आज का श्लोक, ’सर्वतः’ / ’sarvataḥ’
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’सर्वतः’ / ’sarvataḥ’ - सब ओर से,
अध्याय 2, श्लोक 46,
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥
--
(यावान्-अर्थः उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्-सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥)
--
भावार्थ : ब्रह्म के तत्व को जो जान चुका होता है, उस ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन होता है, जितना कि हर ओर जल से परिपूर्ण विशाल सरोवर प्राप्त होने पर किसी मनुष्य का छोटे से तालाब से होता है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 16,
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥
--
(अनेकबाहु-उदरवक्त्रनेत्रम्
पश्यामि त्वाम् सर्वतः अनन्तरूपम् ।
न अन्तम् न मध्यम् न पुनः तव आदिम्
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥)
--
भावार्थ :
अनेक भुजाओं पेट एवं नेत्रों से युक्त आपको सब ओर मैं अनंत रूपों में देख रहा हूँ । किन्तु न तो आपकी सीमा को, न मध्य को और न ही आरंभ को हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप! मैं देख् पा रहा हूँ ।
--
टिप्पणी :
इस श्लोक को नीचे दिए गए अध्याय 13 , श्लोक 13 के साथ देखना उपयोगी होगा ।
--
अध्याय 13, श्लोक 13,
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
--
(सर्वतःपाणिपादम् तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ॥
--
भावार्थ :
वह (ब्रह्म) सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर तथा मुखवाला, सब ओर कानवाला है, तथा सबको व्याप्त करते हुए स्थित है । इसे और ठीक से समझने के लिए इस अध्याय 13 का अगला श्लोक क्रमांक 14 देखें ।
--
टिप्पणी :
इस श्लोक का तात्पर्य समझने के लिए हम सूर्य का उदाहरण ले सकते हैं । उपनिषद् में कहा है, : सूर्यो आत्मा जगतः । सूर्य की किरणों का विस्तार दिग्-दिगन्त तक है, किरणें जो सूर्य के हाथ, पैर, नेत्र एवम् कान भी हैं । भगवान् भास्कर सब को स्पर्श करते हैं, सब का अधिष्ठान हैं, सब को देखते हैं और अपने रश्मिरूपी श्रोत्रों / श्रुतियों से सब को सुनते भी हैं ।
--
अध्याय 11, श्लोक 17,
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥
--
(किरीटिनम् गदिनम् चक्रिणम् च ।
तेजोराशिम् सर्वतः दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वाम् दुर्निरीक्ष्यम् समन्तात्-
दीप्तानलार्क-द्युतिम्-अप्रमेयम् ॥)
--
भावार्थ :
मुकुट, गदा तथा चक्र धारण किए हुए आपको, आपके सब ओर से प्रकाशमान तेजपुञ्ज को, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के समान द्युतिमान आपके रूप को जिसे देख पाना अत्यन्त ही कठिन है, मैं देख रहा हूँ ।
--
अध्याय 11, श्लोक 40,
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
--
नमः पुरस्तात् अथ पृष्ठतः ते नमः अस्तु ते सर्वतः एव सर्व ।
अनन्तवीर्य अमितविक्रमः त्वम् सर्वम् समाप्नोषि ततः असि सर्वः ॥
--
भावार्थ :
हे अनन्तसामर्थ्यवान् ! आपको आगे से तथा पीछे से भी नमस्कार । आपके लिए सब ओर से ही प्रणाम हो, हे सर्वस्व ! हे अनन्त पराक्रमशाली आप सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इसलिए आप ही सर्वरूप, सब-कुछ हैं ।
--
टिप्पणी : उपरोक्त श्लोक में पहले आधे भाग में ’सर्व’ पद का प्रयोग संबोधनवाची है, -’हे सर्व!’ के अर्थ में ।
--
’सर्वतः’ / ’sarvataḥ’ - from / on all sides, in every direction
--
Chapter 2, śloka 46,
yāvānartha udapāne
sarvataḥ samplutodake |
tāvānsarveṣu vedeṣu
brāhmaṇasya vijānataḥ ||
--
(yāvān-arthaḥ udapāne
sarvataḥ samplutodake |
tāvān-sarveṣu vedeṣu
brāhmaṇasya vijānataḥ ||)
--
Meaning :
One who has realized Brahman, has as much concern for the veda, as the one living near an overflowing reservoir of waters has for a small pond.
--
--
Chapter 11, śloka 16,
anekabāhūdaravaktranetraṃ
paśyāmi tvāṃ sarvato:'nantarūpam |
nāntaṃ na madhyaṃ na punastavādiṃ
paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||
--
(anekabāhu-udaravaktranetram
paśyāmi tvām sarvataḥ anantarūpam |
na antam na madhyam na punaḥ tava ādim
paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||)
--
Meaning :
I see You every-where with your so many arms, so many bellies, and so many eyes. And again, I don't see either your Beginning, Middle or End, O viśveśvara! (The only Lord of the Whole world!) O viśvarūpam (The One with the Whole world as one of your infinite faces)!
