आज का श्लोक / 'हन्ति' / 'hanti'
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'हन्ति' / 'hanti' - 'हन्' = मारना, हन्ति - मारता है।
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अध्याय 2, श्लोक 19,
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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
*
(य एनम् वेत्ति हन्तारम् यः च ऐनम् मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतः न अयम् हन्ति न हन्यते ॥)
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भावार्थ :
जो इस (आत्मा) को मारनेवाला मानता है, तथा जो इस (आत्मा) को मारा जानेवाला मानता है, वे दोनों यह नहीं जानते कि यह (आत्मा) न तो किसी को मारती है, और न ही इस (आत्मा) को कोई मार सकता है।
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अध्याय 2, श्लोक 21,
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वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
*
(वेद अविनाशिनं नित्यं यः एनम् अजम् अव्ययम् ।
कथम् सः पुरुषः पार्थ कम् घातयति हन्ति कम् ॥)
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भावार्थ :
जो (मनुष्य) यह जानता है कि यह (आत्मा) नित्य, अजन्मा और नाशरहित है, हे पार्थ ! वह मनुष्य कैसे किसी को भी मारने का यत्न कर सकता है, या सचमुच मार ही सकता है?
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अध्याय 18, श्लोक 17,
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यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
*
( यस्य न अहंकृतः भावः बुद्धिः यस्य न लिप्यते ।
हत्वा-अपि स इमान् लोकान् न हन्ति न निबध्यते ॥)
--
भावार्थ :
जिस मनुष्य के मन में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसी भावना नहीं है, और जिसकी बुद्धि इस भावना से अलिप्त होती है, वह इन समस्त लोकों को मारकर भी वस्तुतः न तो किसी की हत्या करता है, और न हत्या के इस पाप का भागी ही होता है ।
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'हन्ति' / 'hanti' - kills.
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Chapter 2, shloka 19,
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ya enaM vetti hantAraM
yashchainaM manyate hataM |
ubhau tau na vijAnIto
nAyaM hanti na hanyate ||
*
Meaning :
Neither one who believes this 'Self' (Atman) is the slayer, nor one who believes this 'Self'(Atman) is slain know the truth. For the 'Self' (Atman) slays not nor is slain.
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Chapter 2, shloka 21,
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vedAvinAshinaM nityaM
ya enamajamavyayaM |
kathaM sa puruShaH pArth
kaM ghAtayati hanti kaM ||
*
One who knows well that the 'Self' (Atman) is indestructible, eternal, unborn and immutable, how he himself can kill anyone, or cause anyone to kill anyone?
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Chapter 18, shloka 17,
--
yasya nAhaMkRto bhAvo
buddhiryasya na lipyate |
hatvApi sa imAnllokAn-
na hanti na nibadhyate ||
*
One who is not possessed by ego, and whose intellect is not entangled, though he may appear killing men in this world, does not kill at all. Nor is he bound by his actions and the sins consequent to them.
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'हन्ति' / 'hanti' - 'हन्' = मारना, हन्ति - मारता है।
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अध्याय 2, श्लोक 19,
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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
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(य एनम् वेत्ति हन्तारम् यः च ऐनम् मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतः न अयम् हन्ति न हन्यते ॥)
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भावार्थ :
जो इस (आत्मा) को मारनेवाला मानता है, तथा जो इस (आत्मा) को मारा जानेवाला मानता है, वे दोनों यह नहीं जानते कि यह (आत्मा) न तो किसी को मारती है, और न ही इस (आत्मा) को कोई मार सकता है।
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अध्याय 2, श्लोक 21,
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वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
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(वेद अविनाशिनं नित्यं यः एनम् अजम् अव्ययम् ।
कथम् सः पुरुषः पार्थ कम् घातयति हन्ति कम् ॥)
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भावार्थ :
जो (मनुष्य) यह जानता है कि यह (आत्मा) नित्य, अजन्मा और नाशरहित है, हे पार्थ ! वह मनुष्य कैसे किसी को भी मारने का यत्न कर सकता है, या सचमुच मार ही सकता है?
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अध्याय 18, श्लोक 17,
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यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
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( यस्य न अहंकृतः भावः बुद्धिः यस्य न लिप्यते ।
हत्वा-अपि स इमान् लोकान् न हन्ति न निबध्यते ॥)
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भावार्थ :
जिस मनुष्य के मन में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसी भावना नहीं है, और जिसकी बुद्धि इस भावना से अलिप्त होती है, वह इन समस्त लोकों को मारकर भी वस्तुतः न तो किसी की हत्या करता है, और न हत्या के इस पाप का भागी ही होता है ।
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'हन्ति' / 'hanti' - kills.
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Chapter 2, shloka 19,
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ya enaM vetti hantAraM
yashchainaM manyate hataM |
ubhau tau na vijAnIto
nAyaM hanti na hanyate ||
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Meaning :
Neither one who believes this 'Self' (Atman) is the slayer, nor one who believes this 'Self'(Atman) is slain know the truth. For the 'Self' (Atman) slays not nor is slain.
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Chapter 2, shloka 21,
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vedAvinAshinaM nityaM
ya enamajamavyayaM |
kathaM sa puruShaH pArth
kaM ghAtayati hanti kaM ||
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One who knows well that the 'Self' (Atman) is indestructible, eternal, unborn and immutable, how he himself can kill anyone, or cause anyone to kill anyone?
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Chapter 18, shloka 17,
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yasya nAhaMkRto bhAvo
buddhiryasya na lipyate |
hatvApi sa imAnllokAn-
na hanti na nibadhyate ||
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One who is not possessed by ego, and whose intellect is not entangled, though he may appear killing men in this world, does not kill at all. Nor is he bound by his actions and the sins consequent to them.
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