Wednesday, February 26, 2014

आज का श्लोक, ’स्वजनं’ / 'swajanaM'

आज का श्लोक  ’स्वजनं’ / 'swajanaM'
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’स्वजनं’ / 'swajanaM' - अपने परिवार के, रक्त-संबंधी,
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अध्याय 1, श्लोक 28,
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कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच -
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितं ॥
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(कृपया परया आविष्टः विषीदन् इदम् अब्रवीत् ।
दृष्ट्वा इमम् स्वजनम् कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् ॥)
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भावार्थ :
उनके प्रति अत्यन्त करुणा-विहवल होकर, शोक करते हुए, (अर्जुन ने) ऐसा कहा ।
अर्जुन ने कहा -
युद्ध में मेरे समक्ष उपस्थित अपने इन स्वजनों को देखकर हे कृष्ण !...
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अध्याय 1, श्लोक 31 ,
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निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोsनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
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(निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्वजनम् आहवे ॥)
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भावार्थ:
हे केशव! वैसे भी मुझे सब लक्षण विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे किसी श्रेयस् की प्राप्ति नहीं होगी ।
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अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा  वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
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(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
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भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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अध्याय 1, श्लोक 45,
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अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥
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(अहो बत महत् पापं कर्तुम्  व्यवसिताः वयम् ।
यत् राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनम् उद्यताः ॥)
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भावार्थ :
अहो खेद की बात है कि राज्यसुख के लोभ से ग्रस्त होकर हम, अपने ही स्वजनों को मारने के कार्य में संलग्न होने हेतु उद्यत हो उठे हैं !
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’स्वजनं’ / 'swajanaM' - one's very own friends and relatives.
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Chapter 1, shloka 28,
kRpayA parayAviShTo viShIdannidamabravIt |
(arjuna uvAcha)
dRShTwemaM swajanaM kRShNa
yuyutsuM samupasthitaM ||
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Meaning :
Seeng all his very own dear friends and relatives ready to fight before him, he was filled with deep remorse and with heavy heart said :
O kRShNa! seeing all these relatives and friends arrayed for battle, ...
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Chapter 1, shloka 31,
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nimittAni cha pashyAmi
viparItAni keshava |
na cha shreyo'nupashyAmi
hatvA swajanam-Ahave ||
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Meaning :
I see all the indications contrary to the good, and I can't see how having killed our kith and kin in the war, can we hope for the victory, the ownership of state and the happiness consequent to them.
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Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
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Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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Chapter 1, shloka 45,
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aho bat mahatpApaM
kartuM vyavasitA vayaM |
yadrAjyasukhalobhena
hantuM swajanamudyatAH ||
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Meaning :
Alas ! It is strange! Driven by the longing for the power of kingship and royal luxuries, we are bent on committing such a great sin, of killing our own brethren and kin!
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