Monday, February 17, 2014

~~धर्म क्या है?~~

धर्म क्या है?
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गीता अध्याय 2, श्लोक 39 एवं श्लोक 40, ठीक वह बिंदु है, जिस पर हमारे तमाम 'विचारवादियों' राजनीतिक-दर्शन के और समाज-शास्त्र के अध्येताओं, बुद्धिजीवियों को अवश्य ध्यान देना चाहिए । क्योंकि यह 'धर्म' क्या है? इसे समझने में अत्यधिक सहायता करता है । यूँ तो यह धर्म की संशयरहित और स्पष्ट व्याख्या है, किन्तु  इसे संकेत मात्र के रूप में भी इस रूप में ग्रहण किया जा सकता है कि 'धर्म' वेदविहित चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम धर्म की इस परिभाषा को न भूलें, तो धर्मों के बारे में चल रहे विभिन्न विवाद प्रारंभ ही नहीं होंगे ।
गीता और वेद के अनुसार 'धर्म' मनुष्य के चार प्रमुख 'पुरुषार्थों' में से एक है । वे चार पुरुषार्थ क्रमशः :
'धर्म',
'अर्थ',
'काम', तथा
'मोक्ष' हैं ।
इनमें से प्रत्येक के बारे में बौद्धिक स्तर पर संतोषजनक रूप से चर्चा की जा सकती है, और 'धर्म' और 'रिलीज़न' के बारे में हमारी दृष्टि स्पष्ट हो सकती है ।
धर्म के बारे में हमारी दृष्टि स्पष्ट न होने से समूची मनुष्यता अत्यंत संकटग्रस्त है । हम 'धर्म' क्या है इस बारे में ही बहुत अधिक अनिश्चित और परस्पर विरोधी धारणाओं के शिकार हैं, इसलिए 'धर्म' हमारे लिए दुराग्रह राजनीतिक कपट, और हठ मात्र बनकर रह गया है । विभिन्न परंपराओं, रूढ़ियों, मान्यताओं को 'धर्म' का दर्ज़ा दे दिया गया है और कहा जाता रहा है कि सब धर्म समान हैं । लेकिन जब हम 'धर्म' को एक 'पुरुषार्थ' के रूप में ग्रहण करते हैं, तो 'सब' का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है? 'धर्म' क्या है इस बारे में अस्पष्टता और मत-वैभिन्न्य के कारण मानव-मानव के बीच ऐसी टकराहट और भेदभाव हैं कि एक भ्रम ही बना रहता है ।और इसलिए कुछ लोग 'धर्मनिरपेक्ष' हो जाते हैं । लेकिन वह एक नकारात्मक सोच ही तो हुई !
वेद के अनुसार तो 'धर्म' भी, 'अर्थ', 'काम' और 'मोक्ष' जैसा ही एक अन्य पुरुषार्थ मात्र है । 'धर्म' तो 'प्रयास' है । 
इसलिए परंपरा, मान्यता, विचार एवं सिद्धान्त धर्म नहीं हो सकते वे धर्म के प्रेरक भर हो सकते हैं।  
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