Wednesday, March 26, 2014

आज का श्लोक, ’सुसुखं’ / 'susukhaM'

आज का श्लोक, ’सुसुखं’ / 'susukhaM'
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’सुसुखं’ / 'susukhaM' - जिसे सुखपूर्वक किया जा सकता है,
 
अध्याय 9, श्लोक 2,

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
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(राजविद्या राजगुह्यं पवित्रम् इदम् उत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमम् धर्म्यम् सुसुखम् कर्तुमव्ययम् ॥)
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अध्याय 9 के प्रथम श्लोक,
"इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनुसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥"
का अवलोकन यहाँ प्रासंगिक है । विद्या का तात्पर्य है अभ्यास की पूर्णता । राजविद्या का अर्थ है श्रेष्ठतम विद्या, अर्थात् ’ब्रह्मविद्या’ । राजगुह्यम् अर्थात् सर्वाधिक अप्रकट, आवरित, छिपा हुआ, इसका दूसरा अर्थ है, - गोपनीय, जिसे हर किसी व्यक्ति के सामने प्रकट न किया जाए । अत्यन्त पवित्र और सर्वोत्तम । केवल उस पात्र अधिकारी के ही समक्ष इसका उल्लेख किया जाए जो इसे जानने के लिए उत्कण्ठित है ।  अर्थात् जो मुमुक्षु है । उस मुमुक्षु को ही यह राजविद्या प्रत्यक्ष अवगम्य है, वही इसे ठीक से ग्रहण कर सकता है । उसके लिए यह धर्म्य भी है । धर्म्य अर्थात् उसके लिए उसके धर्म के अनुकूल । सुसुखं, - जिसका आचरण वह न सिर्फ़ सरलतापूर्वक, बल्कि इससे भी बढ़कर सुखपूर्वक कर सकता है । अव्ययम् अर्थात् अनश्वर, अविनाशी, अविकारी, स्थिर, जो उस सुख का विशेषण और स्वतन्त्र संज्ञा भी हो सकता है ।  
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’सुसुखं’ / 'susukhaM' - That which can be practiced with joy, results in bliss,

Chapter 9, shloka 2,

rAjavidyA rAjaguhyaM
pavitramidamuttamaM |
pratyakShAvagamaM dharmyaM
susukhaM kartumavyayaM |
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This is royal knowledge, and royal secret also, Supremely sacred, is directly understood and grasped,  full of virtue when practised, filled with joy, imperishable and convenient as well.
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