Saturday, March 8, 2014

आज का श्लोक, ’स्थितम्’ / 'sthitaM'

आज का श्लोक, ’स्थितम्’ / 'sthitaM'
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’स्थितम्’ / 'sthitaM' - अवस्थित,

अध्याय 5, श्लोक 19,
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इहैव तैर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
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(इह-एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥)
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जिनका मन समभाव में स्थित हो जाता है उनके द्वारा इस (जीवित अवस्था में ही) संसार जीत लिया जाता है, क्योंकि वे संसार के बंधन से मुक्त होते हैं, और चूँकि वे ब्रह्म में अवस्थित होते हैं, इसलिए सच्चिदानन्घन परमात्मा में स्थित हुए वे ब्रह्मस्वरूप, सम और निर्दोष होते हैं ।
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अध्याय  13, श्लोक 16,
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अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
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(अविभक्तम् च भूतेषु विभक्तं-इव च स्थितम्
भूतभर्तृ च तत्-ज्ञेयम् ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥)
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भावार्थ :
 यद्यपि अविभक्त किन्तु भूतों में विभक्त सा प्रतीत होता हुआ अवस्थित, भूतों का भरण-पोषण करनेवाला, और रुद्ररूप से संहार करनेवाला तथा ब्रह्मारूप से सबका सृष्टा भी ।
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(टिप्पणी : शिवाथर्वशीर्षम् में यही उल्लेख है रुद्र का :

"सर्वं जगद्धितं वा एतदक्षरं प्राजापत्यं सौम्यं सौम्येन सूक्ष्मं सूक्ष्मेण वायव्यं वायव्येन ग्रसति तस्मै महाग्रासाय  वै नमो नमः ।"
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अध्याय  15, श्लोक 10,
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उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥
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(उत्क्रामन्तम् स्थितम् वा अपि भुञ्जानम् वा गुणान्वितम् ।
विमूढाः न अनुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥)
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(उस आत्मा को, ) शरीर को छोड़कर जाते हुए,  शरीर में अवस्थित रहते हुए, या तीनों गुणों से युक्त होकर विषयों का उपभोग करते हुए भी, अज्ञानग्रस्त मनुष्य जिसे नहीं देख पाते, किन्तु जिनके ज्ञानचक्षु खुले होते हैं वे अवश्य देखते हैं ।
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’स्थितम्’ / 'sthitaM' - that is present, supports,
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Chapter 5, shloka 19,
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ihaiva tairjitaH sargo
yeShAM sAmye sthitaM manaH |
nirdoShaM hi samaM brahma
tasmAdbrahmaNi te sthitAH ||
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Meaning :
Those who have attained the equipoise of mind have conquered over the crisis of existing in a world of sorrow and ignorance. They have attained identity with Brahman and are thus stainless and impartial in Him.
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Chapter 13, shloka 16,
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avibhaktaM cha bhUteShu
vibhaktamiva cha sthitaM |
bhUtabhartR cha tajjneyaM
grasiShNu prabhaviShNu cha ||
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Meaning :
Though all-pervading and undivided whole, He appears as if divided in animate and inanimate beings. He is the Only, Who is the Creator, Who sustains and withdraws back all His creation within Himself . And He is the One, and understood like this.
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Chapter 15, shloka 10,
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utkrAmantaM sthitaM vApi
bhunjAnaM vA guNAnvitaM |
vimUDhA nAnupashyanti
pashyanti jnAnachakShuShaH ||
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Meaning :
Those who are ignorant do not see but those endowed with the eye of wisdom do see, how the soul departs or dwells in the body, or how with the help of the three guNa-s (attributes of prakRti) undergoes experiences of senses in relation with their respective objects.
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