Friday, February 28, 2014

आज का श्लोक, ’स्याम्’ / 'syAm'

आज का श्लोक, ’स्याम्’ / 'syAm'
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’स्याम्’ / 'syAm' - (मैं) हो जाऊँगा ।
( 'होने' के अर्थ में,  ’अस्’ धातु, ’होने’ के अर्थ में,
-’विधिलिङ्’ उत्तम पुरुष एकवचन ।)
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अध्याय 3, श्लोक 24,
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उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥
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(उत्सीदेयुः इमे लोकाः न कुर्याम् कर्म चेत्-अहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्याम् उपहन्याम् इमाः प्रजाः ॥)
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भावार्थ :
यदि मैं कर्म न करूँ (तो) ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं सङ्करता का करनेवाला तथा इस प्रकार इस समस्त प्रजा को विनष्ट करनेवाला हो जाऊँ ।
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अध्याय 18, श्लोक 70,
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अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥
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(अध्येष्यते च यः इमम् धर्म्यम् संवादम्-आवयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेन-अहम् इष्टः स्याम्-इति मे मतिः ॥)
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भावार्थ :
हमारे मध्य हुए इस संवादरूपी धर्मप्रेरक गीताशास्त्र का जो भी मनुष्य अध्ययन करेगा, उसके द्वारा किए जानेवाले इस ’ज्ञानयज्ञ’ से वह मेरी अभीष्ट पूजा करेगा, ऐसा मेरा मत है ।
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’स्याम्’ / 'syAm' - (I) will be.
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Chapter 3, shloka 24,
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utsIdeyurime lokA
na kuryAM karma chedahaM |
sankarasya cha kartA syAM-
upahanyAM-imAH prajAH ||
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Meaning :
If I cease to work, these worlds will perish and I shall be the cause of confusion and destruction.
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Chapter 18, shloka 70,
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adhyeShyate cha ya imaM
dharmyaM saMvAdamAvayoH |
jnAnayajnena tenAhaM-
iShTaH syAm-iti me matiH ||
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Meaning :
Whosoever shall study this sacred dialogue of ours shall be worshiping Me, by means of the sacrifice known as 'jnAna-yajna' (-the way of Intelligence).
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Thursday, February 27, 2014

आज का श्लोक, ’स्युः’ / 'syuH'

आज का श्लोक ’स्युः’ / 'syuH'
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अध्याय 9, श्लोक 32,
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मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
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(माम् हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये अपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः ते अपि यान्ति परां गतिम् ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ! स्त्री, वैश्य, तथा शूद्र, वे भी, मेरी शरण होकर परम गति को ही प्राप्त हो जाते हैं ।
(टिप्पणी : परम-गति के लिए सभी पात्र हैं ।)
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’स्युः’ / 'syuH'
Chapter 9, shloka 32,
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mAM hi pArtha vyapAshritya
y'pi syuH pApayonayaH |
striyo vaishyAstathA shUdrA-
ste'pi yAnti parAM gatiM ||
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Meaning :
Who-so-ever takes refuge in Me, be they of sinful birth, women, vaishya, or even shUdra, they all attain the Supreme State.
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आज का श्लोक, 'स्रंसते' / 'sransate'

आज का श्लोक,  'स्रंसते' / 'sransate'
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गाण्डीवं  स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव मे मनः ॥
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(गाण्डीवम्  स्रंसते हस्तात् त्वक् च-एव परिदह्यते ।
न च शक्नोमि अवस्थातुं भ्रमति इव मे मनः ॥
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'स्रंसते' / 'sransate'  
भावार्थ :
अर्जुन कहते हैं -
'मेरे हाथ से गाण्डीव छूटा जा रहा है, त्वचा भी जल रही है, मैं खड़ा रहने में भी असमर्थ हूँ, और मेरा मन अत्यन्त अस्थिर हो रहा है,'…
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'स्रंसते' / 'sransate'  
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Chapter 1, shloka 30,
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gANDIvaM sransate hastAt
tvakchaiva paridahyate |
na cha shaknomyavasthAtuM
bhramatIva me manaH ||
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Meaning :
Arjun says : 'gANDiva' (The Bow of Arjuna) is slipping away from my hand, my skin is burning, I am unable to stand and my mind (head) is reeling.

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आज का श्लोक, ’स्रोतसाम्’ / 'srotasAM'

आज का श्लोक ’स्रोतसाम्’ / 'srotasAM'
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’स्रोतसाम्’ / 'srotasAM' 
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अध्याय 10, श्लोक 31,

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥
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(पवनः पवताम् अस्मि रामः शस्त्रभृताम् अहम् ।
झषाणाम् मकरः च अस्मि स्रोतसाम् अस्मि जाह्नवी ॥)
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पवित्र करनेवालों में पवन (वायु) हूँ, शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ, मत्स्यों में मकर हूँ, तथा नदियों में मैं जाह्नवी अर्थात् श्रीभागीरथी गङ्गा हूँ ।
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’स्रोतसाम्’ / 'srotasAM
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Chapter 10, shloka 31,
pawanaH pawatAmasmi
rAmaH shastrabhRtAmahaM |
jhaShANAM makarashchAsmi
srotasAm-asmi jAhnavI ||
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I am the wind among all those who purify, and shrI rAma among those who wield weapons,
among sea-monsters I am the alligator, and of rivers, I am the Ganges.
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आज का श्लोक, ’स्वकर्मणा’/'swakarmaNA'

आज का श्लोक ’स्वकर्मणा’/'swakarmaNA
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’स्वकर्मणा’/'swakarmaNA' - अपने लिए स्वाभाविक रूप से नियत किए गए कर्म-विशेष के (आचरण के) द्वारा ।

अध्याय  18, श्लोक  46,
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यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,)  जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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’स्वकर्मणा’/'swakarmaNA' - by efficiently discharging the specific duties allotted to oneself.
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Chapter 18, shloka 46,

yataH pravRttirbhUtAnAM
yena sarvamidaM tataM |
swakarmaNA tamabhyarchya
siddhiM vindati mAnavaH ||
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Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, -The Lord, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection..
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Wednesday, February 26, 2014

आज का श्लोक, 'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH'

आज का श्लोक,   'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH'  
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'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH
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अध्याय 18, श्लोक 45,
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स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए  उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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(टिप्पणी - ’कर्म’ एक व्यापक तात्पर्ययुक्त पद है । मनुष्य अपने संस्कारों से प्रेरित हुआ कर्म-विशेष में प्रवृत्त होता है, वहीं दूसरी ओर कर्म जिसे वह करता है, वे भी उसके अज्ञानग्रस्त या ज्ञानयुक्त होने के अनुसार उसमें / उस पर अपने संस्कार छोड़ जाते हैं । यह है कर्म का दुष्चक्र । अज्ञानी के कर्म, इस दुष्चक्र-रूपी बंधन को दॄढ करते हैं, जबकि ज्ञानी के कर्म उसे नहीं बाँधते, और सिर्फ़ भोग-हेतु होते हैं जिन्हें वह ’प्रारब्धवश’ ही करता है । वे उसमें नए संस्कार नहीं उत्पन्न करते, और पुराने संस्कारों को भी क्षीण कर देते हैं । जब मनुष्य अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने विशिष्ट कर्म का सम्यक्-रूपेण आचरण करता है तो उसे ज्ञान-निष्ठा की प्राप्ति होती है ।
यहाँ यह समझना आसान है कि मनुष्य किसी विशिष्ट कुल या वातावरण में ही क्यों जन्म लेता है । अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर ही ऐसा करने हेतु वह बाध्य होता है । इसलिए इसमें ’वर्ण’ की अंशतः अपनी एक विशिष्ट भूमिका होने से इंकार नहीं किया जा सकता । और ज्ञान-निष्ठा तथा जीवन में ही ज्ञान-निष्ठा के माध्यम से मुक्ति पाने का अवसर मनुष्य-मात्र को है । वैदिक ’वर्ण-व्यवस्था’ की यदि इस आधार पर विवेचना की जाए तो हम समझ सकते हैं कि वेद किसी प्रकार का कोई आग्रह नहीं रखते और न विभिन्न वर्णों के बीच उच्च-नीच का भेद रखते हैं । वेद तो ’वर्ण-व्यवस्था’ को न माननेवालों या विरोधियों को भी उनके ’अपने धर्म’ पर आचरण करने का सुझाव देते हैं -
’श्रेयान्धर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ...गीता 3/35)
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'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH
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Chapter 18, shloka 45,
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'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH'  -  One, engaged in one's own allotted work.
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swe swe karmaNyabhirataH
saMsiddhiM labhate naraH |
swakarmanirataH siddhiM
yathA vindati tachchhruNu ||
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When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,… 
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आज का श्लोक, ’स्वकं’ / 'swakaM',

आज का श्लोक, ’स्वकं’ / 'swakaM',
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अध्याय 11, श्लोक 50,
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’स्वकं’ / 'swakaM',   -  अपने अत्यन्त निज (यहाँ आशय भगवान् के निज चतुर्भुज विष्णुरूप से है,) ।
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सञ्जय उवाच :
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥
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(इति-अर्जुनम् वासुदेवः तथा-उक्त्वा
स्वकम् रूपम् दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतम्-एनम्
भूत्वा पुनः सौम्य वपुः महात्मा ॥)
--       
अर्जुन से वासुदेव (भगवान् श्रीकृष्ण) ने इस प्रकार कहकर पुनः अपने निज (चतुर्भुज) स्वरूप का दर्शन दिया । भयभीत-चित्त अर्जुन के समक्ष महात्मा श्रीकृष्ण ने तब सौम्यरूप धारण कर अर्जुन को धीरज प्रदान किया ।
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’स्वकं’ / 'swakaM' /  - one's own,
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Chapter 11, shloka 50,
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sajaya uvAcha
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ityarjunaM  vAsudevastathoktvA
swakaM rUpaM darshayAmAsa bhUyaH |
AshvAsayAmAsa cha bhItamenaM
bhUtvA punaH saumyvapurmahAtmA ||
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Meaning :
Speaking thus to arjuna, vAsudeva (kriShNa) again showed to arjuna His usual form. Having thus resumed His Graceful and Elegent appearance, He comforted arjuna, who was so terrified a moment ago.
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आज का श्लोक, ’स्वचक्षुषा’/ 'swachakShuShA'