--
Note :
Comparing the above with following may be interesting and useful also. :
Chapter 13, śloka 13,
--
sarvataḥpāṇipādaṃ tat-
sarvato:'kṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimalloke
sarvamāvṛtya tiṣṭhati ||
--
(sarvataḥpāṇipādam tat
sarvataḥ akṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimat loke
sarvam āvṛtya tiṣṭhati ||
--
Meaning :
(This brahman / tat) has His hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, envelopping the Whole existence. And in this way He is ever everywhere.
--
Note :
We can see the example of the Sun. His rays reach everywhere, they are his hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, through which He touches, gives support to, looks at, listens to and shows Himself to everything and every being.
--
Chapter 11, śloka 17,
kirīṭinaṃ gadinaṃ cakriṇaṃ ca
tejorāśiṃ sarvato dīptimantam |
paśyāmi tvāṃ durnirīkṣyaṃ samantā-
ddīptānalārkadyutimaprameyam ||
--
(kirīṭinam gadinam cakriṇam ca |
tejorāśim sarvataḥ dīptimantam |
paśyāmi tvām durnirīkṣyam samantāt-
dīptānalārka-dyutim-aprameyam ||)
--
Meaning :
I see You crowned, armed with a mace (gadā), and a discus (cakra), like a column of splendor, shining on all sides, immeasurable, and blinding the eyes with Your effulgence like that of the blazing Sun and Fire.
--
Chapter 11, śloka 40,
namaḥ purastādatha pṛṣṭhataste
namo:'stu te sarvata eva sarva |
anantavīryāmitavikramastvaṃ
sarvaṃ samāpnoṣi tato:'si sarvaḥ ||
--
namaḥ purastāt atha pṛṣṭhataḥ te
namaḥ astu te sarvataḥ eva sarva |
anantavīrya amitavikramaḥ tvam
sarvam samāpnoṣi tataḥ asi sarvaḥ ||
--
Meaning :
Obeisance to You from the front, Obeisance to You from the back, obeisance to You from all the sides. You are Omnipresent, and All. O Supreme! You are valor infinite and strength infallible! You pervade All, ...You Are All!!
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’सर्वतः’ / ’sarvataḥ’ - सब ओर से,
अध्याय 2, श्लोक 46,
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥
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(यावान्-अर्थः उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्-सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥)
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भावार्थ : ब्रह्म के तत्व को जो जान चुका होता है, उस ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन होता है, जितना कि हर ओर जल से परिपूर्ण विशाल सरोवर प्राप्त होने पर किसी मनुष्य का छोटे से तालाब से होता है ।
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अध्याय 11, श्लोक 16,
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥
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(अनेकबाहु-उदरवक्त्रनेत्रम्
पश्यामि त्वाम् सर्वतः अनन्तरूपम् ।
न अन्तम् न मध्यम् न पुनः तव आदिम्
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥)
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भावार्थ :
अनेक भुजाओं पेट एवं नेत्रों से युक्त आपको सब ओर मैं अनंत रूपों में देख रहा हूँ । किन्तु न तो आपकी सीमा को, न मध्य को और न ही आरंभ को हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप! मैं देख् पा रहा हूँ ।
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टिप्पणी :
इस श्लोक को नीचे दिए गए अध्याय 13 , श्लोक 13 के साथ देखना उपयोगी होगा ।
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अध्याय 13, श्लोक 13,
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
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(सर्वतःपाणिपादम् तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ॥
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भावार्थ :
वह (ब्रह्म) सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर तथा मुखवाला, सब ओर कानवाला है, तथा सबको व्याप्त करते हुए स्थित है । इसे और ठीक से समझने के लिए इस अध्याय 13 का अगला श्लोक क्रमांक 14 देखें ।
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टिप्पणी :
इस श्लोक का तात्पर्य समझने के लिए हम सूर्य का उदाहरण ले सकते हैं । उपनिषद् में कहा है, : सूर्यो आत्मा जगतः । सूर्य की किरणों का विस्तार दिग्-दिगन्त तक है, किरणें जो सूर्य के हाथ, पैर, नेत्र एवम् कान भी हैं । भगवान् भास्कर सब को स्पर्श करते हैं, सब का अधिष्ठान हैं, सब को देखते हैं और अपने रश्मिरूपी श्रोत्रों / श्रुतियों से सब को सुनते भी हैं ।
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अध्याय 11, श्लोक 17,
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥
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(किरीटिनम् गदिनम् चक्रिणम् च ।
तेजोराशिम् सर्वतः दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वाम् दुर्निरीक्ष्यम् समन्तात्-
दीप्तानलार्क-द्युतिम्-अप्रमेयम् ॥)
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भावार्थ :
मुकुट, गदा तथा चक्र धारण किए हुए आपको, आपके सब ओर से प्रकाशमान तेजपुञ्ज को, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के समान द्युतिमान आपके रूप को जिसे देख पाना अत्यन्त ही कठिन है, मैं देख रहा हूँ ।
