Sunday, March 30, 2014

आज का श्लोक, ’सुखानि’ / 'sukhAni'

आज का श्लोक, ’सुखानि’ / 'sukhAni'
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’सुखानि’ / 'sukhAni' - सुख,
 
अध्याय 1, श्लोक 32 ,

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥
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(न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नः राज्येन गोविन्द किं भोगैः जीवितेन वा ॥)
--
भावार्थ :
हे कृष्ण! (मैं) न तो विजय प्राप्त करना चाहता हूँ, और न राज्य तथा उन सुखों को । हे गोविन्द ! हमें (इस तरह से प्राप्त किए गए) राज्य से, भोगों और जीवन से भी भला क्या लाभ है ? जब, ...
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अध्याय 1, श्लोक 33,
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
--
(येषाम्-अर्थे काङ्क्षितं नः राज्यम् भोगाः सुखानि च ।
ते इमे-अवस्थिताः युद्धे प्राणान्-त्यक्त्वा धनानि च ॥)
--
भावार्थ :
जिनके लिए इस राज्य, भोगों तथा सुखों की प्राप्ति की हमें आकाङ्क्षा है, वे सब तो अपना सर्वस्व, अपने प्राणों (की आशा) को भी त्यागकर यहाँ युद्ध में खड़े हैं ।
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’सुखानि’ / 'sukhAni' - joys and pleasures, happiness,

Chapter 1, shloka 32,

na kAnkShe vijayaM kRShNa
na cha rAjyaM sukhAni cha |
kiM no rAjyena govinda
kiM-bhogairjIvitena vA |
Meaning :
O kRShNa! Neither (I) desire the victory, nor the kindom. Of what worth is this kingdom, and of what the sense in living a life enjoying such pleasures?
(While, ... in the next shloka >)  

Chapter 1, shloka 33,

yeShAmarthe kAnkShitaM no
rAjyaM bhogAH sukhAni cha |
ta ime'vasthitA yuddhe
prANAnstyaktvA sukhAni cha ||
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Those, for whom we desire the kingdom and the pleasures, having given up their all and everything, and even the (hopes of) their own lives, are standing here on the battle-field,
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आज का श्लोक, ’सुखिनः’ / 'sukhinaH'

आज का श्लोक, ’सुखिनः’  / 'sukhinaH'
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’सुखिनः’  / 'sukhinaH' - सुखी,

अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा  वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
*
(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
*
भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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अध्याय 2, श्लोक 32,
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यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्  ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
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(यदृच्छया  च उपपन्नं स्वर्गद्वारम् अपावृतम्  ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धम्-ईदृशम् ॥
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस प्रकार से अनायास प्राप्त होनेवाला युद्ध का अवसर तो क्षत्रिय के लिए मानों संयोग से और अकस्मात् ही अपने लिए खुले साक्षात्  स्वर्ग के प्रवेश-द्वार होते हैं, जिसमें अपने कर्तव्य का निर्वाह अर्थात् युद्ध करते हुए क्षत्रिय सुखपूर्वक  स्वर्ग की प्राप्ति कर लेते हैं ।
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’सुखिनः’  / 'sukhinaH' - happy,

Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
*
Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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Chapter 2, shloka 32,
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yadRchchhayA chopapannaM
swargadwAraM-apAvRtaM |
sukhinaH kShatriyAH pArtha
labhante yuddhamIdRshaM ||
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Meaning :
O pArtha (Arjuna)! Fortunate is the warrior (kshatriya) who gets such an opportunity by his sheer luck, if he has a chance to fight in the battle for a right cause only. Because the war is imposed upon him, and not that he has imposed this on helpless enemies and so fighting for some petty selfish cause only.
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आज का श्लोक, ’सुखी’ / 'sukhI',

आज का श्लोक, ’सुखी’ / 'sukhI',
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’सुखी’ / 'sukhI', - सुखी, प्रसन्न,

अध्याय  5, श्लोक 23,
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥
(शक्नोति इह एव यः सोढुम् प्राक् शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवम् वेगम् सः युक्तः सः सुखी नरः ॥)
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भावार्थ :
वह साधक जो कि इस शरीर के जीते-जी ही, शरीर का नाश होने से पहले ही काम-क्रोध से पैदा होनेवाले वेग को सहन करने में सक्षम हो जाता है, निश्चय ही वह मनुष्य योगी है और वही सुखी है ।
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 अध्याय 16, श्लोक 14,
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असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं  भोगी सिद्धोsहं  बलवान्सुखी
--
(असौ मया हतः शत्रुः हनिष्ये च अपरानपि ।
ईश्वरः अहं अहं भोगी सिद्धः अहं बलवान् सुखी ॥)
*
भावार्थ :
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा जा चुका, दूसरों को भी मार डालूँगा । मैं ही सर्वशक्तिमान हूँ, मैं ही सब सुखों का भोगकर्ता हूँ । मैं ही यशस्वी, बलवान और सुखी हूँ ।
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’सुखी’ / 'sukhI',  -  happy,

Chapter 5, shloka 23,

shaknotIhava soDhuM
prAksharIravimokShaNAt |
kAmakrodhodbhavaM vegaM
sa yuktaH sa sukhI naraH ||
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Far before the body falls as dead, one who can manage to face the urges of lust and anger (and can control them) is indeed a yogi, and he alone is truly a happy man.
--
Chapter 16, shloka 14,
*
asau mayA hataH shatrur-
haniShye chAparAnapi |
Ishvaro'hamahaM bhogI
siddho'haM balavAnsukhI ||
--
Meaning :
That one enemy has been killed by me, I shall sure kill the others too. I am the lord, I alone enjoy all the riches, I am successful, powerful and happy.
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आज का श्लोक, ’सुखे’ / 'sukhe'

आज का श्लोक, ’सुखे’ / 'sukhe'
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’सुखे’ / 'sukhe'  - सुख में,

अध्याय 14, श्लोक 9,
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
(सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत ॥)
--
भावार्थ :
(आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को आवृत्त कर) सत्त्वगुण तो चित्त को सुख में प्रवृत्त करता है, रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है, तथा हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण ज्ञान को ढककर चित्त को प्रमाद में प्रवृत्त करता है ।
टिप्पणी :
इस प्रकार तीनों गुण आत्मा के स्वरूप को आवरित रखते हैं ।
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’सुखे’ / 'sukhe' - towards bliss, joy and peace,

Chapter 14, shloka 9,

sattvaM sukhe sanjayati
rajaH karmaNi bhArata |
jnAnamAvRttya tu tamaH
pramAde sanjayatyuta ||
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bhArata (arjuna)! Driven by the attribute of harmony (sattaM), the mind (chittaM) gets identified with joy and peace, driven by the attribute of passion (rajas / rajaH), the mind gets identified with  action, and driven by the attribute of inertia (tamas) the mind gets identified with sloth, idleness.
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आज का श्लोक, ’सुखेन’ / 'sukhena'

आज का श्लोक, ’सुखेन’ / 'sukhena'
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’सुखेन’ / 'sukhena' - अनायास ही, सुखपूर्वक,
 
अध्याय 6, श्लोक 28,

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमस्नुते ॥
--
(युञ्जन् एवं सदा आत्मानम् योगी विगत कल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम् अत्यन्तम् सुखम् अश्नुते ॥)
--
भावार्थ :
पापरहित योगी अपने चित्त को निरन्तर उस ब्रह्म में संलग्न रखते हुए अनायास ही ब्रह्म के संस्पर्श के अनन्त आनन्द को अनुभव करने लगता है ।
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’सुखेन’ / 'sukhena' - with happiness, blissfully,

Chapter 6, shloka 28,
yunjannevaM sadAtmAnaM
yogI vigatakalmaShaH |
sukhena brahmasaMsparsha-
matyantaM sukhamashnute ||
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Meaning :
Freed from the sins, the aspirant (yogI) fixing one's mind always upon the Self that is Reality only, easily attains the delight of the infinite bliss Which is That (Brahman).
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आज का श्लोक, ’सुखेषु’ / 'sukheShu'

आज का श्लोक, ’सुखेषु’ / 'sukheShu'
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’सुखेषु’ / 'sukheShu'

अध्याय 2, श्लोक 56,
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दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
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(दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्प्हः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीः मुनिः उच्यते ॥)
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दुःख जिसके मन को उद्विग्न नहीं करते और सुख जिसके मन में (सुख की) लालसाएँ उत्पन्न नहीं करते, जो राग अर्थात् लिप्तता से, भय और क्रोध से ऊपर उठ चुका है, ऐसे मनुष्य को स्थितधी मुनि कहा जाता है ।
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’सुखेषु’ / 'sukheShu'

 Chapter 2, shloka 56,
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duHkheShvanudvignaH
sukheShu vigataspRhaH |
vIta-rAga-bhaya-krodhaH
sthitadhIrmuniruchyate ||
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Meaning :
One who is not perturbed by the miseries, one who craves not for the pleasures when in happiness, who is free from attachment, fear and anger, is called a sage of steady mind.
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आज का श्लोक, ’सुघोषमणिपुष्पकौ’ / 'sughoShamaNipuShpakau'

आज का श्लोक,
’सुघोषमणिपुष्पकौ’ / 'sughoShamaNipuShpakau
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’सुघोषमणिपुष्पकौ’ / 'sughoShamaNipuShpakau

अध्याय 1, श्लोक 16,

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ
--
(अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रः युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवः च सुघोषमणिपुष्पकौ
--
 भावार्थ :
कुन्तीपुत्र, राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शङ्ख तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक नामक शङ्ख (बजाये)
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’सुघोषमणिपुष्पकौ’ / 'sughoShamaNipuShpakau'

Chapter 1, shloka 16,
anantavijayaM rAjA
kuntIputro yudhiShThiraH |
nakulaH sahadevashcha
sughoShamaNipuShpakau ||
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kuntI's son, King yudhiShThira, blew his conch named 'anantavijaya', while nakula and sahadeva blew their conches named sughoSha and maNipuShaka respectively.
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आज का श्लोक, ’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro'

आज का श्लोक, ’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro'
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’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro'

अध्याय 9,  श्लोक 30,

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
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(अपि चेत् सुदुराचारः भजते माम् अनन्य भाक् ।
साधुः एव सः मन्तव्यः सम्यक्-व्यवसितः हि सः ॥)
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अत्यन्त दुराचारी मनुष्य भी यदि अनन्यभाव से मेरा भजन (भक्ति) करता है तो उसको साधु ही समझा जाना चाहिए क्योंकि वह अपने कार्य में सम्यक् रीति से संलग्न है ।
टिप्पणी :
यदि कोई मन की दुर्बलता, दुष्ट संस्कारों की प्रबलता या परिस्थितियों के दबाव के कारण दुराचार की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं कर पाता, और अपनी इस प्रवृत्ति से पीड़ित होकर ग्लानि भी अनुभव करता है, किन्तु साथ ही अनन्य-भाव (मैं उससे तथा वह मुझसे अन्य नहीं, -इस समझ) से आराध्य के सतत स्मरण में संलग्न रहता है, वह अवश्य ही साधु है । दूसरी ओर जो व्यक्ति भक्ति का दम्भ करता है और अपने दुराचार को इस श्लोक के माध्यम से सही सिद्ध करने का प्रयास करता है, वह स्वयं को ही छलता है ।
 
