

Wednesday, August 30, 2023

सरसामस्मि सागरः

अध्याय १०, श्लोक २४

पुरोधसां च मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिः।। 

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।

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उपरोक्त श्लोक में परमात्मा की दिव्य विभूतियों की भूमिका का वर्णन है। पुरोहितों के रूप में देवताओं के पुरोहित बृहस्पति ही परमात्मा की विभूति हैं। (और इसी प्रकार से महर्षि भृगु दैत्यों के पुरोहित हैं।) सेनानियों में देवताओं की सेना के नायक स्कन्द और जलाशयों में चंचलजलयुक्त सागर की ही भूमिका है।

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क्या अध्याय १० का यह श्लोक २४ परमात्मा के अवतारों का सूचक है सकता है?

पुराणों में परमात्मा के अवतारों का वर्णन दो प्रकार से पाया जाता है। दशावतार और चौबीस अवतार।

दशावतार वस्तुतः परमात्मा की ही स्थूल प्रकृति चेतना नामक विभूति की अभिव्यक्ति के विकासक्रम का ही सूचक है, जबकि अवतार परमात्मा की सूक्ष्म प्रकृति की अभिव्यक्ति के विकास के क्रम का सूचक है। इस प्रकार परमात्मा ही स्थूल और सूक्ष्म  प्रकृति के रूप में क्रमशः साङ्ख्य के चौबीस तत्वों और दश रूपों में मत्स्य, कच्छ, वराह, नृसिंह, वामन, भार्गव अर्थात्  परशुराम, राम, कृष्ण-बलराम और कल्कि अवतारों के रूप में दशावतार की तरह अवतरित होता है।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकाक्षरम्।।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।

अध्याय १० ग्रीक भाषा की संस्कृति और सभ्यता के उद्गम का संकेत श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक में देखा जा सकता है। सरस अर्थात् सर् सः जो प्राकृतिक वाणी और जल के प्रवाह का द्योतक भी है वाणी को ही भाषा के आधारभूत होने के तथ्य का सूचक है। इसीलिए Phonetic / स्वनिम समानता के माध्यम से अनेक ग्रीक शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत मूल से की जा सकती है। आज के मनोविज्ञान, चिकित्सा और औषधि विज्ञान ही नहीं, बल्कि भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति शास्त्र में भी यही पाया जाता है। प्लेटो को  The Republic लिखने की प्रेरणा भारतीय न्यायशास्त्र / न्याय दर्शन से ही मिली होगी। इस बारे में अपने किसी ब्लॉग में मैंने लिखा भी है। इस प्रकार भाषा का मूल प्राकृत ध्वनि विज्ञान और स्वरशास्त्र में है ग्रीक भाषा में इसे देखा जा सकता है। संस्कृत, जो वेद की और देवभाषा भी है, सार्वत्रिक प्राकृत भाषा के परिष्कार से आविष्कृत की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृत मनुष्यों की भाषा नहीं है। प्राकृत सभी को प्राप्त मातृभाषा है जिसकी लिपि ब्राह्मी, शारदा या श्रीलिपि है। श्रीलिपि को ही परिवर्तित कर  Cyril  script  का प्रारंभ हुआ, जिसका श्रेय किसी "Saint Cyril" को दिया गया और इसी आधार पर रूसी भाषा की लिपि प्रचलित हुई। जैसे जाबाल ऋषि और जिबरील / गैबरियल Gabriel में ध्वनिसाम्य है, वैसा ही ध्वनिसाम्य श्रीलिपि और  Saint / सन्त Cyril / सिरिल में हो तो यह प्रतीत होना स्वाभाविक ही है कि दुनिया कि तमाम (संस्कृत -- तं + आम्) भाषाओं का डी एन ए एक ही है। 

यह सब कितना प्रामाणिक है, इसका मेरा कोई दावा तो नहीं है, और कितनी सत्यता इसमें है, या है भी कि नहीं, इसकी परीक्षा कर भाषा के इतिहास का अध्ययन करनेवाले स्वयं ही किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। इस प्रकार ग्रीक और लैटिन भाषाएँ स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व में आई। समस्त यूरोप और अमेरिका में इन्हीं दोनों भाषाओं से अन्य सभी भाषाओं का आगमन हुआ। 

मत्स्य का उद्भव जल से होता है। जल ही नारा है अर्थात् जल का मार्ग नारायण है। परमात्मा ही नर और नारी के रूप में पुनः अवतरित होता है। स्थूल प्रकृति में पृथ्वी में शिला से उत्पन्न होनेवाले शैलज पत्थर, रत्न, खनिज आदि और सूक्ष्म प्रकृति में शैल से अभिव्यक्त होनेवाली शैलजा अर्थात् शैलपुत्री भगवती चेतना जो दुर्गा दुर्गतिनाशिनी, महिषासुरमर्दिनी हैं।

इस प्रकार दशावतार की ही नारायण, तथा नारायणी, नर और नारी रूपों में दो प्रकारों में अभिव्यक्ति होती है।

जैव संरचना की दृष्टि से भी जलोद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज और स्वेदज जीवों की उत्पत्ति होती है, जबकि वनस्पतियों में एकबीजपत्रीय और द्विबीजपत्रीय रूपों में। यही भगवान् शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप है।

जल से मत्स्य की उत्पत्ति एककोषीय (unicellular) जीवन है। यह आकस्मिक और केवल संयोग नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द जिनकी उत्पत्ति ग्रीक और लैटिन भाषा से हुई है, उन्हें सीधे ही संस्कृत से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है।

सरसामस्मि सागरः में सरस का अर्थ सर सः अर्थात, बहने या प्रवाहित होनेवाली वस्तु है जो कि पर्याय से (imperatively) जल और वाणी हो सकती है।


जीवसृष्टि के इस रहस्य को समझ लेने पर क्या यह प्रश्न किया जा सकता है कि सनातन धर्म के वेद तथा पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं या नहीं?

वस्तुतः प्रमाण के वैज्ञानिक होने के इस हठपूर्वक या प्रमादवश किए जानेवाले आग्रह में पातञ्जल योगदर्शन के इस तथ्य की अवहेलना कर दी जाती है कि वैज्ञानिक प्रमाण भी अन्य सभी वृत्तियों की ही तरह वृत्ति का ही रूप है :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और पुनः

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

इस सूत्र में प्रमाण के भी तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है। इसीलिए यह प्रश्न ही असंगत है कि सनातन धर्म के वेद पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं या नहीं। 

इसलिए "क्या वेद पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं?" यह पूछने की बजाय पूछा जाना तो यह चाहिए :

"क्या विज्ञान वेद-सम्मत है?"

