Wednesday, February 26, 2014

आज का श्लोक, 'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH'

आज का श्लोक,   'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH'  
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'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH
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अध्याय 18, श्लोक 45,
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स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए  उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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(टिप्पणी - ’कर्म’ एक व्यापक तात्पर्ययुक्त पद है । मनुष्य अपने संस्कारों से प्रेरित हुआ कर्म-विशेष में प्रवृत्त होता है, वहीं दूसरी ओर कर्म जिसे वह करता है, वे भी उसके अज्ञानग्रस्त या ज्ञानयुक्त होने के अनुसार उसमें / उस पर अपने संस्कार छोड़ जाते हैं । यह है कर्म का दुष्चक्र । अज्ञानी के कर्म, इस दुष्चक्र-रूपी बंधन को दॄढ करते हैं, जबकि ज्ञानी के कर्म उसे नहीं बाँधते, और सिर्फ़ भोग-हेतु होते हैं जिन्हें वह ’प्रारब्धवश’ ही करता है । वे उसमें नए संस्कार नहीं उत्पन्न करते, और पुराने संस्कारों को भी क्षीण कर देते हैं । जब मनुष्य अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने विशिष्ट कर्म का सम्यक्-रूपेण आचरण करता है तो उसे ज्ञान-निष्ठा की प्राप्ति होती है ।
यहाँ यह समझना आसान है कि मनुष्य किसी विशिष्ट कुल या वातावरण में ही क्यों जन्म लेता है । अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर ही ऐसा करने हेतु वह बाध्य होता है । इसलिए इसमें ’वर्ण’ की अंशतः अपनी एक विशिष्ट भूमिका होने से इंकार नहीं किया जा सकता । और ज्ञान-निष्ठा तथा जीवन में ही ज्ञान-निष्ठा के माध्यम से मुक्ति पाने का अवसर मनुष्य-मात्र को है । वैदिक ’वर्ण-व्यवस्था’ की यदि इस आधार पर विवेचना की जाए तो हम समझ सकते हैं कि वेद किसी प्रकार का कोई आग्रह नहीं रखते और न विभिन्न वर्णों के बीच उच्च-नीच का भेद रखते हैं । वेद तो ’वर्ण-व्यवस्था’ को न माननेवालों या विरोधियों को भी उनके ’अपने धर्म’ पर आचरण करने का सुझाव देते हैं -
’श्रेयान्धर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ...गीता 3/35)
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'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH
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Chapter 18, shloka 45,
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'स्वकर्मनिरतः' / 'swakarmanirataH'  -  One, engaged in one's own allotted work.
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swe swe karmaNyabhirataH
saMsiddhiM labhate naraH |
swakarmanirataH siddhiM
yathA vindati tachchhruNu ||
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When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,… 
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