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’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro' - indulging in bad, immoral / unethical activities,

Chapter 9, shloka 30,

api chetsudurAchAro
bhajate mAmananybhAk |
sAdhureva sa mantavyaH
samyagvyavasito hi saH ||
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Meaning :
Though A man who is given to bad habits and temperaments, if worships Me, with undivided devotion, should be considered a righteous, for he is going on the right path.  
Note :
A man (because of the past tendencies, environment or bad company, under compulsions, which he is unable to overcome) who is given to bad habits and temperaments, (but also feels guilty for the same,) worships Me with undivided devotion, should be considered a righteous, for he is going on the right path.
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Friday, March 28, 2014

आज का श्लोक, ’सुदुर्दर्शम्’ / 'sudurdarshaM'

आज का श्लोक, ’सुदुर्दर्शम्’ / 'sudurdarshaM'
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’सुदुर्दर्शम्’ / 'sudurdarshaM' -  शोभनीय दर्शन, जो अत्यन्त दुर्लभ हो ।

अध्याय 11, श्लोक 52,

श्री भगवानुवाच -
सुदुर्दर्शनमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥
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(सुदुर्दर्शनम् इदम् रूपम् दृष्टवान् असि यन्मम ।
देवाः अपि अस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥
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भगवान् श्रीकृष्ण बोले -
मेरे जिस रूप का दर्शन तुमने किया, यह अत्यन्त दुर्लभ है । देवता भी मेरे उस रूप के दर्शन की आकाङ्क्षा सदैव किया करते हैं ।
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’सुदुर्दर्शम्’ / 'sudurdarshaM' - Such a form, hardly visible, and only to a rare-one.

Chapter 11, shloka 52,
Lord kRShNa said :
sudurdarshamidaM rUpaM
dRShTavAnasi yanmama |
devA apyasya rUpasya
nitya darshanakAMkShiNaH ||
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Meaning : This My form, that I revealed before you, is visible only to a fortunate  rare fortunate one. Even the gods ever long for having a glance of this.
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आज का श्लोक, ’सुदुर्लभः’ / 'sudurlabhaH'

आज का श्लोक, ’सुदुर्लभः’ / 'sudurlabhaH'
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’सुदुर्लभः’ / 'sudurlabhaH' अत्यन्त दुर्लभ, बिरला ही कोई,

अध्याय 7, श्लोक 19,

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः
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(बहूनाम् जन्मनाम्-अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम्-इति सः महात्मा सुदुर्लभः ॥)
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भावार्थ :
बहुत से जन्मों (और पुनर्जन्मों) के बाद, अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ मनुष्य मेरी ओर आकर्षित होता है, मुझे भजता है । ऐसा वह मनुष्य, जिसकी दृष्टि में सब कुछ केवल वासुदेव ही होता है, वह महात्मा अत्यन्त ही दुर्लभ होता है ।
--
टिप्पणी :
’वासुदेव’ शब्द का तात्पर्य दो प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है । ’निवसति यो हृदये सर्वस्मिन् / सर्वेषु’ के अनुसार सारे भूतमात्र में विद्यमान देव / ईश्वर अर्थात् चैतन्य-तत्व, और ’वसुदेव का पुत्र श्रीकृष्ण’ ।
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’सुदुर्लभः’ / 'sudurlabhaH' - a very rare,

Chapter 7, shloka 19,
bahUnAM janmanAmante
jnAnavAnmAM prapadyate |
vAsudevaH sarvamiti
sa mahAtmA sudurlabhaH ||
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After many births (and rebirths) in the last birth, the jnAnI (Man who has attained the wisdom and Me as well) realizes Me as vAsudeva, The Consciousness Supreme, who abides ever in the hearts of all beings.
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Note : the word 'vAsudeva' may be taken in two ways;
The son of vasudeva, -kRShNa, And One who dwells as Consciousness in the heart of all.
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आज का श्लोक, ’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM'

आज का श्लोक, ’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM'
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’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM' - बहुत कठिन,

अध्याय 6, श्लोक 34,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्
--
(चञ्चलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत्-दृढम् ।
तस्य-अहं निग्रहम् मन्ये वायोः-इव सुदुष्करम् ॥)
--
भावार्थ :
क्योंकि हे कृष्ण, (यह मेरा) मन बड़ा चञ्चल, विक्षोभ के स्वभाववाला, बलशाली तथा दृढ (हठी) है । मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना वायु को रोकने की तरह एक बहुत कठिन कार्य है ।
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’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM' - a difficult task,

Chapter 6, shloka 34,

chanchalaM hi manaH kRShNa
pramAthi balavaddRDhaM |
tasyAhaM nigrahaM manye
vAyoH-iva suduShkaraM ||
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O kRShNa! Certainly, (This) mind by the very nature, is restless,, turbulent, very powerful, and obstinate. Keeping it under check seems to me as difficult as controlling the movement of the wind.
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आज का श्लोक, ’सुनिश्चितम्’ / 'sunishchitam'

आज का श्लोक, ’सुनिश्चितम्’ / 'sunishchitaM',
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’सुनिश्चितम्’ / 'sunishchitaM',
  
अध्याय 5, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणा कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकम् तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
इस श्लोक का भावार्थ समझने के लिए पिछले अध्याय 4 के अंतिम दो श्लोकों 41 तथा 42 का अवलोकन करना सहायक होगा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं,
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयः ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥...(अध्याय 4, श्लोक 41,)
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥...(अध्याय 4, श्लोक 42,)
अर्जुन को यह स्पष्ट नहीं है कि योग-बुद्धि की सहायता से कर्म का सम्यक् निर्वाह (या 'त्याग')  करते हुए उनका सन्न्यास करने वाला (सन्न्यासी) अपने संशय को ज्ञान रूपी तलवार से  काटकर ही ऐसा कर पाता है । और इसलिए अर्जुन को अपने प्रश्न की वैधता पर भी कोई शंका तक नहीं है । जबकि भगवान् कह रहे हैं कि साङ्ख्य तथा योग वस्तुतः अभिन्न हैं : (इसी अध्याय 5 के श्लोक क्रमांक 4 में ) । साङ्ख्य का तात्पर्य है ’आत्मनो जडवर्गात् पृथग्ग्रहणम्’ अर्थात् ’आत्मा और जडवर्ग को परस्पर भिन्न स्वरूप का समझना’ । इसलिए इस स्पष्टता के होने का, ’आत्म-ज्ञान’ का कर्म से प्रत्यक्ष या परोक्षतः भी कोई आश्रय-आश्रित्य-संबंध नहीं है । इसलिए अर्जुन इस विषय में भ्रमित है, इसे इंगित न करते हुए, भगवान् उसके प्रश्न को पहले तो एक मोड़ देते हुए कहते हैं  कि संन्यास तथा कर्मयोग दोनों ही परम श्रेयस्कर हैं और उन दोनों में भी, कर्मों के सम्यक् निर्वाहपूर्वक संन्यास ( त्याग) हो पाने से, उनके कर्तृत्व की भावना, - अपने कर्ता होने के अभिमान, विचार, मान्यता के छूटने से पहले तक तो कर्मयोग अर्थात् कर्मों को यथासंभव निष्काम भाव से करते रहना ही संन्यास (कर्म का स्वरूप से ही त्याग कर देना ) से निश्चित रूप से श्रेष्ठ है । और इसके बाद स्पष्ट करते हैं कि वस्तुतः साङ्ख्य तथा योग परस्पर भिन्न नहीं है, केवल अपरिपक्व (बाल) बुद्धि वाले ही उन्हें पृथक्-पृथक् समझते हैं, - और किसी एक में भी ठीक से स्थित हुआ मनुष्य दोनों के फल को प्राप्त हो जाता है -
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलं ॥ ...(अध्याय 5, श्लोक 4)
--
’सुनिश्चितम्’ / 'sunishchitaM', - conclusively, ending doubt, beyond doubt,

Chapter 5, shloka 1,

arjuna uvAcha :
sannyAsaM karmaNAM kRShNa
punaryogaM shansasi |
yachchhreya etayorekaM
tanme brUhi sunishchitaM ||
--
Meaning :
arjuna asked :
O kRShNa! You first praised renounciation of karma (action) and now you extol yoga (performing actions in some specific ways like 'bhakti', 'abhyAsa', 'dhyAna', 'samarpaNa', 'kriyA-yoga'...with or without anticipating a certain desired result in one's surrendering the actions and the fruites to God 'niShkAma-karma', or ' karma-sannyAsa') .
The present shloka 1 of Chapter 5, read with the earlier 2 shlokas 41 st and 42 nd, of Chapter 4, makes it clear that arjuna could not grasp what kRshNa had in mind and intended to teach to arjuna, and that is the reason, this doubt arose in the mind of arjuna if he should follow the way of 'sAnkhya' or the way of 'yoga' !
gitA, begins with the theory / doctrine of sAnkhya. Which is a 'darshana'.[And NOT a 'Thought' that is the center / axis of a 'philosophy']

sAnkhya is the theory and doctrine, while 'yoga' is the implementation, practice of the same. So there are as many ways of practising 'yoga', but the ultimate goal is the same. To reveal the Reality / Self / Truth.
sAnkhya, as such does not talk of God as a ruler that ordains the Existence. sAnkhya does not dictate a theory, but begins with the assertion;
’आत्मनो जडवर्गात् पृथग्ग्रहणम्’  or treating the 'Self' / 'I' as a kind different and other than 'this' / 'that' / nature / prakRti.
The whole play of existence is reduced to, encapsulated into the prime truth : the observer and the observed.
And this is so evident a fact that no one can deny or refute.
This assertion of 'Self' and the perception of this Reality varies according to one's mind-set, 'acquired knowledge' and because of NOT-ENQUIRING into the nature of the 'Self'.
'Yoga' is a 'darshana' and 'doctrine' too like sAnkhya, but in usage, the word has been referred to as 'practice' / 'implementation' also.
kRshNa in those 2 last shlokas 41, 42 of Chapter 4, has thus made it clear :
yogasannyastakarmANaM
jnAnasanchhinnasaMshayaM |
AtmavantaM na karmANi
nibadhnanti dhananjaya || ... 4/41,
Meaning :
"One, who by means of practising yoga, has seen that  the sense of 'I am doer' is a false notion, at once is free from all action, because his doubts have been cut asunder / removed, and he  is a 'sannyAsI'. Such a one who has realized the 'Self' is no more binded by the action (karma)."