यदि यह पूछा जाए तो यह प्रश्न अवश्य ही सम्यक् और सुसंगत भी होगा।

(यह पोस्ट केवल अध्ययन की ही दृष्टि से लिखी गई है, न कि किसी मत के पक्ष या विपक्ष में। )

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Wednesday, August 16, 2023

यदा ते मोहकलिलं...

The Compound, The Composite,

and The Conflict.

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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

(अध्याय ७, Chapter7)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

(अध्याय २, Chapter 2)

All and every man is born bemused and driven by desire and delusion.

Deluded in thought one keeps trying to find a way to come out of the conflict.

Language is the instrument created by thought and the thought in its turn the language.

Language and / or Thought operate in the light of awareness. Awareness is the mind. All sentient beings are endowed with consciousness of being and being in a world perceived in consciousness.

So the individual consciousness refers to the existence of a world andthe one,  the individual who finds a world and though a part of the same, at the same time feels, it is somehow different and other from the world where one might have born and eventually may die some day.

But it hardly occurs to anyone, how one could one be one with or other than the world.

Howsoever desparatedly or frenetically one may try to resolve this conflict, one just fails. All the clues worth-hearing or heard so far give no hope nor help any as long as the conflict persists.

The ceaseless perpetual conflict is there as long as the delusion: that is the pair of desire and aversion is not overcome. Transcending the two implies the dawn of The Wisdom.

Then the question remains :

Exactly "Who" could be said to have transcended the delusion and therefore the conflict too?

A clue to the answer could be found in the following verses :

न कर्तृत्वं न कर्माणि

लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं

स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं

न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं

तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं

येषां नाशितमात्मनः।।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं

प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

(अध्याय ५, Chapter 5)

The individual-consciousness and the Awareness of the Self are but the two aspects of the one and the same Reality.

One of them is denoted by the word  विभु  synonymous of the individual.

The other is denoted by the word प्रभु : synonymous of The God.

Who-so-ever has realized the unique and undifferentiated, essential one-ness of the two is A JnAnI / ज्ञानी, Devotee / भक्त, and a Yogi योगी.

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Friday, August 11, 2023

Dharma and Religion.

Religion, Tradition and revolution.

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This could be better understood by;

For example;

By the comparison of a Physician with a Physicist.

Religion is Practice, while Dharma is Learning and Discovery.

Physician like a Professional, Doctor, Lawyer has to "practice" something, a skill for earning his livelihood, while a  Physicist has first of all to postulate, to  think over and examine and verify the truth or falsehood about whatever he might have thought about or postulated in the beginning of his enquiry.

Another such example could be of an amateur Musician, and of a Maestro,  who Composed independently a tune, a "signature tune" of his own, where his style is at once recognized only by the experts.

With reference to Gita :

श्रेयः is the धर्म, while अभ्यास / the practice is but the skill, the Tradition, or the Religion. 

Practice is skill, expertise, while the Discovery is the Excellence.

To elaborate upon this fundamental difference between the two let us see how the word  श्रेयः  has been used as the synonym of  धर्म  in the following verses:

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।।

श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।

(अध्याय १)

गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुमपीह लोके।।

हत्वार्थ-कामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिर-प्रदिग्धान्।।५।।

(अध्याय २)

कार्पण्यदोषोपहृतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्म-सम्मूढचेताः।।

यत् श्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

(अध्याय २)

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।।

धर्माद्धि युद्धात् श्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।२१।।

(अध्याय २)

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयः अहमाप्नुयाम्।।२।।

(अध्याय ३)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

(अध्याय ३)

श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।

(अध्याय 3)

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यत् श्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

(अध्याय ५)

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।।

आचरत्यात्मनः श्रेयस् ततो याति परां गतिम्।।२२।।

(अध्याय १६)

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Tuesday, August 8, 2023

द्वौ, द्वौ इमौ,

~~ 13/1, 13/2, 15/16, 16/6 ~~

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अध्याय १३

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१।।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।

अध्याय १५

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।। 

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।१६।।

अध्याय १६

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् आसुर एव च।।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुर पार्थ मे शृणु।।६।।

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Thursday, August 3, 2023

न कर्तृत्वं न कर्माणि....

Sequel to the last post.

लोकस्य सृजति प्रभुः।।

Gita 5/14, 5/15, 5/16

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The Last post was about the The Clash of Civilizations / Cultures.

Samuel Huntington might be referring to clash of ideologies and the different religions founded upon those various ideologies, and not exactly between the religions as such. The ideologies being further classified as those that we know as the atheism, the monotheism, and the polytheism. Between the cultures accepting those political philosophies.

Whatever be the inspirations behind them, Gita Chapter 5 may be applicable in understanding their respective role and behavior.

Let us have a glance at these verses :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

All ideologies follow from the sense of the self as an individual who can strive for attaining a certain ideal, without the slightest idea that all this hypothetical approach is imaginary and in the field of 'thought' only.

Thoughts govern and control the way of every intellectual who has a fascination for certain words. Though the words do not have any specific, definite or certain sense in themselves, motivated by them the intellectual spins out a philosophy and accordingly sets a goal or mission.

The stanzas referred to above narrate the same consequence of all activities that take place because and on account of any and all political ideologies, while the underlying and the steady light of the One Who remains hidden behind them and is the Cause-less cause is lost sight of, unnoticed and unseen. Call that light the Lord, The God, or by whatever name you would like to give, whether you believe or doubt if it is really there, This Cause-less Cause is Awareness of all existence and happenings.

This attribute the Awareness that is the only presiding Reality true and worth the name is verily the only ground and support of all this phenomenon, of this existence.

Through proper enquiry into this, one can sure discover and find out it and become free of all doubt and ignorance.

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Samuel P. Huntington

Clash of  Civilizations,

And The  Gita.

सैम्युअल हटिंग्टन  और 

सभ्यताओं का संघर्ष

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काल का अभ्युदय और दृश्य जगत् / संसार. 

