आज का श्लोक, ’स्थानम्’ / 'sthAnaM',
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’स्थानम्’ / 'sthAnaM' - आधार, आश्रय, अधिष्ठान,
अध्याय 5, श्लोक 5,
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
--
(यत्-साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥)
--
भावार्थ :
जिस तत्व की उपलब्धि विवेचनाओं के माध्यम से की जाती है, योगविधियों से भी उसकी प्राप्ति होती है । जो उस तत्व को देखता है, उसे यह भी दिखलाई देता है कि स्वरूपतः, सांख्य (विवेचना) और योग (भक्ति, ज्ञान, कर्म,) एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं ।
(टिप्पणी :
1 इसी अध्याय 5 के गत श्लोक (सं. 4) में इसी तथ्य की पुष्टि प्राप्त होती है ।
2 ’आत्मनो जडवर्गात् पृथग्ग्रहणम्’ के प्रकाश में प्रकृति-पुरुष-विवेक से आत्म-अनात्म को समझने का प्रयास, जिसे आत्मानुसंधान भी कहा जाता है और जो समस्त वेदान्त शास्त्रों का आधारभूत तत्व है । )
--
अध्याय 8, श्लोक 28,
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
--
(वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वमिदं विदित्वा
योगी परम् स्थानम् उपैति च आद्यम् ॥)
--
भावार्थ :
वेदों ( के अध्ययन), यज्ञों (के अनुष्ठान), तपों (के पूर्ण करने) तथा विभिन्न प्रकार के दान देने आदि से जिस पुण्यफल की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है, योगी निःसन्देह उस सब को लांघकर इस आद्य सनातन एवं शाश्वत् स्थान को प्राप्त हो जाता है ।
[टिप्पणी : समस्त पुण्यफल उनके उपभोग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, किन्तु योगी (इस अध्याय के श्लोक 11 में वर्णित) ’पद’ कॊ प्राप्त होकर उससे एक हो जाता है ।]
--
अध्याय 9, श्लोक 18,
--
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥
--
(गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणम् सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानम् निधानम् बीजम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
सभी का परम गंतव्य, पालनहारा, स्वामी, सबमें साक्षी की तरह विद्यमान, सबका वास्तव्य, शरण, और सुहृद्, सबके उद्भव तथा लय का हेतु, सब का आधार, निधान, (जिसे त्यागा न जा सके) और कारण, अव्यय ।
--
अध्याय 18, श्लोक 62,
--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
--
(तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्-प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अपने सम्पूर्ण हृदय से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ । उसकी कृपा से तुम्हें शान्ति तथा सनातन परम धाम प्राप्त होगा ।
--
’स्थानम्’ / 'sthAnaM' - place, stand, status, abode, goal,
Chapter 5, shloka 5,
yatsAnkhyaiH prApyate sthAnaM
tadyogairapi gamyate |
ekaM sAnkhyaM cha yogaM cha
yaH pashyati sa pashyati ||
--
Meaning :
The goal that is attained by the way of sAnkhya* is the same as that is attained by means of yoga (practicing bhakti / devotion, 'niShkAma-karma' / 'self-less action', or jnAna / the way of meditation), And the one who sees that this essential truth of both is the same is the real seer.
--
( * sAnkhya - That begins with the contemplation and discrimation between the 'prakRti' and the 'puruSha', and treating the 'Self' as the principle that is different from 'prakRti' / non-self. Though this begins with the assumption that 'self' is different from the non-self, ultimately the 'self' too dissoves with the 'non-self' and what is discovered is indescribable.)
--
Chapter 8, shloka 28,
vedeShu yajneShu tapaHsu chaiva
dAneShu yatpuNyaphalaM pradiShTaM |
atyeti tatsarvamidaM viditvA
yogI paraM sthAnamupaiti chAdyaM ||
--
Meaning :
The yogI who knows this abode of The Supreme Reality (as explained in shloka 8 of this chapter 8) transcends all fruits that are obtained through the study of veda-s, performing the sacrifices of all kinds, or doing austerities and penances, (because they are destroyed with their enjoyments) while by knowing the indestructible, begin-less Supreme abode of oneself, one merges into That.
--
Chapter 9, shloka 18,
gatirbhartA prabhuH sAkShI
nivAsaH sharaNaM suhRt |
prabhavaH pralayaH sthAnaM
nidhAnaM bIjamavyayaM ||
Meaning :
(I AM) the destination, the sustain-er, the Lord, the witness, the abode, the shelter, the very heart / the Friend and Beloved, I am the origin, evolution and the dissolution, The Ultimate, the imperishable seed and the only refuge.
--
Chapter 18, shloka 62,
tameva sharaNaM gachchha
sarvabhAvena bhArata |
tatprasAdAtparAM shAntiM
sthAnaM prApsyasi shAshvataM ||
--
Meaning :
Therefore, with all your heart, seek shelter in Him alone. Through His grace, you shall attain the abode that is bliss supreme and peace eternal.
