आज का श्लोक, 'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM'
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM' - स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए अपने धर्म से सुनिश्चित ।
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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(टिप्पणी : यहाँ 'धर्म' क्या है, इस पर फिर एक बार ध्यान दिया जाना अपेक्षित है । जैसा कि हम जानते ही हैं कि वेद और वेदपरक परंपरा तथा शिक्षा के अनुसार 'धर्म' चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम शेष तीन 'पुरुषार्थों' अर्थात् 'काम' 'अर्थ' और 'मोक्ष' की तुलना इससे करें तो स्पष्ट हो जाता है कि 'धर्म' आचरणगम्य 'कर्म' है । अर्थात् वह सब 'व्यावहारिक' आचरण जिसका पालन करने से जीवन में क्लेश न उत्पन्न हों और सच्चा सुख, मन की शान्ति और परस्पर सौहार्द्र घटित हो । मैं नहीं कह सकता कि हमारे बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक 'धर्म' को इस कसौटी पर रखकर उस बारे में सोचते हैं कि नहीं । किन्तु मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस आधार पर विचार करें तो हमें एक ऐसी दृष्टि मिलेगी जो मानवीय 'धर्मसंकट' का ऐसा उचित समाधान बन सकती है, जिस पर सभी राजी हो सकें ।)
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'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM'
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Chapter 18, shloka 47,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swabhAvaniyataM karma
kurvan-nApnoti kilbiShaM ||
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Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
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(A Note : This shloka and many others too call our attention to rediscover the true meaning of 'dharma', Without understanding what this word 'dharma' means in Vedik parlance, if we just keep on repeating all 'dharma'(s) are equal, that is going to create confusion. As 'puruShArtha' though all 'dharm'(s) are of the same importance according to one's body-mind, but except one's own, the rest are the source of untoward consequences. And we have already seen there are 4 kinds of 'puruShArtha-s. 'dharma' according to Veda, is only one of those 4 kinds. Though 'dharma' is a 'puruShArtha', a 'puruShArtha' may or may not be quite befitting with 'dharma'.)
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM' - स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए अपने धर्म से सुनिश्चित ।
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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(टिप्पणी : यहाँ 'धर्म' क्या है, इस पर फिर एक बार ध्यान दिया जाना अपेक्षित है । जैसा कि हम जानते ही हैं कि वेद और वेदपरक परंपरा तथा शिक्षा के अनुसार 'धर्म' चार 'पुरुषार्थों' में से ही एक है । यदि हम शेष तीन 'पुरुषार्थों' अर्थात् 'काम' 'अर्थ' और 'मोक्ष' की तुलना इससे करें तो स्पष्ट हो जाता है कि 'धर्म' आचरणगम्य 'कर्म' है । अर्थात् वह सब 'व्यावहारिक' आचरण जिसका पालन करने से जीवन में क्लेश न उत्पन्न हों और सच्चा सुख, मन की शान्ति और परस्पर सौहार्द्र घटित हो । मैं नहीं कह सकता कि हमारे बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक 'धर्म' को इस कसौटी पर रखकर उस बारे में सोचते हैं कि नहीं । किन्तु मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस आधार पर विचार करें तो हमें एक ऐसी दृष्टि मिलेगी जो मानवीय 'धर्मसंकट' का ऐसा उचित समाधान बन सकती है, जिस पर सभी राजी हो सकें ।)
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'स्वभावनियतं' / 'swabhAvaniyataM'
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Chapter 18, shloka 47,
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shreyAnswadharmo viguNaH
paradharmAtswanuShThitAt |
swabhAvaniyataM karma
kurvan-nApnoti kilbiShaM ||
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Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
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(A Note : This shloka and many others too call our attention to rediscover the true meaning of 'dharma', Without understanding what this word 'dharma' means in Vedik parlance, if we just keep on repeating all 'dharma'(s) are equal, that is going to create confusion. As 'puruShArtha' though all 'dharm'(s) are of the same importance according to one's body-mind, but except one's own, the rest are the source of untoward consequences. And we have already seen there are 4 kinds of 'puruShArtha-s. 'dharma' according to Veda, is only one of those 4 kinds. Though 'dharma' is a 'puruShArtha', a 'puruShArtha' may or may not be quite befitting with 'dharma'.)
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