Sunday, March 23, 2014

प्रसंगवश - वेद-दृष्टि और पुराण-दृष्टि

प्रसंगवश, 
अध्याय 4 श्लोक 7

वेद-दृष्टि और पुराण-दृष्टि
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गीता का अध्ययन करनेवाले और उस पर टीका लिखनेवाले महापुरुषों ने मुख्यतः वेद-दृष्टि या पुराण-दृष्टि के आधार पर अपना अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । यहाँ आशय उन विद्वानों से नहीं है जिन्होंने गीता का किसी दूसरी भाषा में ’अनुवाद’ किया है या जिन्होंने गीता पर ’प्रवचन’ दिए हैं या देते हैं । यहाँ लक्ष्य केवल इतना है कि वेद-दृष्टि और पुराण-दृष्टि क्या है इसे समझने का प्रयास किया जा रहा है ।  भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप को वैदिक तथा ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से देखने पर इसे और स्पष्टतापूर्वक समझा जा सकता है । यदि हम भगवान् श्रीकृष्ण को महाभारत के चरित्र-विशेष के रूप में देखें और तदनुसार उन्हें एक अत्यन्त महान् मनुष्य / आत्मा तक ही सीमित रखें तो हम गीता को मात्र ऐतिहासिक दृष्टि से देखेंगे और उसी प्रकार से अपनी समझने की क्षमता की सीमा तक ही गीता और भगवान् श्रीकृष्ण के यथार्थ को ग्रहण कर पाएँगे । फ़िर, हमारे समझने की यह ’क्षमता’ भी हमारी शिक्षा-दीक्षा, भाषा, पारंपरिक, रूढिगत, पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि, वातावरण तथा प्रभावों से कम या अधिक परिष्कृत/ अपरिष्कृत होगी । और तब हमारी अपनी ’मान्यताओं’ और ’संस्कारों’ से तदनुसार गीता और भगवान् श्रीकृष्ण का हमारे द्वारा ग्रहण किए जा रहे ’यथार्थ’ से भिन्न, अनुकूल या शायद प्रतिकूल मन्तव्य, हमारा उनके बारे में होगा । यह तो हुई एक साधारण-दृष्टि, जो मुख्यतः गीता को एक ऐतिहासिक ग्रन्थ और श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व को एक चरित्र-विशेष मानकर चलती है  ।
गीता पर भगवान् शङ्कर आचार्य द्वारा लिखे गए में हमें वैदिक एवं पौराणिक, दोनों दृष्टियों का समन्वय प्राप्त होता है । इस बारे में संशय नहीं कि जहाँ वेद को ’अपौरुषेय’ माना जाता है, वहीं पुराणों के बारे में ऐसा नहीं है । इसलिए पुराण वेद की सत्ता को स्वीकार करते हैं और उस आधार की ही पुष्टि करते हैं । जबकि वेद में ’पुराण’ शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में है, किसी ग्रन्थ के अर्थ में नहीं । वेद ’विधान’ / 'constitution' है, जो ’काल’ का भी नियंता है । पुराण ’काल’ के अन्तर्गत ही ’ईश्वर’ तथा सृष्टि के बारे में कहते हैं । और इसलिए वेद ’अवतार’ के संदर्भ में कुछ नहीं कहते जबकि पुराण विस्तार से किसी अवतार-विशेष पर केन्द्रित होते हैं । पुराण शब्द का तात्पर्य ही है काल-विशेष, पहले का, अभी का या भविष्य का । इसलिए ’भविष्य-पुराण’ भी पाया जाता है । वेदों और पुराणों में ’काल’ का स्वरूप दो स्तरों पर पाया जाता है । एक है ’वर्तमान’ - जो बीतता है । दूसरा है वह जो नहीं बीतता, जो अक्षय है । इसे हम इस प्रकार से समझ सकते हैं _
विज्ञान के नियम जो सदा सर्वत्र लागू समझे जाते हैं, उनका आविष्कार जिस ’समय’ में होता है, वह ’समय’ ’काल’ का वर्तमान-रूप होता है, जबकि वे नियम और उनका नियामक / नियंता इस ’वर्तमान’ से स्वतन्त्र है ।
वैज्ञानिक द्वारा खोजे जानेवाले ’नियम’ किसी विशेष समय में नहीं बनते । वे तो उनके आविष्कार से पहले और बाद भी कार्यरत रहते हैं । काल के व्यवधान से रहित । इसलिए ’समय’ की सत्ता / सत्यता हमेशा व्यक्ति-केन्द्रित होती है, जबकि ’काल’ की सत्ता व्यक्ति-निरपेक्ष । इस आधार पर ’समष्टि-सत्ता’ या तो परम-निरपेक्ष सत्य मात्र है और वहाँ व्यक्ति का स्थान नहीं हो सकता, या सापेक्ष स्तर पर समस्त ’व्यक्तियों’ के ’समय-सापेक्ष-अस्तित्वों’ का जोड़ । ’व्यक्ति-निरपेक्ष अस्तित्व वैदिक दृष्टि है, इसलिए वेद के अनुसार परम सत्ता को ’एक’ या ’अनेक’ की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता । अथर्व वेद में प्रस्तुत न्याय / अवगम् (reasoning) अद्भुत् गणितीय आधार पर उस परम सत्ता का वर्णन करता है । यह कोरा तर्क-शास्त्र नहीं है जो परिभाषाओं और मान्यताओं के आधार पर रास्ता टटोलता हो । किन्तु उसे समझ पाने के लिए जो उत्कटता चाहिए, साधारण मनुष्य में वह प्रायः नहीं होती । क्योंकि उसके लिए कुछ दूसरी वस्तुएँ अधिक महत्वपूर्ण त्वरित, तूर्त / urgent ज़रूरी और परम आवश्यक होती हैं ।
इसलिए जब पौराणिक दृष्टि से गीता का आवलोकन किया जाता है तो भगवान् श्रीकृष्ण को ईश्वर के ’अवतार’ की तरह ग्रहण किया जाता है और साधारण मनुष्य के लिए इतना ही पर्याप्त है । क्योंकि तर्क और विवेचना की भूलभुलैया में तो विद्वान् भी परस्पर विपरीत और भिन्न मतों के अनुयायी होते हैं । अतएव हमें अपने अज्ञान को स्वीकार कर उस ’विधाता’ के प्रति पूर्ण समर्पण कर देना सहज स्वाभाविक होना चाहिए । 
अपनी अपनी अभिरुचि और पात्रता के अनुसार मनुष्य मात्र गीता से उचित अभिप्राय एवम् मार्गदर्शन ग्रहण कर सकता है ।
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