आज का श्लोक ’स्वचक्षुषा’/ 'swachakShuShA'
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’स्वचक्षुषा’/ 'swachakShuShA' -अपने नेत्रों से,
-
अध्याय 11,  श्लोक 8,
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न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
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( न तू मां शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्वचक्षुषा
 दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे  योगम्-ऐश्वरम् ॥)
--   
भावार्थ :
तुम (जिनसे इस जगत् को देखा करते हो), अपने इन स्थूल नेत्रों से मुझे (मेरे यथार्थ-स्वरूप को) नहीं देख सकोगे । मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को तुम देख सको इसके लिए मैं तुम्हें ये दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ ।
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(टिप्पणी : स्पष्ट है कि अर्जुन द्वारा किया गया विराट-स्वरूप दर्शन न तो कोई सम्मोहन था, और न भौतिक-स्तर पर दिखलाई देनेवाला कोई ऐसा दृश्य, जिसे वे या उनकी तरह का कोई दूसरा मनुष्य अपने भौतिक नेत्रों से देख सकता हो । योग-शक्ति के माध्यम से अर्जुन की व्यक्तिगत चेतना के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी ईश्वरीय चेतना के द्वार खोल दिए थे, बस । तात्पर्य यह कि अर्जुन ’चेतना’ के उस तल पर था जहाँ वह सबमें विद्यमान ’ईश्वर’ से एकाकार था ।)
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’स्वचक्षुषा’/ 'swachakShuShA'
Chapter 11, shloka 8,
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na tu mAM shakyase draShTu-
manenaiva swachakShuShA |
divyaM dadAmi te chakShuH
pashya me yogamaishvaraM ||
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’स्वचक्षुषा’/ 'swachakShuShA' - (see) by your own eyes.
Meaning :
But to see Me, these your physical eyes are of no help. So I give you this divine sight. Behold My Majestic opulence, My power of yoga.
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आज का श्लोक, ’स्वजनं’ / 'swajanaM'

आज का श्लोक  ’स्वजनं’ / 'swajanaM'
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’स्वजनं’ / 'swajanaM' - अपने परिवार के, रक्त-संबंधी,
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अध्याय 1, श्लोक 28,
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कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच -
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितं ॥
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(कृपया परया आविष्टः विषीदन् इदम् अब्रवीत् ।
दृष्ट्वा इमम् स्वजनम् कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् ॥)
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भावार्थ :
उनके प्रति अत्यन्त करुणा-विहवल होकर, शोक करते हुए, (अर्जुन ने) ऐसा कहा ।
अर्जुन ने कहा -
युद्ध में मेरे समक्ष उपस्थित अपने इन स्वजनों को देखकर हे कृष्ण !...
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अध्याय 1, श्लोक 31 ,
--
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोsनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
*
(निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्वजनम् आहवे ॥)
--
भावार्थ:
हे केशव! वैसे भी मुझे सब लक्षण विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे किसी श्रेयस् की प्राप्ति नहीं होगी ।
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अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा  वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
*
(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
*
भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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अध्याय 1, श्लोक 45,
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अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥
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(अहो बत महत् पापं कर्तुम्  व्यवसिताः वयम् ।
यत् राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनम् उद्यताः ॥)
*
भावार्थ :
अहो खेद की बात है कि राज्यसुख के लोभ से ग्रस्त होकर हम, अपने ही स्वजनों को मारने के कार्य में संलग्न होने हेतु उद्यत हो उठे हैं !
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’स्वजनं’ / 'swajanaM' - one's very own friends and relatives.
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Chapter 1, shloka 28,
kRpayA parayAviShTo viShIdannidamabravIt |
(arjuna uvAcha)
dRShTwemaM swajanaM kRShNa
yuyutsuM samupasthitaM ||
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Meaning :
Seeng all his very own dear friends and relatives ready to fight before him, he was filled with deep remorse and with heavy heart said :
O kRShNa! seeing all these relatives and friends arrayed for battle, ...
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Chapter 1, shloka 31,
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nimittAni cha pashyAmi
viparItAni keshava |
na cha shreyo'nupashyAmi
hatvA swajanam-Ahave ||
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Meaning :
I see all the indications contrary to the good, and I can't see how having killed our kith and kin in the war, can we hope for the victory, the ownership of state and the happiness consequent to them.
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Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
*
Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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Chapter 1, shloka 45,
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aho bat mahatpApaM
kartuM vyavasitA vayaM |
yadrAjyasukhalobhena
hantuM swajanamudyatAH ||
*
Meaning :
Alas ! It is strange! Driven by the longing for the power of kingship and royal luxuries, we are bent on committing such a great sin, of killing our own brethren and kin!
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Tuesday, February 25, 2014

आज का श्लोक, ’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM'

आज का श्लोक, ’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM' 
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’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM'  - अपने निज धर्म को,
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अध्याय  2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
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(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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अध्याय 2, श्लोक 33,
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अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
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( अथ चेत् त्वं इमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापं अवाप्स्यसि ॥)
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भावार्थ :
अतः (हे अर्जुन!) यदि तू इस धर्मसम्मत संग्राम को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति की भी हानि कर पाप का भागी होगा।
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’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM - according to one's own path of 'dharma'.
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Chapter 2, shloka 31,
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swadharmamapi chAvekShya
na vikampitumarhasi |
dharmyAddhi yuddhAchchhreyo
kShatriyasya na vidyate ||
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Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
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Chapter 2, shloka 33,
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atha chettvamimaM dharmyaM
saMgrAmaM na kariShyasi |
tataH svadharmaM kIrtiM cha
hitvA pApamavApsyasi ||
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Meaning : causing harm to, endangering.
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Arjuna !If you say you will not take part in this righteous war, you will lose not only the reputation and status on the worldly level, but also incur sin.
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आज का श्लोक, ’स्वतेजसा’/ 'swatejasA'

आज का श्लोक, ’स्वतेजसा’/ 'swatejasA'
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अध्याय 11, श्लोक 19,
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’स्वतेजसा’/ 'swatejasA'
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अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥
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हे आदि-मध्य-अन्त-रहित, हे अनन्तबाहु, हे शशि-सूर्य-नेत्र!  मैं देख रहा हूँ कि प्रज्ज्वलित अग्नि जैसा प्रदीप्त आपका मुखमण्डल अपने तेज से समस्त विश्व को संतप्त कर रहा है ।
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’स्वतेजसा’/ 'swatejasA' - Because of Your Resplendence,
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Chapter 11, shloka 19,
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anAdimadhyAntamanantavIrya-
manantabAhuM shashisUryanetraM |
pashyAmi tvAM dIptahutAshanavaktraM
swatejasA vishvamidaM tapantaM ||
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O One without a beginning, a middle or an end ! O One of potential and arms infinite ! O One with The Moon and The Sun for the eyes ! I see Your Face Resplendent like a burning Fire, scorching this whole world with your Radiance.
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आज का श्लोक, ’स्वधर्मः’ / 'swadharmaH'

आज का श्लोक, ’स्वधर्मः’ / 'swadharmaH'  
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’स्वधर्मः’ / 'swadharmaH - अपना निज धर्म जो ईश्वर-प्राप्ति में सहायक हो,
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अध्याय 3, श्लोक 35, 
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से  आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति  किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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(टिप्पणी : यहाँ 'धर्म' क्या है, इस पर फिर एक बार ध्यान दिया जाना अपेक्षित है । जैसा कि हम जानते ही हैं कि वेद और वेदपरक परंपरा तथा शिक्षा के अनुसार 'धर्म' चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम शेष तीन 'पुरुषार्थों' अर्थात् 'काम' 'अर्थ' और 'मोक्ष' की तुलना इससे करें तो स्पष्ट हो जाता है कि 'धर्म' आचरणगम्य 'कर्म' है । अर्थात् वह सब 'व्यावहारिक' आचरण जिसका पालन करने से जीवन में क्लेश न उत्पन्न हों और सच्चा सुख, मन की शान्ति और परस्पर सौहार्द्र घटित हो । दूसरे शब्दों में 'ईश्वर-प्राप्ति' मार्ग जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए दूसरे के मार्ग से भिन्न हो सकता है । यहाँ तक कि वेद 'ईश्वर' की मान्यता का भी आग्रह नहीं रखते ।  जिन्हें 'ईश्वर' को मानने में कठिनाई प्रतीत होती है उन्हें वेद 'आत्मा' के अस्तित्व के बारे में खोज करने का विकल्प देते हैं । अपने अस्तित्व से भला कोई कैसे इनकार कर सकता है ? इसलिए वेद को आस्तिक-दर्शन कहा जाता है । किन्तु वेद से मतभेद रखनेवाले 'दर्शन' भी हैं जिन्हें 'नास्तिक-दर्शन कहा जाता है, क्योंकि वे 'आत्मा' या 'ईश्वर' दोनों के अस्तित्व पर संदेह करते हैं । किन्तु 'मुक्ति' के बारे में उन्हें कोई संदेह नहीं है । वेद उनसे भी मत-भिन्नता नहीं रखते और उनसे बस उदासीन हैं । किन्तु 'मुक्ति' पाने का मार्ग भी तो एक ऐसा 'पुरुषार्थ' है जो 'धर्म' की कसौटी पर खरा उतरता है । किन्तु ऐसा धर्म भी 'अहिंसा' पर ही आधारित होता है । उसे दूसरे पर 'आरोपित' नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा आरोपण हिंसा का ही एक रूप होने से 'अधर्म' होगा, न कि 'धर्म' ! मैं नहीं कह सकता कि क्या हमारे बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक 'धर्म' को इस कसौटी पर रखकर इस बारे में सोचते हैं ! किन्तु मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस आधार पर विचार करें तो हमें एक ऐसी दृष्टि मिलेगी, जो मानवीय 'धर्मसंकट' का सर्वसम्मत उचित समाधान बन सकती है । )
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’स्वधर्मः’ / 'swadharmaH'    - one's own 'dharma', the way to God.
-- 

