आज का श्लोक, ’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro'
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’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro'
अध्याय 9, श्लोक 30,
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
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(अपि चेत् सुदुराचारः भजते माम् अनन्य भाक् ।
साधुः एव सः मन्तव्यः सम्यक्-व्यवसितः हि सः ॥)
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अत्यन्त दुराचारी मनुष्य भी यदि अनन्यभाव से मेरा भजन (भक्ति) करता है तो उसको साधु ही समझा जाना चाहिए क्योंकि वह अपने कार्य में सम्यक् रीति से संलग्न है ।
टिप्पणी :
यदि कोई मन की दुर्बलता, दुष्ट संस्कारों की प्रबलता या परिस्थितियों के दबाव के कारण दुराचार की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं कर पाता, और अपनी इस प्रवृत्ति से पीड़ित होकर ग्लानि भी अनुभव करता है, किन्तु साथ ही अनन्य-भाव (मैं उससे तथा वह मुझसे अन्य नहीं, -इस समझ) से आराध्य के सतत स्मरण में संलग्न रहता है, वह अवश्य ही साधु है । दूसरी ओर जो व्यक्ति भक्ति का दम्भ करता है और अपने दुराचार को इस श्लोक के माध्यम से सही सिद्ध करने का प्रयास करता है, वह स्वयं को ही छलता है ।
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’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro' - indulging in bad, immoral / unethical activities,
Chapter 9, shloka 30,
api chetsudurAchAro
bhajate mAmananybhAk |
sAdhureva sa mantavyaH
samyagvyavasito hi saH ||
--
Meaning :
Though A man who is given to bad habits and temperaments, if worships Me, with undivided devotion, should be considered a righteous, for he is going on the right path.
Note :
A man (because of the past tendencies, environment or bad company, under compulsions, which he is unable to overcome) who is given to bad habits and temperaments, (but also feels guilty for the same,) worships Me with undivided devotion, should be considered a righteous, for he is going on the right path.
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’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro'
अध्याय 9, श्लोक 30,
साधुरेव स मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
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(अपि चेत् सुदुराचारः भजते माम् अनन्य भाक् ।
साधुः एव सः मन्तव्यः सम्यक्-व्यवसितः हि सः ॥)
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अत्यन्त दुराचारी मनुष्य भी यदि अनन्यभाव से मेरा भजन (भक्ति) करता है तो उसको साधु ही समझा जाना चाहिए क्योंकि वह अपने कार्य में सम्यक् रीति से संलग्न है ।
टिप्पणी :
यदि कोई मन की दुर्बलता, दुष्ट संस्कारों की प्रबलता या परिस्थितियों के दबाव के कारण दुराचार की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं कर पाता, और अपनी इस प्रवृत्ति से पीड़ित होकर ग्लानि भी अनुभव करता है, किन्तु साथ ही अनन्य-भाव (मैं उससे तथा वह मुझसे अन्य नहीं, -इस समझ) से आराध्य के सतत स्मरण में संलग्न रहता है, वह अवश्य ही साधु है । दूसरी ओर जो व्यक्ति भक्ति का दम्भ करता है और अपने दुराचार को इस श्लोक के माध्यम से सही सिद्ध करने का प्रयास करता है, वह स्वयं को ही छलता है ।
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’सुदुराचारो’ / 'sudurAchAro' - indulging in bad, immoral / unethical activities,
Chapter 9, shloka 30,
api chetsudurAchAro
bhajate mAmananybhAk |
sAdhureva sa mantavyaH
samyagvyavasito hi saH ||
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Meaning :
Though A man who is given to bad habits and temperaments, if worships Me, with undivided devotion, should be considered a righteous, for he is going on the right path.
Note :
A man (because of the past tendencies, environment or bad company, under compulsions, which he is unable to overcome) who is given to bad habits and temperaments, (but also feels guilty for the same,) worships Me with undivided devotion, should be considered a righteous, for he is going on the right path.
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