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अध्याय 11, श्लोक 40,
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
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नमः पुरस्तात् अथ पृष्ठतः ते नमः अस्तु ते सर्वतः एव सर्व ।
अनन्तवीर्य अमितविक्रमः त्वम् सर्वम् समाप्नोषि ततः असि सर्वः ॥
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भावार्थ :
हे अनन्तसामर्थ्यवान् ! आपको आगे से तथा पीछे से भी नमस्कार । आपके लिए सब ओर से ही प्रणाम हो, हे सर्वस्व ! हे अनन्त पराक्रमशाली आप सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इसलिए आप ही सर्वरूप, सब-कुछ हैं ।
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टिप्पणी : उपरोक्त श्लोक में पहले आधे भाग में ’सर्व’ पद का प्रयोग संबोधनवाची है, -’हे सर्व!’ के अर्थ में ।
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’सर्वतः’ / ’sarvataḥ’ - from / on all sides, in every direction
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Chapter 2, śloka 46,
yāvānartha udapāne
sarvataḥ samplutodake |
tāvānsarveṣu vedeṣu
brāhmaṇasya vijānataḥ ||
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(yāvān-arthaḥ udapāne
sarvataḥ samplutodake |
tāvān-sarveṣu vedeṣu
brāhmaṇasya vijānataḥ ||)
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Meaning :
One who has realized Brahman, has as much concern for the veda, as the one living near an overflowing reservoir of waters has for a small pond.
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Chapter 11, śloka 16,
anekabāhūdaravaktranetraṃ
paśyāmi tvāṃ sarvato:'nantarūpam |
nāntaṃ na madhyaṃ na punastavādiṃ
paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||
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(anekabāhu-udaravaktranetram
paśyāmi tvām sarvataḥ anantarūpam |
na antam na madhyam na punaḥ tava ādim
paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||)
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Meaning :
I see You every-where with your so many arms, so many bellies, and so many eyes. And again, I don't see either your Beginning, Middle or End, O viśveśvara! (The only Lord of the Whole world!) O viśvarūpam (The One with the Whole world as one of your infinite faces)!
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Note :
Comparing the above with following may be interesting and useful also. :
Chapter 13, śloka 13,
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sarvataḥpāṇipādaṃ tat-
sarvato:'kṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimalloke
sarvamāvṛtya tiṣṭhati ||
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(sarvataḥpāṇipādam tat
sarvataḥ akṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimat loke
sarvam āvṛtya tiṣṭhati ||
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Meaning :
(This brahman / tat) has His hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, envelopping the Whole existence. And in this way He is ever everywhere.
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Note :
We can see the example of the Sun. His rays reach everywhere, they are his hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, through which He touches, gives support to, looks at, listens to and shows Himself to everything and every being.
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Chapter 11, śloka 17,
kirīṭinaṃ gadinaṃ cakriṇaṃ ca
tejorāśiṃ sarvato dīptimantam |
paśyāmi tvāṃ durnirīkṣyaṃ samantā-
ddīptānalārkadyutimaprameyam ||
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(kirīṭinam gadinam cakriṇam ca |
tejorāśim sarvataḥ dīptimantam |
paśyāmi tvām durnirīkṣyam samantāt-
dīptānalārka-dyutim-aprameyam ||)
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Meaning :
I see You crowned, armed with a mace (gadā), and a discus (cakra), like a column of splendor, shining on all sides, immeasurable, and blinding the eyes with Your effulgence like that of the blazing Sun and Fire.
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Chapter 11, śloka 40,
namaḥ purastādatha pṛṣṭhataste
namo:'stu te sarvata eva sarva |
anantavīryāmitavikramastvaṃ
sarvaṃ samāpnoṣi tato:'si sarvaḥ ||
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namaḥ purastāt atha pṛṣṭhataḥ te
namaḥ astu te sarvataḥ eva sarva |
anantavīrya amitavikramaḥ tvam
sarvam samāpnoṣi tataḥ asi sarvaḥ ||
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Meaning :
Obeisance to You from the front, Obeisance to You from the back, obeisance to You from all the sides. You are Omnipresent, and All. O Supreme! You are valor infinite and strength infallible! You pervade All, ...You Are All!!
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