आज का श्लोक, ’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM'
’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM' - पूर्व-संस्कारों के सम्मिलित फल रूपी जन्म से प्राप्त हुई नैसर्गिक प्रवृत्तियों से उत्पन्न ।
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अध्याय 18, श्लोक 42,
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शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
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(शमः दमः तपः शौचम् क्षान्तिः आर्जवम् एव च ।
ज्ञानम् विज्ञानम् आस्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥)
भावार्थ :
अन्तःकरण की वृत्तियों की स्थिरता और शान्ति, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि पर नियन्त्रण, अन्तः-बाह्य शुचिता, दूसरों के अपराधों के प्रति क्षमा की भावना, चित्त की सरलता और निश्छलता, आस्तिकता, ज्ञाननिष्ठा, ये सभी ब्राह्मण के लिए स्वाभाविक कर्म हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 43,
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
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(शौर्यम् तेजः धृतिः दाक्ष्यम् युद्धे च अपि-अपलायनम् ।
दानम् ईश्वरभावः च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥)
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भावार्थ :
शौर्य, तेजस्विता, धैर्य, दक्षता, और युद्ध में भी पलायन न करना, दान देना, ईश्वरभाव अर्थात् नृपतुल्य स्वामित्व की भावना जो प्रजा के प्रति वात्सल्य से युक्त हो, ये सभी क्षत्रिय के लिए स्वाभाविक कर्म हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 44,
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
भावार्थ :
कृषि और गौपालन, व्यापार तथा वस्तु-विनिमय का व्यवहार करना तथा इस माध्यम से उचित रीति से आजीविका अर्जित करना ये सभी वैश्य के लिए स्वाभाविक कर्म हैं । इसी प्रकार से, सब वर्णों की परिचर्या रूपी सेवा करना शूद्र के लिए स्वाभाविक कर्म है ।
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’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM' - Owing to the natural tendencies of the body-mind, one is born with.
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Chapter 18, shloka 42,
shamo damastapaH shauchaM
kShAntirArjavameva cha |
jnAnaM vijnAnamAstikyaM
brahmakarma swabhAvajaM ||
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Meaning :
Restraining the mind and senses, controlling the tendencies of the mind that go in the outward direction, purity of mind, body and heart, forbearance and calm of passions, clarity and simplicity of mind, knowledge and wisdom, and trust in the Entity, God / Self, these all together are the tendencies natural to a 'brAhmin'.
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Chapter 18, shloka 43,
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shauryaM tejo dhRtirdAkshyaM
yuddhe chApyapalAyanaM |
dAnamIshvarabhAvashcha
kShAtraM karma swabhAvajaM ||
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Meaning :
Courage, strength, will, determination, not running away from the battle-field, generocity, and spirit of the lordship with a sense of duties towards the people one rules over, these all together are the tendencies natural to a 'kShatriya'.
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Chapter 18, shloka 44,
kRShigaurakShyavANijyaM
vaishyakarma swabhAvajaM
paricharyAtmakaM karma
shUdrasyApi swabhAvajaM ||
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Meaning :
Agriculture, rearing the cattle, trade and commerce, are the tendencies natural to a 'vaishya', and service of other three classes is the ordained duty and tendencies of one, natural to a 'shUdra'.
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(Note :
These are the ideal conditions and no one can deny that the 'social' reality don't quite match the 'ideal conditions'. But even then, one could determine for himself, what tendencies are the prominant ones there in his mind and spirit, which one is driven by. And one can then pursue accordingly the 'dharma' which he finds most suitable to him.)
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’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM' - पूर्व-संस्कारों के सम्मिलित फल रूपी जन्म से प्राप्त हुई नैसर्गिक प्रवृत्तियों से उत्पन्न ।
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अध्याय 18, श्लोक 42,
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शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
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(शमः दमः तपः शौचम् क्षान्तिः आर्जवम् एव च ।
ज्ञानम् विज्ञानम् आस्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥)
भावार्थ :
अन्तःकरण की वृत्तियों की स्थिरता और शान्ति, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि पर नियन्त्रण, अन्तः-बाह्य शुचिता, दूसरों के अपराधों के प्रति क्षमा की भावना, चित्त की सरलता और निश्छलता, आस्तिकता, ज्ञाननिष्ठा, ये सभी ब्राह्मण के लिए स्वाभाविक कर्म हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 43,
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
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(शौर्यम् तेजः धृतिः दाक्ष्यम् युद्धे च अपि-अपलायनम् ।
दानम् ईश्वरभावः च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥)
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भावार्थ :
शौर्य, तेजस्विता, धैर्य, दक्षता, और युद्ध में भी पलायन न करना, दान देना, ईश्वरभाव अर्थात् नृपतुल्य स्वामित्व की भावना जो प्रजा के प्रति वात्सल्य से युक्त हो, ये सभी क्षत्रिय के लिए स्वाभाविक कर्म हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 44,
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
भावार्थ :
कृषि और गौपालन, व्यापार तथा वस्तु-विनिमय का व्यवहार करना तथा इस माध्यम से उचित रीति से आजीविका अर्जित करना ये सभी वैश्य के लिए स्वाभाविक कर्म हैं । इसी प्रकार से, सब वर्णों की परिचर्या रूपी सेवा करना शूद्र के लिए स्वाभाविक कर्म है ।
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’स्वभावजम्’/ 'swabhAvajaM' - Owing to the natural tendencies of the body-mind, one is born with.
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Chapter 18, shloka 42,
shamo damastapaH shauchaM
kShAntirArjavameva cha |
jnAnaM vijnAnamAstikyaM
brahmakarma swabhAvajaM ||
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Meaning :
Restraining the mind and senses, controlling the tendencies of the mind that go in the outward direction, purity of mind, body and heart, forbearance and calm of passions, clarity and simplicity of mind, knowledge and wisdom, and trust in the Entity, God / Self, these all together are the tendencies natural to a 'brAhmin'.
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Chapter 18, shloka 43,
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shauryaM tejo dhRtirdAkshyaM
yuddhe chApyapalAyanaM |
dAnamIshvarabhAvashcha
kShAtraM karma swabhAvajaM ||
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Meaning :
Courage, strength, will, determination, not running away from the battle-field, generocity, and spirit of the lordship with a sense of duties towards the people one rules over, these all together are the tendencies natural to a 'kShatriya'.
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Chapter 18, shloka 44,
kRShigaurakShyavANijyaM
vaishyakarma swabhAvajaM
paricharyAtmakaM karma
shUdrasyApi swabhAvajaM ||
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Meaning :
Agriculture, rearing the cattle, trade and commerce, are the tendencies natural to a 'vaishya', and service of other three classes is the ordained duty and tendencies of one, natural to a 'shUdra'.
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(Note :
These are the ideal conditions and no one can deny that the 'social' reality don't quite match the 'ideal conditions'. But even then, one could determine for himself, what tendencies are the prominant ones there in his mind and spirit, which one is driven by. And one can then pursue accordingly the 'dharma' which he finds most suitable to him.)
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