Chapter 3, shloka 35,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swadharme nidhanaM shreyaH
paradharmo bhayAvahaH ||
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Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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Chapter 18, shloka 47,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swabhAvaniyataM karma
kurvan-nApnoti kilbiShaM ||
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Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
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(A Note : This shloka  and many others too call our attention to rediscover the true meaning of 'dharma', Without understanding what this word 'dharma' means in Vedik parlance, if we just keep on repeating all 'dharma'(s) are equal, that is going to create confusion. As 'puruShArtha' though all 'dharm'(s) are of the same importance according to one's body-mind, but except one's own, the rest are the source of untoward consequences. And we have already seen there are 4 kinds of 'puruShArtha-s. 'dharma' according to Veda, is only one of those 4 kinds. Though 'dharma' is a 'puruShArtha', a 'puruShArtha' may or may not be quite befitting with 'dharma'.)
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आज का श्लोक, 'स्वधर्मे' / 'swadharme'

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Monday, February 24, 2014

आज का श्लोक, 'स्वधर्मे' / 'swadharme'

आज का श्लोक, 'स्वधर्मे' / 'swadharme
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'स्वधर्मे'/ 'swadharme' - अपने वर्ण, आश्रम के अनुसार निर्देशित वेदविहित अपने धर्म का पालन करते हुए ।
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अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से  आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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'स्वधर्मे' /  'swadharme' - following one's own 'dharma' as is directed in the veda / scriptures.
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Chapter 3, shloka 35,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swadharme nidhanaM shreyaH
paradharmo bhayAvahaH ||
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Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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आज का श्लोक, ’हुतम्’ / 'hutaM'

आज का श्लोक, ’हुतम्’ / 'hutaM
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’हुतम्’ / 'hutaM'  - हवन में अर्पित की गई सामग्री, हव्य ।
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अध्याय 4, श्लोक 24,
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ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
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(ब्रह्म-अर्पणं ब्रह्म-हविः ब्रह्म-अग्नौ ब्रह्मणा हुतम्
ब्रह्म एव तेन गन्तव्यं ब्रह्म-कर्म-समाधिना ॥)
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भावार्थ :
ब्रह्म को जाननेवाले की दृष्टि में यज्ञ में किया जानेवाला हवन, हवन में अर्पित हव्य, यज्ञाग्नि, सभी ब्रह्म हैं । वह भी ब्रह्म ही है जिसके द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है । और इस प्रकार के ब्रह्मकर्म के अनुष्ठान से ब्रह्मकर्मरूपी समाधि के द्वारा उसे ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है ।
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अध्याय 9, श्लोक 16,
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अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्
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(अहम् क्रतुः अहं यज्ञः स्वधा-अहम् अहम्-औषधम् ।
मन्त्रः अहम् एव आज्यम् अहम् अग्निः अहम् हुतम् ॥)
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भावार्थ :
मैं ही क्रतु (विष्णु, इच्छा, कर्म, यज्ञ, शक्ति, वेदविहित कर्म-विशेष तथा दस प्रजापतियों में से एक), यज्ञ, स्वधा  (पितरों को अर्पित किया जानेवाला द्रव्य ), तथा ओषधि हूँ । मन्त्र भी मैं ही, (जिसका हवन किया जाता है, या जो दीपक में जलता है, वह ) घृत भी मैं हूँ । मैं ही अग्नि तथा मैं ही हवन में अर्पित की जानेवाली आहुति / हवन-रूपी क्रिया हूँ ।
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अध्याय 17, श्लोक 28,
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अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न तत्प्रेत्य नो इह ॥
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भावार्थ :
श्रद्धारहित जो हवन, दान, तप,किया जाता है, उसे असत् तप कहा जाता है, वह न तो इस लोक में सुख देता है, न परलोक में ।
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’हुतम्’ / 'hutaM' - The offerings made into the sacrificial Fire (yajna)
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Chapter 4, shloka 24,
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brahmArpaNaM brahmahavir-
brahmAgnau brahmaNA hutaM |
brahmaiva tena gantavyaM
brahmakarmasamAdhinA ||
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Meaning : One who knows 'brahman' /Supreme Reality, sees Him everywhere, in the Fire, in the offerings, in the oblation, in the goal and within himself also.
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Chapter 9, shloka 16,
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ahaM kraturahaM yajnaH
swadhAhamahamauShadhaM |
mantro'hamahamevAjya-
mahamagnirahaM hutaM ||
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Meaning :
I am the vedika-ritual and vedika-sacrifice, I am swadhA ( the offerings made to ancestors), I am the herbs and other substances that heal, I am the sacred chants, I am alone the clarified butter (offered into fire during a yajna, or even for lighting a lamp.) and I am the offerings
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Chapter 17, shloka 28,
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ashraddhayA hutaM dattaM
tapastaptaM kRtaM cha yat |
asadityuchyate pArtha
na tatpretya no iha ||
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Meaning :
Sacrifice, charity or austerity without faith in such action is worth-less, For it yields neither the happiness in this world nor here-after in another.
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आज का श्लोक, ’स्वनुष्ठितात’ / 'swanuShThitAt'

आज का श्लोक, ’स्वनुष्ठितात’ / 'swanuShThitAt'   
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’स्वनुष्ठितात’ / 'swanuShThitAt'    - का आचरण करना ।

अध्याय 3, श्लोक 35,  
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात्
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से  आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति  किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात्
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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(टिप्पणी : यहाँ 'धर्म' क्या है, इस पर फिर एक बार ध्यान दिया जाना अपेक्षित है । जैसा कि हम जानते ही हैं कि वेद और वेदपरक परंपरा तथा शिक्षा के अनुसार 'धर्म' चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम शेष तीन 'पुरुषार्थों' अर्थात् 'काम' 'अर्थ' और 'मोक्ष' की तुलना इससे करें तो स्पष्ट हो जाता है कि 'धर्म' आचरणगम्य 'कर्म' है । अर्थात् वह सब 'व्यावहारिक' आचरण जिसका पालन करने से जीवन में क्लेश न उत्पन्न हों और सच्चा सुख, मन की शान्ति और परस्पर सौहार्द्र घटित हो । मैं नहीं कह सकता कि हमारे बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक 'धर्म' को इस कसौटी पर रखकर उस बारे में सोचते हैं कि नहीं । किन्तु मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस आधार पर विचार करें तो हमें एक ऐसी दृष्टि मिलेगी जो मानवीय 'धर्मसंकट' का ऐसा उचित समाधान बन सकती है, जिस पर सभी राजी हो सकें ।)
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’स्वनुष्ठितात’ / 'swanuShThitAt' - well-performed, well done.  
 
Chapter 3, shloka 35,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swadharme nidhanaM shreyaH 
paradharmo bhayAvahaH ||
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Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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Chapter 18, shloka 47,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swabhAvaniyataM karma
kurvan-nApnoti kilbiShaM ||
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Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
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(A Note : This shloka  and many others too call our attention to rediscover the true meaning of 'dharma', Without understanding what this word 'dharma' means in Vedik parlance, if we just keep on repeating all 'dharma'(s) are equal, that is going to create confusion. As 'puruShArtha' though all 'dharm'(s) are of the same importance according to one's body-mind, but except one's own, the rest are the source of untoward consequences. And we have already seen there are 4 kinds of 'puruShArtha-s. 'dharma' according to Veda, is only one of those 4 kinds. Though 'dharma' is a 'puruShArtha', a 'puruShArtha' may or may not be quite befitting with 'dharma'.)
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आज का श्लोक, ’स्वपन्’ / 'swapan'

आज का श्लोक, ’स्वपन्’ / 'swapan' 
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’स्वपन्’ / - सोता हुआ,
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अध्याय 5, श्लोक 8,
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नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥
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(नैव किञ्चित्-करोमि-इति युक्तः मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यन्-शृण्वन्-स्पृशन्-जिघ्रन्-अश्नन्-गच्छन्-स्वपन्-श्वसन् ॥)
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भावार्थ : तत्व को जाननेवाला (सांख्य) योगी देखते हुए, सुनते हुए, छूते हुए, सूँघते हुए,  खाते हुए, आते-जाते हुए, सोते हुए, तथा श्वास लेते हुए भी, ’मैं यह सब करता हूँ’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं रखता ।
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(टिप्पणी : यह जानना रोचक है कि 'सुषुप्ति' अर्थात् 'निद्रा' और 'स्वप्न' अर्थात 'सपना देखना' एक ही धातु 'स्वप्' से व्युत्पन्न हैं । इसलिए योगी गहन सुषुप्ति में भी स्वप्नरहित किन्तु आत्मा के प्रति अवधानयुक्त होता है, और 'जागृति' में संसार उसे 'स्वप्न' जैसा प्रतीत होता है।)
*
’स्वपन्’ / 'swapan',
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Chapter 5, shloka 8,
’स्वपन्’ / 'swapan', - while / dreaming, sleeping,

naiva kinchitkaromIti
yukto manyeta tattvavit |
pashyan-shRNvan-spRshan-jiGhran-
ashnan-gachchhan-swapan-shvasan ||
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Meaning :
One who knows Reality and is well established in the 'Self', never takes himself as the doer of those actions  like 'seeing',  'hearing', 'touch', 'smell', 'eating', 'going and coming' 'dreaming / sleeping', that seem to happen to the body-mind only and not to the 'Self' he abides in.
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(Note : This may be pointed out here, that the Sanskrit verb-root of 'sleep' and 'dream' is 'स्वप्' / 'swap', which gives us two different meanings. One means a sleep when one is totally unaware of the world and also of the Reality that is ever-present 'Self' only. Such a man when is 'aware' of a 'physical-world' perceived through senses, or a 'mental-world' as is interpreted by the mind through 'memory', still remains unaware of the inherent Reality, and keeps on 'dreaming' only. A jnAni in comparison how-ever, never loses sight of the Reality, though he may or may not be grasping the apparent physical or mental world at the same time.)
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Sunday, February 23, 2014

आज का श्लोक, ’स्वबान्धवान्’ / 'swabAndhavAn'

आज का श्लोक, ’स्वबान्धवान्’ / 'swabAndhavAn'
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’स्वबान्धवान्’ / 'swabAndhavAn' - अपने बन्धुओं को

अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा  वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
*
(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
*
भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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’स्वबान्धवान्’ / 'swabAndhavAn' - To our own brethren,
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Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
*
Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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आज का श्लोक, ’स्वभावजम्’/'swabhAvajaM'