The Emerging World-Scenario :

महाभारत युद्ध की समाप्ति होते होते धरती पर कलियुग का अवतरण हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और समस्त संसार को आगामी काल के लिए उपदेश देते हुए अपनी शिक्षाओं का सार इन श्लोकों से स्पष्ट किया : 

With the end of 

The Mahabharata War

And the ascent of the Kaliyuga, Lord Shrikrishna Concluded His Teachings to Arjuna and the whole of the Humanity,  through the following words / stanzas :

Chapter 2, Stanza 18 :

अध्याय २, श्लोक ४९,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

Chapter 3, Stanza 11

अध्याय ३, श्लोक ११,

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः।।११।।

Chapter 3, Stanza 12

अध्याय ३, श्लोक १२,

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।१२।।

Chapter 5, Stanza 1

अध्याय ५, श्लोक १,

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

Chapter 7, Stanza 12

अध्याय ७ श्लोक १२,

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।।

मत्त एव तान्विद्धि न त्वहं तेषु च मयि।।१२।।

Chapter 8, Stanza 21

अध्याय ८, श्लोक २१,

अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिम्।।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।

Chapter 9, Stanza 18

अध्याय ९, श्लोक १८,

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।।

प्रभावः प्रायः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

chapter 9, Stanza 25

अध्याय ९, श्लोक २५,

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति* पितृव्रताः।।

भूतानि यान्ति भूतेज्या मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

(*please check the correct spelling of this word by clicking the label 9/25 and viewing all posts in this blog)

Chapter 12, Stanza 12

अध्याय १२, श्लोक १२,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

Chapter 14, Stanza 18,

अध्याय १४, श्लोक १८,

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।।

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।१८।।

Chapter 17, Stanza 4

अध्याय १७, श्लोक ४,

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।।

प्रेतान्भूतगणानंश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।

संक्षेप में :

And Finally ;

Chapter 18, Stanza 62

अध्याय १८, श्लोक ६२,

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।।

तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।६२।।

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The above post is with reference to the idea of :

"Clash of Civilizations"

- by Samuel Huntington.

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Wednesday, July 19, 2023

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः

अध्याय १८,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।४५।।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४७।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।४९।।

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प्रकृतेर्गुणसम्मूढा सज्जन्ते गुणकर्मसु।।


अध्याय ४,

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

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Monday, June 5, 2023

ध्यायतो विषयान्पुंसः

सङ्गस्तेषूपजायते 

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Attention and Thinking. 

Attention is ध्यान / dhyAna, whenever there is विषय / an object and विषयी / a subject.

The consciousness is the individual, the sense of oneself in and yet different in a world of perceptions. Though the object is well-defined, the subject is not clearly so. Still the sense of being oneself is so conspicuous, clear and is evidence of its own itself. It is the attention that only is the point of contact between the object and the subject. The ध्यान / dhyAna, this Attention is therefore the ever present reality wherein and where-from arises the sense of oneself being an individual and seems to move on, shift from one to another object. The subject seems to be the individual one, who though at one end is the constantly changing world of the so various and many objects, while this sense of being the चेतन / conscious as the Attention / is the very underlying principle and remains the Unchanging ground for this whole phenomenon.

The sensory perception and the subject, the many changing objects generate the sense of 'the passage of the apparent, the assumed 'time' .

चैतन्य / The Consciousness  is thus split into two, as and in the individual one and individual appears to be different and independent as the conscious one

Attention too accordingly is divided in the one who goes through experience (the subject) and the object experienced by this conscious individual.

This चेतन / the conscious Attention, who is basically a Whole Undifferentiated Reality, assumes the form of a couple - the experience and the conscious one who appeares to go through and have the experience.

The Attention / Consciousness, the Awareness is thus always identical with this conscious attention but still is experienced as if the one the subject, who has the experience of an object, is different,other and independent of the object.

This gives rise to the notion of the 'self' who exists as a 'person / individual'.

Patanjali points out that the Attention or the Consciousness is verily the same either without division of the subject and the object that is apparently seen as if has split into the personal and the whole.

दृष्टा तु दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।

The प्रत्यय / वृत्ति / vritti is the personal 'mind', while the whole mind is one, the underlying Truth. With the rise of the  बुद्धि / the intellect, "thought" comes into existence. Thought is thus the vritti / the play of mind. Subsequent to Thought, the "thinker" assumes existence and the thinker and the thought are accepted as two different entities. Thinker is but the shadow of thought only, while thought assumes different forms and modes.

The idea of oneself gets associated with the thinker. As and when the attention is given to विषय / the object, the thought of the same begins in the form of a वृत्ति /  vritti.

The पुंसः / the subject who is conscious of the thought is thus gets mixed up with the object and supposedly goes through pleasure and pain, anger and joy, and such other feelings and experiences.

The continuity caused by स्मृति or the वृत्ति / vritti attribute of memory, creates the false sense of reality of change, and so then thinker takes the prominent place, in comparison to the "Thought".

So the only challenge in meditation is how to break this chain of the thinker and the thought.

Having understood this problem, first of all, one has to withdraw Attention from all and every object, whatever is there in the conscious mind. In the योग / Yoga terminology this is called निरोध / stopping of all movement of Attention.

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

Having succeeded in this one has to fix Attention on a single object / Thought.

This is done either through repeating a word or set of words (मंत्र / mantra), or through fixing Attention directly on an object.  For example, in the incoming and outgoing breath. When Attention is spontaneous and totally one with the object  (the rapt attention), this results into समाधि samAdhi / trans.

Therefore the samAdhi / trans is also accordingly of the two kinds :

सविकल्प / savikalpa, सवितर्का / savitarkA, and निर्विकल्प / nirvikalpa and निर्वितर्का / nirvitarkA. 

This is how how Maharshi Patanjali has dealt with the Practice of योग / Yoga in the Text / darshana of Yoga. 

The nirvikalpa samAdhi is categorized again in the two kinds :

The केवल निर्विकल्प / kevala nirvikalpa, and the सहज निर्विकल्प / Sahaja nirvikalpa.

A सिद्ध / Siddha is one who has already performed the Practice of Yoga which lead him to the stage of केवल निर्विकल्प /  kevala nirvikalpa, and only abiding in that state he had attained perfection.

Such a योगी / Yogi  is called one having the सांख्य-निष्ठा / sAnkhya niShThA, while the one who has yet to attempt through effort of practicing nirodha, ekAgratA and samAdhi is called one having the कर्म-निष्ठा / karma-niShThA. The same are respectively also known as the योगारूढ / YogArUDha and the आरुरुक्षु / ArurukShu.