and,
tasmAdajnAnasambhUtaM
hRtsthaM jnAnAsinAtmanaH |
chhittvainaM saMshayaM yoaga-
mAtiShThottiShTha bhArata || ... 4/42.
--
Because arjuna could not grasp what kRShNa taught him, and had doubts about what way should one follow which will lead to the state of clarity of mind. Therefore he put forward his doubts Lord kRShNa.
Sensing arjuna is not aware that sAnkhya and yoga are entirely one and the same, kRShNa accepted his question as if a legitimate one, and explained in the next 2nd shloka;
'though renouncing the action (sannyAsa) or carrying out them with surrendering them to Lord and / or without thinking of the fruits (karma-yoga) both these ways lead to the same goal (of liberation), the latter is superior.
The Lord had already explained in the shloka 41 of the previous chapter, how this state of mind is attained by practicing yoga of one's own inclination and temperament, and when so attained the 'ajnAna' / ignorance about the nature of 'Self' is destroyed, and taught to arjuna to follow that yoga in order to attain this.
From arjuna's doubt, Lord kriShNa gave a turn to his question and explained according to his perception about sAnkhya and yoga. Accordingly in shloka 2 of Chapter 5, He (Lord shrIkRShNa) convinced him that the latter is superior.
Then removing his confusion, He explains in shloka 4 of this same Chapter 5,  
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलं ॥ ...(अध्याय 5, श्लोक 4)
sAnkhya yogau pRthagbAlA
pravadanti na paNDitAH |
ekamapyAsthitaH samyag-
ubhayorvindate phalaM || ... 5/4.
--
Meaning :
Only the immature talk of sAnkhya ( knowledge / awakening that liberates one and by which one knows the Reality / Brahman) and yoga (the way one practices to reach this wisdom) are different to one-another. The wise know well that one abiding in any of them in the right manner achieves the fruit of both, which is one and the same.
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Thursday, March 27, 2014

आज का श्लोक, ’सुरगणाः’ / 'suragaNAH'

आज का श्लोक, ’सुरगणाः’ / 'suragaNAH'
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’सुरगणाः’ / 'suragaNAH

अध्याय 10, श्लोक 2,

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहं आदिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
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(न मे विदुः सुरगणाः प्रभवम् न महर्षयः ।
अहम् आदिः हि देवानाम् महर्षीणाम् च सर्वशः ॥)
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भावार्थ :
मेरी उत्पत्ति (आविर्भाव) को न तो सुरगण जानते हैं, और न ही कोई भी महर्षि । क्योंकि मैं ही सब प्रकार से देवताओं का तथा महर्षियों का भी आदि कारण हूँ ।  

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’सुरगणाः’ / 'suragaNAH' - the various divine entities,

Chapter 10, shloka 2,
na me viduH suragaNAH
prabhavaM na maharShayaH |
ahamAdirhi devAnAM
maharShINAM cha sarvashaH ||
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Neither the various celestial beings / divine entities, nor the great sages know My origin, because I AM the very origin of all those divine entities and the Great sages.
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आज का श्लोक, ’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH'

आज का श्लोक, ’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH'
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’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH' - देवों के समुदाय,

अध्याय 11, श्लोक 21,
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
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(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
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भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
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’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH' - Gods together in many groups

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Chapter 11, shlok 21,

amI hi twAM surasanghA vishanti
kechid-bhItAH prAnjalayo gRNanti |
swastItyuktwA maharShi-siddha-sanghAH
stuvanti tvAM stutibhiH puShkalAbhIH ||
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Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', 'Save us please', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
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आज का श्लोक, ’सुराणां’ / 'surANAM'

आज का श्लोक, ’सुराणां’ / 'surANAM'
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’सुराणां’ / 'surANAM' - देवताओं का, देवों पर,

अध्याय  2, श्लोक 8,

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।
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(न हि प्रपश्यामि मम-अपनुद्यात्
यत्-शोकम्-उच्छोषणम्-इन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमौ-असपत्नम्-ऋद्धम्
राज्यम् सुराणाम्-अपि च आधिपत्यम् ॥)
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भावार्थ :
चूँकि शत्रुओं से रहित भूमि का स्वामित्व, धन-धान्य से सम्पन्न राज्य तथा देवताओं पर आधिपत्य होने पर भी  मुझे वह उपाय नहीं दिखलाई देता, जो  मेरी इन्द्रियों को सुखा देनेवाले इस शोक से मुझे छुटकारा दिला सके ।
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’सुराणां’ / 'surANAM' - of Gods, over Gods, heavens,

Chapter 2, shloka 8,
na hi prapashyAmi mamApanudyAd
yachchokamuchchhoShaNamindriyANAM |
awApya bhUmAvasapatnaMRddhaM |
rAjyaM surANAmapi chAdhipatyaM ||
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Because, even if I get the kingdom of this land bereft of the enemies and full of affluence, and the lordship of the heavens, I don't see a cause that would drive away my grief that is scorching my senses.
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आज का श्लोक, ’सुरेन्द्रलोकम्’ / 'surendralokaM'

आज का श्लोक, ’सुरेन्द्रलोकम्’ / 'surendralokaM'
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’सुरेन्द्रलोकम्’ / 'surendralokaM' - स्वर्गलोक,

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अध्याय  9, श्लोक 20,
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त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक -
श्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥
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(त्रैविद्याः माम् सोमपाः पूतपापाः
यज्ञैः इष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यम् आसाद्य सुरेन्द्रलोकम्-
अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥)

भावार्थ :
तीनों वेदों में वर्णित विधि विधान के अनुसार अभीष्ट की प्राप्ति हेतु यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले, सोमरस का पान करनेवाले, पापशून्य मनुष्य, जो पापों का प्रायश्चित / प्रक्षालन कर चुके हैं, इन यज्ञों के माध्यम से मेरी प्रार्थना कर अपने इन अर्जित पुण्यों के फल से स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं और स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं ।
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’सुरेन्द्रलोकम्’ / 'surendralokaM' - The heaven,
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Chapter 9, shlok 20,
traividyA mAM somapAH pUtapApA
yajnairiShTwA swargatiM prArthayante |
te puNyamAsAdya surendralokaM-
ashnanti divyAndivi devabhogAn ||
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Meaning :
Those learned in three vedas, who get the taste of 'soma' / nectar acquire merits and are cleansed of the sins, worship and pray me by means of the sacrifices according to the way as is instructed in vedas, attain the heaven and enjoy the celestial pleasures there.
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आज का श्लोक, ’सुलभः’ / 'sulabhaH'

आज का श्लोक ’सुलभः’ / 'sulabhaH
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’सुलभः’ / 'sulabhaH' - प्राप्तव्य, प्राप्य,

अध्याय 8,श्लोक 14,
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अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
--
(अनन्यचेताः सततं यः माम् स्मरति नित्यशः ।
तस्य अहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥)
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भावार्थ :
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हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही और निरन्तर मुझको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझसे संलग्न हुए योगी के लिए, मैं सदा और अनायास ही प्राप्तव्य हूँ ।
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’सुलभः’ / 'sulabhaH' -accessible, available, approachable,

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Chapter 8, shloka 14,
ananyachetAH satataM yo
mAM smarati nityashaH |
tasyAhaM sulabhaH pArtha
nityayuktasya yoginaH ||
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Meaning :
O partha (arjuna) ! I am easily available to one, who-so-ever always remembers Me without deviation, because of his constant association (bhakti-yuktaH) with Me.
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Wednesday, March 26, 2014

आज का श्लोक, ’सुविरूढमूलम्’ / 'suvirUDhamUlam'

आज का श्लोक ’सुविरूढमूलम्’ / 'suvirUDhamUlaM'
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’सुविरूढमूलम्’ / 'suvirUDhamUlaM' - जिसकी जड़ें बहुत शक्तिशाली और एक दूसरे से गुँथी हुई हैं ।

अध्याय 15, श्लोक 3,

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥

(न रूपम् अस्य इह तथा-उपलभ्यते
न-अन्तः न च आदिः न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थम् एनम् सुविरूढमूलम्
असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥)

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भावार्थ :
यहाँ, इस जगत् में, न तो इसका वास्तविक स्वरूप, न इसका अन्त, प्रारंभ, या वह आधार ही मन-बुद्धि इन्द्रियों आदि की पकड़ में आ पाता है, जो इसे बनाये रखता है ।  इस अत्यन्त दृढ़ और उलझी हुई जड़ों वाले अश्वत्थ को असङ्गरूपी शस्त्र से काटकर, ...



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’सुविरूढमूलम्’ / 'suvirUDhamUlaM'  - having strong and intertwined / entangled roots,

Chapter 15, shloka 3,


na rUpamasyeha tathopalabhyate
nAnto na chAdirna cha sampratiShThA |
ashvatthamenaM suvirUDhamUla
MasangashastreNa dRuDhena chhittvA ||
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Meaning : It is not possible to find out The real character and form of this ashvattha-tree* (the Indian Banyan, the holy-fig tree), which has strong entangled roots, has no beginning, nor the end, and neither there is any firm and stable ground to support and keep it secure.
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*Notes :
1.(discernible, though intangible).
2.This has been the basis of my 'Silent-Dialogues', -1 to 331.
(http://vinaykvaidya.blogspot.in/)
3.This is the mathematical way of treating the indescribable. Where the 'unknown' is kept 'undefined'. One can see a parallel of this approach in the Advanced Mathematics of this-day also, where some basic and fundamental elements have been left 'undefined'. An honest and humble acceptance and assertion that the doubt persists and really, we don't know.
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आज का श्लोक, ’सुसुखं’ / 'susukhaM'

आज का श्लोक, ’सुसुखं’ / 'susukhaM'
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’सुसुखं’ / 'susukhaM' - जिसे सुखपूर्वक किया जा सकता है,
 