आज का श्लोक, ’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM

’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM' - पूर्व-संस्कारों के सम्मिलित फल रूपी जन्म से प्राप्त हुई नैसर्गिक प्रवृत्तियों से उत्पन्न ।
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अध्याय 18,  श्लोक 42,
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शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्
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(शमः दमः तपः शौचम् क्षान्तिः आर्जवम् एव च ।
ज्ञानम् विज्ञानम् आस्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥)
भावार्थ :
अन्तःकरण की वृत्तियों की स्थिरता और शान्ति, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि पर नियन्त्रण, अन्तः-बाह्य शुचिता, दूसरों के अपराधों के प्रति क्षमा की भावना, चित्त की सरलता और निश्छलता, आस्तिकता, ज्ञाननिष्ठा, ये सभी ब्राह्मण के लिए स्वाभाविक कर्म हैं ।
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अध्याय 18,  श्लोक 43,

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्
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(शौर्यम् तेजः धृतिः दाक्ष्यम् युद्धे च अपि-अपलायनम् ।
दानम् ईश्वरभावः च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥)
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भावार्थ :
शौर्य, तेजस्विता, धैर्य, दक्षता, और युद्ध में भी पलायन न करना, दान देना, ईश्वरभाव अर्थात् नृपतुल्य स्वामित्व की भावना जो प्रजा के प्रति वात्सल्य से युक्त हो, ये सभी क्षत्रिय के लिए स्वाभाविक कर्म हैं ।
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अध्याय 18,  श्लोक 44,

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्
भावार्थ :
कृषि और गौपालन, व्यापार तथा वस्तु-विनिमय का व्यवहार करना तथा इस माध्यम से उचित रीति से आजीविका अर्जित करना ये सभी वैश्य के लिए स्वाभाविक कर्म हैं । इसी प्रकार से, सब वर्णों की परिचर्या रूपी सेवा करना शूद्र के लिए स्वाभाविक कर्म है ।
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’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM' - Owing to the natural tendencies of the body-mind, one is born with.
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Chapter 18, shloka 42,
shamo damastapaH shauchaM
kShAntirArjavameva cha |
jnAnaM vijnAnamAstikyaM
brahmakarma swabhAvajaM ||
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Meaning :
Restraining the mind and senses, controlling the tendencies of the mind that go in the outward direction, purity of mind, body and heart, forbearance and calm of passions, clarity and simplicity of mind, knowledge and wisdom, and trust in the Entity, God / Self, these all together are the tendencies natural to a 'brAhmin'.
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Chapter 18, shloka 43,
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shauryaM tejo dhRtirdAkshyaM
yuddhe chApyapalAyanaM |
dAnamIshvarabhAvashcha
kShAtraM karma swabhAvajaM ||
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Meaning :
Courage, strength, will, determination, not running away from the battle-field, generocity, and spirit of the lordship with a sense of duties towards the people one rules over, these all together are the tendencies natural to a 'kShatriya'.
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Chapter 18, shloka 44,
kRShigaurakShyavANijyaM
vaishyakarma swabhAvajaM
paricharyAtmakaM karma
shUdrasyApi swabhAvajaM ||
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Meaning :
Agriculture, rearing the cattle, trade and commerce, are the tendencies natural to a 'vaishya', and service of other three classes is the ordained duty and tendencies of one, natural to a 'shUdra'.
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(Note :
These are the ideal conditions and no one can deny that the  'social' reality don't quite match the 'ideal conditions'. But even then, one could determine for himself, what tendencies are the prominant ones there in his mind and spirit, which one is driven by.  And one can then pursue accordingly the 'dharma' which he finds most suitable to him.)
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Saturday, February 22, 2014

आज का श्लोक, 'स्वभावजा' / 'swabhAvajA'

आज का श्लोक,  'स्वभावजा' / 'swabhAvajA
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अध्याय 17, श्लोक 2,
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श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
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(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति तां शृणु ॥)
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’स्वभावजा’/'swabhAvaja' - पूर्व-संस्कारों के सम्मिलित फल रूपी प्राप्त हुई नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ ।
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :

सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा)  किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
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Chapter 17, shloka 2,
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’स्वभावजा’/'swabhAvaja' - The natural tendencies of the body-mind, one is born with.
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shrI bhagavAn uvAcha :

trividhA bhavati shraddhA
dehinAM sA swabhAvajA |
sAttvikI rAjasI chaiva
tAmasI cheti tAM shRNu ॥
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Meaning :
Lord shrikrishNa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'faith' associated with them is of three kinds - sAttvikI ( of harmony), rAjasika ( of passion) or of tAmasI ( of indolence)."
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आज का श्लोक, ’स्वभावजेन’ / 'swabhAvajena'

आज का श्लोक, ’स्वभावजेन’ / 'swabhAvajena'
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अध्याय 18, श्लोक 60,
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स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥
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(स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं न-इच्छसि यत् मोहात् करिष्यसि अवशः अपि तत् ॥)
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’स्वभावजेन’ / 'swabhAvajena' - जन्म से प्राप्त मन-बुद्धि / संस्कारों आदि से प्रेरित हुआ ।
भावार्थ :
हे कौन्तेय तू अपने स्वयं के स्वाभाविक कर्मों (कर्मरूपी संस्कारों) में दॄढता से बँधा है, इसलिए अविवेक के कारण जिस कर्म को करने का तू भले ही अनिच्छुक हो, उसे ही बाध्य होकर अवश्य करेगा ।

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’स्वभावजेन’ / 'swabhAvajena' - prompted by the tendencies of the body-mind, one is born with.

Chapter 18, shloka 60.

swabhAvajena kaunteya
nibaddhaH swena karmaNA |
kartuM nechchhasi yanmohAt-
kariShyasyavasho'pi tat ||
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Meaning :
O Kaunteya (Arjuna)! Though unwilling to do because of your ignorance and delusion, you will perform the action according to your very nature because you are bound by the same.
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आज का श्लोक, 'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM'

आज का श्लोक, 'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM'
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM' - स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए अपने धर्म से सुनिश्चित ।
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति  किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
--
भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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(टिप्पणी : यहाँ 'धर्म' क्या है, इस पर फिर एक बार ध्यान दिया जाना अपेक्षित है । जैसा कि हम जानते ही हैं कि वेद और वेदपरक परंपरा तथा शिक्षा के अनुसार 'धर्म' चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम शेष तीन 'पुरुषार्थों' अर्थात् 'काम' 'अर्थ' और 'मोक्ष' की तुलना इससे करें तो स्पष्ट हो जाता है कि 'धर्म' आचरणगम्य 'कर्म' है । अर्थात् वह सब 'व्यावहारिक' आचरण जिसका पालन करने से जीवन में क्लेश न उत्पन्न हों और सच्चा सुख, मन की शान्ति और परस्पर सौहार्द्र घटित हो । मैं नहीं कह सकता कि हमारे बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक 'धर्म' को इस कसौटी पर रखकर उस बारे में सोचते हैं कि नहीं । किन्तु मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस आधार पर विचार करें तो हमें एक ऐसी दृष्टि मिलेगी जो मानवीय 'धर्मसंकट' का ऐसा उचित समाधान बन सकती है, जिस पर सभी राजी हो सकें ।)
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'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM'
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Chapter 18, shloka 47,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swabhAvaniyataM karma
kurvan-nApnoti kilbiShaM ||
--
Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
--
(A Note : This shloka  and many others too call our attention to rediscover the true meaning of 'dharma', Without understanding what this word 'dharma' means in Vedik parlance, if we just keep on repeating all 'dharma'(s) are equal, that is going to create confusion. As 'puruShArtha' though all 'dharm'(s) are of the same importance according to one's body-mind, but except one's own, the rest are the source of untoward consequences. And we have already seen there are 4 kinds of 'puruShArtha-s. 'dharma' according to Veda, is only one of those 4 kinds. Though 'dharma' is a 'puruShArtha', a 'puruShArtha' may or may not be quite befitting with 'dharma'.)  
  
        
     

Friday, February 21, 2014

आज का श्लोक, ’स्वभावप्रभवैर्गुणैः’ / 'swabhAvaprabhavairguNaiH'

आज का श्लोक, ’स्वभावप्रभवैर्गुणैः’ / 'swabhAvaprabhavairguNaiH'
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’स्वभावप्रभवैर्गुणैः’ / 'swabhAvaprabhavairguNaiH' - स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा,
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अध्याय 18, श्लोक 41 ,
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ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः
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(ब्राह्मणक्षत्रियविशाम् शूद्राणाम् च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैः गुणैः ॥)
भावार्थ :
हे परंतप (अर्जुन)! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त / निर्धारित किए गए हैं ।
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’स्वभावप्रभवैर्गुणैः’ / 'swabhAvaprabhavairguNaiH'
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Chapter 18, shloka 41,
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brAhmaNakShatryavishAM
shUdrANAM cha parantapa |
karmANi pravibhaktAni
swabhAvaprabhavairguNaiH ||
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Meaning : The duties of one belonging to the spiritual, warrior, merchant or the service class are distinguished according to their own specific natural qualities / inborn tendencies and in accordance with the material mode (guNa) they are born with.
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आज का श्लोक, ’स्वभावः’/'swabhAvaH'