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Wednesday, May 31, 2023

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा

सत्य, ईश्वर और सम्प्रदाय 

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उस व्यक्ति का संबंध किसी उस तथाकथित धार्मिक संगठन / सम्प्रदाय से था, जिसका प्रचार प्रसार वह कर रहा था। उसकी दृष्टि या उसे दी गई शिक्षा के अनुसार उसका रिलीजन / मजहब ही एकमात्र और सच्चा विश्वास था। उसके सम्प्रदाय के विश्वास से इतर और सभी विश्वास न सिर्फ असत्य बल्कि पाप तक थे। वह अपने इस मत पर कट्टरता की हद तक दृढ था और इसलिए आवश्यकता पड़ने पर वह सहिष्णुता, प्रेम, सर्वधर्म-समभाव, ईश्वर आदि का उल्लेख भी करता था लेकिन इन सब शब्दों से जो आशय वह ग्रहण करता था, उसके अतिरिक्त कोई अन्य मतावलंबी उससे शायद ही सहमत हो सकता था। परंपरा की दृष्टि से उसका मित्र भी यद्यपि उसी सम्प्रदाय से संबंधित होते हुए भी उसके विचारों का प्रबल और प्रखर विरोधी था। फिर भी दोनों किसी अज्ञात कारण से परस्पर गहरे मित्र थे। इसकी एक वजह शायद यह भी रही होगी कि दोनों का एक दूसरे से बहुत प्रेम था और प्रत्येक ही दूसरे को अपने मत का अनुयायी बनाने के लिए अत्यन्त अधिक उत्सुक था। दोनों ही आशा की इस डोर से परस्पर बँधे थे।

किसी के अनुरोध पर जब वे मुझसे पहली बार मिले थे तो उन्हें लगा था कि मैं उनकी कोई सहायता कर सकूँगा जिससे उनके बीच की परस्पर अविश्वास और संशय की दीवार ढह जाएगी। वे दोनों मेरे ड्रॉइंग रूम में बैठे थे।

बहुत देर तक बहुत गर्मजोशी से अपने अपने विचारों और तर्क वितर्क से दूसरे को प्रभावित करने की चेष्टा करते रहे। और मैं शान्तिपूर्वक उनकी चर्चा / बहस सुनता रहा।

अंततः दोनों थककर चुप हो गए।

"क्या आप हममें से किसी से भी सहमत न होंगे?"

-वह बोला।

उसका मित्र उदासीन भाव से मुझे देख रहा था।

"आवश्यक नहीं कि मेरा मत आप दोनों में से किसी के भी पक्ष या विपक्ष में हो! हो सकता है कि इस विषय में मेरा कोई मत ही न हो!"

"ऐसा कैसे हो सकता है? जैसा हमें लगता है, माना कि शायद आप वेदान्त या हिन्दू विचारों के अनुयायी हों, नास्तिक हों, या आस्तिक, एकेश्वरवाद के समर्थक या विरोधी हों, फिर भी कहीं न कहीं हममें से किसी एक के पक्ष में तो होंगे ही!"

शाम की रौशनी खिड़की से विदा हो चुकी थी। अंधेरा होने लगा था और मेरे स्विच ऑन करते ही ड्रॉइंग रूम में लैम्पशेड में टँगा एकमात्र लैम्प जल उठा।

उस प्रकाश में एक दूसरे की आवाजें तो अवश्य ही हम सुन रहे थे, किन्तु एक दूसरे के चेहरों की सिर्फ प्रोफ़ाइल ही हमें दिखाई दे रही थी।

"आप दोनों ने पर्याप्त श्रमपूर्वक इस विषय में खोजबीन की है।  शायद मुझसे बहुत अधिक भी।"

- मैं बोला।

"तो भी आप अभी तक किसी नतीजे तक नहीं पहुँच सके!"

उसने कुछ उपहास-मिश्रित आश्चर्य से कहा।

"सभी निष्कर्ष बौद्धिक और बुद्धि की सीमा में ही होते हैं । बुद्धि भी केवल शाब्दिक या वैचारिक ही नहीं होती। सभी प्राणियों में इतनी बुद्धि तो होती ही है कि वे अपनी भूख प्यास भोजन आदि के बारे में निश्चयपूर्वक जानते और समझते ही हैं। फिर भी बुद्धि के उस प्रकार से शायद ही परिचित होते होंगे, जिसका प्रयोग हर पढ़ा-लिखा मनुष्य आदतन किया करता है। और हर मनुष्य ही विचार और बुद्धि के भेद को भी जानता है। फिर "विश्वास" क्या है, "मत" क्या है? क्या यह पूरी तरह स्मृति पर अवलंबित और स्मृति का ही एक प्रकारमात्र नहीं होता? क्या स्मृति सत्य का विकल्प हो सकती है? क्या सत्य को स्मृति में संचित किया जा सकता है? क्या विचार, मत और इसी तरह से "विश्वास" का अस्तित्व भी स्मृति पर ही आश्रित नहीं है? विचार, बुद्धि और विश्वास के अभाव में आपका अभाव हो जाता है? स्पष्ट है कि समस्त वैचारिक और बौद्धिक जानकारी भाषा पर आश्रित होती है, जिसे बाहर से प्राप्त किया जाता है। इसलिए कोई भी मत या विचार अधूरा और अपर्याप्त भी होता है, जो सत्य का विकल्प कभी नहीं हो सकता।"

"तो सत्य का साक्षात्कार कैसे किया जाता है?"

"जैसा कि कहा गया, विचार, बुद्धि, मत या विश्वास अज्ञान के ही पर्याय हैं और सत्य का साक्षात्कार करने के लिए अपर्याप्त और अधूरे होते हैं। सत्य का साक्षात्कार न होना और सत्य क्या है, इसे न जानना ही अज्ञान है। किन्तु यह समझना सरल ही है कि इस सतत परिवर्तनशील संसार की अवस्थिति जिस नित्य अधिष्ठान में है, वही सत्य, नित्य, अविकारी और अपरिवर्तित वास्तविकता है। और फिर भी इसे समझने के लिए के लिए न तो विचार, न बुद्धि, न मत और न ही किसी विश्वास का सहारा लेना आवश्यक है। इसी प्रतीति को श्रद्धा कहा जाता है। चूँकि सत्य न तो विषयात्मक (object) है, न ही विषयी चेतना / subjective consciousness / चेतन ही है, अस्तित्व का केवल सहज भान है जिसमें विषय, विषयी, विचार और बुद्धि, विश्वास और मत इत्यादि क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं, इसलिए विषय और विषयी, विचार और बुद्धि, तथा विश्वास और मत इत्यादि से अभिभूत 'मन' के लिए सत्य का साक्षात्कार हो पाना असंभव है। इसे ही निम्न श्लोक से समझा जा सकता है :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

