Saturday, May 31, 2014

आज का श्लोक, ’सन्न्यसनात्’ / ’sannyasanāt’,

आज का श्लोक,  ’सन्न्यसनात्’ / ’sannyasanāt’,
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’सन्न्यसनात्’ / ’sannyasanāt’ - कर्मों को त्याग देने भर से,

अध्याय 3, श्लोक 4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
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(न कर्मणाम् अनारम्भात्-नैष्कर्म्यम् पुरुषः अश्नुते ।
न च सन्न्यसनात् एव सिद्धिं समधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
कर्मों का प्रारम्भ ही न करने (के निश्चय) से मनुष्य को निष्कर्म की अवस्था* नहीं प्राप्त हो जाती है । और न ही, कर्मों का संकल्पपूर्वक त्याग कर देने से उसे (कर्तृत्व की भावना के नाशरूपी साँख्य-निष्ठा रूपी) सिद्धि * मिल जाती है ।
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*टिप्पणी :
मनुष्य जब तक अपने स्वरूप से अनभिज्ञ होता है तब तक वह अपने आप के स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम से ग्रस्त रहता है । और तब यह आवश्यक होता है कि जिस वस्तु को ’मैं’ कहा जाता है, और जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, उन दोनों के स्वरूप के अन्तर को और उनके यथार्थ तत्व को ठीक से खोजकर जान और समझ लिया जाए । जिसे ’मैं’ कहा जाता है वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक अथवा अनेक की कोटि से विलक्षण स्वरूप की) चेतन-सत्ता है, जबकि जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक और अनेक में प्रतीत होनेवाली कोई) जड वस्तु । चेतन ही जड को प्रमाणित और प्रकाशित करता है । जब इस प्रकार से ’मैं’ को उसके शुद्ध स्वरूप में ठीक से समझ लिया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नित्य ’अकर्ता’ है । और यह स्पष्ट हो जाने के बाद उसके लिए ’कर्म’ करना असंभव हो जाता है । इसे समझ लेनेवाला मनुष्य व्यावहारिक रूप से भले ही ’मैं’ शब्द का प्रचलित अर्थ में प्रयोग करे (या न करे) उसके कर्म तथा अपने आपके स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम अवश्य ही समाप्त हो जाते हैं । किन्तु तब वह अपने आपके कोई विशिष्ट देह या व्यक्ति-विशेष की तरह होने की मान्यता से भी मुक्त हो जाता है । ऐसी साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुआ मनुष्य ’सिद्ध’ कहा जाता है ।
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’सन्न्यसनात्’ /  ’sannyasanāt’ - by keeping away from the action (karma),

Chapter 3, śloka 4,

na karmaṇāmanārambhā-
nnaiṣkarmyaṃ puruṣo:'śnute |
na ca sannyasanādeva
siddhiṃ samadhigacchati ||
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(na karmaṇām anārambhāt
naiṣkarmyam puruṣaḥ aśnute |
na ca sannyasanāt eva
siddhiṃ samadhigacchati ||)
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Meaning :
Just by (deciding) not starting the actions (karma), one is not freed of the karma, and by merely running away from (performing) them, one does not attain the conviction that the consciousness, by the very nature itself is ever free from all action.
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आज का श्लोक, ’संन्यस्य’ / ’saṃnyasya’,

आज का श्लोक,  ’संन्यस्य’ /  ’saṃnyasya’, 
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’संन्यस्य’ /  ’saṃnyasya’, - अर्पित करते हुए, त्यागकर,

अध्याय 3, श्लोक 30,

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
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(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
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भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
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अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
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(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
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भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
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अध्याय 12, श्लोक 6,
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥

(ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येन-एव योगेन माम् ध्यायन्तः उपासते ॥)
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भावार्थ : किन्तु जो अपने सभी कर्मों को मुझ (सगुण) परमेश्वर में ही अर्पण करते हुए अनन्य (मुझसे अपनी अपृथकता के बोध) योग से मेरा ध्यान, जिज्ञासा  तथा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं ...।
[अगले श्लोक क्रमांक 7 में इसे विस्तारपूर्वक कहा गया है ।]

टिप्पणी : इसी अध्याय 12 के श्लोक 1 में अर्जुन द्वारा  पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए, श्लोकों 2, 3, 4 एवं 5 के अन्तर्गत, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बतलाया गया कि यद्यपि (मेरे) अक्षर अव्यक्त स्वरूप में नित्य एकीभूत भाव से संलग्न मन-बुद्धियुक्त श्रद्धायुक्त मनुष्य युक्ततम अर्थात् सर्वोत्तम योगी होते हैं और वे सभी सब भूतों का कल्याण करते हुए मुझे ही प्राप्त होकर मुझमें ही समाहित हो जाते हैं किन्तु, उनमें से कुछ मेरे केवल अव्यक्त-स्वरूप में ही आसक्त मन-बुद्धिवाले होने से क्लेश अर्थात् अत्यधिक परिश्रम करते हैं, ....)
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अध्याय 18, श्लोक 57,

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
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(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
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भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
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’संन्यस्य’ /  ’saṃnyasya’ - having surrendered, given up, dedicated,

Chapter 3, śloka 30,

mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
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(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
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Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
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Chapter 5, śloka 13

sarvakarmāṇi manasā
sannyasyāstē sukhaṁ vaśī |
navadvārē purē dēhī
naiva kurvanna kārayan ||
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(sarvakarmāṇi manasā
sannyasya āstē sukham vaśī |
navadvārē purē dēhī
na- ēva kurvan na kārayan ||)
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Meaning :
The consciousness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
   
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Chapter 12, śloka 6,

ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyenaiva yogena
māṃ dhyāyanta upāsate ||

(ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyena-eva yogena
mām dhyāyantaḥ upāsate ||)
--
Meaning :
But those, who dedicate all their actions (karma) to Me, remembering Me and meditating of Me, ever devoted with indivisible love for Me, by such kind of yoga of oneness with Me,....
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Chapter 18, śloka 57,

cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
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(cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
--
Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me,  by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, Be absorbed in Me.
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आज का श्लोक, ’सन्न्यासयोगयुक्तात्मा’ /’ sannyāsayogayuktātmā’

आज का श्लोक,
’सन्न्यासयोगयुक्तात्मा’ /  ’sannyāsayogayuktātmā’ 
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’सन्न्यासयोगयुक्तात्मा’ /  ’sannyāsayogayuktātmā’ - जिस योग के अभ्यास में समस्त कर्म मुझ (अपनी) आत्मा-रूपी परब्रह्म परमेश्वर में अर्पित कर दिए जाते हैं, उसमें संलग्न होनेवाला मनुष्य,


अध्याय 9, श्लोक 28,

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
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(शुभ-अशुभफलैः एवम् मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तः माम् उपैष्यसि ॥)
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भावार्थ : इस प्रकार, सन्न्यासयोग से संपन्न तुम शुभ एवं अशुभरूप सारे कर्मों तथा उनके फलों रूपी बन्धनों से छूटकर मुझको ही प्राप्त हो जाओगे ।
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’सन्न्यासयोगयुक्तात्मा’ /  ’sannyāsayogayuktātmā’ -- One who has dedicated all his actions of each and every kind to Lord (Me, as said in the last śloka 27 of this Chapter).

Chapter 9, śloka 28,

śubhāśubhaphalairevaṃ
mokṣyase karmabandhanaiḥ |
sannyāsayogayuktātmā 
vimukto māmupaiṣyasi ||
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(śubha-aśubhaphalaiḥ evam
mokṣyase karmabandhanaiḥ |
sannyāsayogayuktātmā 
vimuktaḥ mām upaiṣyasi ||)
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Meaning :
In this way having dedicated all your actions to ME, by this sannyāsayoga, you will become free from all your good and evil actions and their fruits also, and attain ME only.
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Friday, May 30, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता 2 / 29

~~  श्रीमद्भगवद्गीता  2 / 29 ~~
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पिछले कितने दिन कैसे बीते यह सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है। कहने को तो मनुष्य अपने को एक नाम और एक काया समझता है लेकिन उस नाम और काया से जुड़ा एक (या अनेक?) साकार (या निराकार?) 'मन' नामक तत्व कितने समयों में कितने धरातलों पर गतिशील रहता है, यह शायद ही उसे पता होता है।  यहाँ तक कि इस सरल और नितान्त प्रकट वास्तविकता पर फिर भी उसका ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि कोई उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट ही न कर दे। और बावज़ूद इसके वह अपने को एक नाम-विशेष, एक काया-विशेष ही मन बैठता है।  'वह' कौन ? मन या मनुष्य ? प्रश्न यह भी है कि वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हैं, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप ?
मन कभी ठहरा होता है, तो कभी तरंगित।  कभी उदास तो कभी प्रसन्न। कभी चिंतित तो कभी  निश्चिन्त। कभी व्यग्र तो कभी शांत।  कभी भावना के ज्वार पर तो कभी अवसाद के उतार पर।  मन या मनुष्य ? प्रश्न यह भी है कि वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हैं, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप ?  स्पष्ट है मन या मनुष्य जो भी होता है, एक या (या अनेक?) साकार (या निराकार?), उसका 'जीवन', उसकी 'सत्ता' अवश्य ही दो तलों पर होती है।  मन और मनुष्य वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हों, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप होते हों, अवश्य ही 'जीवन' के दो परस्पर अंतःस्यूत घनिष्ठतः गुथे हुए पक्ष होते हैं जिनमें भेद कर पाना कठिन होता है। लेकिन उनमें व्याप्त 'जीवन' भी तो उनकी ही तरह  साकार / निराकार, एक / अनेक के मध्य दोनों जैसी ही एक विलक्षण सत्यता है ! क्या वह सत्यता उनसे भिन्न कोई तीसरा तत्व है?
इसलिए मन / मनुष्य / जीवन तीनों ही बस अनिर्वचनीय यथार्थ हैं। वह यथार्थ एक समग्र तथ्य है, वह न सिर्फ आप है, न मैं, न हम, तुम, वे, यह या वह !
पिछले कई दिनों से इसी बारे में कौतूहल, जिज्ञासा और जानने-समझने की उत्कण्ठा थी।
यदि कहूँ 'मुझे' थी तो वह गलतबयानी होगा।  क्योंकि मन / मनुष्य / जीवन तीनों ही बस अनिर्वचनीय यथार्थ हैं। वह यथार्थ एक समग्र तथ्य है, वह न सिर्फ आप है, न मैं, न हम, तुम, वे, यह या वह !
इसलिए पिछले कितने दिन कैसे बीते यह सोचता हूँ, तो बस आश्चर्य होता है।
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आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित् एनम्
आश्चर्यवत्  वदति तथा-एव च अन्यः।
आश्चर्यवत् च एनम् अन्यः शृणोति
श्रुत्वा अपि एनम् वेद न च एव कश्चित्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता  2 / 29 )
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Sunday, May 25, 2014

आज का श्लोक, ’संन्यासस्य’ / ’saṃnyāsasya’,

आज का श्लोक,  ’संन्यासस्य’ / ’saṃnyāsasya’
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’संन्यासस्य’ / ’saṃnyāsasya’ - संन्यास का,

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अध्याय 18, श्लोक 1.
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संन्यासस्य महाबाहो तत्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च  हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन  ॥
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(संन्यासस्य महाबाहो तत्वम् विच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च  हृषीकेश पृथक् केशिनिषूदन ॥)

