आज का श्लोक, 'स्वाम्' / 'swAM'
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'स्वाम्' / 'swAM'- अपने स्वयं के,
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अध्याय 4, श्लोक 6,
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अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
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(अजः अपि सन् अव्यय-आत्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् ।
प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय संभवामि आत्म-मायया ॥)
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भावार्थ :
जन्मरहित और अविनाशी स्वरूपवाला परम-आत्मा होते हुए भी होते हुए भी, जन्म लेनेवाले और मर जानेवाले समस्त प्राणियों का नियमन करनेवाला होने से, मैं अपनी (त्रिगुणात्मिका) प्रकृति के माध्यम से अपनी आत्ममाया को धारण करता हुआ उसके अन्तर्गत देहधारी की तरह व्यक्त हो उठता हूँ ।
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अध्याय 9, श्लोक 8,
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प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥८
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(प्रकृतिम् स्वाम्-अवष्टभ्य वि-सृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामम्-इमम् कृत्स्नम्-अवशम् प्रकृतेः वशात् ॥)
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भावार्थ :
अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इस सारे भूत-समुदाय की बारंबार रचना (और संहार) करता हूँ क्योंकि यह संपूर्ण समुदाय प्रकृति के गुणों से वशीभूत है ।
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'स्वाम्' / 'swAM' - One's own,
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Chapter 4, shloka 6,
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ajo'pi sannavyayAtmA
bhUtAnAmIshvaro'pi san |
prakRtiM swAM-adhiShThAya
saMbhavAmyAtmamAyayA ||
--
Meaning :
Though ever unborn and immutable, with the support of My (threefold) 'prakRti' (name and form), I manifest Myself through My own 'mayA' (Divine power).
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Chapter 9, shloka 8,
*
prakRtiM swAmavaShTabhya
visRjAmi punaH punaH |
bhUtagrAmamimaM kRtsna-
mavashaM prakRtervashAt ||
--
Meaning :
With the support of My prakRti (Material-aspect), I (Consciousness-aspect) repeatedly create (and again withdraw them in My-self) these beings, whenever I manifest Myself as Creation (SRShTi) and dissolution (pra-laya) of the Existence. These beings, being governed by the 3 qualities inherent in prakRti, are subject to repeated births and deaths accordingly.
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'स्वाम्' / 'swAM'- अपने स्वयं के,
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अध्याय 4, श्लोक 6,
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अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
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(अजः अपि सन् अव्यय-आत्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् ।
प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय संभवामि आत्म-मायया ॥)
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भावार्थ :
जन्मरहित और अविनाशी स्वरूपवाला परम-आत्मा होते हुए भी होते हुए भी, जन्म लेनेवाले और मर जानेवाले समस्त प्राणियों का नियमन करनेवाला होने से, मैं अपनी (त्रिगुणात्मिका) प्रकृति के माध्यम से अपनी आत्ममाया को धारण करता हुआ उसके अन्तर्गत देहधारी की तरह व्यक्त हो उठता हूँ ।
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अध्याय 9, श्लोक 8,
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प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥८
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(प्रकृतिम् स्वाम्-अवष्टभ्य वि-सृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामम्-इमम् कृत्स्नम्-अवशम् प्रकृतेः वशात् ॥)
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भावार्थ :
अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इस सारे भूत-समुदाय की बारंबार रचना (और संहार) करता हूँ क्योंकि यह संपूर्ण समुदाय प्रकृति के गुणों से वशीभूत है ।
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Chapter 4, shloka 6,
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ajo'pi sannavyayAtmA
bhUtAnAmIshvaro'pi san |
prakRtiM swAM-adhiShThAya
saMbhavAmyAtmamAyayA ||
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Meaning :
Though ever unborn and immutable, with the support of My (threefold) 'prakRti' (name and form), I manifest Myself through My own 'mayA' (Divine power).
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Chapter 9, shloka 8,
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prakRtiM swAmavaShTabhya
visRjAmi punaH punaH |
bhUtagrAmamimaM kRtsna-
mavashaM prakRtervashAt ||
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Meaning :
With the support of My prakRti (Material-aspect), I (Consciousness-aspect) repeatedly create (and again withdraw them in My-self) these beings, whenever I manifest Myself as Creation (SRShTi) and dissolution (pra-laya) of the Existence. These beings, being governed by the 3 qualities inherent in prakRti, are subject to repeated births and deaths accordingly.
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