अध्याय 9, श्लोक 2,

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
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(राजविद्या राजगुह्यं पवित्रम् इदम् उत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमम् धर्म्यम् सुसुखम् कर्तुमव्ययम् ॥)
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अध्याय 9 के प्रथम श्लोक,
"इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनुसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥"
का अवलोकन यहाँ प्रासंगिक है । विद्या का तात्पर्य है अभ्यास की पूर्णता । राजविद्या का अर्थ है श्रेष्ठतम विद्या, अर्थात् ’ब्रह्मविद्या’ । राजगुह्यम् अर्थात् सर्वाधिक अप्रकट, आवरित, छिपा हुआ, इसका दूसरा अर्थ है, - गोपनीय, जिसे हर किसी व्यक्ति के सामने प्रकट न किया जाए । अत्यन्त पवित्र और सर्वोत्तम । केवल उस पात्र अधिकारी के ही समक्ष इसका उल्लेख किया जाए जो इसे जानने के लिए उत्कण्ठित है ।  अर्थात् जो मुमुक्षु है । उस मुमुक्षु को ही यह राजविद्या प्रत्यक्ष अवगम्य है, वही इसे ठीक से ग्रहण कर सकता है । उसके लिए यह धर्म्य भी है । धर्म्य अर्थात् उसके लिए उसके धर्म के अनुकूल । सुसुखं, - जिसका आचरण वह न सिर्फ़ सरलतापूर्वक, बल्कि इससे भी बढ़कर सुखपूर्वक कर सकता है । अव्ययम् अर्थात् अनश्वर, अविनाशी, अविकारी, स्थिर, जो उस सुख का विशेषण और स्वतन्त्र संज्ञा भी हो सकता है ।  
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’सुसुखं’ / 'susukhaM' - That which can be practiced with joy, results in bliss,

Chapter 9, shloka 2,

rAjavidyA rAjaguhyaM
pavitramidamuttamaM |
pratyakShAvagamaM dharmyaM
susukhaM kartumavyayaM |
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This is royal knowledge, and royal secret also, Supremely sacred, is directly understood and grasped,  full of virtue when practised, filled with joy, imperishable and convenient as well.
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Tuesday, March 25, 2014

आज का श्लोक, ’सुहृत्’ / 'suhRt'

आज का श्लोक ’सुहृत्’ / 'suhRt'
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’सुहृत्’ / 'suhRt' - आत्मीय, आराध्य,

अध्याय 9, श्लोक 18,
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गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥
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(गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणम् सुहृत्
प्रभवः प्रलयः स्थानम् निधानम् बीजम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
सभी का परम गंतव्य, पालनहारा, स्वामी, सबमें साक्षी की तरह विद्यमान, सबका वास्तव्य, शरण, और सुहृद्, सबके उद्भव तथा लय का हेतु, सब का आधार, निधान, (जिसे त्यागा न जा सके) और  कारण, अव्यय ।
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’सुहृत्’ / 'suhRt' - the Beloved Supreme,

Chapter 9, shloka 18,

gatirbhartA prabhuH sAkShI
nivAsaH sharaNaM suhRt |
prabhavaH pralayaH sthAnaM
nidhAnaM bIjamavyayaM ||

Meaning :
(I AM) the destination, the sustain-er, the Lord, the witness, the abode, the shelter, the very heart / the Friend and Beloved, I am the origin, evolution and the dissolution, The Ultimate, the imperishable seed and the only refuge.
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आज का श्लोक, ’सुहृदं’ / 'suhRdaM'

आज का श्लोक, ’सुहृदं’ / 'suhRdaM'
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’सुहृदं’ / 'suhRdaM' - आत्मीय को,

अध्याय 5, श्लोक 29,
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भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
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(भोक्तारम् यज्ञतपसाम् सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदम् सर्वभूतानाम् ज्ञात्वा माम् शान्तिम् ऋच्छति ॥)
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भावार्थ :
सब यज्ञों और तपों के भोगनेवाले, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर, सभी भूतप्राणियों के आत्मीय, मुझको जानकर शान्ति को प्राप्त होता है ।
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’सुहृदं’ / 'suhRdaM' - (to) The most beloved,

Chapter 5, shloka 29,

bhoktAraM yajna-tapasAM
sarvaloka-maheshvaraM |
suhRdaM sarvabhUtAnAM
jnAtvA shAntimRchchhati ||
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Knowing, Me / I AM, the goal of all sacrifices and austerities, The Lord of all the worlds and their respective gods, And beloved of all beings, one attains supreme peace.
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आज का श्लोक, ’सुहृदः’ / 'suhRdaH'

आज का श्लोक, ’सुहृदः’ / 'suhRdaH'
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’सुहृदः’ / 'suhRdaH' - आत्मीय,

अध्याय 1, श्लोक 27,
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श्वसुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥
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श्वसुरान् सुहृदः च एव सेनयोः उभयोः अपि ।
तान् समीक्ष्य सः कौन्तेयः सर्वान् बन्धून् अवस्थितान् ॥)
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भावार्थ :
श्वसुरों को, सुहृदों को, दोनों ही सेनाओं में अवस्थित अपने सारे बन्धुओं को देखकर वह कुन्तीपुत्र अर्जुन,....
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’सुहृदः’ / 'suhRdaH' - beloved, dear,

Chapter 1, shloka 27,

shvasurAnsuhRdashchaiva
senayorubhayorapi |
tAnsamIkShya sa kaunteya
sarvAnbandhUnavasthitAn ||
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Meaning :
(He, -arjuna saw there,) his fathers-in-law,  dear-ones and well-wishers, standing before him in both the armies. And Having seen them all his brethren, ...
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आज का श्लोक, ’सुहृन्मित्रारि...’ / 'suhRnmitrAri...'

आज का श्लोक ’सुहृन्मित्रारि...’ / 'suhRnmitrAri...'
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’सुहृन्मित्रारि...’ / 'suhRnmitrAri...' - *

अध्याय 6, श्लोक 9,
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सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
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(सुहृत्-मित्र-अरि-उदासीन-मध्यस्थ-द्वेष्य-बन्धुषु
साधुषु अपि च पापेषु समबुद्धिः वोशिषिष्यते ॥)
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भावार्थ :
*सुहृत् - प्रत्युपकार न चाहते हुए उपकार करनेवाला,
मित्र - स्नेह रखनेवाला,
अरि - शत्रु,
उदासीन - पक्षपातरहित,
मध्यस्थ - जो परस्पर विरोध रखनेवालों दोनों पक्षों का हितैषी हो,
द्वेष्य - अपना अप्रिय,
बन्धुः - संबंधी,
साधु अर्थात् शास्त्र के अनुसार श्रेष्ठ आचरणकरनेवाले,
एवं निषिद्ध कर्म करनेवाले, इन सबमें जो समबुद्धिवाला है, अर्थात्
कौन कैसा है इस बारे में निर्णय नहीं देता, ऐसा योगी योगारूढ पुरुषों में
उत्तम है ।
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’सुहृन्मित्रारि...’ / 'suhRnmitrAri...' - *
Chapter 6, shloka 9,

suhRnmitrAryudAsIna-
madhyasthadveShyabandhuShu |
sAdhuShvapi cha pApeShu
samabuddhirvishiShyate |
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One who regards the honest well-wishers, friends, enemies, the neutrals beteen the mediaters, those who try to help reconcile their differences, those who one does not like, the saints and sinners alike with the same evenness of mind, is a yogi far advanced.
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Monday, March 24, 2014

आज का श्लोक, ’सूक्ष्मत्वात्’ / 'sUkShmatvAt'

आज का श्लोक, ’सूक्ष्मत्वात्’ / 'sUkShmatvAt'
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’सूक्ष्मत्वात्’ / 'sUkShmatvAt' -सूक्ष्म, बारीक, महीन होने से,

अध्याय 13, श्लोक 15,

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वादविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥

(बहिः अन्तः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च ।
सूक्ष्मत्वात् अविज्ञेयं दूरस्थम् च अन्तिके च यत् ॥

भावार्थ :
वह, जो सभी चर एवं अचर भूतों के रूप में तथा उनसे भीतर-बाहर भी है, जो दूर से दूर एवं निकट से भी समीप है, सर्वाधिक सूक्ष्म होने के कारण मन-बुद्धि एवं इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आ पाता ।  
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’सूक्ष्मत्वात्’ / 'sUkShmatvAt' - because is subtle-most.
Chapter 13, shloka 15,
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bahirantashcha bhUtAnAM
acharaM charameva cha |
sUkShmatvAdavijneyaM
dUrasthaM chAntike cha tat ॥
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Meaning :
That (Brahman), Who dwells within and without, in all beings and beyond them, He is farther than the farthest and near than the nearest, being subtle-most, is beyond the grasp of the senses, mind or intellect.
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आज का श्लोक, ’सूतपुत्रः’ / 'sUtaputraH'

आज का श्लोक, ’सूतपुत्रः’ / 'sUtaputraH'
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’सूतपुत्रः’ / 'sUtaputraH' - कर्ण,

अध्याय 11, श्लोक 26,
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अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः
सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥
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(अमी च त्वाम् धृतराष्ट्रस्य पुत्राः
सर्वे सह-एव अवनि-पाल-सङ्घैः ।
भीष्मः द्रोणः सूतपुत्रः तथा असौ
सह-अस्मदीयैः योधमुख्यैः ॥)

भावार्थ :
वे सभी, -धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय के साथ साथ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य भी, तथा वह सूतपुत्र कर्ण, हमारे पक्ष के भी प्रमुख योद्धाओं सहित आपमें ....

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’सूतपुत्रः’ / 'sUtaputraH' -  karNa,

Chapter 11, shloka 26,
amI cha tvAM dhRtarAShTrasya putrAH
sarve sahaivAvanipAlasanghaiH |
bhIShmo droNaH sUtaputrastathAsau
sahAsmadIyairapi yodhamukhyaiH ||
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Meaning :
All those sons of king dhRtarAShTra, together with all the kings assembled there, along with bhIshma, droNa, karNa, and also the chief warriors on our side, (are drawn ) towards You.