आज का श्लोक, ’स्वभावः’/'swabhAvaH'
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’स्वभावः’/'swabhAvaH' - जन्म, जाति, वर्ण आदि से प्राप्त हुई प्रवृत्तियाँ, संस्कार, ’जीव-भाव’
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अध्याय 5, श्लोक 14,
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न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न  कर्मफलसंयोगं  स्वभावस्तु  प्रवर्तते ॥
--
(न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न  कर्मफलसंयोगं  स्वभावः तु प्रवर्तते ॥)
--
भावार्थ :
परमेश्वर न तो (मनुष्य में) कर्तृत्व की भावना उत्पन्न करते हैं, न वे (मनुष्य के द्वारा) घटित होनेवाले कर्मों का, और न ही इन कर्मफलों के परस्पर संयोग का सृजन करते हैं । यह तो स्वभाव ही है जो अपनी गतिविधि में सतत् क्रियाशील है ।
--
अध्याय  8, श्लोक 3,
--
श्री भगवान् उवाच :
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ॥
--
( अक्षम् ब्रह्म परमम्  स्वभावः अध्यात्म-उच्यते ।
भूत-भाव-उद्भवकरः विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ॥
--
भावार्थ :
ब्रह्म अर्थात् परमात्मा तो नित्य अविकारी है, जबकि स्वभाव (प्रवृत्तियों का विशिष्ट समूह जो किसी देह के अस्तित्व में आने के साथ कार्यशील हो उठता है), को ’अध्यात्म’ अर्थात् ’जीव-भाव’ कहा जाता है । यह स्वभाव ही भूतों के उद्भव और उनकी गतिविधियों का एकमात्र कारण है, और ’स्वभाव’ की इस प्रकार की प्रवृत्ति-विशेष (’विसर्ग’ -’विसृज्’) अर्थात् ’त्याग’ को ही ’कर्म’ का नाम दिया गया है ।
--
’स्वभावः’/'swabhAvaH' - The inherent tendencies of body-mind, one is born with. / nature of things.
Chapter 5, shloka 14,
--
na kartRtvaM na karmANi
lokasya sRjatiprabhuH |
na karmaphalasanyogaM
swabhAvastu pravartate ||
--
Meaning :
Neither the sense 'I am doer', nor the actions of men are decided by God, And nor God decides about what actions will bring when and what fruits. It is all in the nature of things that happen on their own.
--
’स्वभावः’/'swabhAvaH'  - The inherent tendencies of body-mind, one is born with. / nature of things.
--
Chapter 8, shloka 3,
--
akSharaM brahma paramaM
swabhAvo'dhyAtmamuchyate |
bhUtabhAvodbhavakaro
visargaH karmasanjnitaH ||
--
The
'akSharaM brahma' / Immutable Reality is the 'parama' / Absolute One, The function that gives rise to material forms and beings is called the 'adhyAtma' / 'spiritual'. And the process through which The Real manifests by means of material-forms and beings, is called 'karma' / action.
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Thursday, February 20, 2014

आज का श्लोक, ’स्वयम्’ / 'swayaM'

आज का श्लोक, ’स्वयम्’ / 'swayaM'
--
’स्वयम्’ / 'swayaM' - स्वयं,
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अध्याय 4, श्लोक 38,
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
त्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे  पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
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अध्याय 10, श्लोक 13,
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आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥
(आहुः त्वाम् ऋषयः सर्वे देवर्षिः नारदः तथा ।
असितः देवलः व्यासः स्वयं च एव ब्रवीषि मे ॥)
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(जैसा कि) आपके बारे में सभी ऋषि, असित, देवल,  व्यास, आदि सभी ऋषिगण, देवर्षि नारद, तथा  स्वयं आप भी कहते हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 15,
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स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥
(स्वयम् एव आत्मना आत्मानम् वेत्थ त्वम् पुरुषोत्तम ।
 भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते  ॥)
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भावार्थ :
हे भूतों को उत्पन्न करनेवाले, भूतों के ईश्वर, देवाधिदेव, जगत्स्वामी! आप स्वयं ही अपने-आपको अपने ही से जानते हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 75,
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व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्
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(व्यास-प्रसादात् श्रुतवान्-एतत्-गुह्यम्-अहम् परम् ।
योगं योगेश्वरात्-कृष्णात्-साक्षात्-कथयतः स्वयम् ॥)
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स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे जाते हुए इस परम गोपनीय योग को महर्षि श्री व्यासजी के अनुग्रह से (दिव्य-दृष्टि पाकर) मैंने स्वयं प्रत्यक्ष सुना ।
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’स्वयम्’ / 'swayaM' - oneself, myself, Himself, herself, yourself , themselves.   
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Chapter 4, shloka 38,
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na hi jnAnena sadRshaM
pavitramiha vidyate |
tatswayaM yogasaMsiddhaH
kAlenAtmani vindate ||
Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
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Chapter 10, shloka 13,
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AhustvAMRuShayaH sarve
devarShirnAradastathA |
asito devalo vyAso
swayaM chaiva bravIShi me ||
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Thus the seers call you, the divine sage nArada, and the other sages such as asita, devala, and The Great sage vyAsa also. And You Yourself also tell me the same.
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Chapter 10, shloka 15,
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swayaM-evAtmanAtmAnaM
vettha twaM puruShottama |
bhUtabhAvana bhUtesha
devadeva jagatpate ||
--
O Greatest of all individuals, O Lord of all creatures, O Lord of all Gods, O Lord of the entire universe! You alone know Yourself through Your own Intelligence, which is again but Your own inherent essential potency only.
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Chapter 18, shloka 75,
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vyAsaprasAdAchchhrutavAn-
etad-guhyamahaM paraM |
yogaM yogeshvarAtkRShNAt-
sAkShAtkathayataH swayaM  ||
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By the mercy of vyAsa, Having acquired the divine vision , I have heard these most confidential talks directly from the Lord of all yoga, shrIkRiShNa. And I myself before my own eyes, saw Him Himself imparting this to Arjuna.
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आज का श्लोक, 'स्वया' / 'swayA'

आज का श्लोक, 'स्वया'  / 'swayA'
__________________________
--
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेsन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया 
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(कामैः तैः तैः हृतज्ञानाः प्रपद्यन्ते अन्यदेवताः ।
तं तं नियमम् आस्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥)
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'स्वया'  / 'swayA' -  अपनी  ( 'स्व' - 'स्वा' तृतीया विभक्ति, एकवचन, 'प्रकृति' का विशेषण-पद)
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भावार्थ :
कामनाओं से जिनके ज्ञान और विवेकबुद्धि  (राग और संसार के प्रति सुखबुद्धि से ) हरे जा चुके हैं, वे मनुष्य अपनी प्रकृति से प्रेरित होकर, उस उस नियम (संस्कार) के द्वारा नियत किए जाकर, उनसे वशीभूत हुए अपनी कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से (मुझ परमेश्वर को भूलकर) अन्य अन्य देवताओं की उपासना  किया करते हैं ।
--
'स्वया'  / 'swayA'
--Chapter 7, shloka 20,
--
kAmastaistairhRtajnAnAH
prapadyante'nyadevatAH |
taM taM niyamamAsthAya
prakRtyA niyatAH swayA |
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'स्वया'  / 'swayA' - of oneself, one's own.
Meaning :
Because of their desire for worldly pleasures, they lose clarity of mind, forget Me, and goaded by their own inherent nature try to seek fulfillment of their wishes, desires by propitiating those other Gods.
--  
     

आज का श्लोक, 'स्वर्गतिम्' /'swargatiM'

आज का श्लोक, 'स्वर्गतिम्'  /'swargatiM
______________________________
अध्याय 9, श्लोक 20,
-- 
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक -
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥
--
(त्रैविद्याः  माम् सोमपाः पूतपापाः 
यज्ञैः इष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यम् आसाद्य सुरेन्द्रलोकम्
अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥)
--
'स्वर्गतिम्'  / 'swargatiM' - स्वर्ग को (प्राप्त करना) । 
भावार्थ :
तीनों वेदों में वर्णित विधि विधान के अनुसार अभीष्ट की प्राप्ति हेतु यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले, सोमपान करनेवाले, पापशून्य मनुष्य, जो पापों का प्रायश्चित / प्रक्षालन कर चुके हैं, इन यज्ञों के माध्यम से मेरी प्रार्थना कर अपने इन अर्जित पुण्यों के फल से स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं और स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को  भोगते हैं ।
--
'स्वर्गतिम्'  / 'swargatiM
--
Chapter 9, shlok 20,
traividyA mAM somapAH pUtapApA
yajnairiShTwA swargatiM prArthayante |
te puNyamAsAdya surendralokaM-
ashnanti divyAndivi devabhogAn ||
--
'स्वर्गतिम्'  / 'swargatiM' - attaining the heaven.
--
Meaning :
Those learned in three vedas, who get the taste of 'soma' acquire merits and are cleansed of the sins, worship and pray me by means of the sacrifices according to the way as is instructed in vedas, attain the heaven and enjoy the celestial pleasures there.
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Wednesday, February 19, 2014

आज का श्लोक, 'स्वर्गद्वारं' / 'swargadwAraM'

आज का श्लोक, 'स्वर्गद्वारं' /  'swargadwAraM'
___________________________________
अध्याय 2, श्लोक 32,
-- 
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्  ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
--
(यदृच्छया  च उपपन्नं स्वर्गद्वारम् अपावृतम्  ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धम्-ईदृशम् ॥
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'स्वर्गद्वारं' /  'swargadwAraM- स्वर्ग के प्रवेश-द्वार
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस प्रकार से अनायास प्राप्त होनेवाला युद्ध का अवसर तो क्षत्रिय के लिए मानों संयोग से और अकस्मात् ही अपने लिए खुले साक्षात्  स्वर्ग के प्रवेश-द्वार होते हैं, जिसमें अपने कर्तव्य का निर्वाह अर्थात् युद्ध करते हुए क्षत्रिय सुखपूर्वक  स्वर्ग की प्राप्ति कर लेते हैं ।
--
'स्वर्गद्वारं' /  'swargadwAraM'
--
Chapter 2, shloka 32,
--
yadRchchhayA chopapannaM
swargadwAraM-apAvRtaM |
sukhinaH kShatriyAH pArtha
labhante yuddhamIdRshaM ||
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'स्वर्गद्वारं' /  'swargadwAraM' - The gates to heaven .
Meaning :
O pArtha (Arjuna)! Fortunate is the warrior (kshatriya) who gets such an opportunity by his sheer luck, if he has a chance to fight in the battle for a right cause only. Because the war is imposed upon him, and not that he has imposed this on helpless enemies and so fighting for some petty selfish cause only.
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आज का श्लोक, 'स्वर्गपराः' / 'swargaparAH'

आज का श्लोक, 'स्वर्गपराः' /  'swargaparAH'
__________________________________
अध्याय 2, श्लोक 43,

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
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(काम-आत्मानः स्वर्गपराः जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलाम्  भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥)
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'स्वर्गपराः' /  'swargaparAH' - वे लोग जो स्वर्ग के सुखों की लालसा रखते हैं ।
भावार्थ :
जिनकी बुद्धि स्वर्गीय समझे जानेवाले कामोपभोग के सुखों की लालसा से मोहित है, जो जन्म-पुनर्जन्मों में अपने कर्मों के फलों की प्राप्ति होने के प्रति आश्वस्त हैं, और जो इस हेतु अनेक प्रकार के अनुष्ठानों में लगे रहते हैं ताकि उन ऐश्वर्य तथा उनके सुखों की और गति हो ।
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'स्वर्गपराः' /  'swargaparAH'
--
Chapter 2, shloka 43,
--
kAmAtmAnaH swargaparAH
janmakarmaphalapradAM |
kriyAvisheShabahulAM
bhogaishvaryagatiM prati ||
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'स्वर्गपराः' /  'swargaparAH' -
Those who are after the pleasures and are so blinded that they believe to have them in heaven (after their death, because of the various rituals they have performed while they were alive).
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Meaning : Those obsessed with the worldly pleasures, and hope to have them in heaven in future also after their death, those who are engaged in performing various rituals to ascertain the same.
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आज का श्लोक, 'स्वर्गलोकं' / 'swargalokaM'