भावार्थ :
अर्जुन कहते हैं -
'हे हृषीकेश !  (हे कृष्ण !)  हे महाबाहो! संन्यास और त्याग, दोनों के स्वरूप का तत्व क्या है, आपसे इसे मैं पृथक् पृथक् सुनना चाहता हूँ ।
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’संन्यासस्य’ / ’saṃnyāsasya’ - of ’ saṃnyāsa’

Chapter 18, śloka 1.

saṃnyāsasya mahābāho
tatvamicchāmi veditum |
tyāgasya ca  hṛṣīkeśa
pṛthakkeśiniṣūdana  ||
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(saṃnyāsasya mahābāho
tatvam vicchāmi veditum |
tyāgasya ca  hṛṣīkeśa
pṛthak keśiniṣūdana ||)
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Meaning :
O Mighty-armed KrishNa! Please tell me the essence of sannyAsa and tyAga in their comparison and contrast !
(sannyAsa = Complete renunciation of sensory pleasures and abiding in the Self that comes through understanding their transient nature nd the nature of the brahman / Truth / Self, which is eternal peace and tranquility, bliss. tyAga = practicing of viveka and vairAgya.)
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आज का श्लोक, ’संन्यासम्’ / ’saṃnyāsam’,

आज का श्लोक,  ’संन्यासम्’ / ’saṃnyāsam’,
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’संन्यासम्’ / ’saṃnyāsam’,  - संन्यास (की प्रक्रिया)

अध्याय 5, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
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(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं ।  इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
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अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
--
(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
--
भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
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टिप्पणी :
संन्यास शब्द का सीधा तात्पर्य तो ’त्याग कर देना’ होता है, किन्तु त्याग केवल बाह्य आचरण के साथ-साथ मन के स्तर पर ’कर्तापन’ की भावना के त्याग के रूप में भी होता है तो वही ’योग’ अर्थात् ’कर्मयोग’ कहा जाता है । इसलिए ’संन्यास’ और योग मूलतः एक ही प्रक्रिया हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 2,

श्रीभगवानुवाच :

काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
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(काम्यानाम् कर्मणाम् न्यासं सन्न्यासं कवयः विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागम् प्राहुः त्यागं विचक्षणाः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
विद्वान् पुरुष कामनाओं की प्राप्ति के उद्देश्य से किए जानेवाले कर्मों का त्याग ही संन्यास है, ऐसा समझते हैं, जबकि (अन्य) विचारपूर्वक देखने-जाननेवालों के मतानुसार समस्त कर्मफल का त्याग ही वस्तुतः त्याग होता है ।
--
टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में संक्षेप में संन्यास को परिभाषित किया गया है । यह जानना रोचक होगा कि इसका शाब्दिक अर्थ व्युत्पत्ति के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार से प्राप्त होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’अस्’ धातु (’होने) के अर्थ में संयुक्त करने पर ’न्यस्’ और फिर इससे अपत्यार्थक ’न्यास’ व्युत्पन्न होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’आस्’ धातु (बैठने, स्थिर होने के अर्थ में) से ’न्यास्’ और ’न्यास’ प्राप्त होता है ।
तात्पर्य यह कि एक ओर जहाँ किसी वस्तु को उसके यथोचित स्थान पर रखना ’न्यास’ है, तो दूसरी ओर अपने स्वाभाविक स्वरूप (आत्मा) में मन को स्थिरता से रखना भी ’न्यास’ ही है । इसी को गौण अर्थ में न्यास अर्थात् अंग्रेज़ी भाषा के trust के लिए हिन्दी में प्रयुक्त किया जाता है ।
यह तो हुआ ’न्यास’ । इसके साथ ’सं’ उपसर्ग लगा देने से इसे पूर्णता प्राप्त हो जाती है और ’संन्यास’ प्राप्त हो जाता है  ।
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’संन्यासम्’ / ’saṃnyāsam’,  - Renunciation of different forms.

Chapter 5, śloka 1,
अर्जुन उवाच -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
--
(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekaṃ
tat me brūhi suniścitam ||)
--
Meaning :
arjuna said : O  kṛṣṇa ! You speak of  Renunciation (sannyāsa) of action (karma), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
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Note :
In this and following śloka of this Chapter 5, the meaning and essence of Renunciation is explained. The Renunciation could be either at the formal level when one renounces the possession of things, but does not give up the idea that the action happens because of the three attributes (guṇa) of prakṛti  and one is always free and unaffected from all action (karma) and the notion of "I do  / I don't do" are but illusion only, Or at a deeper level of understanding this truth.
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Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
--
(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
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Meaning :
What is described as (sannyāsa) Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire (saṃkalpa vṛtti).
--
Chapter 18, śloka 2,

śrībhagavānuvāca :

kāmyānāṃ karmaṇāṃ nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayo viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgaṃ
prāhustyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||
--
(kāmyānām karmaṇām nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayaḥ viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgam
prāhuḥ tyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||)
--
Meaning :
śrīkṛṣṇa said :
Learned know, giving up of the actions prompted by the desires of enjoyments is the right kind of Renunciation,  And giving up the fruits of each and every action is termed as tyāgaṃ by the wise, vicakṣaṇā .
Note : Summarily there is a renunciation of action (karma), and there is another, of the fruits of all action (phalatyāga).
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Note :
’नि’ उपसर्ग, ’ni’ upasarga, associated with ’अस्’ धातु,  ’as’- dhātu (in the sense of being) gives us : ’न्यस्’ ’nyas’ and then we derive ’न्यास’ ’nyāsa’.
 ’नि’ उपसर्ग ’ni’ upasarga associated with ’आस्’ धातु ’ās’ dhātu ( in the sense of 'staying') gives us ’न्यास्’ ’nyās’ and then we derive ’न्यास’ ’न्यास’.
Thus, संन्यास / sannyāsa means right disposal of things
The prefix (upasarga) ’सं’ ’saṃ’ attached ’न्यास्’ ’nyās’ gives us the term   संन्यास / sannyāsa.
The prefix ’सं’ ’saṃ’ signifies perfection.
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आज का श्लोक, ’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’,

आज का श्लोक,  ’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’,  
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’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’,   - छोड़ दिया जाना, परित्याग, विधिपूर्वक, या ऐसे ही किसी कारणवश,

अध्याय 5, श्लोक 2,

श्रीभगवानुवाच :

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
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(सन्न्यासः कर्मयोगः च निःश्रेयस्करौ उभौ ।
तयोः तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
संन्यास और कर्मयोग दोनों ही निश्चय ही समान रूप से परम कल्याणकारी हैं, किन्तु कर्मसंन्यास की तुलना में कर्मयोग (कुछ भिन्न होने से उससे अपेक्षाकृत) अधिक श्रेष्ठ है ।
--
टिप्पणी :
यहाँ पहले यह जान लेना रोचक होगा कि कर्मसंन्यास तथा कर्मयोग में क्या समानता और क्या भेद है । कर्मसंन्यास से यहाँ तात्पर्य है सांसारिक कर्मों से स्वेच्छया  अपने-आपको मुक्त रखते हुए साँख्ययोग का अभ्यास करना । इसके लिए मनुष्य को परिवार और समाज के संबंधों को त्यागना आवश्यक अनुभव हो सकता है । परन्तु चूँकि उन संबंधों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती वरन् वे स्मृति और प्रमादवश ही सत्य की भाँति ग्रहण कर लिए जाते हैं, और उनकी यह आभासी तथा औपचारिक सत्ता भी स्मृति पर ही अवलंबित होती है, इसलिए स्मृति की सत्यता पर सन्देह न होने तक ऐसा अभ्यास, यह ’कर्मसंन्यास’ अभ्यासमात्र है, एक सीमा तक इसकी अपनी उपयोगिता भी है ही । किन्तु ’कर्मयोग’ इस अर्थ में इस ’कर्मसंन्यास’ से भिन्न है, कि इसमें मनुष्य कर्मों के होने या न होने से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि कर्म प्रकृति के तीन गुणों का कार्य है, और अपने करने या न करने के आग्रह या विचार से उनके होने या न होने का कोई संबंध नहीं है । और तब वह अपने कर्ता होने की भावना से भी मुक्त रहते हुए शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के कर्म में संलग्न या असंलग्न रहते हुए भी अपने स्वाभाविक ’अकर्ता’ और बोधमात्र होने की सत्यता को जानने लगता है । यद्यपि वह इसे परिभाषित भी न कर सके, किन्तु इससे उसके मन में जो शान्ति व्याप्त होती है, उसे वही जानता और अनुभव करता है । और इसलिए इस दृष्टि से कर्मयोग को कर्मसंन्यास से कुछ अधिक श्रेष्ठ कहा जा सकता है । किन्तु फल (परिणाम) की दृष्टि से दोनों समान ही हैं । अगले श्लोक (6) में इसी तथ्य की पुष्टि देखी जा सकती है ।

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अध्याय 5, श्लोक 6,

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
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(सन्न्यासः तु महाबाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तः मुनिः ब्रह्म न चिरेण अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन) योग का अवलंबन लिए बिना कर्म का सम्यक् और परिपूर्ण त्याग करने का प्रयास क्लेश का कारण होता है । जबकि योग का अवलंबन लेनेवाला मुनि (अभ्यासरत मनुष्य) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 7,

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकिर्तितः ॥
--
(नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणः न उपपद्यते ।
मोहात् तस्य परित्यागः तामसः परिकीर्तितः ॥)
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भावार्थ :
शास्त्र द्वारा निषिद्ध और काम्य कहे जानेवाले कर्मों का त्याग, अर्थात् उन्हें न करना तो उचित ही होता है, किन्तु शास्त्रविहित अपने लिए निर्दिष्ट कर्तव्यों का प्रमादवश किया जानेवाले त्याग को तामसी त्याग कहा जाता है ।  
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’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’, -  renunciation, giving-up, either or both, - the action and the hope for their consequent fruits, appropriate according to the context.

