Thursday, March 27, 2014

आज का श्लोक, ’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH'

आज का श्लोक, ’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH'
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’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH' - देवों के समुदाय,

अध्याय 11, श्लोक 21,
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
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(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
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भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
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’सुरसङ्घाः’ / 'surasanghAH' - Gods together in many groups

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Chapter 11, shlok 21,

amI hi twAM surasanghA vishanti
kechid-bhItAH prAnjalayo gRNanti |
swastItyuktwA maharShi-siddha-sanghAH
stuvanti tvAM stutibhiH puShkalAbhIH ||
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Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', 'Save us please', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
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