साङ्ख्य और ज्ञान
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आज का श्लोक,
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अध्याय 2, श्लोक 39,
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एषा तेsभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
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(एषा ते अभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः योगे तु इमाम् शृणु ।
बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबन्धम् प्रहास्यसि ॥
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सभी वेदपरक शास्त्रों की यह समानता दृष्टव्य है, कि वे अनुबंध-चतुष्टय की परंपरा का दृढ़ता से पालन करते हैं । गीता इसका अपवाद कैसे हो सकती है?
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प्रथम अध्याय में अर्जुन विषादग्रस्त होकर यह विचार करते हैं कि गुरुजनों और स्वबांधवों की हत्या कर प्राप्त होनेवालों उनके रक्त से सने राज्य, ऐश्वर्य और सुखादि के भोगों को भोगने से तो पाप ही होगा, और इससे अच्छा तो यही होगा, कि भिक्षान्न से जीवनयापन कर लिया जाए । वे जीवन-यापन के बारे में सोच रहे थे, न कि संसार की नश्वरता के बोध से उत्पन्न वैराग्य-बुद्धि के कारण भिक्षान्न से निर्वाह करते हुए 'मुक्ति' की प्राप्ति के उद्देश्य को पूर्ण करने से प्रेरित होकर ऐसा कह रहे थे ।
अर्जुन यद्यपि श्रेष्ठतत्व की प्राप्ति के पात्र थे, किन्तु उनका ऐसा सोचना क्षणिक भावुकता का अतिरेक ही था, जो उन परिस्थितियों की तात्कालिक प्रतिक्रिया मात्र था । न कि उनके अपने क्षत्रियवर्ण के संस्कारों से उत्पन्न स्वाभाविक प्रवृत्ति । और न ही शायद भगवान् श्रीकृष्ण को उनसे ऐसी अपेक्षा रही होगी । किन्तु भगवान् ने देखा कि लोहा गर्म है, तो उस पर चोट करने का यही उचित समय है ।
इसलिए द्वितीय अध्याय के पूर्वार्द्ध में उन्होंने अर्जुन को साङ्ख्य-दर्शन का सारतत्व बतलाया, और इसी अध्याय के उत्तरार्द्ध में ज्ञानयोग का सारतत्व । इस प्रकार श्री भगवान् ने 'अधिकारी' अर्जुन को विषय, एवं 'प्रयोजन' के बारे में इस अध्याय के प्रथम आधे भाग में बतलाया, और 'संबंध' के बारे में दूसरे आधे भाग में । इसलिए 'गीता' का किसी एक या अन्य प्रकार के 'योग' पर शेष से अधिक आग्रह है, ऐसा निष्कर्ष निकालना त्रुटिपूर्ण और अनुचित होगा । वे सभी प्रकार के योग 'पात्रता' के अनुसार साधक की योग्यता और परिपक्वता, संस्कारों, स्थान-काल आदि के परिप्रेक्ष्य से ही व्यवहार्य हैं ।
यहाँ प्रस्तुत श्लोक के बारे में यही कहा जा सकता है, कि गीता के ज्ञान और शिक्षाओं को व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग में लाने हेतु 'दर्शन' अर्थात् 'सिद्धांत' (theory) और व्यवहार (practice) दोनों का एक जैसा समान, और अपरिहार्य महत्व है ।
और इसीलिए यह श्लोक (अध्याय 2 का श्लोक 39) एक ऐसा प्रस्थान-बिंदु है जो देहरी-दीपक न्याय के अनुसार भीतर-बाहर दोनों ओर प्रकाश देता है ।
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अध्याय 3 से 18 तक इसी विषय को विस्तार से स्पष्ट किया गया है । जैसे किसी 'theme' को 'unfold' और 'develop' किया जाता है, वैसे ही गीता के प्रधान विषय को भगवान् श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में इंगित से और अन्यत्र विस्तारपूर्वक कहा है ।
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आज का श्लोक,
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अध्याय 2, श्लोक 39,
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एषा तेsभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
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(एषा ते अभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः योगे तु इमाम् शृणु ।
बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबन्धम् प्रहास्यसि ॥
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सभी वेदपरक शास्त्रों की यह समानता दृष्टव्य है, कि वे अनुबंध-चतुष्टय की परंपरा का दृढ़ता से पालन करते हैं । गीता इसका अपवाद कैसे हो सकती है?
