Thursday, February 27, 2014

आज का श्लोक, 'स्रंसते' / 'sransate'

आज का श्लोक,  'स्रंसते' / 'sransate'
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गाण्डीवं  स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव मे मनः ॥
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(गाण्डीवम्  स्रंसते हस्तात् त्वक् च-एव परिदह्यते ।
न च शक्नोमि अवस्थातुं भ्रमति इव मे मनः ॥
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'स्रंसते' / 'sransate'  
भावार्थ :
अर्जुन कहते हैं -
'मेरे हाथ से गाण्डीव छूटा जा रहा है, त्वचा भी जल रही है, मैं खड़ा रहने में भी असमर्थ हूँ, और मेरा मन अत्यन्त अस्थिर हो रहा है,'…
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'स्रंसते' / 'sransate'  
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Chapter 1, shloka 30,
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gANDIvaM sransate hastAt
tvakchaiva paridahyate |
na cha shaknomyavasthAtuM
bhramatIva me manaH ||
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Meaning :
Arjun says : 'gANDiva' (The Bow of Arjuna) is slipping away from my hand, my skin is burning, I am unable to stand and my mind (head) is reeling.

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