Chapter 5, śloka 2,

sannyāsaḥ karmayogaśca
niḥśreyasakarāvubhau |
tayostu karmasannyāsāt-
karmayogo viśiṣyate ||
--
(sannyāsaḥ karmayogaḥ ca
niḥśreyaskarau ubhau |
tayoḥ tu karmasannyāsāt
karmayogaḥ viśiṣyate ||)
--
Meaning :
Though the renunciation of action (karma) as such, even without the proper understanding of yoga, and karmayoga
(reasons : *Giving up the wrong notion that actions are done by one independently by oneself and failing to realize that all actions are done by the three attributes guṇa of  prakṛti only) both are equally very helpful in attainment of the Supreme Goal (’mokṣa’), The later is somehow superior to renunciation (without the proper understanding of yoga), for the obvious reasons*)  
--
Chapter 5, śloka 6,
sannyāsastu mahābāho
duḥkhamāptumayogataḥ |
yogayukto munirbrahma
nacireṇādhigacchati ||
--
(sannyāsaḥ tu mahābāho
duḥkham āptum ayogataḥ |
yogayuktaḥ muniḥ brahma
na cireṇa adhigacchati ||)
--
Meaning :
Right Renunciation of action (karma) happens with the help of yoga only O  mahābāhu, (arjuna) ! With the help of yoga a practicing noble aspirant realizes Brahman without delay.
--
Chapter 18, śloka 7,

niyatasya tu sannyāsaḥ 
karmaṇo nopapadyate |
mohāttasya parityāgas-
tāmasaḥ parikirtitaḥ ||
--
(niyatasya tu sannyāsaḥ 
karmaṇaḥ na upapadyate |
mohāt tasya parityāgaḥ
tāmasaḥ parikīrtitaḥ ||)
--
Meaning :
because of laziness or idleness Renunciation of action that is obligatory, and according to the scriptures is one's very duty to perform is called  of the tāmasa kind.
--

आज का श्लोक, ’संन्यासिनाम्’ / ’saṃnyāsinām’,

आज का श्लोक,  ’संन्यासिनाम्’ / ’saṃnyāsinām’,  
_____________________________________

’संन्यासिनाम्’ / ’saṃnyāsinām’ - संन्यासियों का,
  
अध्याय 18, श्लोक 12,

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥
--
(अनिष्टम्-इष्टम् मिश्रम् च त्रिविधम् कर्मणः फलम् ।
भवति-अत्यागिनाम् प्रेत्य न तु सन्न्यासिनाम् क्वचित् ॥)
--
भावार्थ :
मृत्यु होने के पश्चात् कर्म (तथा उसके फल की कामना) को न त्याग सकनेवाले मनुष्यों को, उनके कर्मों का कर्मफल इष्ट, अनिष्ट एवम् मिश्रित इन तीन रूपों में भोगना पड़ता है, जबकि संन्यासी -अर्थात् जिन्हें यह स्पष्ट होता है कि कर्म प्रकृति के तीन गुणों का कार्य है, और मैं / स्वरूप) / आत्मा नित्य अकर्ता, उन्हें कदापि नहीं ।
--
’संन्यासिनाम्’ / ’saṃnyāsinām’ - of those who have renounced the fruits of actions (karma).

Chapter 18, shloka 12,

aniṣṭamiṣṭaṃ miśraṃ ca
trividhaṃ karmaṇaḥ phalam |
bhavatyatyāgināṃ pretya
na tu sannyāsināṃ kvacit ||
--
(aniṣṭam-iṣṭam miśram ca
trividham karmaṇaḥ phalam |
bhavati-atyāginām pretya
na tu ’saṃnyāsinām’ kvacit ||)
--
Meaning :
Those who don't renounce action ’karma’ and are indulged in it because of the desire of the fruits have to experience, enjoy or suffer the good, evil or mixed effects of those actions ’karma’ in the form of their fruits.While those who have got rid of the sense of doer-ship and there-by the ’karma’ and have understood well that all actions are the play of the 3 attributes of  ’prakṛti’ never (have to experience, enjoy or suffer such fruits).
--  
 Note :
 
--

आज का श्लोक, ’संन्यासी’ / ’saṃnyāsī’,

आज का श्लोक,  ’संन्यासी’ / ’saṃnyāsī’,   
______________________________

’संन्यासी’ / ’saṃnyāsī’ - सांख्य के तत्व को जाननेवाला,
 
अध्याय 6, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
--
(अनाश्रितः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः ।
सः सन्न्यासी च योगी च न निरग्निः न च अक्रियः ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं  - वह नहीं, जो कि  हठपूर्वक अग्नि को नहीं छूता, या दूसरे सारे कर्मों को त्याग देता है, बल्कि वह पुरुष जो कि कर्म के फल पर आश्रित नहीं होता, अर्थात् फल अनुकूल या प्रतिकूल क्या होता है इस विषय में जिसका कोई आग्रह नहीं होता, और जो अपने लिए निर्धारित कर्तव्य को पूर्ण करने के ध्येय से किसी कर्म में संलग्न होता है, वास्तविक अर्थों में संन्यासी (जिसने कर्म को त्याग दिया है) और वही कर्मयोगी अर्थात् कर्म करते हुए भी उसे मोक्ष का साधन बना लेनेवाला कुशल योगी होता है ।
--
’संन्यासी’ / ’saṃnyāsī’  - One who truly understands and follows the essence of 'sāṃkhya'.

Chapter 6, shloka 1,

śrībhagavānuvāca :

anāśritaḥ karmaphalaṃ
kāryaṃ karma karoti yaḥ |
sa sannyāsī ca yogī ca
na niragnirna cākriyaḥ ||
--
(anāśritaḥ karmaphalam
kāryam karma karoti yaḥ |
saḥ sannyāsī ca yogī ca
na niragniḥ na ca akriyaḥ ||)
--
Meaning :
bhagavān (Lord) śrīkṛṣṇa said -
Neither the one who has taken a vow of touching not the fire (that means begging for the food and not cook oneself, a condition a traditional saṃnyāsī is expected to observe), nor one who abstains from all other such works in order to live as one, but he, who without thinking of and depending upon the result of actions, performs his duties is  a true yogī  or  saṃnyāsī .  
--
Note : saṃnyāsī  / sannyāsī, and संन्यासी / सन्न्यासी are equivalent.
--

Saturday, May 24, 2014

आज का श्लोक, ’संन्यासेन’ / ’saṃnyāsena’,

आज का श्लोक,  ’संन्यासेन’ / ’saṃnyāsena’,
___________________________________

’संन्यासेन’ / ’saṃnyāsena’ - साँख्ययोग के (आचरण के ) माध्यम से,
 
अध्याय 18, श्लोक 49,

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥
--
(असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
आसक्ति-बुद्धि से सर्वत्र और सर्वथा रहित, मन-बुद्धि तथा इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, स्पृहारहित ऐसा मनुष्य साँख्ययोग के व्यवहार से परम नैष्कर्म्य-सिद्धि को प्राप्त होता है ।
--
टिप्पणी :
नैष्कर्म्य सिद्धि का अर्थ है मन, बुद्धि, शरीर, परिस्थितियों, काल और स्थान आदि के द्वारा घटित होनेवाले कर्मों  को अपने द्वारा किए जाने के (भ्रमवश पैदा हुए) विचार से छुटकारा हो जाना । यह तभी संभव होता है जब कोई देख लेता है कि समस्त कर्मों का अनुष्ठान ( हो पाना, पूर्ण किया जाना) प्रकृति के द्वारा और उसके ही 3 गुणों के माध्यम से संपन्न होता है, तथा मैं (उनके होने / न होने का जिसे पता चलता है किन्तु जो स्वयं न तो उन कर्मों को करता है और न ही उनसे किसी भी भाँति प्रभावित होता है, वह चेतना, बोध, साक्षी तत्व अर्थात् आत्मा) सदा ही, नितान्त अकर्ता हूँ । घटनाओं / कर्मों के तत्व को उनमें निहित उनकी अनित्यता के लक्षण से, तथा साक्षी चेतना को उसमें निहित उसकी नित्यता के लक्षण से पहचाना जाता है । इस प्रकार हम नित्यता तथा अनित्यता के तत्व को, और अनायास ही काल के उन दो प्रकारों को भी समझ लेते हैं जिनमें से एक घटनाओं के रूप में व्यतीत होता जान पड़ता है, जबकि दूसरा अचल है ।
--
’संन्यासेन’ / ’saṃnyāsena’  - By means of the right understanding and practice of ’sāṃkhyayoga’.

Chapter 18, shloka 49,
asaktabuddhiḥ sarvatra
jitātmā vigataspṛhaḥ |
naiṣkarmyasiddhiṃ paramāṃ
sannyāsenādhigacchati ||
--
(asaktabuddhiḥ sarvatra
jitātmā vigataspṛhaḥ |
naiṣkarmyasiddhiṃ paramāṃ
sannyāsenādhigacchati ||)
--
Meaning :
With no attachment nor craving for anything, a man with control over his body, senses and mind, by means of the right understanding and practice of ’sāṃkhyayoga’, attains the great state of freedom from all action (naiṣkarmyasiddhiḥ)  
 --
Note :
naiṣkarmyasiddhiḥ means,
Getting rid of the false idea (illusion), the primal-ignorance:
 '' I do various actions, and enjoy / suffer / experience the consequences their-of."
--
--

आज का श्लोक, ’संपत्’ / ’saṃpat’,

आज का श्लोक,  ’संपत्’ / ’saṃpat’,
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’संपत्’ / ’saṃpat’ - सम्पदा, संस्कार, पूर्व-अर्जित निधि,

अध्याय 16, श्लोक 5,

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥
--
दैवी सम्पत्-विमोक्षाय निबन्धाय आसुरी मता ।
मा शुचः सम्पदम् दैवीम् अभिजातः असि पाण्डव ॥)
--
भावार्थ :
इन दो प्रकार की सम्पदों में से दैवी तो मुक्ति का हेतु होती है, जबकि आसुरी मनुष्य के बन्धन का कारण होती है । हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तुम इस विषय में शोक मत करो, व्याकुल मत होओ, क्योंकि तुमने निश्चित ही दैवी सम्पदा से संपन्न होते हुए जन्म लिया है ।

--
’संपत्’ / ’saṃpat’ - wealth, attributes, potential qualities and acquired tendencies.

Chapter 16, shloka 5,

daivī sampadvimokṣāya
nibandhāyāsurī matā |
mā śucaḥ sampadaṃ
daivīmabhijāto:'si pāṇḍava ||
--
daivī sampat-vimokṣāya
nibandhāya āsurī matā |
mā śucaḥ sapadam daivīm
abhijātaḥ asi pāṇḍava ||)
--
Meaning :
The daivī -divine attributes lead one to the liberation of the self, while the āsurī - demonic, keep one in the bondage. Grieve not O arjuna, for you are born with divine attributes.
--

Thursday, May 22, 2014

आज का श्लोक, ’सम्पदम्’ / ’sampadam’,

आज का श्लोक,  ’सम्पदम्’ / ’sampadam’,
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’सम्पदम्’ / ’sampadam’, - संपत्ति, पूर्वार्जित संचित निधि,

अध्याय 16, श्लोक 3,

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥
--
(तेजः क्षमा धृतिः शौचम् अद्रोहः नातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदम् दैवीम् अभिजातस्य भारत ॥)
--
भावार्थ : तेज अर्थात् दूसरों को सहज ही प्रभावित कर देने का गुण, क्षमा, धैर्य, देह-मन की स्वच्छता, किसी के प्रति तिरस्कार की भावना न होना, अपने-आप के श्रेष्ठ होने का गर्व न होना, ये सभी (तथा पूर्व के दो श्लोकों में वर्णित दूसरे लक्षण) दैवी सम्पदा से संपन्न पुरुषों में पाए जाते हैं ।
--
टिप्पणी : इस अध्याय के प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने दैवी सम्पदा क्या है, और उससे संपन्न मनुष्य के लक्षण स्पष्ट किए हैं । सभी मनुष्य अपने संस्कारों के रूप में दैवी और आसुरी सम्पदाओं सहित मनुष्य-जन्म ग्रहण करते हैं । और उनकी मात्रा और शक्ति के अनुसार जीवन में सब-कुछ शुभ-अशुभ प्राप्त करते हैं ।
-
अध्याय 16, श्लोक 4,

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥
--
(दम्भः दर्पः अभिमानः च क्रोधः पारुष्यम् एव च ।
अज्ञानम् च अभिजास्य पार्थ सम्पदम् आसुरीम् ॥)
--
भावार्थ : हे पार्थ (अर्जुन) ! दम्भ, गर्व, अभिमान, क्रोध, और कठोरता, तथा अज्ञान, आसुरी सम्पदा से संपन्न पुरुषों में पाए जानेवाले लक्षण हैं ।
--
अध्याय 16, श्लोक 5,

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥
--
दैवी सम्पत्-विमोक्षाय निबन्धाय आसुरी मता ।
मा शुचः सम्पदम् दैवीम् अभिजातः असि पाण्डव ॥)
--
भावार्थ :
इन दो प्रकार की सम्पदों में से दैवी तो मुक्ति का हेतु होती है, जबकि आसुरी मनुष्य के बन्धन का कारण होती है । हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तुम इस विषय में शोक मत करो, व्याकुल मत होओ, क्योंकि तुमने निश्चित ही दैवी सम्पदा से संपन्न होते हुए जन्म लिया है ।
 --

’सम्पदम्’ / ’sampadam’,  - wealth, qualities, earned by one's good or evil deeds and tendencies, one is born with.