आज का श्लोक, ’सूत्रे’ / 'sUtre'

आज का श्लोक, ’सूत्रे’ / 'sUtre'
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’सूत्रे’ / 'sUtre' - धागे में,

अध्याय 7, श्लोक 7,
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
(मत्तः परतरं न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वं इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगणाः इव ॥)
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(मत्तः परतरम् न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगणाः इव ॥)
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हे धनञ्जय (अर्जुन)! मुझसे भिन्न, परम (कारण)  दूसरा कुछ नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान मुझमें ही अनुस्यूत है ।
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’सूत्रे’ / 'sUtre' - in the thread,

Chapter 7, shloka 7,
mattaH parataraM nAnyat-
kinchidasti dhananjaya |
mayi sarvamidaM protaM
sUtre maNigaNA iva ||
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O dhananjaya (arjuna)! There is nothing whatsoever, (Cause Supreme) that excels Me. Just as the pearls threaded in a string, This All manifest rests in Me.
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आज का श्लोक, ’सूयते’ / 'sUyate'

आज का श्लोक, ’सूयते’ / sUyate'
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’सूयते’ / 'sUyate' -  रचती / जन्म देती है,

अध्याय 9, श्लोक 10,
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मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥
--
(मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते स-चराचरम् ।
हेतुना-अनेन कौन्तेय जगत् परिवर्तते ॥)
--
--
भावार्थ :
मेरे ही पूर्ण नियंत्रण में प्रकृति चर-अचर जगत् को जन्म देती है । इन हेतुओं से, इन कारणों, उद्देश्यों, प्रयोजनों आदि से, जगत् सतत् परिवर्तनों से गुज़रता हुआ प्रतीत होता रहता है ।
--
’सूयते’ / 'sUyate' - manifests, delivers,
Chapter , shloka ,
--
mayAdhyakSheNa prakRtiH
sUyate sa-charAcharaM |
hetunAnena kaunteya
jadadviparivartate ||
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Under My Authority, prakRti (The nature with its three attributes) manifests / gives birth to all animate and inanimate beings. And because of this reason only, world is in a state of continuous change.
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आज का श्लोक, ’सूर्यसहस्रस्य’ / 'sUryasahasrasya'

आज का श्लोक, ’सूर्यसहस्रस्य’ / 'sUryasahasrasya'
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’सूर्यसहस्रस्य’ / 'sUryasahasrasya' - हज़ारों सूर्यों के,

अध्याय 11, श्लोक 12,
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दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
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(दिवि सूर्य-सहस्रस्य भवेत्-युगपत्-उत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्यात्-भासः तस्य महात्मनः ॥)
--
भावार्थ :
आकाश में हजार सूर्य यदि एक साथ उदय हो उठें तो उनसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश भी कदाचित् ही उन महात्मा (श्रीकृष्ण) के उस प्रकाश के तुल्य हो ।
--
’सूर्यसहस्रस्य’ / 'sUryasahasrasya' - a thousand Suns.

Chapter 11, shloka 12,
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divi sUryasahasrasya
bhavedyugapadutthitA |
yadi bhAH sadRushI sA syAd-
bhAsastasya mahAtmanaH ||
--
Meaning :
Even if a thousand suns rise up and shine together in the sky, the radiance they would spread out, will be nothing in comparison to the splendor of this Great Being (kriShNa)
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आज का श्लोक, ’सूर्यः’ / 'sUryaH',

आज का श्लोक, ’सूर्यः’ / 'sUryaH'
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’सूर्यः’ / 'sUryaH' - सूर्य,

अध्याय 15, श्लोक 8,
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(न तत्-भासयते सूर्यः न शशाङ्कः न पावकः ।
यत्-गत्वा न निवर्तन्ते तत्-धाम परमं मम ॥)
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भावार्थ :
मेरा वह परम धाम वह परम पद है, जिसे प्राप्त होकर मनुष्य संसार में लौटकर नहीं आते, जिसे न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न ही चन्द्र, और न अग्नि ।  
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’सूर्यः’ / 'sUryaH' -The Sun.

Chapter 15, shloka 6,
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na tadbhAsayate sUryo 
na shashAngko na pAvakaH |
yadgatvA na nivartante
taddhAma paramaM mama ||
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Meaning :
My abode, Where I ever abide, Which is illuminated by Me / My own Light, and not by the Sun or by the Moon, nor by the Fire. And Those Who attain That never return from There. (Never return to this life and existence of repeated births, rebirths and misery).
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Sunday, March 23, 2014

आज का श्लोक, ’सृजति’ / 'sRjati',

आज का श्लोक, ’सृजति’ / 'sRjati',
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’सृजति’ / 'sRjati', - उत्पन्न करता है,

अध्याय 5, श्लोक 14,

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न  कर्मफलसंयोगं  स्वभावस्तु  प्रवर्तते ॥
--
(न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न  कर्मफलसंयोगं  स्वभावः तु प्रवर्तते ॥)
--
भावार्थ :
परमेश्वर न तो (मनुष्य में) कर्तृत्व की भावना उत्पन्न करते हैं, न वे (मनुष्य के द्वारा) घटित होनेवाले कर्मों का, और न ही इन कर्मफलों के परस्पर संयोग का सृजन करते हैं । यह तो स्वभाव ही है, जो अपनी गतिविधि में सतत् क्रियाशील है ।

--
’सृजति’ / 'sRjati', - causes,

Chapter 5, shloka 14,
--
na kartRtvaM na karmANi
lokasya sRjatiprabhuH |
na karmaphalasanyogaM
swabhAvastu pravartate ||
--
Meaning :
Neither the sense 'I am doer', nor the actions of men are decided by God, And nor He (God) decides about what actions will bring when and what fruits. It is all in the nature of things that happen on their own.
--

आज का श्लोक, ’सृजामि’ / 'sRjAmi'

आज का श्लोक, ’सृजामि’ / 'sRjAmi',
______________________________
’सृजामि’ / 'sRjAmi'

अध्याय 4, श्लोक 7,
--
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
--
(यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत ।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदा-आत्मानम् सृजामि अहम् ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत! जब जब धर्म की क्षति और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने-आपका सृजन करता हूँ ।
(इस सृजन का तात्पर्य क्या है इसको अगले ही श्लोक, - अध्याय 4, श्लोक 8, में स्पष्ट किया गया है ।)

टिप्पणी :
गीता का अध्ययन या तो वेद-दृष्टि के आधार पर किया जा सकता है, या पुराण-दॄष्टि के आधार पर इस बारे में पृथक् से, और कुछ विस्तारपूर्वक, कृपया इस ब्लॉग की 'प्रसंगवश' (पिछली ) प्रविष्टि में देखें !

--
’सृजामि’ / 'sRjAmi' - (I) reconstruct  / manifest Myself.

Chapter 4, shloka 7,

yadA yadA hi dharmasya
glAnirbhavati bhArata |
abhyutthAnamadharmasya
tadAtmAnaM sRjAmyahaM ||
--
Whenever the dharma (following of the natural tendencies / conscience, that leads one to work selflessly for the good of all) prevails no more, and adharma ( following and fulfilling one's own selfish motives, without considering others' good) takes over, O bhArata! I manifest Myself.
--


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प्रसंगवश - वेद-दृष्टि और पुराण-दृष्टि

प्रसंगवश, 
अध्याय 4 श्लोक 7

वेद-दृष्टि और पुराण-दृष्टि
_____________________

गीता का अध्ययन करनेवाले और उस पर टीका लिखनेवाले महापुरुषों ने मुख्यतः वेद-दृष्टि या पुराण-दृष्टि के आधार पर अपना अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । यहाँ आशय उन विद्वानों से नहीं है जिन्होंने गीता का किसी दूसरी भाषा में ’अनुवाद’ किया है या जिन्होंने गीता पर ’प्रवचन’ दिए हैं या देते हैं । यहाँ लक्ष्य केवल इतना है कि वेद-दृष्टि और पुराण-दृष्टि क्या है इसे समझने का प्रयास किया जा रहा है ।  भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप को वैदिक तथा ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से देखने पर इसे और स्पष्टतापूर्वक समझा जा सकता है । यदि हम भगवान् श्रीकृष्ण को महाभारत के चरित्र-विशेष के रूप में देखें और तदनुसार उन्हें एक अत्यन्त महान् मनुष्य / आत्मा तक ही सीमित रखें तो हम गीता को मात्र ऐतिहासिक दृष्टि से देखेंगे और उसी प्रकार से अपनी समझने की क्षमता की सीमा तक ही गीता और भगवान् श्रीकृष्ण के यथार्थ को ग्रहण कर पाएँगे । फ़िर, हमारे समझने की यह ’क्षमता’ भी हमारी शिक्षा-दीक्षा, भाषा, पारंपरिक, रूढिगत, पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि, वातावरण तथा प्रभावों से कम या अधिक परिष्कृत/ अपरिष्कृत होगी । और तब हमारी अपनी ’मान्यताओं’ और ’संस्कारों’ से तदनुसार गीता और भगवान् श्रीकृष्ण का हमारे द्वारा ग्रहण किए जा रहे ’यथार्थ’ से भिन्न, अनुकूल या शायद प्रतिकूल मन्तव्य, हमारा उनके बारे में होगा । यह तो हुई एक साधारण-दृष्टि, जो मुख्यतः गीता को एक ऐतिहासिक ग्रन्थ और श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व को एक चरित्र-विशेष मानकर चलती है  ।
गीता पर भगवान् शङ्कर आचार्य द्वारा लिखे गए में हमें वैदिक एवं पौराणिक, दोनों दृष्टियों का समन्वय प्राप्त होता है । इस बारे में संशय नहीं कि जहाँ वेद को ’अपौरुषेय’ माना जाता है, वहीं पुराणों के बारे में ऐसा नहीं है । इसलिए पुराण वेद की सत्ता को स्वीकार करते हैं और उस आधार की ही पुष्टि करते हैं । जबकि वेद में ’पुराण’ शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में है, किसी ग्रन्थ के अर्थ में नहीं । वेद ’विधान’ / 'constitution' है, जो ’काल’ का भी नियंता है । पुराण ’काल’ के अन्तर्गत ही ’ईश्वर’ तथा सृष्टि के बारे में कहते हैं । और इसलिए वेद ’अवतार’ के संदर्भ में कुछ नहीं कहते जबकि पुराण विस्तार से किसी अवतार-विशेष पर केन्द्रित होते हैं । पुराण शब्द का तात्पर्य ही है काल-विशेष, पहले का, अभी का या भविष्य का । इसलिए ’भविष्य-पुराण’ भी पाया जाता है । वेदों और पुराणों में ’काल’ का स्वरूप दो स्तरों पर पाया जाता है । एक है ’वर्तमान’ - जो बीतता है । दूसरा है वह जो नहीं बीतता, जो अक्षय है । इसे हम इस प्रकार से समझ सकते हैं _
विज्ञान के नियम जो सदा सर्वत्र लागू समझे जाते हैं, उनका आविष्कार जिस ’समय’ में होता है, वह ’समय’ ’काल’ का वर्तमान-रूप होता है, जबकि वे नियम और उनका नियामक / नियंता इस ’वर्तमान’ से स्वतन्त्र है ।
वैज्ञानिक द्वारा खोजे जानेवाले ’नियम’ किसी विशेष समय में नहीं बनते । वे तो उनके आविष्कार से पहले और बाद भी कार्यरत रहते हैं । काल के व्यवधान से रहित । इसलिए ’समय’ की सत्ता / सत्यता हमेशा व्यक्ति-केन्द्रित होती है, जबकि ’काल’ की सत्ता व्यक्ति-निरपेक्ष । इस आधार पर ’समष्टि-सत्ता’ या तो परम-निरपेक्ष सत्य मात्र है और वहाँ व्यक्ति का स्थान नहीं हो सकता, या सापेक्ष स्तर पर समस्त ’व्यक्तियों’ के ’समय-सापेक्ष-अस्तित्वों’ का जोड़ । ’व्यक्ति-निरपेक्ष अस्तित्व वैदिक दृष्टि है, इसलिए वेद के अनुसार परम सत्ता को ’एक’ या ’अनेक’ की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता । अथर्व वेद में प्रस्तुत न्याय / अवगम् (reasoning) अद्भुत् गणितीय आधार पर उस परम सत्ता का वर्णन करता है । यह कोरा तर्क-शास्त्र नहीं है जो परिभाषाओं और मान्यताओं के आधार पर रास्ता टटोलता हो । किन्तु उसे समझ पाने के लिए जो उत्कटता चाहिए, साधारण मनुष्य में वह प्रायः नहीं होती । क्योंकि उसके लिए कुछ दूसरी वस्तुएँ अधिक महत्वपूर्ण त्वरित, तूर्त / urgent ज़रूरी और परम आवश्यक होती हैं ।
इसलिए जब पौराणिक दृष्टि से गीता का आवलोकन किया जाता है तो भगवान् श्रीकृष्ण को ईश्वर के ’अवतार’ की तरह ग्रहण किया जाता है और साधारण मनुष्य के लिए इतना ही पर्याप्त है । क्योंकि तर्क और विवेचना की भूलभुलैया में तो विद्वान् भी परस्पर विपरीत और भिन्न मतों के अनुयायी होते हैं । अतएव हमें अपने अज्ञान को स्वीकार कर उस ’विधाता’ के प्रति पूर्ण समर्पण कर देना सहज स्वाभाविक होना चाहिए । 
अपनी अपनी अभिरुचि और पात्रता के अनुसार मनुष्य मात्र गीता से उचित अभिप्राय एवम् मार्गदर्शन ग्रहण कर सकता है ।
--