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’स्थानम्’ / 'sthAnaM' - आधार, आश्रय, अधिष्ठान,
अध्याय 5, श्लोक 5,
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
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(यत्-साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥)
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भावार्थ :
जिस तत्व की उपलब्धि विवेचनाओं के माध्यम से की जाती है, योगविधियों से भी उसकी प्राप्ति होती है । जो उस तत्व को देखता है, उसे यह भी दिखलाई देता है कि स्वरूपतः, सांख्य (विवेचना) और योग (भक्ति, ज्ञान, कर्म,) एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं ।
(टिप्पणी :
1 इसी अध्याय 5 के गत श्लोक (सं. 4) में इसी तथ्य की पुष्टि प्राप्त होती है ।
2 ’आत्मनो जडवर्गात् पृथग्ग्रहणम्’ के प्रकाश में प्रकृति-पुरुष-विवेक से आत्म-अनात्म को समझने का प्रयास, जिसे आत्मानुसंधान भी कहा जाता है और जो समस्त वेदान्त शास्त्रों का आधारभूत तत्व है । )
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अध्याय 8, श्लोक 28,
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
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(वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वमिदं विदित्वा
योगी परम् स्थानम् उपैति च आद्यम् ॥)
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भावार्थ :
वेदों ( के अध्ययन), यज्ञों (के अनुष्ठान), तपों (के पूर्ण करने) तथा विभिन्न प्रकार के दान देने आदि से जिस पुण्यफल की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है, योगी निःसन्देह उस सब को लांघकर इस आद्य सनातन एवं शाश्वत् स्थान को प्राप्त हो जाता है ।
[टिप्पणी : समस्त पुण्यफल उनके उपभोग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, किन्तु योगी (इस अध्याय के श्लोक 11 में वर्णित) ’पद’ कॊ प्राप्त होकर उससे एक हो जाता है ।]
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अध्याय 9, श्लोक 18,
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गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥
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(गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणम् सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानम् निधानम् बीजम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
सभी का परम गंतव्य, पालनहारा, स्वामी, सबमें साक्षी की तरह विद्यमान, सबका वास्तव्य, शरण, और सुहृद्, सबके उद्भव तथा लय का हेतु, सब का आधार, निधान, (जिसे त्यागा न जा सके) और कारण, अव्यय ।
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अध्याय 18, श्लोक 62,
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तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
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(तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्-प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अपने सम्पूर्ण हृदय से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ । उसकी कृपा से तुम्हें शान्ति तथा सनातन परम धाम प्राप्त होगा ।
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’स्थानम्’ / 'sthAnaM' - place, stand, status, abode, goal,
Chapter 5, shloka 5,
yatsAnkhyaiH prApyate sthAnaM
tadyogairapi gamyate |
ekaM sAnkhyaM cha yogaM cha
yaH pashyati sa pashyati ||
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Meaning :
The goal that is attained by the way of sAnkhya* is the same as that is attained by means of yoga (practicing bhakti / devotion, 'niShkAma-karma' / 'self-less action', or jnAna / the way of meditation), And the one who sees that this essential truth of both is the same is the real seer.
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( * sAnkhya - That begins with the contemplation and discrimation between the 'prakRti' and the 'puruSha', and treating the 'Self' as the principle that is different from 'prakRti' / non-self. Though this begins with the assumption that 'self' is different from the non-self, ultimately the 'self' too dissoves with the 'non-self' and what is discovered is indescribable.)
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Chapter 8, shloka 28,
vedeShu yajneShu tapaHsu chaiva
dAneShu yatpuNyaphalaM pradiShTaM |
atyeti tatsarvamidaM viditvA
yogI paraM sthAnamupaiti chAdyaM ||
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Meaning :
The yogI who knows this abode of The Supreme Reality (as explained in shloka 8 of this chapter 8) transcends all fruits that are obtained through the study of veda-s, performing the sacrifices of all kinds, or doing austerities and penances, (because they are destroyed with their enjoyments) while by knowing the indestructible, begin-less Supreme abode of oneself, one merges into That.
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Chapter 9, shloka 18,
gatirbhartA prabhuH sAkShI
nivAsaH sharaNaM suhRt |
prabhavaH pralayaH sthAnaM
nidhAnaM bIjamavyayaM ||
Meaning :
(I AM) the destination, the sustain-er, the Lord, the witness, the abode, the shelter, the very heart / the Friend and Beloved, I am the origin, evolution and the dissolution, The Ultimate, the imperishable seed and the only refuge.
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Chapter 18, shloka 62,
tameva sharaNaM gachchha
sarvabhAvena bhArata |
tatprasAdAtparAM shAntiM
sthAnaM prApsyasi shAshvataM ||
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Meaning :
Therefore, with all your heart, seek shelter in Him alone. Through His grace, you shall attain the abode that is bliss supreme and peace eternal.
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