(अध्याय ४)

और फिर भी सत्य के इस साक्षात्कार के लिए किसी को न तो शिक्षा या उपदेश दिया जा सकता है, न वाद-विवाद, तर्क-वितर्क ही किया जा सकता है। क्योंकि समस्त वाद-विवाद तर्क-वितर्क और बहस वे ही करते हैं जो सत्य को नहीं जानते, जो कि अज्ञ हैं, जिन्हें सत्य के अस्तित्व पर श्रद्धा तक नहीं है, और इससे भी अधिक, जिन्हें सत्य के अस्तित्व पर ही संशय है । वे ईश्वर के अस्तित्व पर भी इसलिए संशय प्रकट करते हैं जबकि सत्य ही एकमात्र ईश्वर है।"

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Friday, May 19, 2023

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्

कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।

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अष्टावक्र गीता तो अत्यन्त परिपक्व जिज्ञासुओं और मुमुक्षुओं के लिए, किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता सभी के लिए परमार्थ की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मनोयान   blog में अष्टावक्र गीता को क्रमबद्ध पोस्ट करते हुए अध्याय १७ के श्लोक १२ को पढ़ते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय का उल्लेख करना प्रासंगिक प्रतीत हुआ।

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Sunday, April 9, 2023

The Perspective.

 ...And The Parlance.

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Chapter 2 Verses 12 to 27

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With special reference to, and the focus on the concept of suicide

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First the verses :

अध्याय २ --

आत्मा की निजता और नित्यता :

The Immortal and The Eternal :

आत्मन् / The  Self :

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरो तत्र न मुह्यति।।१३।।

नित्य-अनित्य, विषयों, विषय-भोगों और संसार की अनित्यता का विवेक और तितिक्षा :

The Unreal, Temporal and transient and the Real Intransient.

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।।

आगमापायिनोऽनित्या तांस्तितिक्षस्व भारत।।१४।।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।

सत् और असत:

What Exists and what appears to exist :

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।

देह की नश्वरता और देही की नित्यता :

The body is perishable while the one who possesses the body - the consciousness is imperishable.

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।। 

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

"पता न होना और पता नहीं है" - यह भी पता न होना :

Not knowing the not-knowing!

In-attention to / of the ignorance! 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

आत्मा का नित्य, सनातन, और शाश्वत स्वरूप :

Indestructible, imperishable, ever-existing Timeless Reality of the Self :

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः।।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२०।।

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।२१।।

Transition from one life to the another / the next : Reincarnation :

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।२२।।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।२३।।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।२४।।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।२५।।

विकल्प  / Alternatively :

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।।

तथापि त्वं महाबाहो नैव शोचितुमर्हसि।।२५।।

Why? If you take yourself to be this person who was born, has been given a name, and has a history, biography, and is eventually  going to die, then also you need not grieve!

Because :

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मत्स्य च।।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।

The many "selves" :

There is the body which thinks not, 

There is the mind that appears to think,

There is yet another thought : "I am".

Sometimes we think "I am this body" for example when we need to refer to oneself, -- like when we say :

"I am going,  coming, I am here, I was there, at some other place, I am sick, tired, child, old, young", etc.

And at times we refer to oneself according to the state of the mind - like when we say :

"I am happy, worried, excited, depressed or anxious etc."

Then again we tend to think :

"I am skilled, intellectual, scholar, erudite, knowledgeable, ..."

Obviously I never undergo any change and we do know this reality without any effort whatsoever.

So there is a stream of thoughts that emerge and subside moment to moment.

So the thought : "I was born and shall die," is but a thought like so many different, other and various thoughts.

"I want to die, I will kill myself" - are even so thoughts only that emerge out from and then submerge into the source unknown to them. This source is ever so unborn and immortal  deathless underlying principle, the Reality, - The consciousness which is sentience with reference to the body, thought and the mind.

So the question of suicide or killing oneself is just ridiculous, absurd and senseless.

But if interested, earnest eager to know, one can sure sunk deep and enquire about what us "the death"? Is not it a only a meaningless superficial word!

No one can ever kill oneself, nor be get killed by someone else.

Though, as it appears, we see others die, and overwhelmed by the thought of death, think "I too shall die at some point in time." That is but an assumption only. Neither through the experience, logic, nor the example, we could prove it! Even if we really die, how could we affirm "I am dead"

We simply neither know nor understand what is death, and we just imagine, form a mental image of death, and think "I will die, or will kill myself"

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Wednesday, April 5, 2023

The Law of Karma

The Insidious Inexorable Law Of Karma :

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How Philosophy has diverted our attention from the crucial question "Who I?" is evident from the fact that most of people keep trying to find out a way of  मोक्ष / liberation through Karma. Of Course, no anyone howsoever can run away from Karma, but one can sure try to find out what is indeed कर्म / Karma, and exactly Who / what causes the कर्म / Karma to happen? शङ्कराचार्य  points out :

उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ।।

योगारूढत्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया।।९।।

संन्यस्य सर्वकर्माणि भवबन्धविमुक्तये।।

यत्यतां पण्डितैर्धीरैरात्माभ्यास उपस्थितैः।।१०।।

चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।।

वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित्कर्मकोटिभिः।।११।।

(विवेक-चूडामणि)

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणोऽपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

(अध्याय ४)

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।

(अध्याय ५)

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।१।।

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।।

न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।२।।

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।३।।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।।

सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।४।।

(अध्याय ६)

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यसेनाधिगच्छति।।४९।।

(अध्याय १८)




Thursday, March 16, 2023

गीता का "भारत" को संदेश :

नियोजयसि केशव!