Chapter 16, shloka 3,
--
tejaḥ kṣamā dhṛtiḥ śaucam-
adroho nātimānitā |
bhavanti sampadaṃ daivīm-
abhijātasya bhārata ||
--
(tejaḥ kṣamā dhṛtiḥ śaucam
adrohaḥ nātimānitā |
bhavanti sampadam daivīm
abhijātasya bhārata ||)
--
Meaning :
Brilliance of the spiritual kind, forgiveness, fortitude, cleanliness and purity of mind, body and speech (behavior), absence of hatred, lack of self-pride, all these constitute the wealth that is of the daivī - divine kind.

Note :
In the shlokas 1 and 2, of this Chapter 16, śrīkṛṣṇa explained to arjuna the kinds symbolic of divine tendencies and the same also in this 3rd.



--
Chapter 16, shloka 4,
dambho darpo:'bhimānaśca
krodhaḥ pāruṣyameva ca |
ajñānaṃ cābhijātasya
pārtha sampadamāsurīm ||
--
(dambhaḥ darpaḥ abhimānaḥ ca
krodhaḥ pāruṣyam eva ca |
ajñānam ca abhijātasya
pārtha sampadam āsurīm ||)
--
Meaning :
Hypocrisy, arrogance, aggressiveness, self-pride, anger, rudeness as well as ignorance, these all constitute the wealth that is of the āsurī -demonic / evil kind.
--

Chapter 16, shloka 5,
daivī sampadvimokṣāya
nibandhāyāsurī matā |
mā śucaḥ sampadaṃ 
daivīmabhijāto:'si pāṇḍava ||
--
daivī sampat-vimokṣāya
nibandhāya āsurī matā |
mā śucaḥ sampadam daivīm
abhijātaḥ asi pāṇḍava ||)
--
Meaning :
The daivī -divine attributes lead one to the liberation of the self, while the āsurī - demonic, keep one in the bondage. Grieve not O arjuna, for you are born with divine attributes.
--

Wednesday, May 21, 2014

आज का श्लोक, ’सम्पद्यते’ / ’sampadyate’,

आज का श्लोक,  ’सम्पद्यते’ / ’sampadyate’,
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’सम्पद्यते’ / ’sampadyate’,  - से एकत्व को प्राप्त हो जाता है,
 
अध्याय 13, श्लोक 30,

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
--
(यदा भूत-पृथक्-भावम् एकस्थम् अनुपश्यति ।
ततः एव च विस्तारम् ब्रह्म सम्पद्यते तथा ॥)
--
भावार्थ :
[पिछले श्लोक 29 में कहा गया, : जब कोई इसे देख / जान लेता है कि समस्त कर्म प्रकृति के ही द्वारा किये जा रहे हैं तथा अपने-आप को अकर्ता की भाँति देख / जान लेता है, तो वह वस्तुतः देखता है ।]

और तदनुसार यह कि विभिन्न भूतों की पृथकता की भावना का अधिष्ठान एकमेव है, और उस एक का ही विस्तार अनेक भूत हैं  तब वह उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।

--
’सम्पद्यते’ / ’sampadyate’ - attains to.

Chapter 13, shloka 30,
yadā bhūtapṛthagbhāvam-
ekasthamanupaśyati |
tata eva ca vistāraṃ
brahma sampadyate tadā ||
--
(yadā bhūta-pṛthak-bhāvam
ekastham anupaśyati |
tataḥ eva ca vistāram
brahma sampadyate tathā ||)
--
In the last shloka 29, it was said :
when one realizes that all actions (karma) in each and every aspect are  done by (prakṛti > 3 attributes) only, and along-with also realizes one-self as not the one that ever does them, he sees indeed (The Reality).
In this present shloka 30, the same truth is reiterated :
And when one realizes that the sense of separation from the other beings comes from the same source which is the only foundation and supports of all beings, one at once identifies one-self with That ( Brahman)
--

 

Sunday, May 18, 2014

Morning-Walk / Morning Talk : 18/05/2014.


This Morning :
The Dazzling Morning Sun was smiling at Me.
'Good Morning bhagavān !'
I wished Him.
'Good Morning My Son !'
He replied.
'Good Morning bhagavān Son / Sun!'
He smiled once more.
-- 
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययं ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
-- 

(श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय 4, श्लोक 1.)
--
इस अविनाशी योग को (अविनाशी) मैंने विवस्वान् (सूर्य) से कहा, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत्
(मनु -मनुष्य से) कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा ।
--
imaṃ vivasvate yogaṃ proktavānahamavyayaṃ |
vivasvānmanave prāha manurikṣvākave:'bravīt ||

(śrīmadbhagvadgītā adhyāya 4, śloka 1)
--
I (The Immutable, Imperishable) taught this (Timeless) yoga  to Vivasvana (Sun), Sun to Manu, Manu to His son The King IkShvAku, And Through Him others followed.
--
Note : In Sanskrit 'सूनु' /sūnu  means 'son', that becomes Jon, John, YohAan, Yohanna,
Son is Direct descendant of The Supreme Brahman, His sun. And He the 'Self' Himself is radiant as Light in Son, Moon and other luminaries, Celestial Entities.
--
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयते अखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥
--
(श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय 15, श्लोक 12.)
--
yadādityagataṃ tejo
jagadbhāsayate akhilam |
yaccandramasi yaccāgnau
tattejo viddhi māmakam ||
--
(śrīmadbhagvadgītā adhyāya 15, śloka 12).
--

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
|| śrīkṛṣṇārpaṇamastu ||

_/\_

आज का श्लोक, ’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,

आज का श्लोक, ’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,
_______________________________

’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,  - को महत्वपूर्ण समझते हुए,

अध्याय 3, श्लोक 20,
--
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयाः ।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
--
(कर्मणा एव हि संसिद्धिम् आस्थिताः जनकादयः ।
लोकसङ्ग्रहम् एव अपि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि ॥)
--
भावार्थ :
जनक और दूसरे ज्ञानी भी (निष्काम) कर्म करते हुए ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए / में सुस्थित हुए । संसार के कल्याण की दृष्टि से भी तुम्हारा कार्य करना उचित है ।
--  
’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,  - Keeping in mind, thinking of,

Chapter 3, shloka 20,

karmaṇaiva hi saṁsiddhim-
āsthitā janakādayāḥ |
lōkasaṅgrahamēvāpi
sampaśyankartumarhasi ||
--
(karmaṇā ēva hi saṁsiddhim
āsthitāḥ janakādayaḥ |
lōkasaṅgraham ēva api
sampaśyan kartum arhasi ||)
--
Meaning :
King Janaka and other such sages attained the Supreme state while performing their worldly duties (with a mind free from desire). Keeping the benefit of the world in mind, you too must do the same.
--

आज का श्लोक, ’सम्प्रकीर्तितः’ / ’samprakīrtitaḥ’

आज का श्लोक,  ’सम्प्रकीर्तितः’ / ’samprakīrtitaḥ’,
_____________________________________

’सम्प्रकीर्तितः’ / ’samprakīrtitaḥ’ - जैसा शास्त्रों में कहा गया है,
 
अध्याय 18, श्लोक 4,

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः
--
(निश्चयम् शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागः हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥)
--
भावार्थ :
हे पुरुषश्रेष्ठ, भरतकुलोत्पन्न अर्जुन! (इस अध्याय 18 के प्रथम श्लोक में अर्जुन द्वारा संन्यास और त्याग की जिज्ञासा किए जाने पर)  इस संबंध में अब जैसा मेरा सुनिश्चय है और जैसा कहा जाता है, उसे सुनो । त्याग तीन प्रकार का कहा गया है ।
--
’सम्प्रकीर्तितः’ /  ’samprakīrtitaḥ’ - As is described in scripures,

Chapter 18, shloka 4,
niścayaṃ śṛṇu me tatra
tyāge bharatasattama |
tyāgo hi puruṣavyāghra
trividhaḥ samprakīrtitaḥ ||
--
(niścayam śṛṇu me tatra
tyāge bharatasattama |
tyāgaḥ hi puruṣavyāghra
trividhaḥ samprakīrtitaḥ ||)
--
Meaning :
( To arjuna's question about the difference between saṃnyāsa and tyāga,  in shloka 1 of this chapter 18, śrīkṛṣṇa answers :)
Now listen to my opinion about (saṃnyāsa and) tyāga.  According to scriptures, tyāga is of three kinds.
--

Saturday, May 17, 2014

आज का श्लोक, ’संप्रतिष्ठा ’ / ’saṃpratiṣṭhā’,

आज का श्लोक, ’संप्रतिष्ठा ’ / ’saṃpratiṣṭhā’,
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’संप्रतिष्ठा ’ / ’saṃpratiṣṭhā’ - सुदृढ आधार, स्थिर स्थिति,

अध्याय 15, श्लोक 3,

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥
--
(न रूपम् अस्य इह तथा-उपलभ्यते
न-अन्तः न च आदिः न च सम्प्रतिष्ठा
अश्वत्थम् एनम् सुविरूढमूलम्
असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥)

--
भावार्थ :
यहाँ, इस जगत् में, न तो इसका वास्तविक स्वरूप, न इसका अन्त, प्रारंभ, या वह आधार ही मन-बुद्धि इन्द्रियों आदि की पकड़ में आ पाता है, जो इसे बनाये रखता है ।  इस अत्यन्त दृढ़ और उलझी हुई जड़ों वाले अश्वत्थ को असङ्गरूपी शस्त्र से काटकर, ...
--

’संप्रतिष्ठा ’ / ’saṃpratiṣṭhā’ - firm stable support / position,

Chapter 15, shloka 3,

na rūpamasyeha tathopalabhyate
nānto na cādirna ca sampratiṣṭhā |
aśvatthamenaṃ suvirūḍhamūla-
masaṅgaśastreṇa dṛḍhena chittvā ||
--
(na rūpam asya iha tathā-upalabhyate
na-antaḥ na ca ādiḥ na ca sampratiṣṭhā |
aśvattham enam suvirūḍhamūlam
asaṅgaśastreṇa dṛḍhena chittvā ||)
--
Meaning : It is not possible to find out The real character and form of this ashvattha-tree* (the Indian Banyan, the holy-fig tree), which has strong entangled roots, has no beginning, nor the end, and neither there is any firm and stable ground to support and keep it secure.
--
*Notes :
1.(discernible, though intangible).
2.This has been the basis of my 'Silent-Dialogues', -1 to 331.
(http://vinaykvaidya.blogspot.in/)
3.This is the mathematical way of treating the indescribable. Where the 'unknown' is kept 'undefined'. One can see a parallel of this approach in the Advanced Mathematics of this-day also, where some basic and fundamental elements have been left 'undefined'. An honest and humble acceptance and assertion that the doubt persists and really, we don't know.
--  