आज का श्लोक, 'स्वर्गलोकं' / 'swargalokaM'
_________________________________
अध्याय 9, श्लोक 21,
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'स्वर्गलोकं' / 'swargalokaM' - स्वर्गलोक, जहाँ मनुष्य मृत्यु के बाद अपने शुभ कर्मों के फलों का उपभोग करता है ।
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ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं            त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
--
(ते तम्  भुक्त्वा स्वर्गलोकम् विशालम्
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं            त्रयीधर्मम् अनुप्रपन्नाः
गतागतम्  कामकामाः लभन्ते ॥
--
भावार्थ :
वे कामोपभोगों की इच्छा रखनेवाले, मृत्युलोक और स्वर्ग नरक आदि लोकों में आवागमन करते रहने-वाले, तीनों वेदों में वर्णित सकाम कर्मों का आश्रय लेनेवाले, मृत्यु होने पर विशाल स्वर्गलोक में जाने के बाद वहाँ अपने पुण्यों अर्थात् स्वर्गलोक (के भोगों) को भोगकर, पुण्यों के क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में लौट जाते हैं ।
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'स्वर्गलोकं' / 'swargalokaM' - heavens.
--
Chapter 9, shloka 21,
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te taM bhuktvA swargalokaM vishAlaM
kShINe puNye martyalokaM vishanti |
evaM trayIdharmanuprapannA
gatAgataM kAmakAmA labhante ||
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Those who prompted by the desires of enjoying pleasures perform various sacrifices, accordingly as is instructed in the 3 vedas, do go to heaven and enjoy those pleasures there, as the fruits of the merits of such sacrifices. But when their fruits of such merits are exhausted, they fall to the world of mortals again and again.
--

 
      

Tuesday, February 18, 2014

~~साङ्ख्य और ज्ञान~~

साङ्ख्य और ज्ञान 
________________
****************
आज का श्लोक,
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अध्याय 2, श्लोक 39,
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एषा तेsभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
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(एषा ते अभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः योगे तु इमाम् शृणु ।
बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबन्धम्  प्रहास्यसि ॥
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सभी वेदपरक शास्त्रों की यह समानता दृष्टव्य है, कि  वे अनुबंध-चतुष्टय की परंपरा का दृढ़ता से पालन करते हैं । गीता इसका अपवाद कैसे हो सकती है?
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प्रथम अध्याय में अर्जुन विषादग्रस्त होकर यह विचार करते हैं कि गुरुजनों और स्वबांधवों की हत्या कर प्राप्त होनेवालों उनके रक्त से सने राज्य, ऐश्वर्य और सुखादि के भोगों को भोगने से तो पाप ही होगा, और इससे अच्छा तो यही होगा, कि भिक्षान्न से जीवनयापन कर लिया जाए । वे जीवन-यापन के बारे में सोच रहे थे, न कि संसार की नश्वरता के बोध से उत्पन्न वैराग्य-बुद्धि के कारण भिक्षान्न से निर्वाह करते हुए 'मुक्ति' की प्राप्ति के उद्देश्य को पूर्ण करने से प्रेरित होकर ऐसा कह रहे थे । 
अर्जुन यद्यपि श्रेष्ठतत्व की प्राप्ति के पात्र थे, किन्तु उनका ऐसा सोचना क्षणिक भावुकता का अतिरेक ही था, जो उन परिस्थितियों की तात्कालिक प्रतिक्रिया मात्र था । न कि उनके अपने क्षत्रियवर्ण के संस्कारों से उत्पन्न स्वाभाविक प्रवृत्ति । और न ही शायद भगवान् श्रीकृष्ण को उनसे ऐसी अपेक्षा रही होगी । किन्तु भगवान्  ने देखा कि लोहा गर्म है, तो उस पर चोट करने का यही उचित समय है ।
इसलिए द्वितीय अध्याय के पूर्वार्द्ध में उन्होंने अर्जुन को साङ्ख्य-दर्शन का सारतत्व बतलाया, और इसी अध्याय के उत्तरार्द्ध में ज्ञानयोग का सारतत्व । इस प्रकार श्री भगवान्  ने 'अधिकारी' अर्जुन को विषय, एवं 'प्रयोजन' के बारे में इस अध्याय के प्रथम आधे भाग में बतलाया, और 'संबंध' के बारे में दूसरे आधे भाग में । इसलिए 'गीता' का किसी एक या अन्य प्रकार के 'योग' पर शेष से अधिक आग्रह है, ऐसा निष्कर्ष निकालना त्रुटिपूर्ण और अनुचित होगा । वे सभी प्रकार के योग 'पात्रता' के अनुसार साधक की योग्यता और परिपक्वता, संस्कारों, स्थान-काल आदि के परिप्रेक्ष्य से ही व्यवहार्य हैं ।
यहाँ प्रस्तुत श्लोक के बारे में यही कहा जा सकता है, कि गीता के ज्ञान और शिक्षाओं को व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग में लाने हेतु 'दर्शन' अर्थात् 'सिद्धांत' (theory) और व्यवहार (practice)  दोनों का एक जैसा समान, और अपरिहार्य महत्व है ।
और इसीलिए यह श्लोक (अध्याय 2 का श्लोक 39) एक ऐसा प्रस्थान-बिंदु है जो देहरी-दीपक न्याय के अनुसार भीतर-बाहर दोनों ओर प्रकाश देता है ।
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अध्याय 3 से 18 तक इसी विषय को विस्तार से स्पष्ट किया गया है । जैसे किसी 'theme' को 'unfold' और 'develop' किया जाता है, वैसे ही गीता के प्रधान विषय को भगवान्  श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में इंगित से और अन्यत्र  विस्तारपूर्वक कहा है ।
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Monday, February 17, 2014

आज का श्लोक, 'स्वर्गं' / 'swargaM'

आज का श्लोक,  'स्वर्गं' / 'swargaM'
___________________________
'स्वर्गं' / 'swargaM' - स्वर्गलोक, मनुष्य जहाँ शुभ कर्मों के फलों का उपभोग करता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 37,
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हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय  कृतनिश्चय ॥
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(हतः वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय ॥)
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भावार्थ :
मार डाले जाने पर तू स्वर्ग प्राप्त करेगा, और यदि विजयी हुआ तो राज्य-सुख का उपभोग करेगा । इसलिए हे कौन्तेय (अर्जुन)! युद्ध के लिए कृतनिश्चय होकर उठ खड़े होओ ।
--
*
'स्वर्गं' / 'swargaM'
*
Chapter 2, shloka 37,
--
hato vA prApsyasi swargaM
jitvA vA bhokShyase mahIM |
tasmAduttiShTha kaunteya
yuddhAya kRtanishchaya ||
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Meaning :
Kaunteya (Arjuna)! Engaged in war if you are killed on the battle-ground, you will attain heaven. And, on the other hand, if you win, you will be the ruler of the land. Therefore, get up, fight with determination.
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~~धर्म क्या है?~~

धर्म क्या है?
--
गीता अध्याय 2, श्लोक 39 एवं श्लोक 40, ठीक वह बिंदु है, जिस पर हमारे तमाम 'विचारवादियों' राजनीतिक-दर्शन के और समाज-शास्त्र के अध्येताओं, बुद्धिजीवियों को अवश्य ध्यान देना चाहिए । क्योंकि यह 'धर्म' क्या है? इसे समझने में अत्यधिक सहायता करता है । यूँ तो यह धर्म की संशयरहित और स्पष्ट व्याख्या है, किन्तु  इसे संकेत मात्र के रूप में भी इस रूप में ग्रहण किया जा सकता है कि 'धर्म' वेदविहित चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम धर्म की इस परिभाषा को न भूलें, तो धर्मों के बारे में चल रहे विभिन्न विवाद प्रारंभ ही नहीं होंगे ।
गीता और वेद के अनुसार 'धर्म' मनुष्य के चार प्रमुख 'पुरुषार्थों' में से एक है । वे चार पुरुषार्थ क्रमशः :
'धर्म',
'अर्थ',
'काम', तथा
'मोक्ष' हैं ।
इनमें से प्रत्येक के बारे में बौद्धिक स्तर पर संतोषजनक रूप से चर्चा की जा सकती है, और 'धर्म' और 'रिलीज़न' के बारे में हमारी दृष्टि स्पष्ट हो सकती है ।
धर्म के बारे में हमारी दृष्टि स्पष्ट न होने से समूची मनुष्यता अत्यंत संकटग्रस्त है । हम 'धर्म' क्या है इस बारे में ही बहुत अधिक अनिश्चित और परस्पर विरोधी धारणाओं के शिकार हैं, इसलिए 'धर्म' हमारे लिए दुराग्रह राजनीतिक कपट, और हठ मात्र बनकर रह गया है । विभिन्न परंपराओं, रूढ़ियों, मान्यताओं को 'धर्म' का दर्ज़ा दे दिया गया है और कहा जाता रहा है कि सब धर्म समान हैं । लेकिन जब हम 'धर्म' को एक 'पुरुषार्थ' के रूप में ग्रहण करते हैं, तो 'सब' का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है? 'धर्म' क्या है इस बारे में अस्पष्टता और मत-वैभिन्न्य के कारण मानव-मानव के बीच ऐसी टकराहट और भेदभाव हैं कि एक भ्रम ही बना रहता है ।और इसलिए कुछ लोग 'धर्मनिरपेक्ष' हो जाते हैं । लेकिन वह एक नकारात्मक सोच ही तो हुई !
वेद के अनुसार तो 'धर्म' भी, 'अर्थ', 'काम' और 'मोक्ष' जैसा ही एक अन्य पुरुषार्थ मात्र है । 'धर्म' तो 'प्रयास' है । 
इसलिए परंपरा, मान्यता, विचार एवं सिद्धान्त धर्म नहीं हो सकते वे धर्म के प्रेरक भर हो सकते हैं।  
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आज का श्लोक, 'स्वल्पं' / 'swalpaM'