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प्रथम अध्याय में अर्जुन विषादग्रस्त होकर यह विचार करते हैं कि गुरुजनों और स्वबांधवों की हत्या कर प्राप्त होनेवालों उनके रक्त से सने राज्य, ऐश्वर्य और सुखादि के भोगों को भोगने से तो पाप ही होगा, और इससे अच्छा तो यही होगा, कि भिक्षान्न से जीवनयापन कर लिया जाए । वे जीवन-यापन के बारे में सोच रहे थे, न कि संसार की नश्वरता के बोध से उत्पन्न वैराग्य-बुद्धि के कारण भिक्षान्न से निर्वाह करते हुए 'मुक्ति' की प्राप्ति के उद्देश्य को पूर्ण करने से प्रेरित होकर ऐसा कह रहे थे ।
अर्जुन यद्यपि श्रेष्ठतत्व की प्राप्ति के पात्र थे, किन्तु उनका ऐसा सोचना क्षणिक भावुकता का अतिरेक ही था, जो उन परिस्थितियों की तात्कालिक प्रतिक्रिया मात्र था । न कि उनके अपने क्षत्रियवर्ण के संस्कारों से उत्पन्न स्वाभाविक प्रवृत्ति । और न ही शायद भगवान् श्रीकृष्ण को उनसे ऐसी अपेक्षा रही होगी । किन्तु भगवान् ने देखा कि लोहा गर्म है, तो उस पर चोट करने का यही उचित समय है ।
इसलिए द्वितीय अध्याय के पूर्वार्द्ध में उन्होंने अर्जुन को साङ्ख्य-दर्शन का सारतत्व बतलाया, और इसी अध्याय के उत्तरार्द्ध में ज्ञानयोग का सारतत्व । इस प्रकार श्री भगवान् ने 'अधिकारी' अर्जुन को विषय, एवं 'प्रयोजन' के बारे में इस अध्याय के प्रथम आधे भाग में बतलाया, और 'संबंध' के बारे में दूसरे आधे भाग में । इसलिए 'गीता' का किसी एक या अन्य प्रकार के 'योग' पर शेष से अधिक आग्रह है, ऐसा निष्कर्ष निकालना त्रुटिपूर्ण और अनुचित होगा । वे सभी प्रकार के योग 'पात्रता' के अनुसार साधक की योग्यता और परिपक्वता, संस्कारों, स्थान-काल आदि के परिप्रेक्ष्य से ही व्यवहार्य हैं ।
यहाँ प्रस्तुत श्लोक के बारे में यही कहा जा सकता है, कि गीता के ज्ञान और शिक्षाओं को व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग में लाने हेतु 'दर्शन' अर्थात् 'सिद्धांत' (theory) और व्यवहार (practice) दोनों का एक जैसा समान, और अपरिहार्य महत्व है ।
और इसीलिए यह श्लोक (अध्याय 2 का श्लोक 39) एक ऐसा प्रस्थान-बिंदु है जो देहरी-दीपक न्याय के अनुसार भीतर-बाहर दोनों ओर प्रकाश देता है ।
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अध्याय 3 से 18 तक इसी विषय को विस्तार से स्पष्ट किया गया है । जैसे किसी 'theme' को 'unfold' और 'develop' किया जाता है, वैसे ही गीता के प्रधान विषय को भगवान् श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में इंगित से और अन्यत्र विस्तारपूर्वक कहा है ।
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