आज का श्लोक, ’स्वभावः’/'swabhAvaH'
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’स्वभावः’/'swabhAvaH' - जन्म, जाति, वर्ण आदि से प्राप्त हुई प्रवृत्तियाँ, संस्कार, ’जीव-भाव’
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अध्याय 5, श्लोक 14,
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न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
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(न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावः तु प्रवर्तते ॥)
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भावार्थ :
परमेश्वर न तो (मनुष्य में) कर्तृत्व की भावना उत्पन्न करते हैं, न वे (मनुष्य के द्वारा) घटित होनेवाले कर्मों का, और न ही इन कर्मफलों के परस्पर संयोग का सृजन करते हैं । यह तो स्वभाव ही है जो अपनी गतिविधि में सतत् क्रियाशील है ।
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अध्याय 8, श्लोक 3,
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श्री भगवान् उवाच :
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ॥
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( अक्षम् ब्रह्म परमम् स्वभावः अध्यात्म-उच्यते ।
भूत-भाव-उद्भवकरः विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ॥
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भावार्थ :
ब्रह्म अर्थात् परमात्मा तो नित्य अविकारी है, जबकि स्वभाव (प्रवृत्तियों का विशिष्ट समूह जो किसी देह के अस्तित्व में आने के साथ कार्यशील हो उठता है), को ’अध्यात्म’ अर्थात् ’जीव-भाव’ कहा जाता है । यह स्वभाव ही भूतों के उद्भव और उनकी गतिविधियों का एकमात्र कारण है, और ’स्वभाव’ की इस प्रकार की प्रवृत्ति-विशेष (’विसर्ग’ -’विसृज्’) अर्थात् ’त्याग’ को ही ’कर्म’ का नाम दिया गया है ।
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’स्वभावः’/'swabhAvaH' - जन्म, जाति, वर्ण आदि से प्राप्त हुई प्रवृत्तियाँ, संस्कार, ’जीव-भाव’
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अध्याय 5, श्लोक 14,
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न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
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(न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावः तु प्रवर्तते ॥)
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भावार्थ :
परमेश्वर न तो (मनुष्य में) कर्तृत्व की भावना उत्पन्न करते हैं, न वे (मनुष्य के द्वारा) घटित होनेवाले कर्मों का, और न ही इन कर्मफलों के परस्पर संयोग का सृजन करते हैं । यह तो स्वभाव ही है जो अपनी गतिविधि में सतत् क्रियाशील है ।
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अध्याय 8, श्लोक 3,
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श्री भगवान् उवाच :
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ॥
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( अक्षम् ब्रह्म परमम् स्वभावः अध्यात्म-उच्यते ।
भूत-भाव-उद्भवकरः विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ॥
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भावार्थ :
ब्रह्म अर्थात् परमात्मा तो नित्य अविकारी है, जबकि स्वभाव (प्रवृत्तियों का विशिष्ट समूह जो किसी देह के अस्तित्व में आने के साथ कार्यशील हो उठता है), को ’अध्यात्म’ अर्थात् ’जीव-भाव’ कहा जाता है । यह स्वभाव ही भूतों के उद्भव और उनकी गतिविधियों का एकमात्र कारण है, और ’स्वभाव’ की इस प्रकार की प्रवृत्ति-विशेष (’विसर्ग’ -’विसृज्’) अर्थात् ’त्याग’ को ही ’कर्म’ का नाम दिया गया है ।
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’स्वभावः’/'swabhAvaH' - The inherent tendencies of body-mind, one is born with. / nature of things.
Chapter 5, shloka 14,
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na kartRtvaM na karmANi
lokasya sRjatiprabhuH |
na karmaphalasanyogaM
swabhAvastu pravartate ||
--
Meaning :
Neither the sense 'I am doer', nor the actions of men are decided by God, And nor God decides about what actions will bring when and what fruits. It is all in the nature of things that happen on their own.
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’स्वभावः’/'swabhAvaH' - The inherent tendencies of body-mind, one is born with. / nature of things.
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Chapter 8, shloka 3,
--
akSharaM brahma paramaM
swabhAvo'dhyAtmamuchyate |
bhUtabhAvodbhavakaro
visargaH karmasanjnitaH ||
--
The
'akSharaM brahma' / Immutable Reality is the 'parama' / Absolute One, The function that gives rise to material forms and beings is called the 'adhyAtma' / 'spiritual'. And the process through which The Real manifests by means of material-forms and beings, is called 'karma' / action.
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Chapter 5, shloka 14,
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na kartRtvaM na karmANi
lokasya sRjatiprabhuH |
na karmaphalasanyogaM
swabhAvastu pravartate ||
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Meaning :
Neither the sense 'I am doer', nor the actions of men are decided by God, And nor God decides about what actions will bring when and what fruits. It is all in the nature of things that happen on their own.
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’स्वभावः’/'swabhAvaH' - The inherent tendencies of body-mind, one is born with. / nature of things.
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Chapter 8, shloka 3,
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akSharaM brahma paramaM
swabhAvo'dhyAtmamuchyate |
bhUtabhAvodbhavakaro
visargaH karmasanjnitaH ||
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The
'akSharaM brahma' / Immutable Reality is the 'parama' / Absolute One, The function that gives rise to material forms and beings is called the 'adhyAtma' / 'spiritual'. And the process through which The Real manifests by means of material-forms and beings, is called 'karma' / action.
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