आज का श्लोक, 'स्वल्पं' / 'swalpaM'
___________________________
अध्याय 2, श्लोक 40,
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'स्वल्पं' / 'swalpaM' - थोड़ा सा,
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नेहाभिक्रमनाशोsति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमपि अस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
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(न-इह अभिक्रम-नाशः अस्ति प्रत्यवायः न विद्यते ।
स्वल्पम् अपि अस्य धर्मस्य त्रायते महतः भयात् ॥ --
--
भावार्थ :
इस धर्म अर्थात् पुरुषार्थ* में एक बार संलग्न हो जाने के बाद मनुष्य इस मार्ग से कभी भटकता नहीं, बल्कि श्रेयस् की प्राप्ति होने तक निरंतर प्रयासरत रहता है । इस पुरुषार्थ का प्रारंभ है और लक्ष्य भी है जिस तक पहुँचने के लिए किए जाने वाले प्रयास अनवरत जारी रहता है । इसलिए धर्म अर्थात् पुरुषार्थ* का अल्पमात्र भी बड़े से बड़े भय से भी रक्षा करता है ।
--
(टिप्पणी : इस श्लोक से पूर्व का श्लोक ठीक वह बिंदु है जो 'सांख्य-योग' और 'ज्ञान-योग' की अवधारणा के बीच की विभाजन-रेखा है । गीता के अध्याय 2, श्लोक 39 में कहा गया है -
देखिए अध्याय 2, श्लोक 39)
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'स्वल्पं' / 'swalpaM' - a very small quantity / amount of,
--
Chapter 2, shloka 40,
*
nehAbhikramanAsho'sti
pratyavAyo na vidyate |
swalpaM-api asya dharmasya
trAyate mahato bhayAt ||
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Meaning :
Once this path of 'dharma'* is owned, there is no chance of failure, there is no loss of the progress one has done, there are no hurdles on the way and even a little of this path saves one from even the greatest dangers.
--
*Note :
In this shloka the term 'dharmasya' means 'of the endeavor'; In veda, 'dharma' is one of the four major goals of a life that lead one to the ultimate perfection.
'dharma', 'artha'. 'kAma', and 'mokSha'.
These four are the four 'puruShArtha' one needs to attempt, if one desires to reach the ultimate meaning, significance and goal of life.
'dharma' is therefore no mythology, rituals, customs and religious practices, 'dharma'  is what takes one to the Ultimate Truth, Reality of Self and Being. 'artha' is needed to run a healthy and affluent life. 'kAma' is needed for fulfilling the purpose of progeny, and not for 'pleasure'. 'mokSha' is 'Liberation' from ignorance about 'self' and 'Self' and also from sorrow and bondage.
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Sunday, February 16, 2014

आज का श्लोक, 'स्वस्ति'/'swasti'

आज का श्लोक,  'स्वस्ति'/'swasti'
______________
अध्याय 11, श्लोक 21,

'स्वस्ति'/'swasti' - सु+अस्ति - शुभ, मंगल, कुशल, कल्याण  ।
*
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
--
(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
--
भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
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'स्वस्ति'/'swasti' - May everything be well and auspicious.
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Chapter 11, shlok 21,
amI hi twAM srasanghA vishanti
kechidbhItAH prAnjalayo gRNanti |
swastItyuktwA maharShisiddhasanghAH
stuvanti tvAM stutibhiH puShkalAbhIH ||
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Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
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Saturday, February 15, 2014

आज का श्लोक, 'स्वस्थः'/'swasthaH'

आज का श्लोक,  'स्वस्थः'/'swasthaH'
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अध्याय 14, श्लोक 24,
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समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥
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(समदुःखसुखः स्वस्थः सम-लोष्ट-अश्म-काञ्चनः ।
 तुल्य-प्रिय-अप्रियः धीरः तुल्य-निंदा-आत्म-संस्तुतिः ॥)
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'स्वस्थः'/'swasthaH' - आत्मभाव में नित्यस्थित
भावार्थ :
जो सुख एवं दुःख को समान दृष्टि  देखता हो, निरंतर और सदा आत्मभाव में अवस्थित रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्थर व स्वर्ण जिसके लिए एक समान हैं, प्रिय और अप्रिय को एक ही भाँति ग्रहण करता हो, धैर्यशील तथा अपनी प्रशंसा निंदा आदि को तुल्यभाव से देखता हो ।
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'स्वस्थः'/ 'swasthaH' - having well-settled in the 'Self' / 'Atman'.
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Chapter 14, shloka 24,
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samaduHkhasukhaH swasthaH
samaloShTAshmakAnchanaH |
tulyapriyApriyo dhIras-
tulyanindAtmasanstutiH ||
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Meaning :
One who accepts the pains and pleasure with the same attitude, who is well-settled in the 'Self', who views a lump of clay, a stone or gold in the same manner, who treats the pleasant and unpleasant, and the praise and the condemnation also in the same indifferent manner.
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आज का श्लोक, 'स्वस्याः' / 'swasyAH'

आज का श्लोक, 'स्वस्याः' / 'swasyAH'
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अध्याय 3, श्लोक 33, 
'स्वस्याः' / 'swasyAH' - अपनी,
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सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि  निग्रहः किं करिष्यति ॥
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(सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेः ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि  निग्रहः किं करिष्यति ॥)
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भावार्थ :
सभी प्राणी अपनी विशिष्ट प्रकृति अर्थात् संस्कारों से परिचालित होकर ही भिन्न भिन्न चेष्टाएँ करते हैं, यहाँ तक कि ज्ञानी भी । वे अपनी प्रकृति ओर ही गतिशील होते हैं इस पर कोई नियंत्रण कैसे करेगा?
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'स्वस्याः' / 'swasyAH' - one's very own.
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Chapter 3, shloka 33,
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sadRshaM cheShTate swasyAH
prakRterjnAnavAnapi |
prakRtiM yAnti bhUtAni
nigrahaM kiM kariShyati ||
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Meaning :
All beings, even a wise one, behave according to their innate nature, and tend to reach the same, how can one check this and go to any way other than this?
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आज का श्लोक, 'स्वं' / 'swaM'

आज का श्लोक, 'स्वम्' / 'swaM'
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'स्वम्' / 'swaM' -  अपने ,
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अध्याय 6, श्लोक 13
समं कायशिरोग्रीवं  धारयन्नचलं  स्थिरं ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
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(समं कायशिरोग्रीवं  धारयन् अचलं  स्थिरं ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वम् दिशः च अनवलोकयन् ॥
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भावार्थ :
काया, सिर तथा गर्दन को सीधा और अचल रखते हुए,  दिशाओं को न देखते हुए अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखे ।
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'स्वम्' / 'swaM' - One's own,
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Chapter 6, shloka 13,
samaM kAyashirogrIvaM
dhArayannachalaM sthiraH |
saMprekShya nAsikAgraM
swaM dishashchAnavalokayan ||
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Meaning :
While practicing meditation, make sure the body, the head, and the neck are erect and motionless, the attention (externally) is withdrawn from all the other directions and is fixed onto the tip of the nose.
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Friday, February 14, 2014

आज का श्लोक, 'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः' / swAdhyAyajnAnayajnAH'

आज का श्लोक, 'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः' / 'swAdhyAyajnAnayajnAH'
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अध्याय 4, श्लोक  28,
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'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः' / 'swAdhyAyajnAnayajnAH' -स्वाध्यायरूपी ज्ञानयज्ञ 
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द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥
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(द्रव्ययज्ञाः तपोयज्ञाः  योगयज्ञाः तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः च यतयः संशितव्रताः ॥)
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भावार्थ :
कुछ लोग द्रव्य से संबंधित यज्ञ करते हैं, कुछ योगरूपी यज्ञ, अन्य कुछ स्वाध्याय तथा ज्ञान रूपी यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, जबकि कुछ तीक्ष्ण और कठिन व्रतों वाले यज्ञ करते हैं।
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'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः' / 'swAdhyAyajnAnayajnAH'
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Chapter 4, shloka 28,
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dravyayajnAstapoyajnA
yogayajnAstathApare |
swAdhyAyajnAnayajnAshcha
yatayaH sanshitavratAH ||
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'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः' / 'swAdhyAyajnAnayajnAH' -
sacrifice in the form of efforts made to know the 'brahman' as 'jnAna' (prajnAnaM brahma).
Meaning :
Some perform sacrifice by means of offering the materials, either in sacrificial Fires or donating the same to the needy and eligible recipients, Some observe austerities, others follow the path of yoga, while aspirants of Reality perform meditating upon 'brahman', studying scriptures, and still others do penance and rituals.
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Thursday, February 13, 2014

आज का श्लोक, 'स्वाध्यायः' / 'swAdhyAyaH'

आज का श्लोक, 'स्वाध्यायः' / 'swAdhyAyaH'
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अध्याय 16, श्लोक 1,
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अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप  आर्जवम ॥
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(अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञान-योग-व्यवस्थितिः ।
दानं दमः च यज्ञः च स्वाध्यायः तपः आर्जवम ॥)
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'स्वाध्यायः' / 'swAdhyAyaH -
('स्व+अधि+अयनं ' -
'स्व' अर्थात् 'मैं', 'अहं', जिस शब्द को हमारे यथार्थ तत्व और आभासी परिचय दोनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
'अधि' अर्थात् जो पूर्व से विद्यमान है।
'अयनं' अर्थात् 'की दिशा में जाना' / 'अनुसन्धान'
इसलिए स्वाध्याय का तात्पर्य हुआ 'आत्मानुसंधान' जिसे बोलचाल के शब्दों में कहेंगे :
'मैं कौन (हूँ)?' इस बारे में जिज्ञासा होना  / जानना समझना ।)
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भावार्थ :
निर्भयता, चित्तशुद्धि (संशयरहित बुद्धि), और ज्ञान-योगसाधना में भलीभाँति संलग्न रहना, दान, इंद्रियों और मन पर नियंत्रण होना, यज्ञकर्म, स्वाध्याय तप और मन-बुद्धि की निश्छलता।
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'स्वाध्यायः' / 'swAdhyAyaH''
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Chapter 16, shloka 1,
abhayaM sattva-sanshuddhir-
jnAnayogavyavasthitiH |
dAnaM damashcha yajnashcha
swAdhyAyaH tapa ArjavaM ||
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'स्वाध्यायः' / 'swAdhyAyaH' - 'Self-Enquiry',
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Meaning :
Absence of fear, purity of mind, perseverance in 'Self-Enquiry' and consistent practice of keeping attention fixed in the Self, meditating upon this 'Self', charity, self-control, sacrifice, study of scriptures with a view to understand the nature of the 'Self', austerity, clarity and simplicity of mind.
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आज का श्लोक, 'स्वाध्यायाभ्यसनम्' / 'swAdhyAyAbhyasanaM'