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अर्जुन उवाच --

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।।

तत्किं कर्म घोरे मां नियोजयसि केशव।।१।।

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का प्रारंभ ही इस जिज्ञासा से होता है।

जिसका अंतिम उत्तर भगवान् श्रीकृष्ण ग्रन्थ के अंतिम अध्याय १८ के अंत में इस प्रकार से देते हैं --

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।५५।।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।५६।।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।५७।।

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।।

अथ चेत्त्वहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।५८।।

और अर्जुन के द्वारा पूछे गए त्रुटिपूर्ण प्रश्न को सुधारकर उसका उत्तर भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार से देते हैं --

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

यस्मात् च --

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।।

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।६०।।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।।

तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।६२।।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।६३।।

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Sunday, February 26, 2023

विहाय कामान्यः सर्वान्

 2/71

अध्याय २

विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।।

निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।

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अष्टावक्र गीता,

अध्याय ९

वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्चताः।।

तत्त्यागो वासना-त्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा।।९।।

अध्याय १०

विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम्।।

धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु।।१।।

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अपने

manoyaana/मनो.यान blog

में अष्टावक्र गीता के ९ वें अध्याय का अंतिम और ९ वाँ श्लोक लिखने के बाद कल सुबह अध्याय १० का प्रथम श्लोक पोस्ट करते समय श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के उपरोक्त श्लोक की पंक्ति याद आई।

अष्टावक्र गीता के ९ वें अध्याय के ९ वें श्लोक में जो शिक्षा दी गई उस की फलश्रुति श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के उपरोक्त उद्धृत श्लोक में कही गई है, ऐसा कहना उचित प्रतीत हुआ। 

क्योंकि जब अष्टावक्र गीता के दसवें अध्याय के प्रथम श्लोक को पढ़ा तो विस्मित रह गया। इस श्लोक में यह कहा गया, कि काम के साथ साथ उस "धर्म" का भी परित्याग कर दिया जाना चाहिए, जो समस्त अर्थ और अनर्थसंकुल दोनों का हेतु है। चूँकि मेरी जानकारी में अंग्रेजी में 'धर्म' के लिए मुझे कोई ऐसा उपयुक्त शब्द नहीं दिखाई दिया, इसलिए इस श्लोक का अंग्रेजी भाषा में अर्थ लिखते समय मैंने "Sense of duty" का प्रयोग किया है। 

वास्तविक "धर्म" प्रचार का विषय नहीं हो सकता बल्कि उसकी खोज की जानी होती है, इसलिए जैसे ही कोई "धर्म" को प्रचार का विषय बना लेता है, वह महत्वाकांक्षा का शिकार हो जाता है और वह उस कार्य में गौरव अनुभव करने लगता है। तब अनेक, विभिन्न प्रकार के धार्मिक संगठन पैदा हो जाते हैं जो कामना से ही प्रेरित उपद्रव होते हैं। शायद इसीलिए उक्त श्लोक में कामना से प्रेरित ऐसे "धर्म" को भी त्याग देने के बारे में शिक्षा दी गई है, जो सम्पूर्ण अर्थ और अनर्थों का समूह / मूल है।

इसलिए हमारे समय के एक अत्यन्त प्रसिद्ध दार्शनिक (न कि बुद्धिजीवी दर्शनशास्त्री / intellectual philosopher) जब ऐसे संगठनों (organized religions), सम्प्रदायों के लिए collective ignorance शब्द का प्रयोग करते हैं, तो आश्चर्य नहीं होता।

प्रचार सदैव किसी वस्तु, विचार, आदर्श या उद्देश्य का विस्तार करने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित एक कामना / प्रपञ्च ही होता है, और इसलिए अज्ञान (ignorance) और नये नये उपद्रवों के जन्म का ही कारण भी होता है। 

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Tuesday, February 21, 2023

निर्वेदम्

नाना मतं महर्षीणां... 

मेरे मनोयान ब्लॉग में अष्टावक्र गीता का एक श्लोक प्रतिदिन मैं पोस्ट कर रहा हूँ। आज अध्याय ९ का निम्न श्लोक पोस्ट करते हुए, मुझे श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ का श्लोक ५२ याद आया ।

दोनों श्लोकों का भाव भी समान ही है --

नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।।

दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः।।५।।

इसी आशय से युक्त यह श्लोक भी जान पड़ता है --

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

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Wednesday, February 8, 2023

जाति और वर्ण

मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

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3/27,

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

3/28,

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।२८।।

3/29,

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।२९।।

4/13,

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

के सन्दर्भ में मुण्डकोपनिषद् के निम्न मंत्र उल्लेखनीय हैं :

मुण्डक प्रथम

(प्रथम खण्ड-) 

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां  प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्न पप्रच्छ :

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।।३।।

तस्मै स होवाच :

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति -- परा चैवापरा च।।४।।

शौनक ऋषि संभवतः दत्तात्रेय परंपरा के रहे होंगे, जो गौ और श्वान दोनों का ही पालन पोषण करते थे --

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।१८।।

(अध्याय ५)

इससे यही स्पष्ट होता है कि अङ्गिरस की परंपरा में ऋषि गौ के साथ श्वान भी रखते थे। अंगिरा से ही आङ्ग्ल (Angel) और आङ्ग्ल-शैक्षं (Anglo-Saxon) तथा फिर अंग्रेज "जाति" का उद्भव हुआ। तैत्तिरीय उपनिषद् में शीक्षा-वल्ली भी दृष्टव्य है।

निष्कर्ष यह कि "जाति" नामक सामाजिक विभाजन पण्डितों ने नहीं बल्कि सनातन-धर्म से विद्वेष रखनेवाले विधर्मियों ने किया।

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Friday, February 3, 2023

सिद्धानां कपिलो मुनिः

सिद्धिगीता : श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

--

2/48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

(अध्याय २)

3/4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

(अध्याय३)

4/12,

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।१२।।

4/22,

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।

(अध्याय४)

7/3,

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।३।।

(अध्याय ७)

10/26,

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

(अध्याय १०)

11/36,

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या

जगत्हृष्यत्यनुरज्यते च।।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति

सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।३६।।

(अध्याय ११)

12/10,

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

(अध्याय १२)

14/1,

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।।

(अध्याय १४)

16/14,

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।१४।।

16/23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६)

18/13,

 पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

18/26,

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।२६।।

18/45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।४५।।

18/46,

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।।

18/50,

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।

(अध्याय १८)

--

पातञ्जल योगसूत्र :

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।४५।।

(साधनपाद)

जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजा सिद्धयः।।१।।

(कैवल्यपाद)

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तसंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः परार्थत्वादन्यस्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।।३६।।

ततः प्रातिभश्रवणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते।।३७।।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।।३८।।

(विभूतिपाद)

--

इति भारद्वाजेन शास्त्रिणा विनयेन संकलिता :

श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

।। सिद्धिगीता ।।

।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।

***

Saturday, January 28, 2023

पञ्चश्लोकी गीता

साङख्य दर्शन और  योग दर्शन

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पतञ्जलि योगदर्शन के अनुसार :