आज का श्लोक, ’संप्रवृत्तानि’ / ’saṃpravṛttāni’,

आज का श्लोक,  ’संप्रवृत्तानि’ / ’saṃpravṛttāni’
___________________________________

’संप्रवृत्तानि’ / ’saṃpravṛttāni’ - से मन संलग्न होने पर,

अध्याय 14, श्लोक 22,

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥
--
(प्रकाशम् च प्रवृत्तिम् च मोहम् एव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥)
--

   हे अर्जुन, विवेकवान मनुष्य को चाहिए कि वह मन के सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से संलग्न होने की स्थिति में न तो उसे रोके, और न ही उन गुणों के प्रभाव के समाप्त हो जाने पर पुनः उनकी पुनरावृत्ति की कामना करे ।
--
’संप्रवृत्तानि’ / ’saṃpravṛttāni’ - having involved in,

Chapter 14, shloka 22,
prakāśaṃ ca pravṛttiṃ ca
mohameva ca pāṇḍava |
na dveṣṭi sampravṛttāni
na nivṛttāni kāṅkṣati ||
--
(prakāśam ca pravṛttim ca
moham eva ca pāṇḍava |
na dveṣṭi sampravṛttāni 
na nivṛttāni kāṅkṣati ||)
--

When his mind according to and under the influence of sattva ( prakāśam, - Light, clarity, peace,), rajas ( pravṛttim, -activity, restlessness), and tamas (moham, - indolence, sloth, ) respectively becomes calm and clear, gets engaged in activity, or lost in idleness, once the mode is over, a man of discrimination of right and wrong should neither wish their repetition, nor condemn these modes of mind, once the mode is over.
--
   (This is because all things happen to body and mind according to destiny. One's attitude towards destiny should be of detachment with their actions.)
--

आज का श्लोक, ’सम्प्रेक्ष्य’ / ’saṃprekṣya’,

आज का श्लोक, ’सम्प्रेक्ष्य’ / ’saṃprekṣya’, 
_________________________________

’सम्प्रेक्ष्य’ / ’saṃprekṣya’  - स्थिर दृष्टि से देखते हुए,
--
अध्याय 6, श्लोक 13,

समं कायशिरोग्रीवं  धारयन्नचलं  स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
--
(समं कायशिरोग्रीवं  धारयन् अचलं  स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशः च अनवलोकयन् ॥
--
भावार्थ :
काया, सिर तथा गर्दन को सीधा और अचल रखते हुए,  दिशाओं को न देखते हुए अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखे ।
--
’सम्प्रेक्ष्य’ / ’saṃprekṣya’,  - having the eyes looking at,
--
Chapter 6, shloka 13,
samaṃ kāyaśirogrīvaṃ
dhārayannacalaṃ  sthiraḥ |
samprekṣya nāsikāgraṃ svaṃ
diśaścānavalokayan ||
--
(samaṃ kāyaśirogrīvaṃ
dhārayan acalaṃ  sthiraḥ |
samprekṣya nāsikāgraṃ svaṃ
diśaḥ ca anavalokayan ||
--

Meaning :
While practicing meditation, make sure the body, the head, and the neck are erect and motionless, the attention (externally) is withdrawn from all the other directions and is fixed onto the tip of the nose.
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आज का श्लोक, ’संप्लुतोदके’ / ’saṃplutodake’,

आज का श्लोक,  ’संप्लुतोदके’ / ’saṃplutodake’, 
____________________________________

’संप्लुतोदके’ / ’saṃplutodake’- सब ओर से जल से भली-भाँति परिपूर्ण,

अध्याय 2, श्लोक 46,
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥
--
(यावान्-अर्थः उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके
तावान्-सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥)
--
भावार्थ : ब्रह्म के तत्व को जो जान चुका होता है, उस ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन होता है, जितना कि हर ओर जल से परिपूर्ण विशाल सरोवर प्राप्त होने पर किसी मनुष्य का छोटे से तालाब से होता है ।
--

’संप्लुतोदके’ / ’saṃplutodake’ - overflowing reservoirs of waters.

Chapter 2, shloka 46,
yāvānartha udapāne
sarvataḥ samplutodake |
tāvānsarveṣu vedeṣu
brāhmaṇasya vijānataḥ ||
--
(yāvān-arthaḥ udapāne
sarvataḥ samplutodake |
tāvān-sarveṣu vedeṣu
brāhmaṇasya vijānataḥ ||)
--
Meaning :
One who has realized Brahman, has as much concern for the veda, as the one living near an overflowing reservoir of waters has for a small pond.
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आज का श्लोक, ’संबन्धिनः’ / ’saṃbandhinaḥ’,

आज का श्लोक,  ’संबन्धिनः’ /  ’saṃbandhinaḥ’, 
______________________________________

’संबन्धिनः’ /  ’saṃbandhinaḥ’ - संबंधी,

अध्याय 1, श्लोक 34,
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥
--
आचार्याः पितरः पुत्राः तथा एव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनः तथा ॥
--
भावार्थ :
आचार्य और पितृतुल्य गुरुजन, पुत्र तथा इसी प्रकार से पितामह भी, मामा, श्वशुर आदि, पौत्र, श्वशुर-पुत्र और दूसरे भी संबंधी जन, यहाँ उपस्थित ये सभी ...

--
’संबन्धिनः’ /  ’saṃbandhinaḥ’  - Relatives,

Chapter 1, shloka 34,
ācāryāḥ pitaraḥ putrā-
stathaiva ca pitāmahāḥ |
mātulāḥ śvaśurāḥ pautrāḥ
śyālāḥ sambandhinastathā ||
--
ācāryāḥ pitaraḥ putrāḥ
tathā eva ca pitāmahāḥ |
mātulāḥ śvaśurāḥ pautrāḥ
śyālāḥ sambandhinaḥ tathā ||
--
Meaning :
Teachers, fathers, sons and grand-fathers, maternal uncles, fathers-in-law, brothers-in-law, and all other relatives, are present here. ...
--

Friday, May 16, 2014

आज का श्लोक, ’संभवन्ति’ / ’saṃbhavanti’,

आज का श्लोक,  ’संभवन्ति’ /  ’saṃbhavanti’,  
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’संभवन्ति’ /  ’saṃbhavanti’ - उत्पन्न होते हैं,

अध्याय 14, श्लोक 4, 
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
--
(सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासाम् ब्रह्म महत् योनिः अहम् बीजप्रदः पिता ॥)
--
भावार्थ :
हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र अर्जुन)! समस्त योनियों में जितनी भी मूर्तियाँ (अनेक रूपाकृतियाँ) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी महत् योनि, सबका आदिकारण प्रकृति अर्थात् महत्-ब्रह्म ही है (जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था), जिसे मैं ही बीज प्रदान करता हूँ और इस प्रकार से मैं ही उनका पिता हूँ ।
--
’संभवन्ति’ /  ’saṃbhavanti’ - Are manifest, come into being,
 --
Chapter 14, shloka 4,

sarvayoniṣu kaunteya
mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ |
tāsāṃ brahma mahadyoni-
rahaṃ bījapradaḥ pitā ||
--
(sarvayoniṣu kaunteya
mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ |
tāsām brahma mahat yoniḥ
aham bījapradaḥ pitā ||)
--
Meaning :
This prakṛti / mahat-brahma is the mahat yoniḥ -Great mother, that conceives the seed of All the beings that are born in innumerable different body-forms. And I AM The Father, That provides the seed.
--

 
--

आज का श्लोक, ’संभवः’ / ’saṃbhavaḥ’,

आज का श्लोक,  ’संभवः’ / ’saṃbhavaḥ’,
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’संभवः’ / ’saṃbhavaḥ’ - उत्पत्ति,

अध्याय 14, श्लोक 3,

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
--
(मम योनिः महत्-ब्रह्म तस्मिन् गर्भम् दधामि अहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानाम् ततो भवति भारतः ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! महत्-ब्रह्म-रूपी प्रकृति मेरी योनि है, जिसमें मेरे द्वारा चेतन-समुदायरूपी गर्भ को धारण किया जाता है, और उससे ही सब भूतों की उत्पत्ति होती है ।
टिप्पणी :
यहाँ पर मैंने अनुवाद की शैली से भावार्थ को मूल तात्पर्य के तारतम्य में रखने का प्रयास किया है । ’दधामि’ ’धा’, ’जुहोत्यादिगण’ की उभयपदी धातु का ’लट्’-लकार, उत्तम पुरुष एकवचन है, स्पष्ट है कि यहाँ श्लोक में धातु का परस्मैपदी प्रयोग है । आत्मनेपदी में रूप ’दधे’ हो जाता है ।एक कौतूहल उठना स्वाभाविक है । क्या परमात्मा नारी है? या पुरुष है? संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यहाँ ’अहम्’ शब्द के सन्दर्भ में ’दधामि’ का अवलोकन करें तो परमात्मा के नारी या पुरुष होने का प्रश्न ही नहीं उठता । किन्तु ’गर्भ’ शब्द के प्रयोग से यह प्रश्न कौतूहल के रूप में मेरे मन में उठा । हिन्दी में उत्तम-पुरुष एकवचन (मैं) उभयलिंगी है, स्त्री अथवा पुरुष दोनों सर्वनाम के लिए ’अहम्’ की भाँति प्रयुक्त होता है । किन्तु इस ’मैं’ के साथ लगनेवाला वर्तमान-काल में प्रयोग किया जानेवाला क्रिया-रूप  संस्कृत में तो एक जैसा रहता है, किन्तु हिन्दी में स्त्री-वाची और पुरुष-वाची संज्ञा ’मैं’ के साथ भिन्न-भिन्न होता है । ’अहम् गच्छामि’ का प्रयोग पुरुष या स्त्री दोनों कर सकते हैं, किन्तु ’मैं जाता हूँ’ सिर्फ़ पुरुष ही कह सकता है, और इसी तरह ’मैं जाती हूँ’ सिर्फ़ स्त्री ही कह सकती है । इसलिए इस श्लोक के संस्कृत में प्रस्तुत रूप में यह प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता, जो इसका अनुवाद करते समय अनुवादक के समक्ष उत्पन्न हुआ । इसलिये अनुवादक (मैं) ने यही उचित समझा कि वाक्य-रचना ही इस प्रकार  से की जाए जिससे यह प्रश्न पैदा ही न हो । जैसे अंग्रेज़ी में 'I go' का प्रयोग स्त्री या पुरुष  दोनों ही समान रूप से कर सकते हैं !  
--

