आज का श्लोक, ’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM'
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’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM' - अपने निज धर्म को,
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अध्याय 2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
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(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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अध्याय 2, श्लोक 33,
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अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
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( अथ चेत् त्वं इमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापं अवाप्स्यसि ॥)
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भावार्थ :
अतः (हे अर्जुन!) यदि तू इस धर्मसम्मत संग्राम को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति की भी हानि कर पाप का भागी होगा।
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’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM' - according to one's own path of 'dharma'.
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Chapter 2, shloka 31,
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swadharmamapi chAvekShya
na vikampitumarhasi |
dharmyAddhi yuddhAchchhreyo
kShatriyasya na vidyate ||
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Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
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Chapter 2, shloka 33,
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atha chettvamimaM dharmyaM
saMgrAmaM na kariShyasi |
tataH svadharmaM kIrtiM cha
hitvA pApamavApsyasi ||
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Meaning : causing harm to, endangering.
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Arjuna !If you say you will not take part in this righteous war, you will lose not only the reputation and status on the worldly level, but also incur sin.
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’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM' - अपने निज धर्म को,
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अध्याय 2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
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(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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अध्याय 2, श्लोक 33,
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अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
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( अथ चेत् त्वं इमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापं अवाप्स्यसि ॥)
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भावार्थ :
अतः (हे अर्जुन!) यदि तू इस धर्मसम्मत संग्राम को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति की भी हानि कर पाप का भागी होगा।
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’स्वधर्मम्’ / 'swadharmaM' - according to one's own path of 'dharma'.
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Chapter 2, shloka 31,
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swadharmamapi chAvekShya
na vikampitumarhasi |
dharmyAddhi yuddhAchchhreyo
kShatriyasya na vidyate ||
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Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
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Chapter 2, shloka 33,
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atha chettvamimaM dharmyaM
saMgrAmaM na kariShyasi |
tataH svadharmaM kIrtiM cha
hitvA pApamavApsyasi ||
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Meaning : causing harm to, endangering.
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Arjuna !If you say you will not take part in this righteous war, you will lose not only the reputation and status on the worldly level, but also incur sin.
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