आज का श्लोक, ’सृती’ / 'sRtI'

आज का श्लोक, ’सृती’ / 'sRtI'
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’सृती’ / 'sRtI' -( सृ ’गति’ के अर्थ में, सृति,
सृतिः > मार्ग,  > सृती; द्विवचन, दो मार्ग, दो मार्गों को*,)

अध्याय 8, श्लोक 27,
--
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
--
(न एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्-सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥)
--
भावार्थ :
इन दोनों मार्गों को* जानता हुआ कोई भी योगी मोहबुद्धि से ग्रस्त नहीं होता, अर्थात् मृत्यु के बाद भविष्य में होनेवाली उसकी गति / अवस्था के बारे में उसे दुविधा नहीं होती ।
इसलिए हे अर्जुन! तुम सभी कालों में, सदैव ही योगयुक्त हो रहो ।
(*इसी अध्याय 8 में पिछले श्लोक, क्रमांक 26 में वर्णित ’शुक्ल’ तथा ’कृष्ण’ गतियाँ)
--
’सृती’ / 'sRtI' - the two different paths* available to a yogI after his death.

Chapter 9, shloka 27,

naite sRtI pArtha jAnan
yogI muhyati kashchana |
tasmAtsarveShu kAleShu
yogayukto bhavArjuna ||
--
Meaning :
These two different paths* are available to one who practises the way of 'Yoga'. Therefore O arjuna! keep on practising Yoga at all times.
*The two paths (’शुक्ल’, shukla and ’कृष्ण’ kRShNa,) as described in the previous shloka 26 of this chapter 8)
--

आज का श्लोक, ’सृष्टम्’ / 'sRShTaM'

आज का श्लोक, ’सृष्टम्’ / 'sRShTaM'
______________________________
’सृष्टम्’ / 'sRShTaM' - रचित, रचा गया, रचा हुआ,

अध्याय 4, श्लोक 13,
--
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
--
(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
--
Chapter 4, shloka 13,

’सृष्टम्’ / 'sRShTaM' - created. / creation ,

chAturvarNyaM mayA sRShTaM
guNakarmavibhAgashaH |
tasya kartAraM api mAM
viddhyakartAramavyayaM ||
--
Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer.    
--

Saturday, March 22, 2014

आज का श्लोक, ’सृष्ट्वा’ / 'sRShTwA'

आज का श्लोक, ’सृष्ट्वा’ / 'sRShTwA'
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’सृष्ट्वा’ / 'sRShTwA' - सृजन करने के बाद,

अध्याय 3, श्लोक 10,
--
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥
--
(सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरा उवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वम् एषः वः अस्तु इष्टकामधुक् ॥)
--
भावार्थ :
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदिकाल में यज्ञसहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुमलोग इस यज्ञ के द्वारा समृद्धि और विकास को प्राप्त होओ, यह यज्ञ तुम लोगों को तुम्हारे इच्छित भोगों को प्रदान करनेवाला होगा ।
--
’सृष्ट्वा’ / 'sRShTwA' - having created,
Chapter 3, shloka 10,
--
sahayajnAH prajAH sRShTwA
purovAcha prajApatiH |
anena prasaviShyadhvaM-
eSha vo'stviShTakAmadhuk ||
Meaning :
In the ancient times, when through performing the sacrifices He created the generations, The Lord of the creatures (brahmA) said to them;
"Through this sacrifice, May you prosper and beget your off-springs, and fulfill your heart-felt desires and wishes."
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आज का श्लोक, ’सेनयोः’ / 'senayoH',

आज का श्लोक, ’सेनयोः’ / 'senayoH'
__________________________________

’सेनयोः’ / 'senayoH' - दोनों सेनाओं के मध्य, दोनों सेनाओं में,

अध्याय 1, श्लोक 21,
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच -
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥
--
(हृषीकेशम् तदा वाक्यम् इदम् आह महीपते ।
अर्जुन उवाच -
सेनयोः उभयोः मध्ये रथम् स्थापय मे अच्युत ॥)
--
भावार्थ :
(सञ्जय राजा धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए उनसे कहते हैं, -)
--
हे राजन् !  अर्जुन ने तब यह वाक्य कहा ।
अर्जुन ने कहा -
हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में लाकर स्थापित करो !
--
अध्याय 1, श्लोक 24,

सञ्जय उवाच -
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥
--
(एवम्-उक्तः हृषीकेशः गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोः उभयोः मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
सञ्जय ने कहा  - हे भारत (हे धृतराष्ट्र)! गुडाकेश (अर्जुन) द्वारा इस प्रकार से (गत श्लोक में जैसा वर्णित है, उस क्रम में ) कहे जाने पर, हृषीकेश (श्रीकृष्ण भगवान्) ने  दोनों सेनाओं के मध्य रथ खड़ा कर यह कहा , ...
--
अध्याय 1, श्लोक 27,

श्वसुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥
--
श्वसुरान् सुहृदः च एव सेनयोः उभयोः अपि ।
तान् समीक्ष्य सः कौन्तेयः सर्वान् बन्धून् अवस्थितान् ॥)
--
भावार्थ :
श्वसुरों को, सुहृदों को, दोनों ही सेनाओं में अवस्थित अपने सारे बन्धुओं को देखकर वह कुन्तीपुत्र अर्जुन,....
--
अध्याय 2 , श्लोक 10

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव  भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥
--
(तम् उवाच हृषीकेशः प्रहसन्-इव भारत ।
सेनयोः उभयोः मध्ये विषीदन्तम् इदम् वचः ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (हे भरतवंशी धृतराष्ट्र)! दोनों सेनाओं के बीच, विषाद में डूबे, उस (अर्जुन) को हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने मानों हँसते हुए कह रहे हों, यह वचन कहे ।
--
’सेनयोः’ / 'senayoH' - in the armies, between the armies,

Chapter 1, shloka 21.
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hRShIkeshaM tadA vAkya
midamAha mahIpate |
Arjuna uvAcha  -
senayorubhayormadhye
rathaM sthApaya me'chyuta ||
--

Meaning :
Then, O King ! ( Thus was addressed dhRtarAShTra by Sanjaya, who narrated to the King dhRtarAShTra, whatever was happening on the battle-ground where the Armies were getting prepared for the war of mahAbhArata.)
arjuna said to shrikRShNa :
O achyuta ( shrIkRShNa)! Please take to, and place my chariot at the centre of the battle-field .
--
Chapter 1, shloka 24,

sanjaya said :
evamukto hRShIkesho
guDAkeshena bhArata |
senayorubhayormadhye
sthApayitvA rathottamaM ||
--
sanjaya, said (to dhRtarAshTra,)

O bhArata (King dhRtaraShTra)! being thus addressed by guDAkesha (arjuna), hRShikesha (Lord shrIkRShNa) brought forth the magnificent chariot in the middle of both armies.
--
Chapter 1, shloka 27,
--
shvasurAnsuhRdashchaiva
senayorubhayorapi |
tAnsamIkShya sa kaunteya
sarvAnbandhUnavasthitAn ||
--
Meaning :
(He, -arjuna saw there,) his fathers-in-law,  dear-ones and well-wishers, standing before him in both the armies. And Having seen them all his brethren, ...

Chapter 2, shloka 10,

tamuvAcha  hRShIkeshaH
prahasanniva bhArat |
senayorubhayormadhye
viShIdantamidaM vachaH ||
--
Meaning :
(sanjaya addressing dhRtarAShTra, said,)
O bhArata (descendant of King bharata)! In the midst of the two armies,  hRiShIkesha (shrIkRShNa) said with a gesture,  as if with a smile, To him (to arjuna), who was grief-stricken, these words.
--


Friday, March 21, 2014

आज का श्लोक, ’सेनानीनाम’ / 'senAnInAM'

आज का श्लोक, ’सेनानीनाम’ / 'senAnInAM'
__________________________________

’सेनानीनाम’ / 'senAnInAM' - सेनानायकों में,

अध्याय 10, श्लोक 24,
--
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥
--
(पुरोधसाम् च मुख्यम् माम् विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनाम् अहं स्कन्दः सरसाम् अस्मि सागरः ॥)
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हे पार्थ पुरोहितों में प्रधान, अर्थात् बृहस्पति मुझे ही जानो ।  सेनापतियों में स्कन्द तथा जलाशयों में सागर हूँ ।
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’सेनानीनाम’ / 'senAnInAM'  - Of all commanders,

Chapter 10, shloka 24,
purodhasAM cha mukhyaM mAM
viddhi pArtha bRhaspatiM |
senAnInAM ahaM skandaH
sarasAmasmi sAgaraH ||
--
Meaning :
O partha (arjuna)! Of priests, Know Me to be the chief, Lord bRhaspati*. And, of generals, know I AM kartikeya, and of water-bodies, know I AM the ocean.
(*bRhaspati > The preceptor of Gods)
--

आज का श्लोक, ’सेवते’ / 'sewate',

आज का श्लोक, ’सेवते’ / 'sewate',
--
’सेवते’ / 'sewate', - उपासना करता है ।


अध्याय  14, श्लोक 26,

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
--
(माम् च यः अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
सः गुणान् समतीत्य- एतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥)
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और जो मनुष्य विशुद्ध निष्ठापूर्वक भक्तियोगसहित मेरी सेवा (उपासना) करता है, वह इन तीनों गुणों को भलीभाँति लाँघकर, इनसे पार हुआ, सच्चिदाननद ब्रह्म से एकीभूत हो जाता है ।
--
’सेवते’ / 'sewate', - serves, attends to, worships,