’संभवः’ / ’saṃbhavaḥ’ - Creation,  Manifestation, Coming into being,

Chapter 14, shloka 3,

mama yonirmahadbrahma
tasmingarbhaṃ dadhāmyaham |
sambhavaḥ sarvabhūtānāṃ
tato bhavati bhārata ||
--
(mama yoniḥ mahat-brahma
tasmin garbham dadhāmi aham |
sambhavaḥ sarvabhūtānām
tato bhavati bhārataḥ ||)
--
Meaning :
O  bhārata, (arjuna)! mahat-brahma / prakṛti is My Cosmic womb, The yoniḥ, The Cause Primal / The Origin, wherein I hold the seed of the existence. From That seed comes into existence, This all / Whole life .
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आज का श्लोक, ’संभवामि’ / ’saṃbhavāmi’,

आज का श्लोक,  ’संभवामि’ /  ’saṃbhavāmi’,
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’संभवामि’ /  ’saṃbhavāmi’,  - व्यक्त रूप ग्रहण करता हूँ,

अध्याय 4, श्लोक 6,
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अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
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(अजः अपि  सन् अव्यय-आत्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् ।
प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय संभवामि आत्म-मायया ॥)
--
भावार्थ :
जन्मरहित और अविनाशी स्वरूपवाला परम-आत्मा होते हुए भी होते हुए भी, जन्म लेनेवाले और मर जानेवाले समस्त प्राणियों का नियमन करनेवाला होने से, मैं अपनी (त्रिगुणात्मिका) प्रकृति के माध्यम से अपनी आत्ममाया को धारण करता हुआ उसके अन्तर्गत देहधारी की तरह व्यक्त हो उठता हूँ ।
--
अध्याय 4, श्लोक 8,

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
--
(परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥)
--
भावार्थ :
साधु आचरण करनेवाले मनुष्यों का उद्धार करने हेतु, असाधु मनुष्यों / दुष्टों का विनाश करने के लिए, धर्म की भली-भाँति स्थापना करने के लिए मैं सदैव प्रकट रहता हूँ ।
--
’संभवामि’ /  ’saṃbhavāmi’ - I come in the manifest form.

Chapter 4, shloka 6,
--
ajo:'pi sannavyayātmā
bhūtānāmīśvaro:'pi san |
prakṛtiṃ svāmadhiṣṭhāya
saṃbhavāmyātmamāyayā ||
--
(ajaḥ api  san avyaya-ātmā
bhūtānām īśvaraḥ api san |
prakṛtiṃ svām adhiṣṭhāya
saṃbhavāmi ātma-māyayā ||)
--
Meaning :
Though ever unborn and immutable, with the support of My (threefold) 'prakRti' (name and form), I manifest Myself through My own 'mayA' (Divine power).
--
Chapter 4, shloka 8,
paritrāṇāya sādhūnāṃ
vināśāya ca duṣkṛtāṃ |
dharmasaṃsthāpanārthāya
saṃbhavāmi yuge yuge ||
--
(paritrāṇāya sādhūnām
vināśāya ca duṣkṛtām |
dharmasaṃsthāpanārthāya
sambhavāmi yuge yuge ||)
--
To protect the men of noble deeds, to destroy the men of evil deeds, To establish the natural order, dharma, I manifest always/ ever.
--
Note :
Elsewhere, it has been seen how the word 'nature' is a derivative of ’नप्तृ’ / 'naptR',  ’नृ’, 'nR' meaning 'human', and how we got 'natal', nephew, niece, natal, nuptial. There is another word 'nation'. This is obvious and convincing. 'dharma' in this way is the 'natural order' which prevails already from the very beginning of existence. Though this 'beginning' is not in 'Time' that passes-by. There is another aspect / dimension of Time, which stands eternally unmoved. That lapses not. That defies all beginning and end. And there is always a 'future'. This means this aspect of 'Time' which though passes not, has a way to unknown. The 'distance' that is measured in terms of 'time' in terms of seconds, minutes, hours, years, epochs and eons,  is but an idea only, has no validity as such. The 'future' is again an idea and Reality as well. When we think it in terms of 'a Reality' it becomes an idea. When we speak of it as 'Reality' it becomes the Time, Time-less. We can call it eternity. It keeps devouring everything and all. shloka 5 onward of Chapter 11 of gitA, present a wonderful breath-taking depiction of this form of 'Time'. And that is but 'dharma', 'dharma' is 'yama', 'yama' is 'kAla', kAla' is 'Time'.
--




Tuesday, May 13, 2014

आज का श्लोक, ’संभावितस्य’ / ’saṃbhāvitasya’,

आज का श्लोक,  ’संभावितस्य’ /  ’saṃbhāvitasya’,
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’संभावितस्य’ /  ’saṃbhāvitasya’, - स्वाभिमानी मनुष्य के लिए,

अध्याय 2, श्लोक 34,

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥
--
(अकीर्तिम् च अपि भूतानि कथयिष्यन्ति ते अव्ययाम् ।
सम्भावितस्य च अकीर्तिः मरणात् अतिरिच्यते ॥)
--
भावार्थ : ( श्लोक 33, अब यदि तुम यह धर्म से निर्दिष्ट हुए संग्राम के लिए ’नहीं करूँगा’ ऐसा कहते हो तो, तुम अपने स्वधर्म तथा कीर्ति दोनों को खोकर पाप को प्राप्त होगे ।... के क्रम में)
और सब लोग बहुत काल तक रहनेवाली तुम्हारी इस अपकीर्ति का भी कथन करेंगे, और स्वाभिमानी पुरुष के लिए अपकीर्ति तो निश्चय ही मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है ।  

--
’संभावितस्य’ /  ’saṃbhāvitasya’, - Of a man with the sense of self-respect / dignity.
 
Chapter 2, shloka 34,

akīrtiṃ cāpi bhūtāni
kathayiṣyanti te:'vyayām |
sambhāvitasya cākīrtir-
maraṇādatiricyate ||
--
(akīrtim ca api bhūtāni
kathayiṣyanti te avyayām |
sambhāvitasya ca akīrtiḥ
maraṇāt atiricyate ||)
--
Meaning :
( This one is in the continuation of the shloka 33, of this Chapter 2, where arjun has been told by śrīkṛṣṇa :
If you say 'I shall not fight this war' you shall incur sin and lose reputation. Because of running away from the war that is obligatory upon you and is ordained by the dharma. ...)
And people here-after will always keep on talking low of  you, and for a man of honor, defamation is far worse than even the death.
--

What follows what?

Chapter 7, shloka 27,
icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni saṃmohaṃ
sarge yānti parantapa ||
--
(icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammoham
sarge yānti parantapa ||)
--
Meaning :
O arjuna! From the very birth itself, all beings are subject to delusion that follows from desire / attraction, fear / repulsion,  doubt / confusion and clinging / attachment.
--
 Note :
This may be an interesting exercise to think over what follows what? Though according to my understanding of Sanskrit, the given Meaning of the shloka referred to here is very correct, Could we perhaps re-phrase restructure the above in this light 'what follows what?'. Hope to write a post based on this question.
--  
This question is of crucial importance in that it alters the whole approach to give us a new lease of looking into this holy text. Keeping in the mind the spirit of finding out 'Truth' by means of right enquiry, as is instructed in the following :

Chapter 4, shloka 34,
--
tadviddhi praNipAtena
pariprashnena sewayA |
upadekShyanti te jnAnaM
jnAninastatvadarshinaH ||
--
Meaning :
Know / grasp 'That' (Reality / Brahman) by means of serving them with due respect and honor, and questioning them properly about the Reality . And they, -those who have themselves Realized the same, will point out the way to This (Reality) for you,
--
We can rest assured that asking such a question is according to the traditional way of learning and here also find a link with the teachings of Spiritual Teachers like Sri RamaNa MaharShi, Sri Nisargadatta Maharaj, and Shri J.Krishnamurti, who ask and deal with the fundamental questions, the existential questions.
The 'Consciousness'.
The truth of 'being' and 'knowing' are the primal truths which need no evidence. As a matter of fact these two factors which are but 2 aspects of a single Reality, are the evidence of anything and everything else.
Vedanta terms them as 'sat' and 'chit'. So, what is called 'the mind' is always an expression of these 2 prime factors. The 'consciousness' that evolves / emerges out as a person though seems to be a product of the physical body, in fact there is another 'consciousness' where-in this body and this 'consciousness' / 'mind' own existence and dissolve again.
Let us consider the question.
 'what follows what?'
The tendencies like desire / attraction, fear / repulsion, doubt / confusion, clinging / attachment,...
Do they originate from the consciousness, or does the consciousness originate from them.
We have to find out.
We need not conclude. But the understanding will take its own way and let us know,
 what follows what?'
--

आज का श्लोक, ’संमोहम्’ / ’saṃmoham’,

आज का श्लोक,  ’संमोहम्’ /  ’saṃmoham’,
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’संमोहम्’ /  ’saṃmoham’  - विभ्रम, दोषपूर्ण आकलन, अज्ञान, मिथ्या अनुभूति,

अध्याय 7, श्लोक 27,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
--
(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम् सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
--
भावार्थ :
हे अर्जुन ! इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख आदि द्वन्द्वरूप मोह से सम्पूर्ण भूत अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं ।
--
’संमोहम्’ /  ’saṃmoham’  - ignorance, delusion, clinging,

Chapter 7, shloka 27,

icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni saṃmohaṃ
sarge yānti parantapa ||
--
(icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammoham 
sarge yānti parantapa ||)
--
Meaning :
O arjuna! From the very birth itself, all beings are subject to delusion that follows from desire / attraction, fear / repulsion,  doubt / confusion and clinging / attachment.
--
Note :
This may be an interesting exercise to think over what follows what? Though according to my understanding of Sanskrit, the given Meaning of the shloka referred to here is very correct, Could we perhaps re-phrase restructure the above in this light 'what follows what?'. Hope to write a post based on this question.
--  

आज का श्लोक, ’संमोहात्’ / ’saṃmohāt’, ’संमोहः’ / ’saṃmohaḥ’,

आज का श्लोक,
_____________
 
’संमोहात्’ /  ’saṃmohāt’
’संमोहः’ /  ’saṃmohaḥ’ 
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’संमोहात्’ /  ’saṃmohāt’ - संमोह  / विभ्रम / पूर्वाग्रह से,
’संमोहः’ /  ’saṃmohaḥ’ - संमोह, / विभ्रम / पूर्वाग्रह,
--
अध्याय  2, श्लोक 63,
--
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
--
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्-स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्-प्रणश्यति ॥
--
भावार्थ :
क्रोध से चित्त अत्यन्त मोहाविष्ट हो जाता है, चित्त के  अत्यन्त मूढता से आविष्ट होने पर स्मृति विभ्रमित हो जाती है, स्मृति के विभ्रमित हो जाने पर बुद्धि अर्थात् विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है, और विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर मनुष्य विनष्ट हो जाता है ।
--
’संमोहात्’ /  ’saṃmohāt’ - from delusion, rage, fit,
’संमोहः’ /  ’saṃmohaḥ’ - delusion,

Chapter 2, shloka 63,

krodhādbhavati sammohaḥ 
sammohātsmṛtivibhramaḥ |
smṛtibhraṃśādbuddhināśo
buddhināśātpraṇaśyati ||
--
krodhāt bhavati sammohaḥ
sammohāt-smṛtivibhramaḥ |
smṛti-bhraṃśāt-buddhināśaḥ
buddhināśāt-praṇaśyati ||
--
 
Meaning :
Anger causes the delusion, and delusion results in the confusion of memory. Confusion in memory further causes loss of capacity to distinguish between the right and the wrong, the truth and the false, and once this capacity is lost, one is but ruined.
--

Monday, May 12, 2014

अध्याय 4, श्लोक 26, Chapter 4 shloka 26,

गीता अध्याय 4, श्लोक 26,  / Chapter 4, shloka 26,

आज का श्लोक, ’संयतेन्द्रियः’ / ’saṃyatendriyaḥ’,

आज का श्लोक, ’संयतेन्द्रियः’ /  ’saṃyatendriyaḥ’
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’संयतेन्द्रियः’ /  ’saṃyatendriyaḥ’, - जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं,
  
अध्याय 4, श्लोक 39,
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
--
(श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयतेन्द्रियः
ज्ञानम् लब्ध्वा पराम् शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
(परमात्मा को) जानने की उत्कट जिज्ञासा जिसे होती है, और श्रद्धा से युक्त ऐसे मनुष्य को जिसकी इन्द्रियाँ उसके नियंत्रण में हैं, ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त तत्काल ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
--
’संयतेन्द्रियः’ /  ’saṃyatendriyaḥ’- One having the senses under control.

