Sunday, March 23, 2014

आज का श्लोक, ’सृजामि’ / 'sRjAmi'

आज का श्लोक, ’सृजामि’ / 'sRjAmi',
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’सृजामि’ / 'sRjAmi'

अध्याय 4, श्लोक 7,
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
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(यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत ।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदा-आत्मानम् सृजामि अहम् ॥)
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भावार्थ :
हे भारत! जब जब धर्म की क्षति और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने-आपका सृजन करता हूँ ।
(इस सृजन का तात्पर्य क्या है इसको अगले ही श्लोक, - अध्याय 4, श्लोक 8, में स्पष्ट किया गया है ।)

टिप्पणी :
गीता का अध्ययन या तो वेद-दृष्टि के आधार पर किया जा सकता है, या पुराण-दॄष्टि के आधार पर इस बारे में पृथक् से, और कुछ विस्तारपूर्वक, कृपया इस ब्लॉग की 'प्रसंगवश' (पिछली ) प्रविष्टि में देखें !

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’सृजामि’ / 'sRjAmi' - (I) reconstruct  / manifest Myself.

Chapter 4, shloka 7,

yadA yadA hi dharmasya
glAnirbhavati bhArata |
abhyutthAnamadharmasya
tadAtmAnaM sRjAmyahaM ||
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Whenever the dharma (following of the natural tendencies / conscience, that leads one to work selflessly for the good of all) prevails no more, and adharma ( following and fulfilling one's own selfish motives, without considering others' good) takes over, O bhArata! I manifest Myself.
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