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६ 

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।२३।।

निश्चय - अनिर्वेदयोः - निश्चय और अध्यवसायपूर्वक, - इस योग का अनुष्ठान किया जाना चाहिए, जिसे दुःखसंयोग से वियोग - अर्थात् दुःख (से संयोग) का वियोग कहा जाता है।

यः पश्यति सः पश्यति - 

ऊपर उद्धृत प्रमाण का उल्लेख 'वृत्ति' के रूप में किया गया है। योग की परिभाषा-सूत्र के अनुसार प्रमाण भी विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति की ही तरह वृत्ति ही है। 

इसलिए महर्षि पतञ्जलि के योगशास्त्र के अनुसार प्रमाण भी सत्य के दर्शन हेतु अपर्याप्त है।

इसकी विवेचना न्याय-दर्शन के सन्दर्भ में इस प्रकार से की जा सकती है : प्रमाणों (Evidence) की परीक्षा करने के बाद जो निष्कर्ष अकाट्यतः सिद्ध होता है वह यथार्थ (Proof) होता है, जबकि इनके परोक्ष (Indirct) उल्लेख को आप्तवाक्य / वेद / निगम कहा जाता है। किन्तु इस वेद का विशुद्ध और संशयरहित तात्पर्य क्या है, इसे कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है? इसका एकमात्र आधार साक्ष्य अर्थात् दर्शन (Witness) ही है।

दर्शन ईश्वर का हो या आत्मा का ही एकमात्र साक्ष्य है। 

अतएव दर्शन ही सत्य की एकमात्र कसौटी (Criteria), उपाय है, जो पुनः केवल ६ रूपों में ही हो सकता है और उसी आधार पर वेद-सम्मत दर्शन यही षट्-दर्शन है जिसका उल्लेख क्रमशः :

साङ्ख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त (उत्तर-मीमांसा) की तरह किया जाता है। चूँकि सभी अपने आप में स्वतंत्र और सम्पूर्ण हैं, इसलिए अन्य सभी दर्शन जैसे बौद्ध या जैन जैसे वेद के प्रमाण को अस्वीकार करनेवाले सिद्धान्तों को  भी साङ्ख्य के ही अन्तर्गत दर्शन कहा जा सकता है।

दूसरी ओर, एकेश्वरवाद (Monotheism) और बहुदेवतावाद (Polytheism) आदि भी वेदविरोधी नहीं, बल्कि वेदसम्मत ही अवश्य हैं, किन्तु परंपरा और इतिहास के प्रभावों के परिणाम से आज वे वेदविरोधी दिखाई देने लगे हैं।

वैसे यह भी विवेचनीय है कि क्या Monotheism का अर्थ एकेश्वरवाद, और Polytheism का अर्थ बहुदेवतावाद कहाँ तक उपयुक्त है! क्योंकि Monotheism और Polytheism शब्दों की व्युत्पत्ति करने पर पता चलता है कि ग्रीक शब्द थिओ मूलतः संस्कृत के "धी" अर्थात् "बुद्धि" का सजात / cognate  है। इसलिए  Monotheism और Polytheism का अर्थ क्रमशः एकेश्वरवाद और बहुदेवतावाद नहीं, बल्कि एक बुद्धि, और अनेक बुद्धियाँ होगा।

श्रीमद्भगवद्गीता में इसका ही वर्णन  व्यवसायात्मिका बुध्दि की तरह से अध्याय २ में इस प्रकार से किया गया है :

व्यवसायात्मिका बुध्दिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखः ह्यनन्ताश्चश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।

पुनः इस व्यवसायात्मिका बुध्दि से जिनकी बुद्धि अन्य है, वे :

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।

ऐसे लोग जिनकी बुद्धि भोगों और ऐश्वर्य की लालसाओं से युक्त है, समाधि के विषय में अनुपयुक्त होती है।

जिनकी बुद्धि भोगों और ऐश्वर्य, स्वर्ग के सुखों की लालसा और आशा से लुब्ध है, उन्हें देवताओं की आराधना से यह सब प्राप्त भी हो सकता है, किन्तु ये सभी सुख क्षणिक होने से श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त पुरुष इस दिशा में संलग्न नहीं होते। श्रीमद्भगवद्गीता में इसलिए इस मर्यादा को स्पष्ट किया गया है।

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अध्याय ५

अर्जुन उवाच :

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

श्रीभगवान् उवाच :

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितं सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

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Sunday, January 22, 2023

रसवर्जं / rasavarjaṃ

रसवर्जं / rasavarjaṃ
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अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
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(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
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भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
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टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
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’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ -  craving for the pleasures, longing for,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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Wednesday, January 18, 2023

अतिथि, तुम कब आओगे?

एक कविता : 19-01-2023

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"जिन्दगी को बहुत प्यार हमने किया, 

मौत से भी मुहब्बत निभाएँगे हम!"

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो

नमोऽस्तुते देववर प्रसीद। 

विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं 

न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।३१।।

अतिथि! तुम कब आओगे? 

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(और इसे लिखते लिखते याद आई 19-01-1990 की तिथि,  किसी दिवंगत महापुरुष की पुण्यतिथि, इसलिए उनकी स्मृति को ही यह कविता / पोस्ट समर्पित है।)

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Monday, January 16, 2023

प्रवृत्ति और निवृत्ति

प्रवृत्ति की प्रेरणा 

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इससे पहले का पोस्ट लिखते समय प्रवृत्ति और निवृत्ति के बारे में लिखने का मन था, किन्तु एकाएक विषय-वस्तु के आधार पर व्यवसायात्मिका बुध्दि के सन्दर्भ में लिख दिया!

11/15,

अर्जुन उवाच :

पश्यामि देवांस्तव देव देहे

सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।।

ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-

मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।१५।।

...