Chapter 14, shloka 26,
--
mAM cha yo'vyabhichAreNa
bhaktiyogena sewate |
sa guNAnsamatItyaitAn
brahmabhUyAya kalpate ||
--
Meaning :
One who serves / attends to Me with uncontaminated devotion transcends these three attributes (guNa-s) and is unified with Brahman (Me).
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आज का श्लोक, ’सेवया’ / 'sewvayA',

आज का श्लोक, ’सेवया’ / 'sewvayA'
--
’सेवया’ / 'sewvayA' - सेवा के द्वारा,

अध्याय  4, श्लोक 34,
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
--
(तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः ॥)
--
भावार्थ :
उस ब्रह्म (के तत्त्व) को जानने के लिए तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाओ, उन्हें विधिपूर्वक नमस्कार कर नम्रता से उनकी सेवा द्वारा उन्हें प्रसन्न कर सम्यक् रीति से प्रश्न करते हुए  उसे जानो । वे तुम्हें ज्ञान (की प्राप्ति के लिए) उचित उपदेश देंगे ।  


--
’सेवया’ / 'sewvayA' - by means of serving them.
Chapter 4, shloka 34,
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tadviddhi praNipAtena
pariprashnena sewayA |
upadekShyanti te jnAnaM
jnAninastatvadarshinaH ||
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Meaning :
Know / grasp 'That' (Reality / Brahman) by means of serving them with due respect and honor, and questioning them properly about the Reality . And they, -those who have themselves Realized the same, will point out the way to This (Reality) for you,
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आज का श्लोक, ’सैन्यस्य’ / 'sainyasya'

आज का श्लोक,  ’सैन्यस्य’ / 'sainyasya'
--
’सैन्यस्य’ / 'sainyasya' - सेना के,

अध्याय  1, श्लोक 7,

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
--
(अस्माकम् तु विशिष्टाः ये तान् निबोध द्विजोत्तम ।
नायकाः मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थम् तान् ब्रवीमि ते ॥)

भावार्थ :
हे द्विजश्रेष्ठ! इस युद्ध में हमारे पक्ष में सम्मिलित हुए मेरी सेना के जो भी प्रधान (योद्धा) हैं, आपकी जानकारी के लिए अब मैं उनके बारे में आपसे कहूँगा ।
--
’सैन्यस्य’ / 'sainyasya' - in the army,

Chapter 1, shloka 7,

asmAkaM tu vishiShTA ye
tAnnibodha dvijottama |
nAyakA mama sainyasya
sanjnArthaM tAnbravImi te ||
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Meaning :
O best among the twice-born! For your kind attention and consideration, I will now tell you the names of those distinguished generals of my army, who are ready for the battle on our side.
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आज का श्लोक, ’सोढुम्’ / 'soDhuM'

आज का श्लोक, ’सोढुम्’ / 'soDhuM'
--
’सोढुम्’ / 'soDhuM' - सहन करने में ।

अध्याय  5, श्लोक 23,
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥
(शक्नोति इह एव यः सोढुम् प्राक् शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवम् वेगम् सः युक्तः सः सुखी नरः ॥)
--
भावार्थ :
वह साधक जो कि इस शरीर के जीते-जी ही, शरीर का नाश होने से पहले ही कामक्रोध से पैदा होनेवाले वेग को सहन करने में सक्षम हो जाता है, निश्चय ही वह मनुष्य योगी है और वही सुखी है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 44,
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तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वाहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्
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(तस्मात् प्रणिधाय कायम् प्रसादये त्वाम् अहम् ईशम् ईड्यम् ।
पिता-इव पुत्रस्य सखा-इव सख्युः प्रियः प्रियायाः अर्हसि देव सोढुम् ॥)
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भावार्थ :
अतः आपके समक्ष (चरणों में ) काया और सिर झुकाकर निवेदन करते हुए, ताकि हे पूज्य परमेश्वर आप मुझ पर कृपा करते हुए प्रसन्न हों, और जैसे पिता पुत्र के, सखा सखा के और स्वामी प्रिया के अपराध सहन कर लेता है (और उन्हें क्षमा कर देता है) आप भी मेरे किए अपराध को क्षमा कर दें ।
--
’सोढुम्’ / 'soDhuM' - capable of withstanding to, to cope with, to tolerate,
Chapter 5, shloka 23,

shaknotIhava soDhuM
prAksharIravimokShaNAt |
kAmakrodhodbhavaM vegaM
sa yuktaH sa sukhI naraH ||
--
Far before the body falls as dead, one who can manage to face the urges of lust and anger (and can control them)  is indeed a yogi, and he alone is a truly a happy man.
--
Chapter 11, shloka 44,

tasmAtpraNamya praNidhAya kAyaM
prasAdaye tvAmahamIshamIdyaM |
piteva putrasya sakheva sakhyuH
priyaH priyAyArhasi deva soDhuM ||
--
Meaning :
Therefore prostrating before you I ask forgiveness of You, O Lord! Just as a father to his son, a friend to his friend and a lover forgives his dear, please O Lord, Have mercy on me, and forgive me.
-- 

Thursday, March 20, 2014

आज का श्लोक, ’सोमपाः’ / 'somapAH'

आज का श्लोक, ’सोमपाः’ / 'somapAH'
_____________________________
’सोमपाः’ / 'somapAH' - सोमरस का पान करनेवाले ।
--
अध्याय  9, श्लोक 20,
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त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक -
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥
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(त्रैविद्याः माम् सोमपाः पूतपापाः
यज्ञैः इष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यम् आसाद्य सुरेन्द्रलोकम्
अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥)

भावार्थ :
तीनों वेदों में वर्णित विधि विधान के अनुसार अभीष्ट की प्राप्ति हेतु यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले, सोमरस का पान करनेवाले, पापशून्य मनुष्य, जो पापों का प्रायश्चित / प्रक्षालन कर चुके हैं, इन यज्ञों के माध्यम से मेरी प्रार्थना कर अपने इन अर्जित पुण्यों के फल से स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं और स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं ।
--

’सोमपाः’ / 'somapAH' - those who relish the celestial drink 'somarasa'.

--
Chapter 9, shlok 20,
traividyA mAM somapAH pUtapApA
yajnairiShTwA swargatiM prArthayante |
te puNyamAsAdya surendralokaM-
ashnanti divyAndivi devabhogAn ||
--

Meaning :
Those learned in three vedas, who get the taste of 'soma' acquire merits and are cleansed of the sins, worship and pray me by means of the sacrifices according to the way as is instructed in vedas, attain the heaven and enjoy the celestial pleasures there.
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आज का श्लोक, ’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt'

आज का श्लोक, ’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt'
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’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt' - सूक्ष्म होने के कारण,
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अध्याय 13,  श्लोक 32,
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते
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(यथा सर्वगतम् सौक्ष्म्यात् आकाशम् न उपलिप्यते ।
सर्वत्र अवस्थितः देहे तथा आत्मा न उपलिप्यते ।
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भावार्थ :
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण (जिसमें व्याप्त है, उससे) लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सर्वत्र अवस्थित आत्मा (जो कि आकाश से भी अधिक सूक्ष्म तथा और भी अधिक व्यापक है, - जो कि सबमें है, और सब जिसमें है,) देह से लिप्त नहीं होता ।
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’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt' - because of being subtle,
Chapter 13, shloka 32,
yathA sarvagataM saukShmyA-
dAkAshaM nopalipyate |
sarvatrAvasthito dehe
tathAtmA nopalipyate ||
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As all-pervading ether is not contaminated due to its subtlety, quite so, the Self is not contaminated though residing in all bodies.
(Note : This shloka beautifully explains how the 'self' in a body, and the 'Self' That is Omnipresent, That has the entire existence as its very body is the one and the same indivisible Reality.)
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Wednesday, March 19, 2014

आज का श्लोक, ’सौमदत्तिः’ / 'saumadattiH'

आज का श्लोक, ’सौमदत्तिः’ / 'saumadattiH
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’सौमदत्तिः’ / 'saumadattiH'  - सोमदत्त का पुत्र (भूरिश्रवा)

अध्याय 1, श्लोक 8,

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’सौमदत्तिः’ / 'saumadattiH'  - सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा,

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
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भावार्थ :
आप (आचार्य द्रोण), और पितामह भीष्म, कर्ण और संग्रामविजयी आचार्य कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा वैसे ही सोमदत्त का पुत्र (भूरिश्रवा) ।

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’सौमदत्तिः’ / 'saumadattiH'  - saumadatti (bhUrishravA, son of somadatta)

Chapter 1, shloka 8,

bhavAnbhIShmashcha karNashcha
kRpashcha samintinjayaH |
ashvatthAmA vikarNashcha
saumadattiH tathaiva cha ||
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Amongst us the foremost are thyself (AchArya droNa)!, bhIshma - the grand-father, karNa, kRpa - ever victorious in battle, ashvatthAmA, vikarNa and also saumadatti, the son of somadatta, -bhurishravA.
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आज का श्लोक, ’सौभद्रः’/ 'saubhadraH'

आज का श्लोक,  ’सौभद्रः’/ 'saubhadraH'
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’सौभद्रः’/ 'saubhadraH' - सुभद्रा और अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु,

अध्याय  1, श्लोक 6,

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
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(युधामन्युः च विक्रान्तः उत्तमौजाः च वीर्यवान् ।
सौभद्रः द्रौपदेयाः च  सर्वे एव महारथाः ॥)
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भावार्थ :
युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र, ये सभी महारथी ।
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अध्याय 1, श्लोक 18,
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥
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(द्रुपदः द्रौपदेयाः च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रः च महाबाहुःशङ्खान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥)

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भावार्थ :
हे राजन् (धृतराष्ट्र) ! राजा द्रुपद (द्रौपदी के पिता)  तथा बलशाली भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु सहित द्रौपदी के पाँचों पुत्रों ने भी युद्धक्षेत्र में सब ओर से अलग अलग शंखों का घोष किया ।


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’सौभद्रः’/ 'saubhadraH' - abhimanyu, the son of subhadrA and arjuna.

