आज का श्लोक, ’स्मरन्’ / 'smaram',
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’स्मरन्’ / 'smaram', - चिन्तन करते हुए, उस बारे में चिन्ता करते हुए, स्मरण करते हुए ।
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अध्याय 3, श्लोक 6,
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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
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(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥)
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भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 5,
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अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वाकलेवरं ।
यः प्रयाति सः मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
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(अन्तकाले च माम्-एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावम् याति न-अस्ति-अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
और जो मनुष्य अपना अन्तकाल आने पर मुझको ही स्मरण करता हुआ देह को त्याग देता है, वह मेरे ही स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है ।
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अध्याय 8, श्लोक 6,
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यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
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(यम् यम् वा अपि स्मरन्-भावम् त्यजति-अन्ते कलेवरं ।
तं तं-एव-एति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥)
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अथवा (अर्थात् यह भी कहा जा सकता है कि), हे कौन्तेय अर्जुन! जिस जिस भी भाव को मनुष्य अपने अन्तकाल के आने पर स्मरण कर रहा होता है, देह को त्यागते समय वह उसी-उसी भाव को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वह उसी भाव से भावित हो रहा होता है ।
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’स्मरन्’ / 'smaram', - thinking of, remembering,
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Chapter 3, shloka 6,
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karmendriyANi saMyamya
ya Aste manasA smaran |
indriyArthAn-vimUDhAtmA
mithyAchAraH sa uchyate ||
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Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 8, shloka 5,
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antakAle cha mAmeva
smaran-muktvA kalevaraM |
yaH prayAti sa madbhAvaM
yAti nAstyatra saMshayaH ||
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One, who at the time of death thinks of Me, leaves his body, definitely after his death attains Me, My Real Being only. Of this, there is no doubt.
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Chapter 8, shloka 6,
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yaM yaM vApi smaranbhAvaM
tyajatyante kalevaraM |
taM tamevaiti kaunteya
sadA tadbhAvabhAvitaH ||
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O kaunteya (arjuna)! Whatever state of being one thinks of when one leaves the body, one attains the same after his death.
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’स्मरन्’ / 'smaram', - चिन्तन करते हुए, उस बारे में चिन्ता करते हुए, स्मरण करते हुए ।
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अध्याय 3, श्लोक 6,
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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
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(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥)
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भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 5,
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अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वाकलेवरं ।
यः प्रयाति सः मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
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(अन्तकाले च माम्-एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावम् याति न-अस्ति-अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
और जो मनुष्य अपना अन्तकाल आने पर मुझको ही स्मरण करता हुआ देह को त्याग देता है, वह मेरे ही स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है ।
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अध्याय 8, श्लोक 6,
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यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
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(यम् यम् वा अपि स्मरन्-भावम् त्यजति-अन्ते कलेवरं ।
तं तं-एव-एति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥)
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अथवा (अर्थात् यह भी कहा जा सकता है कि), हे कौन्तेय अर्जुन! जिस जिस भी भाव को मनुष्य अपने अन्तकाल के आने पर स्मरण कर रहा होता है, देह को त्यागते समय वह उसी-उसी भाव को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वह उसी भाव से भावित हो रहा होता है ।
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’स्मरन्’ / 'smaram', - thinking of, remembering,
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Chapter 3, shloka 6,
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karmendriyANi saMyamya
ya Aste manasA smaran |
indriyArthAn-vimUDhAtmA
mithyAchAraH sa uchyate ||
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Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 8, shloka 5,
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antakAle cha mAmeva
smaran-muktvA kalevaraM |
yaH prayAti sa madbhAvaM
yAti nAstyatra saMshayaH ||
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One, who at the time of death thinks of Me, leaves his body, definitely after his death attains Me, My Real Being only. Of this, there is no doubt.
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Chapter 8, shloka 6,
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yaM yaM vApi smaranbhAvaM
tyajatyante kalevaraM |
taM tamevaiti kaunteya
sadA tadbhAvabhAvitaH ||
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O kaunteya (arjuna)! Whatever state of being one thinks of when one leaves the body, one attains the same after his death.
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