Chapter 4, shloka 39,
--
śraddhāvām̐llabhate jñānaṃ
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñānaṃ labdhvā parāṃ
śāntimacireṇādhigacchati ||
--
(śraddhāvān labhate jñānam
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñāmam labdhvā parām śāntim
acireṇa adhigacchati ||)
--
Meaning : An earnest and eager seeker endowed with the trust (in Supreme / Brahman / 'Self,') and who has control over the senses, acquires the wisdom, and as soon as he gains wisdom, the peace supreme follows in the instant.
--

Sunday, May 11, 2014

आज का श्लोक, ’संयमताम्’ / ’saṃyamatām’,

आज का श्लोक,  ’संयमताम्’ /  ’saṃyamatām’
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’संयमताम्’ /  ’saṃyamatām’ -शासन करनेवालों में,

अध्याय 10, श्लोक 29,

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥
--
(अनन्तः च अस्मि नागानाम् वरुणो यादसाम् अहम् ।
पितॄणाम् अर्यमा च अस्मि यमः संयमताम् अहम् ॥)
--
भावार्थ :
और अनन्त नामक नाग, नागों में हूँ, समुद्रों में वरुण मैं, और पितरों में अर्यमा हूँ, (इसी प्रकार से) संयम / शासन करनेवालों में यमराज मैं हूँ ।
--
टिप्पणी :
यहाँ उपरोक्त सभी ’देवता’ यहाँ वर्णित उनके अपने ’लोकों’ के अधिष्ठाता हैं ।
अगः / अगं = जो  गतिरहित है । न+ अगः = सतत् गतिशील अर्थात् प्राण । इसे ही बल के अर्थ में हाथी के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है । इसलिए हाथी को 'नाग' कहा जाता है ।
’नगज:’ के क्रमशः दो अर्थ हैं  1. जो पर्वत से पैदा हुआ हो, 2. जो हाथी न हो । (नरो वा कुञ्जरो वा?)
ब्रह्मा ’विधि’ और विधाता हैं, यमराज ’विधान’ हैं ।
(ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवतु अर्यमा । ...यजुर्वेदीय शान्तिपाठः)

--
’संयमताम्’ /  ’saṃyamatām’ - Among the Rulers / Administrators.

Chapter 10, shloka 29,

anantaścāsmi nāgānāṃ
varuṇo yādasāmaham |
pitr̥̄ṇāmaryamā cāsmi
yamaḥ saṃyamatāmaham ||
--
(anantaḥ ca asmi nāgānām
varuṇo yādasām aham |
pitr̥̄ṇām aryamā ca asmi
yamaḥ saṃyamatām aham ||)
--
Meaning :
Among the snakes and serpents (things of the moving kind) 'ananta' I AM, Among the water-bodies, 'varuṇa', I AM. Among the departed souls, I Am aryamā. And The Lord of Death among the Administrators.
--
(om̐ śaṃ no mitraḥ śaṃ varuṇaḥ śaṃ no bhavatu aryamā | ...yajurvedīya śāntipāṭhaḥ)

--

आज का श्लोक, ’ संयमाग्निषु ’ / ’saṃyamāgniṣu’,

आज का श्लोक,  ’संयमाग्निषु’ /  ’saṃyamāgniṣu’,
_________________________________

’संयमाग्निषु’ /  ’saṃyamāgniṣu’

अध्याय 4, श्लोक 26,
श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥
--
(श्रोत्रादीनि-इन्द्रियाणि-अन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्द-आदीन्-विषयान्-अन्ये इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥)
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भावार्थ :
यज्ञ और हवन का व्यापक अर्थ प्रस्तुत अध्याय 4 के श्लोक 24  में कहा गया है । और श्लोक 32, 33 में भी यज्ञ के तात्पर्य और महिमा का संक्षेप में पुनः वर्णन है । यज्ञ के ही दो रूप ये हैं जिसमें कुछ तो श्रोत्र आदि इन्द्रियों का हवन संयम रूपी अग्नि में  करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को भोग की प्रवृत्ति से हटाकर त्याग की दिशा में प्रवृत्त रखना । जबकि कुछ दूसरे इसी प्रकार, शब्द, स्पर्श आदि पञ्च-तन्मात्राओं का हवन इन्द्रिय-रूपी अग्नि में करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को उन विषयों में न जाने देकर उन विषयों को ही इन्द्रियों में लीन कर देना ।
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टिप्पणी :
’हु’ जुहोत्यादि गण की धातु है, जिसका प्रयोग ’यज्ञ’ करने के अर्थ में किया जाता है ।
लट्-लकार (वर्तमान-काल) प्रथम पुरुष के तीन रूप (एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) क्रमशः 'जुहोति' 'जुहुतः' 'जुह्वति', होते हैं । ’ल्युट्’ प्रत्यय के साथ प्रयुक्त होने पर ’हु’ का संज्ञा तथा क्रिया रूप ’हवनम्’ बनता है ।

’संयमाग्निषु’ /  ’saṃyamāgniṣu’ - homage into the sacrificial fire of the form of  'restraint'.

Chapter 4, shloka 26,

śrotrādīnindriyāṇyanye
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabdādīnviṣayānanya
indriyāgniṣu juhvati ||
--
(śrotrādīni-indriyāṇi-anye
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabda-ādīn-viṣayān-anye
indriyāgniṣu juhvati ||)
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Meaning :
The form nature, deeper meaning and significance of  yajña havana has been elaborated in the śloka 24 onward of this Chapter.
Few perform this yajña / havana  through the sacrifice of sense-organs into the fire of restraint, while others through the sacrifice of the 5 kinds of sensory-perceptions tanmātrā into the fire of senses.
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Notes :
1. We can see in  the saṃskṛta word homa, the origin of the word 'homage'. Because the meaning of homa, and 'homage' are in perfect agreement.
2. The Sacrifice of sense-organs into the fire of restraint means purifying them and improving the quality of their tendencies.
3. The Sacrifice of the 5 kinds of sensory perceptions indicates, we let the noble purified thoughts, and perceptions come into our consciousness. It is important to note that during a yajña / havana  only pure / purified objects ( purified / refined butter) are offered to agni /  The Fire God. In simple words, these are the meditation-techniques that help one grow and develop the understanding of the more subtle spiritual truths of gītā.
--

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Saturday, May 10, 2014

आज का श्लोक, ’संयमी’ / ’saṃyamī’,

आज का श्लोक, ’संयमी’ / ’saṃyamī’,
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’संयमी’ / ’saṃyamī’ - मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखनेवाला,

अध्याय 2, श्लोक 69,
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
--
(या निशा सर्वभूताना्म् तस्याम् जागर्ति संयमी
यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतः मुनेः ॥)
--
भावार्थ :
सम्पूर्ण प्राणियों को जो रात्रि प्रतीत होती है, उसमें मन पर संयम रखनेवाला (अर्थात् निद्रा में भी स्वरूप से दृष्टि न हटानेवाला स्वरूप के प्रति जागृत) ही वस्तुतःजागृत रहता है । और जिसमें उससे अन्य समस्त प्राणी जाग्रति अनुभव करते हैं, स्वरूप को जाननेवाले को वह रात्रि सी अन्धकारयुक्त प्रतीत होती है ।
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’संयमी’ / ’saṃyamī’ - One who as part of yoga-practice, restrains the sense-organs and mind.

Chapter 2, shloka 69,

yā niśā sarvabhūtānāṃ
tasyāṃ jāgarti saṃyamī |
yasyāṃ jāgrati bhūtāni
sā niśā paśyato muneḥ ||
--
(yā niśā sarvabhūtānām
tasyām jāgarti saṃyamī |
yasyām jāgrati bhūtāni
sā niśā paśyataḥ muneḥ ||)
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What appears as night to all beings, A man of restraint keeps awake in that. And where-in beings wake-up, is as night to the seeker who contemplates over Self.
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Friday, May 9, 2014

आज का श्लोक, ’संयम्य’ / ’saṃyamya’

आज का श्लोक,  ’संयम्य’ / ’ saṃyamya ’  
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’संयम्य’ / ’saṃyamya’  - नियन्त्रण में रखते हुए,

अध्याय 2, श्लोक 61,
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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
(तानि सर्वाणि संयम्य युक्तः आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
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भावार्थ :
(श्लोक 58, 59,60 में कहा गया है कि किस प्रकार इन्द्रियों को भीतर की ओर अन्तर्मुख किया जाता है, और योगाभ्यास में संलग्न मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों से दूर रहने पर भी विषयों (के  भोगों) के प्रति मन की राग-बुद्धि समाप्त नहीं होती, और इसलिए कैसे बुद्धिमान मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं । और इस राग-बुद्धि की निवृत्ति तो परमेश्वर के साक्षात्कार से ही होती है । इसलिए,)
जो उन सभी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए मुझमें समाहित चित्त हुआ, मुझमें अर्पित मन वाला होता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित, सुस्थिर हो जाती है ।
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अध्याय 3, श्लोक 6,

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
--
(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः सः उच्यते ॥)
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भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 14,
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प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥)
--
(प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तः युक्तः आसीत् मत्परः ॥)
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भावार्थ :
जिसकी वृत्तियाँ शान्त हों, जो भयरहित हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हो, मन को बाह्य विषयों में जाने से रोककर मुझमें संलग्नचित्त होकर मेरे परायण होकर मुझमें
निमग्न रहे ।
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अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो  योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
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भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख  होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात्  'हृदय' में ठहराकर  और पुनः उन मार्गों पर न जाने  देकर  (चित्त निरोध )।  प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर  (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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’संयम्य’ / ’saṃyamya’ - having restrained, controlled,

Chapter 2, shloka 61,

tāni sarvāṇi saṃyamya 
yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(tāni sarvāṇi saṃyamya 
yuktaḥ āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasya indriyāṇi
tasyua prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
Meaning :
[śloka 58, 59, 60 of this Chapter 2 describe that the aspirant though practices withdrawing the mind and senses inwards, the sense-organs keep attracting him forcefully towards the objects of enjoyments and the sense of pleasure from them remains intact. This sense of pleasure is lost only when one has seen the Supreme, The 'Self', Me (Divine). So, ... ]
Having restrained those sense-organs, One who keeps them under control, who is devoted to Me, such a man is said to have steady wisdom.
--  
 