आज का श्लोक, 'स्वाध्यायाभ्यसनम्' / 'swAdhyAyAbhyasanaM'
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'स्वाध्यायाभ्यसनम्' / 'swAdhyAyAbhyasanaM' -
('स्व+अधि+अयनं ' -
'स्व' अर्थात् 'मैं', 'अहं', जिस शब्द को हमारे यथार्थ तत्व और आभासी परिचय दोनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
'अधि' अर्थात् जो पूर्व से विद्यमान है।
'अयनं' अर्थात् 'की दिशा में जाना' / 'अनुसन्धान'
इसलिए स्वाध्याय का तात्पर्य हुआ 'आत्मानुसंधान' जिसे बोलचाल के शब्दों में कहेंगे :
'मैं कौन (हूँ)?' इस बारे में जिज्ञासा होना  / जानना समझना ।
'अभ्यसनम्' -
'अभि' अर्थात् 'भलीभाँति', सुचारु रूप से।
'असनं' = 'अस्' धातु, + 'शानच्' प्रत्यय , अर्थात 'में स्थित रहना'  ।
इस प्रकार 'स्वाध्यायाभ्यसनम्' का अर्थ हुआ :
  'आत्मानुसंधान' करना और 'आत्मा' के सम्यक् स्वरूप में निमग्न रहना ।
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अध्याय 17, श्लोक 15,
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अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनम् चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
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(अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्याय-अभ्यसनम् च एव वाङ्मयं तप उच्यते ॥)
भावार्थ :
वाणी के स्तर पर किए जानेवाले 'तप' के अंतर्गत अपनी वाणी को ऐसा रखना जो किसी के लिए उद्वेगकारी न हो, जिसमें मिथ्यावचन न कहे जाएँ, जो सबके लिए हितकारी तथा प्रिय हो, तथा जिसमें आत्म-जिज्ञासा संबंधी ग्रंथों का पठन -पाठन एवं चिंतन-मनन आदि होता हो ।
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'स्वाध्यायाभ्यसनम्' / 'swAdhyAyAbhyasanaM' -
'Self-Enquiry', 'Self-knowledge' 'Self-Realization' and 'Self-abidance'.
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Chapter 17, shloka 15,
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anudvegakaraM vAkyaM
satyaM priyahitaM cha yat |
swAdhyAyAbhyasanaM chaiva
vAngamayaM tapa uchyate ||
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Meaning :
The austerities of words spoken or thought, that one should observe include speaking truth, speaking what does not cause distress to oneself as well as to others, which are helpful to all and soothing. And of the words of scriptures, that one need to study, contemplate and meditate upon. Repetition and chanting of the Mantras that makes the mind pure and full of devotion .
                             

Wednesday, February 12, 2014

आज का श्लोक, 'स्वाम्' / 'swAM'

आज का श्लोक,  'स्वाम्' / 'swAM'
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'स्वाम्' / 'swAM'- अपने स्वयं के,
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अध्याय 4, श्लोक 6,
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अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
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(अजः अपि  सन् अव्यय-आत्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् ।
प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय संभवामि आत्म-मायया ॥)
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भावार्थ :
जन्मरहित और अविनाशी स्वरूपवाला परम-आत्मा होते हुए भी होते हुए भी, जन्म लेनेवाले और मर जानेवाले समस्त प्राणियों का नियमन करनेवाला होने से, मैं अपनी (त्रिगुणात्मिका) प्रकृति के माध्यम से अपनी आत्ममाया को धारण करता हुआ उसके अन्तर्गत देहधारी की तरह व्यक्त हो उठता हूँ ।
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अध्याय 9, श्लोक 8,
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प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥८
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(प्रकृतिम् स्वाम्-अवष्टभ्य वि-सृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामम्-इमम् कृत्स्नम्-अवशम् प्रकृतेः वशात् ॥)
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भावार्थ :
अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इस सारे भूत-समुदाय की बारंबार रचना (और संहार) करता हूँ क्योंकि यह संपूर्ण समुदाय प्रकृति के गुणों से वशीभूत है ।
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'स्वाम्' / 'swAM' - One's own,
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Chapter 4, shloka 6,
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ajo'pi sannavyayAtmA
bhUtAnAmIshvaro'pi san |
prakRtiM swAM-adhiShThAya
saMbhavAmyAtmamAyayA ||
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Meaning :
Though ever unborn and immutable, with the support of My (threefold) 'prakRti' (name and form), I manifest Myself through My own 'mayA' (Divine power).
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Chapter 9, shloka 8,
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prakRtiM swAmavaShTabhya
visRjAmi punaH punaH |
bhUtagrAmamimaM kRtsna-
mavashaM prakRtervashAt ||
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Meaning :
With the support of My prakRti (Material-aspect), I (Consciousness-aspect) repeatedly create (and again withdraw them in My-self) these beings, whenever I manifest Myself as Creation (SRShTi) and dissolution (pra-laya) of the Existence. These beings, being governed by the 3 qualities inherent in prakRti, are subject to repeated births and deaths accordingly.
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आज का श्लोक, ’स्वे’/ 'swe'

आज का श्लोक  / ’स्वे’/ 'swe
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’स्वे’ / अपने भीतर स्थित ।
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है ।अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए  उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, इसे सुनो ।
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’स्वे’/ 'swe' - one's own.
Chapter 18, shloka 45,
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swe swe karmaNyabhirataH
saMsiddhiM labhate naraH |
swakarmanirataH siddhiM
yathA vindati tachchhruNu ||
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When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal, perfection. Now listen to, how one attains this while performing his own duties in the right way,
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इस ब्लॉग के बारे में / About this Blog.

इस ब्लॉग के बारे में / About this Blog.
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गीता मैं वर्ष 1968 से पढ़ता रहा हूँ । 
मुझे संस्कृत पढ़ने का शौक था, और गीता पढ़ने में यूँ ही मजा आता था । 
तब मैं कक्षा 9 उत्तीर्ण  था । फिर सोचा कि क्यों न गीता के श्लोकों का 'अर्थ' भी समझा जाए ।  
फिर मैंने श्लोकों को अपनी बुद्धि के अनुसार 'समझना' शुरू किया । 
फिर 'संस्कृत' को समझने की आवश्यकता अनुभव की तो धीरे धीरे संस्कृत का ज्ञान भी गीता से ही प्राप्त किया / हुआ । 
संस्कृत के उसी प्रारंभिक ज्ञान  से मुझे संस्कृत के व्याकरण का ज्ञान हुआ ।
"रामः रामौ रामः" एवं "पठति पठतः पठन्ति" से 'संज्ञा' और क्रियापदों का रूप कैसे बनता है, यह समझने के बाद मुझे बहुत मजा आने लगा। 
गीता पढ़ने में 'संधि' और 'समास' और श्लोक की छंद-रचना इतनी समझ में आ गई, कि गीता के हर श्लोक के हर शब्द का उस स्थान पर प्रयोग व्याकरण के अनुसार किस भूमिका में किया गया है, यह समझना आसान था ।
बाद के वर्षों में न जाने कितनी बार गीता को पढ़ा होगा, फिर उपनिषदों और कुछ अन्य ग्रंथों को भी इसी तरह पढ़ने समझने का यत्न किया ।
मुझे अनायास यह सूत्र समझ में आया, कि संस्कृत और गीता  पढ़ने / सीखने समझने का एक 'अनुशासन' है, जो अपने भीतर से ही आता है ।
बहुत दिनों से सोचता था कि गीता पर 'शब्दशः' लिखूँ । 
कुछ संयोग ऐसा बना कि एक दिन यह विचार साकार होकर इस ब्लॉग पर अवतरित हो उठा । 
आशा है ब्लॉग के प्रेक्षकों को इसमें कुछ पठनीय मिल सकेगा ।
सादर,

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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  ~~About this blog.~~
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I have been studying 'geetA' since 1968.
I loved to read Sanskrit, and reading 'geetA' was already a passion for me.
I had passed 9th class of my school. 
Then the idea of understanding the 'meaning' of 'geetA' came to my mind.
Then I started trying to 'understand' 'geetA' in my own way.
Then when I felt the need  of grasping / learning the elementary / essential Sanskrit of  'geetA', I acquired this 'knowledge of Sanskrit' too from 'geetA' Itself.
From this elementary knowledge of Sanskrit, I acquired the knowledge of the basic Sanskrit Grammar.
"रामः रामौ रामाः" "पठति पठतः पठन्ति"
"rAmaH rAmau rAmAH" and "paThati paThataH paThanti", 
helped me understand the form and structure of 'terms' /’पद’/ 'pada', of nouns (’संज्ञा’), ’gender (’लिङ्’), verb-roots (’धातु-रूप’), 'declensions' / conjugations (’विभक्ति’).
Studying 'geetA' I could now understand the formation / structure of compound-terms 'संधि' / 'समास' -the rules, and how to classify the same according to the purport of the text. It was so accurate and done precisely in 'geetA' and as a matter of fact in all other ancient Sanskrit texts also that I was always overjoyed by discovering this anew every time. I could instantly detect the grammatical nuances and the way how Sanskrit preserves the great 'communication' while elucidating the Great Truths of all times.
Afterwards, I went through UpaniShats and other Vedantika and Vedik-texts (Veda) and tried to grasp their essence.
I soon came to the firm conviction that 'Learning' Sanskrit and 'geetA' call for a 'discipline' of their own. And that 'aspiration' comes from the very core of your own very being.
An aspirant is one, who aspires for this kind of inspiration.
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Always longed for writing about 'geetA' that is a 'word-to-word' explanation of this Great Text.
Something triggered this thought in my mind that took the form of this blog.
Hope the viewers of this blog may find something of value from my posts.
Regards,
||shrIkRuShNArpaNamastu||
(Offered to Lord shrikriShNa)
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