... ।।३०।।

11/31

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो

नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।।

विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं

न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।३१।।

कालोऽस्मि लोकक्षयकृतप्रवृद्धो

लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।।

ऋतेऽपि त्वा न भविष्यन्ति सर्वे

येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।३२।।

(अध्याय ११)

14/12

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।।

रजस्येतानि जायन्ते विवृधे भरतर्षभ।।१२।।

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।२२।।

(अध्याय १४)

15/1

श्रीभगवानुवाच --

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।।

...।।१।।

15/4

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।

(अध्याय १५)

16/7

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।। 

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।७।।

(अध्याय १६)

18/30

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।।

प्रोच्यमानशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।३०।।

18/46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।।

(अध्याय १८)

उपरोक्त श्लोकों में 16/7 का प्रमुख महत्व है ।

यह उन लोगों के बारे में है, जिन्हें न तो यह पता है कि प्रवृत्ति क्या है और न यह कि निवृत्ति क्या है। वे केवल अपने संस्कारों से परिचालित होकर लोभ और भय, आशा और निराशा, इच्छा, राग, ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान, गर्व और दैन्य सहित यंत्रवत जीवन व्यतीत किया करते हैं। इसे ही आसुरी संपत्ति कहा गया है। जैसे दैवी संपत्ति से युक्त मनुष्य सर्वत्र पाए जाते हैं, उसी तरह आसुरी संपत्ति से युक्त मनुष्य भी सर्वत्र पाए जाते हैं। 

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Saturday, January 14, 2023

Industry, Business,

Management & Finance. 

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Why Business Empires Crash / Collapse? 

श्रीमद्भगवद्गीता / Shrimadbhagvadgita indirectly points out the reasons.

The word "Business" could be found to have been originated from the Sanskrit roots as a combination of two root words :

√विश् and √न्यस् respectively.

√विश् is used to denote "to enter", while the word √न्यस् (as in न्यास, विन्यास, संन्यास, पंन्यास) is used to mean "to invest", नि (उपसर्ग) / prefix + verb-root - √अस्  to keep secure, safe, and in a good / healthy condition.

Again, the word "invest" could be traced to have roots in अनु-विश् meaning to enter kind of an activity.

There are words like "व्यवसाय" which could be split as "वि अव साय" The root word or the verb-root √सो -- साययति means "to annihilate, or "to completely destroy", while the उपसर्ग / prefix "अव" prefixed to √सो gives us the compound word "अवसाय", -meaning "to save, to protect from destruction", but implies "to prosper" / "to grow"; or to develop.

The उपसर्ग -prefix "वि" turns "अवसाय" into the word : "व्यवसाय" - that means development, growth and progress.

"Business" in this way is quite appropriate a translation of the word "व्यवसाय" that we find in the following shloka / verses --

Chapter 2/41, Chapter 2/44, Chapter 10/36, and Chapter 18/59 :

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।

(अध्याय २)

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

(अध्याय २)

द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत् त्ववतामहम्।।३६।।

(अध्याय १०)

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस् त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

(अध्याय १८)

Maybe, shall elaborate in the next posts.

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Sunday, January 8, 2023

संकल्प और संशय

श्रीमद्भगवद्गीता और पातञ्जल योगदर्शन 

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संकल्प और संशय का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ के निम्न श्लोकों में इस प्रकार से है :

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।।

सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।४।।

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।२४।।

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।२५।।

(अध्याय ६)

तथा,

अज्ञस्याश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोक्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।४१।।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।।

छित्त्वैनं संशयं योगमुत्तिष्ठातिष्ठ भारत।।४२।।

(अध्याय ४)

अर्जुन उवाच :

योऽयं योगस् त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।३३।।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्ददृढम्।।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

श्री भगवानुवाच :

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।३६।।

अर्जुन उवाच :

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं किं गतिः कृष्ण गच्छति।।३७।।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नभ्रमिव नश्यति।।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।३८।।

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।।

त्वदन्यःसंशयमस्यास्य छेत्ता  न ह्युपपद्यते।।३९।।

(अध्याय ६)

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।५।।

(अध्याय ८),

एतां विभूतियोगं च मम ये वेत्ता तत्त्वतः।।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

(अध्याय १०)

तथा, 

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।।

निवसिष्यसि मय्येव अथ ऊर्ध्वं न संशयः।।८।।

(अध्याय१२)

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पातञ्जल योग सूत्र के अंतर्गत समाधिपाद अध्याय के सन्दर्भ में निम्न सूत्रों पर दृष्टि डालें :

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभावप्रत्यालम्बना वृत्तिर्निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयसम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।

तत्र स्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः।।१३।।

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसेवितो दृढभूमिः।।१४।।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।।१५।।

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।।१६।।

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः।।१७।।

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स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्र-निर्भासा निर्वितर्का।।४३।।

एतयोरेकं सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।।४४।।

उपरोक्त सूत्रों में सूत्र ६ के अनुसार चित्त-दशा अर्थात् - state of mind को ही वृत्ति कहा जा सकता है : प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

इस दृष्टि से प्रमाण प्रत्यक्ष इन्द्रियसंवेदन या इन्द्रियगम्य ज्ञान है। 

इस आधार पर किया जानेवाला अनुमान भी प्रमाण ही है और इस सम्पूर्ण ज्ञान का संग्रह आगम है।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ।।८।।

संशयवृत्ति का, तथा 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

संकल्पवृत्ति का द्योतक है।

संशय में ज्ञान किस वस्तु का है, उस वस्तु का स्वरूप स्पष्ट नहीं है -- अर्थात् ऐसा ज्ञान जिसका आधार ही शंकास्पद है। 

संकल्प में जिस वस्तु के बारे में कल्पना की जा रही है, उसकी  कल्पना उस वस्तु के अभाव की स्थिति में कल्पित भाव-मात्र होता है। जैसे सुख या दुःख ...

जैसे 6/4, 6/24, 6/25 में संकल्प पद का प्रयोग है। 

6/39, 8/5, 7/10, और 12/8 श्लोकों में संशय पद का प्रयोग दृष्टव्य है।

श्लोक 35/6 में समाधिपाद सूत्र १२ का उल्लेख सन्दर्भ के रूप में देखा जा सकता है। 

सूत्र १७ 

वितर्क-विचार-आनन्द-अस्मिता-अनुगमात् सम्प्रज्ञातः।।१७।।

में अस्मिता भी वितर्क, विचार, आनन्द की तरह की वृत्ति ही है, ऐसा कहा जा सकता है। क्योंकि बाद में सूत्र ४३

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्र-निर्भासा।।४३।।

तथा

एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्म विषया व्याख्याता।।४४।।

में यह स्पष्ट किया गया है।

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।।

निवसिष्यसि मय्येव अथ ऊर्ध्वं न संशयः।।८।।

-अध्याय १२  --(12/8)

तथा, 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।५।।

(अध्याय ८)

में अस्मिता अर्थात् अहं-वृत्ति भी वृत्ति ही है। 

शायद इसे संशोधित किया जाना चाहिए। 

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