Chapter 1, shloka 6,
yudhAmanyushcha vikrAnta
uttamaujAshcha vIryavAn |
saubhadro draupadeyAshcha
sarva eva mahArathAH ||
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Meaning :
There were warriors like mighty yudhAmanyu , powerful uttamaujA,  saubhadreya -abhimanyu, and the 5 sons of draupadI, all with magnificient chariots.
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Chapter 1, shloka 18,

drupado draupadeyAshcha
sarvashaH pRthivIpate |
saubhadrashcha mahAbAhuH
shankhAn-dadhmuH pRthakpRthak ||
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Meaning :
(sanjaya narrating to the King dhRtarAShTra, -the running commentary of what he saw at battlefield)
drupada and the sons of draupadI, also the mighty-armed son of subhadrA (abhimanyu), all blew their respective conchs. O King (dhRtarAShTra)!
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Tuesday, March 18, 2014

आज का श्लोक, ’सौम्यवपुः’ / 'saumyavapuH'

आज का श्लोक, ’सौम्यवपुः’ / 'saumyavapuH' 
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’सौम्यवपुः’ / 'saumyavapuH'  - सौम्य मुखमण्डल /  मुद्रा,
 
अध्याय 11, श्लोक 50,

सञ्जय उवाच :
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥
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(इति-अर्जुनम् वासुदेवः तथा-उक्त्वा
स्वकम् रूपम् दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतम्-एनम्
भूत्वा पुनः सौम्यवपुः महात्मा ॥)
--      
अर्जुन से वासुदेव (भगवान् श्रीकृष्ण) ने इस प्रकार कहकर पुनः अपने निज (चतुर्भुज) स्वरूप का दर्शन दिया । भयभीत-चित्त अर्जुन के समक्ष महात्मा श्रीकृष्ण ने तब सौम्यरूप धारण कर अर्जुन को धीरज प्रदान किया ।
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’सौम्यवपुः’ / 'saumyavapuH'  - Gentle Graceful Form,
Chapter 11, shloka 50,
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sajaya uvAcha
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ityarjunaM  vAsudevastathoktvA
swakaM rUpaM darshayAmAsa bhUyaH |
AshvAsayAmAsa cha bhItamenaM
bhUtvA punaH saumyvapurmahAtmA ||
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sanjaya said :

Meaning :
Speaking thus to arjuna, vAsudeva (kriShNa) again showed to arjuna His usual form. Having thus resumed His Graceful and Elegent appearance, He comforted arjuna, who was so terrified a moment ago.
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आज का श्लोक, ’स्कन्दः’ / 'skandaH'

आज का श्लोक ’स्कन्दः’ / 'skandaH
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’स्कन्दः’ / 'skandaH' - षडानन, कार्तिकेय,

अध्याय 10, श्लोक 24,

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥
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(पुरोधसाम् च मुख्यम् माम् विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनाम् अहं स्कन्दः सरसाम् अस्मि सागरः ॥)
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हे पार्थ पुरोहितों में प्रधान, अर्थात् बृहस्पति मुझे ही जानो ।  सेनापतियों में स्कन्द तथा जलाशयों में सागर हूँ ।
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’स्कन्दः’ / 'skandaH' - kArtikeya, The six-faced son of shiva.
Chapter 10, shloka 24,

purodhasAM cha mukhyaM mAM
viddhi pArtha bRhaspatiM |
senAnInAM ahaM skandaH
sarasAmasmi sAgaraH ||
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Meaning :
O partha (arjuna)! Of priests, Know Me to be the chief, Lord bRhaspati. Of generals, I AM kartikeya, and of water-bodies I AM the ocean.
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Monday, March 17, 2014

आज का श्लोक, ’स्तब्धाः’ / 'stabdhAH'

आज का श्लोक,  ’स्तब्धाः’ / 'stabdhAH'
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’स्तब्धाः’ / 'stabdhAH'

अध्याय 16, श्लोक 17,
आत्मसंभाविता स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥
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(आत्मसंभाविताः स्तब्धाः धनमानसमन्विताः ।
यजन्ते नामयज्ञैः ते दम्भेन अविधिपूर्वकम् ॥)
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वे अपने आप को ही श्रेष्ठ माननेवाले, घमण्डी मनुष्य धन तथा मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि से रहित यजन  अर्थात् यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं ।
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’स्तब्धाः’ / 'stabdhAH' - Filled with vanity,

Chapter 16, shloka 17,
AtmasambhAvitAH stabdhA 
dhanamAnasamanvitA |
yajante nAmayajnaiste
dambhenAvidhipUrvakaM ||
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Full of Self-esteem and self-pride, arrogant and full of vanity, cruelty and show of wealth, such people perform sacrifice (yajna) without following the proper scriptural injunctions .
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आज का श्लोक, ’स्तब्धः’ / 'stabdhaH'

आज का श्लोक,  ’स्तब्धः’ / 'stabdhaH'
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’स्तब्धः’ / 'stabdhaH'

अध्याय 18, श्लोक 28,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥
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(अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठः नैष्कृतिकः अलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामसः उच्यते ॥)
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कर्तृत्व (की वह भावना) जिससे तादात्म्य रखनेवाला मनुष्य अयुक्त (योगरहित / अनुपयुक्त), शिक्षा और संस्कार से रहित, घमण्डी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला, शोकग्रस्त, आलस्ययुक्त, और अपने कार्य को समय पर न करते हुए किसी न किसी बहाने से टालते रहनेवाला होता है ।
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’स्तब्धः’ / 'stabdhaH' - obstinate,

Chapter 18, shloka 28,
ayuktaH prAkRtaH stabdhaH
shaTho naiShkRtiko'lasaH |
viShAdI dIrGasUtrI cha
kartA tAmasa uchyate ||
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Meaning :
The one with a sense of doer-ship tainted with the strains of Callousness, foolishness and arrogance, deceitfulness, wickedness, laziness, melancholy, and procrastination is called a tAmasa kartA.
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आज का श्लोक, ’स्तुतिभि’ / 'stutibhiH'

आज का श्लोक,  ’स्तुतिभि’ / 'stutibhiH'
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’स्तुतिभि’ / 'stutibhiH' - स्तोत्रपाठों  से,

अध्याय 11, श्लोक 21,
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
--
(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
--
भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
--
’स्तुतिभि’ / 'stutibhiH' - by means of hymns,
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Chapter 11, shlok 21,
amI hi twAM srasanghA vishanti
kechidbhItAH prAnjalayo gRNanti |
swastItyuktwA maharShisiddhasanghAH
stuvanti tvAM stutibhiH puShkalAbhIH ||
--
Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
--

आज का श्लोक, ’स्तुवन्ति’ / 'stuvanti'

आज का श्लोक,  ’स्तुवन्ति’ / 'stuvanti'
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’स्तुवन्ति’ / 'stuvanti' - स्तवन करते हैं ।

अध्याय 11, श्लोक 21,
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
--
(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
--
भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
--
’स्तुवन्ति’ / 'stuvanti' - sing praises,
Chapter 11, shlok 21,
amI hi twAM srasanghA vishanti
kechidbhItAH prAnjalayo gRNanti |
swastItyuktwA maharShisiddhasanghAH
stuvanti tvAM stutibhiH puShkalAbhIH ||
--
Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
--

आज का श्लोक, ’स्तेनः’/ 'stenaH'

आज का श्लोक,  ’स्तेनः’/ 'stenaH'
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’स्तेनः’/ 'strenaH' - चोर, किसी वस्तु का मूल्य चुकाए बिना ही उसका उपभोग करनेवाला ।

अध्याय 3, श्लोक 12,

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥
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(इष्टान् भोगान् हि वः देवाः दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैः दत्तान् अप्रदाय एभ्यः यः भुङ्क्ते स्तेनः एव सः ॥)
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भावार्थ :
यज्ञ के द्वारा प्रसन्न हुए देवता तुम्हारे द्वारा इच्छित भोग अवश्य ही तुम्हें प्रदान करेंगे । जो मनुष्य उन देवताओं द्वारा प्रदत्त इन भोगों का उपभोग उन्हें प्रसन्न किए बिना ही करता है, वह चोर है ।
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’स्तेनः’/ 'strenaH' - thief,

iShTAnbhogAnhi wo devA
dAsyante yajnabhAvitAH |
tairdattanapradAyaibhyo
yo bhunkte stena eva saH ||
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Meaning : When fostered and propitiated by sacrifices (yajna) those dieties (that are the Lords of different subtle divine spheres), will sure endow upon you the enjoyments you desire for. One who enjoys these gifts obtained from them, without offering their due homage, is indeed a thief.
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Sunday, March 16, 2014

आज का श्लोक, ’स्त्रियः’/ 'striyaH'

आज का श्लोक,  ’स्त्रियः’/ 'striyaH'
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’स्त्रियः’/ 'striyaH' - स्त्रियाँ,

अध्याय 9, श्लोक 32,

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
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(माम् हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये अपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः ते अपि यान्ति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन, मेरे आश्रय में शरण लेनेवाले भक्त पापयोनि भी हों, अर्थात् भले ही उन्होंने पापजनित कुसंस्कारों सहित जन्म लिया हो, या स्त्री, वैश्य अथवा शूद्र ही हों, वे भी परम गति को ही (अर्थात् मुझे ही, मेरे ही उस परम धाम को प्राप्त होते हैं, जहाँ से पुनः जन्म-मृत्यु नहीं होते ।)
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’स्त्रियः’/ 'striyaH' - women,
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Chapter 9, shloka 32,
mAM hi pArtha vyapAshritya
ye'pi syuH pApayonayaH |
striyaH vaishyAstathA shUdrA
ste'pi yAnti parAM gatiM ||
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Meaning :
Who-so-ever seeking shelter in Me, be they of sinful birth, women, or born in lower castes like vaishyas, or even shUdras, all they attain the Supreme state.
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आज का श्लोक, ’स्त्रीषु’ / 'strIShu'

आज का श्लोक, ’स्त्रीषु’ / 'strIShu'
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’स्त्रीषु’ / 'strIShu' - स्त्रियों में,
अध्याय 1, श्लोक 41,
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अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥
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(अधर्म-अभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥)
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भावार्थ :
अधर्म अर्थात् धर्मविरुद्ध आचरण के बढ़ जाने पर हे कृष्ण, कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और स्त्रियों के दूषित हो जाने पर हे वार्ष्णेय (कृष्ण), वर्णों में विकार उत्पन्न हो जाता है ।
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’स्त्रीषु’ / 'strIShu' - in women,
Chapter 1, shloka 41,
adharmAbhibhavAtkRShNa
praduShyanti kulastriyaH |
strIShu duShTAsu vArShNeya
jAyate varNasaMkaraH ||
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Meaning :
When the way of adharma is followed, and the society behaves in a way that is against *dharma,* the purity of women in the clan is lost. When the purity of women is lost, this leads to the mixing-up of castes.  

(*dharma*, -the natural tendencies one is born with, and practicing them in a way so as to derive the maximum and ultimate good for one and all. This '*dharma*' has foundation in 'sAnkhya', that means working out the right and wrong after careful enquiry and following only the right way of action.)
--

Saturday, March 15, 2014