आज का श्लोक / ’स्वे’/ 'swe'
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’स्वे’ / अपने भीतर स्थित ।
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है ।अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, इसे सुनो ।
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’स्वे’/ 'swe' - one's own.
Chapter 18, shloka 45,
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*
swe swe karmaNyabhirataH
saMsiddhiM labhate naraH |
swakarmanirataH siddhiM
yathA vindati tachchhruNu ||
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When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal, perfection. Now listen to, how one attains this while performing his own duties in the right way,
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’स्वे’ / अपने भीतर स्थित ।
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है ।अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, इसे सुनो ।
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’स्वे’/ 'swe' - one's own.
Chapter 18, shloka 45,
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swe swe karmaNyabhirataH
saMsiddhiM labhate naraH |
swakarmanirataH siddhiM
yathA vindati tachchhruNu ||
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When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal, perfection. Now listen to, how one attains this while performing his own duties in the right way,
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