आज का श्लोक, ’सुखिनः’ / 'sukhinaH'
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’सुखिनः’ / 'sukhinaH' - सुखी,
अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
*
(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
*
भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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अध्याय 2, श्लोक 32,
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यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
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(यदृच्छया च उपपन्नं स्वर्गद्वारम् अपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धम्-ईदृशम् ॥
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस प्रकार से अनायास प्राप्त होनेवाला युद्ध का अवसर तो क्षत्रिय के लिए मानों संयोग से और अकस्मात् ही अपने लिए खुले साक्षात् स्वर्ग के प्रवेश-द्वार होते हैं, जिसमें अपने कर्तव्य का निर्वाह अर्थात् युद्ध करते हुए क्षत्रिय सुखपूर्वक स्वर्ग की प्राप्ति कर लेते हैं ।
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’सुखिनः’ / 'sukhinaH' - happy,
Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
*
Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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Chapter 2, shloka 32,
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yadRchchhayA chopapannaM
swargadwAraM-apAvRtaM |
sukhinaH kShatriyAH pArtha
labhante yuddhamIdRshaM ||
--
Meaning :
O pArtha (Arjuna)! Fortunate is the warrior (kshatriya) who gets such an opportunity by his sheer luck, if he has a chance to fight in the battle for a right cause only. Because the war is imposed upon him, and not that he has imposed this on helpless enemies and so fighting for some petty selfish cause only.
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’सुखिनः’ / 'sukhinaH' - सुखी,
अध्याय 1, श्लोक 37,
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तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥
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(तस्मात् न अर्हाः वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधवः ॥)
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भावार्थ :
अतएव हमारे लिए यह उचित नहीं कि हम अपने स्वबन्धुओं, इन धृतराष्ट्रपुत्रों को मारें । हे माधव ! अपने ही स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
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अध्याय 2, श्लोक 32,
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यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
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(यदृच्छया च उपपन्नं स्वर्गद्वारम् अपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धम्-ईदृशम् ॥
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस प्रकार से अनायास प्राप्त होनेवाला युद्ध का अवसर तो क्षत्रिय के लिए मानों संयोग से और अकस्मात् ही अपने लिए खुले साक्षात् स्वर्ग के प्रवेश-द्वार होते हैं, जिसमें अपने कर्तव्य का निर्वाह अर्थात् युद्ध करते हुए क्षत्रिय सुखपूर्वक स्वर्ग की प्राप्ति कर लेते हैं ।
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’सुखिनः’ / 'sukhinaH' - happy,
Chapter 1, shloka 37,
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tasmAnnArhA vayaM hantuM
dhArtarAShTrAnswabAndhavAn
swajanaM hi kathaM hatvA
sukhinaH syAma mAdhava ||
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Meaning :
Therefore, it is not right to kill the sons of dhRtarAShTra, our own kin and relatives, for how can we hope happiness by killing our own people? O Madhava?
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Chapter 2, shloka 32,
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yadRchchhayA chopapannaM
swargadwAraM-apAvRtaM |
sukhinaH kShatriyAH pArtha
labhante yuddhamIdRshaM ||
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Meaning :
O pArtha (Arjuna)! Fortunate is the warrior (kshatriya) who gets such an opportunity by his sheer luck, if he has a chance to fight in the battle for a right cause only. Because the war is imposed upon him, and not that he has imposed this on helpless enemies and so fighting for some petty selfish cause only.
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