Chapter 3, shloka 6,

karmendriyāṇi saṃyamya 
ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā
mithyācāraḥ sa ucyate ||
--
(karmendriyāṇi saṃyamya 
yaḥ āste manasā smaran |
indriyārthān vimūḍhātmā
mithyācāraḥ saḥ ucyate ||)
--
Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 6, shloka 14,
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praśāntātmā vigatabhīr-
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccitto
yukta āsīta matparaḥ ||)
--
(praśāntātmā vigatabhīḥ
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccittaḥ
yuktaḥ āsīt matparaḥ ||)
--

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Meaning :
One who has all the vRtti -s / (various modes of the mind) pacified, subsided, and thus has quiet in mind, who has no fear, one who dwells in the contemplation of 'Brahman', who is free from the complexities and obtuseness of mind,  and thus has spontaneous control over the mind, who is devoted and absorbed in 'Me', One so having attained 'Me', ...
--
Chapter 8, shloka 12,

sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ prāṇa-
māsthito  yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya 
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ prāṇam
āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--

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Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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Wednesday, May 7, 2014

आज का श्लोक, ’संयाति’ / ’saṃyāti ’

आज का श्लोक,  ’संयाति’ / ’saṃyāti’,
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’संयाति’ / ’saṃyāti ’  - जाता है,  जाती है ।

अध्याय 2, श्लोक 22,
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वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
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(वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥)
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भावार्थ :
जैसे पुराने वस्त्रों को त्यागकर मनुष्य दूसरे (नये) वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार देही (देह से संयुक्त चेतन-सत्ता, जीव) भी (क्रमशः अनेक जन्मों से गुजरते हुए) विभिन्न शरीरों को त्यागता और अन्य दूसरे शरीरों को धारण / ग्रहण किया करता है ।
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अध्याय 15, श्लोक 8,

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥
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(शरीरम् यत् अवाप्नोति यत् च अपि उत्क्रामयति ईश्वरः ।
गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गन्धान् इव आशयात् ॥)
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भावार्थ :
जैसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जानेवाली वायु, उस स्थान की गंध को अपने साथ ले जाती है, वैसे ही प्राणवायु भी (नये) शरीर की प्राप्ति और पुराने को त्यागने के समय, देही अर्थात् देह के स्वामी (जीवात्मा) को एक से दूसरे देह में ले जाती है  ।
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’संयाति’ / ’saṃyāti’   - goes away, moves to,

Chapter 2, shloka 22,

vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naro:'parāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā-
nyanyāni saṃyāti navāni dehī ||
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(vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naraḥ aparāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇāni
anyāni saṃyāti navāni dehī ||)
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Meaning :
As a person puts off old, worn-out cloths and puts on the other new ones, so also the consciousness (self) associated with the physical form (body) discards the old worn-out bodies and takes on new bodies.
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Chapter 15, shloka 8,
śarīraṃ yadavāpnoti
yaccāp yutkrāmatīśvaraḥ |
gṛhītvaitāni saṃyāti 
vāyurgandhānivāśayāt ||
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(śarīram yat avāpnoti
yat ca api utkrāmayati īśvaraḥ |
gṛhītvā etāni saṃyāti 
vāyuḥ gandhān iva āśayāt ||)
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Meaning : Like the air that moves from place to place, carries the smell of the place with it , quite so, the vital breath (prāṇa) too carries the soul, when the owner of the body (who takes himself as the body), leaves away an old body, and acquires a new one.
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आज का श्लोक, ’संशयः’ / ’saṃśayaḥ’,

आज का श्लोक,  ’संशयः’ / ’saṃśayaḥ’
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’संशयः’ / ’saṃśayaḥ’ - अनिश्चय, सन्देह, भ्रम, अविश्वास,
अध्याय 8, श्लोक 5,
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अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वाकलेवरं ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः
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(अन्तकाले च माम्-एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति सः मद्भावम् याति न-अस्ति-अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
और जो मनुष्य अपना अन्तकाल आने पर मुझको ही स्मरण करता हुआ देह को त्याग देता है, वह मेरे ही स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है ।
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अध्याय 10, श्लोक 7,
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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः
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(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें  तत्त्वतः जानता है,  वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
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अध्याय 12, श्लोक 8,
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मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः
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(मयि एव मनः आधत्स्व मयि बुद्धिम् निवेशय ।
निवसिष्यसि मयि एव अतः ऊर्ध्वम् न संशयः ॥)
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भावार्थ :
मुझमें ही मन को स्थिर करो, मुझमें ही बुद्धि को संलग्न रखो, और तत्पश्चात्, तुम मुझमें (मेरे अन्तर्हृदय) में ही निवास करोगे, इस बारे में शंका नहीं ।
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’संशयः’ / ’saṃśayaḥ’ - doubt, confusion, illusion,

Chapter 8, shloka 5,

antakāle ca māmeva
smaranmuktvākalevaraṃ |
yaḥ prayāti sa madbhāvaṃ
yāti nāstyatra saṃśayaḥ ||
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(antakāle ca mām-eva
smaran muktvā kalevaram |
yaḥ prayāti saḥ madbhāvam
yāti na-asti-atra saṃśayaḥ ||)
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Meaning :
One, who at the time of death thinks of Me, leaves his body, definitely after his death attains Me, My Real Being only. Of this, there is no doubt.
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Chapter 10, shloka 7,

etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)

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Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms ( vibhūti) and the Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
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Chapter 12, shloka 8,
mayyeva mana ādhatsva
mayi buddhiṃ niveśaya |
nivasiṣyasi mayyeva
ata ūrdhvaṃ na saṃśayaḥ ||
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(mayi eva manaḥ ādhatsva
mayi buddhim niveśaya |
nivasiṣyasi mayi eva ataḥ
ūrdhvam na saṃśayaḥ ||)
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Meaning :
Fix your attention in 'Me' alone, and keep your intellect attached to 'Me'. No doubt, there-after you shall dwell in 'Me'.
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Of Ignorance, Doubt, Confusion, Trust and Conviction.

Of Ignorance, Doubt, Confusion, Trust and Conviction.
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With special reference to the shloka 40 of chapter 40, let us see how ignorance, doubt, confusion, trust and conviction are the 5 states of mind.
A comparison with the 5 states of mind as referred to in pātañjala yogasūtra will be of some help here, though.
The five states / modes (vṛtti)s of mind are as follows : 
kṣipta, mūḍha, vikṣipta, ekāgra, niruddha  / samādhi
All sentient beings have these 'states', but we can't say anything about beings other than human. In us, human beings the first is like of a primitive, uncivilised, uncultured man. The mind of such a man is very much in tune with nature. He lives almost at the animal level, behaving in the as the bodily needs prompt him to do. This stage kṣipta, strengthens the sense of 'me' as a separate identity in a 'world'. And one learns about pleasures and pains of just existing as a body. There is the next stage  mūḍha, when the distinction between 'me' (the body) and the 'other' becomes a habit of mind. And then one tries to exploit the 'other' to maximize pleasure and minimize the pain. Then the stage ekāgra, when the intellect has developed to a particular level, and one is able to direct the thinking in an objectified mode, when one can focus the attention on a particular thing of interest / study. But the tendency (vṛtti) of the mind  still keeps active while it passes through the three phases jāgṛti, svapna and suṣupti  (waking state, dream-level and deep dreamless sleep respectively). ekāgra state, when fully developed, and when the mind is pure and capable of understanding the deeper aspects of Life / Existence,  culminates into the niruddha state, one (such a mind) attains samādhi, such a state of mind when one is not in dream-state or the deep-sleep state, and nor the mind is overpowered by 'thought' vṛtti . We can also say, when the mind is NOT identified with any of the vṛtti yet just fully awake. Every-one once in a while comes across moments when one experiences something 'indescribable', and then seeks to gain control over the same, though seems to have been slipped off his hand. tripurā-rahasya, and    tantra maintain that every individual at an average, comes across such a moment approximately 6 times a day. 
Now let us see how an ordinary mind in Ignorance, doubt, confusion, trust and conviction passes through the above mentioned 5 states.
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Ignorance is in-born and with experience and development of thought / intellect one learns to form ideas about a perceived 'world' and a 'me' that seems to be different and 'other' than the 'world'. This is interesting to note that though the body and the world both are composed of the same fundamental and the same elements, while the 'consciousness' associated with the body turns into 'me' (idea), that too fades away in deep sleep. Along-with the world also. Without exception, both come up into perception with the other.  Obviously both are inseparable one whole.
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Ignorance is no problem. But with the arrival of the 'me' the problem begins. success and failures tend to creat doubt about the nature of things in mind. And not knowing the same becomes deep-rooted misery. Then when the attention is withdrawn from the observed' and is focused upon the observer, one comes across the understanding that this 'me' is basically 'consciousness' only. The 'consciousness' with the idea of a 'self'. Where-from arises this idea? When one goes in search of the root, one concludes the 'Self-Consciousness' is ever so by the very nature. And the idea of 'me' is but a reflection of this All-pervading 'Self-Consciousness', shining in everything, including the body. And the brain defines this reflection as 'me'. Once this is clear, one would no more dabble engage into endless discussions about God, spirituality, and others many philosophical questions. This is Trust and Conviction.
The salient point is :
A doubt needs to be cleared, not suppressed. Trust (śraddhā) should be arrived at by removal of doubts and confusion. Trust (śraddhā) is though basically present in all beings, the same needs to be strengthened and directed in the right way. 
अध्याय 17, श्लोक 3,
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सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥
__
(सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयः अयम् पुरुषः यः यत्-श्रद्धः सः एव सः ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त एवं ’मैं’-भावना रूपी चतुष्टय तथा उनका अधिष्ठान साक्षी-बुद्धि / शुद्ध चेतनता) के अनुरूप हुआ करती है । यह पुरुष श्रद्धामय है, अतएव जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ।
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टिप्पणी:
चूँकि श्रद्धा अन्तःकरण से अभिन्न है, इसलिए जैसा अन्तःकरण होता है, मनुष्य भी बिल्कुल वही होता है । इसीलिए मनुष्य में श्रद्धा भी सात्त्विकी, तामसी या राजस या उन तीनों गुणों की उपस्थिति के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार की होती है ।
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Chapter 17, shloka 3,

sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayo:'yaṃ puruṣo
yo yacchraddhaḥ sa eva saḥ ||
__
(sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayaḥ ayam puruṣaḥ
yaḥ yat-śraddhaḥ saḥ eva saḥ ||
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Meaning :
According to the sattva, every-one has the own specific construct of mind (thought, intellect, consciousness and ego, these 4 together form the tendencies and modes of mind, and this is the inherent spontaneous instinct śraddhā, of a man) . This man is verily the śraddhā, so one is of the kind, what-ever and of what-so-ever kind is the inborn tendencies of the mind / śraddhā, he has from the birth.
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śrīmadbhagvadgītā emphasizes that a man in doubt / confusion should try to get cleared the same, other-wise he is just doomed. With the removal (nirasana) of doubt / confusion (saṃśaya) , Intelligence, Trust, Conviction follow.
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