Sunday, February 9, 2014

आज का श्लोक, 'हत्वा' / 'hatvA'

आज का श्लोक / 'हत्वा' / 'hatvA'
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'हत्वा' / 'hatvA' - 'हन्' धातु, + क्त्वा प्रत्यय = 'मारकर' / 'मारने से'
अध्याय 1, श्लोक 31 ,
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निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोsनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
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(निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्वजनम् आहवे ॥)
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भावार्थ:
हे केशव! वैसे भी मुझे सब लक्षण विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे किसी श्रेयस् की प्राप्ति नहीं होगी ।
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अध्याय 1, श्लोक 36 ,
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निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयादस्मान्हत्वै तानाततायिनः ॥
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(निहत्य धार्तराष्ट्रान्  नः का प्रीतिः स्यात्  जनार्दन ।
पापम्  एव आश्रयेत्  अस्मान् हत्वा एतान् आततायिनः ॥)
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भावार्थ :
धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भला हमें क्या प्रसन्नता होगी? बल्कि इन आततायियों की हत्या से हम तो पाप के ही भागी होंगे ।
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अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा  वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
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(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
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भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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अध्याय 2, श्लोक 5,
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गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
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(गुरून् अहत्वा हि महानुभावान्  श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यम् अपि इह लोके ।
हत्वा अर्थकामान् तु गुरून् इह एव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥)
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भावार्थ :
धन वैभव और कामनाओं की प्राप्ति के लिए इन श्रेष्ठ गुरुजनों की हत्या करना और फिर इनके रक्त से सने उन भोगों को भोगने की अपेक्षा यही बहुत श्रेयस्कर होगा कि इस लोक में भिक्षा माँगकर अन्न खाया जाए ।
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अध्याय 2, श्लोक 6,
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न चैतविद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेsवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥
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(न च एतत्  विद्मः कतरन् नः गरीयः यत् वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यान् एव हत्वा न जिजीविषामः ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥)
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भावार्थ :
हमें तो यह भी निश्चय नहीं कि हमारे सम्मुख अवस्थित जिन धार्तराष्ट्रों (धृतराष्ट्रपुत्रों) को मरकर हम जीना भी न चाहेंगे, युद्ध में हम उन्हें जीतेंगे, या वे ही हमको, और न इस बात का निश्चय है कि दोनों संभावनाओं में से कौन सी गरिमायुक्त है ।
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अध्याय 18, श्लोक 17,
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यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
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( यस्य न अहंकृतः भावः बुद्धिः यस्य न लिप्यते ।
हत्वा-अपि स इमान् लोकान्  न हन्ति न निबध्यते ॥)
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भावार्थ :
जिस मनुष्य के मन में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसी भावना नहीं है, और जिसकी बुद्धि इस भावना से अलिप्त होती है, वह इन समस्त लोकों को मारकर भी वस्तुतः न तो किसी की हत्या करता है, और न हत्या के इस पाप का भागी ही होता है ।
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हत्वा' / 'hatvA' - having killed.
Chapter 1, shloka 31,
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nimittAni cha pashyAmi
viparItAni keshava |
na cha shreyo'nupashyAmi
hatvA swajanamAhave ||
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Meaning :
I see all the indications contrary to the good, and I can't see how having killed our kith and kin in the war, can we hope for the victory, the ownership of state and the happiness consequent to them.
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Chapter 1, shloka 36,
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nihatya dhArtarAShTrAnnaH
kA prItiH syAjjanArdana |
pApamevAshrayedasmAn-
hatvaitAnAtatAyinaH ||
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What would we gain by killing those agressors, the sons of dhRtarAShTra? Nothing else but the sin only.
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Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
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Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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Chapter 2, shloka 5,
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gurUn-a-hatvA hi mahAnubhAvAn-
shreyo bhoktuM bhaikShyamapIha loke |
hatvArthakAmAnstu gurUnihava
bhunjIya bhognrudhirapradagdhAn |
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 Meaning :
Living in this world on alms, is no doubt far better than to kill those reverred elders, and to enjoy all the riches and wealth, stained with their blood, so acquired.
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Chapter 2, shloka 6,
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na chaitadvidmaH kataranno garIyo
yadvA jayema yadi vA no jayeyuH |
yAneva hatvA jijIviShAmas-
te'vasthitAH pramukhe dhArtarAShTrAH ||
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Meaning :
While killing these very people, the sons of dhRtarAShTra, who are opposite to us on this battle-field, we don't know if we shall win over them, or they on us. We also don't know which one of these two possibilities is better than the other.
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Chapter 18, shloka 17,
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Chapter 18, shloka 17,
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yasya nAhaMkRto bhAvo
buddhiryasya na lipyate |
hatvApi sa imAnllokAn-
na hanti na nibadhyate ||
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One who is not possessed by ego, and whose intellect is not entangled, though he may appear killing men in this world, does not kill at all. Nor is he bound by his actions and the sins consequent to them.
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