आज का श्लोक ’स्थितः’ / 'sthitaH'
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’स्थितः’ / 'sthiH' - अवस्थित, विद्यमान, स्थिर, निमग्न,
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अध्याय 5, श्लोक 20,
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥
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(न प्रहृष्येत्-प्रियं प्राप्य न-उद्विजेत्-प्राप्य च-अप्रियं ।
स्थिरबुद्धिः असम्मूढः ब्रह्मविद्-ब्रह्मणि स्थितः ॥)
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भावार्थ :
ब्रह्म (के स्वरूप) को जानकर ब्रह्म में अवस्थित रहनेवाला स्थिरबुद्धि, संशय से सर्वथा रहित मनुष्य न तो प्रिय के प्राप्त होने पर हर्षित होता है और न अप्रिय के प्राप्त होने पर उद्विग्न होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 10,
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योगी युञ्जीत सततात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
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(योगी युञ्जीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः ॥)
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भावार्थ :
योग-साधन करनेवाला को अपने मन-इन्द्रियों आदि को संयत रखते हुए आशारहित, संग्रहरहित, अकेले, एकान्त में स्थित होकर, आत्मा को निरन्तर परमात्मा (के ध्यान) में संलग्न रखे ।
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टिप्पणी :
1 श्री रमण-गीता अध्याय 2, श्लोक 2, में कहा गया है, -
"हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रं
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति ।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम् ॥"
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हृदय-कुहर (अर्थात् विशुद्ध चेतना जिसमें से ’मैं’-वृत्ति का उद्भव विकास और विलय होता है, ) में केवल ब्रह्म ही अवस्थित है । वही, ’अहम्-अहम्’ अर्थात् अपना उद्घोष करता हुआ प्राणिमात्र को प्रत्यक्ष ही आत्मवत् (अपने अस्तित्व की भाँति) प्रतीत होता है । इसलिए जिज्ञासु को चाहिए कि मन के माध्यम से, स्वयं के उस हृदय में प्रविष्ट होकर ’आत्मा’ के स्वरूप पर चिन्तन करता हुआ, या केवल उस् ’अहम्-अहम्’ में निमज्जित होकर, या फिर प्राणों के नियमन द्वारा अपने उस ब्रह्मस्वरूप से एकात्म हो ।
उपरोक्त को ही श्री रमण महर्षि रचित प्रस्तुत श्लोक में सूक्ष्मता और सरलता से स्पष्ट किया गया है, अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक योग्यता, पात्रता और सामर्थ्य तथा अभिरुचि और निष्ठा के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने लिए अनुकूल समुचित तरीका स्वयं ही निर्धारित कर सकता है ।
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2 उपरोक्त श्लोक में साधना की अन्य विधियों को संक्षेप से ’पवनचलनरोधात्’ से इंगित किया गया है, जिसमें भक्ति की सभी धाराएँ समाहित हो जाती हैं ।
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3 ’चिन्वता मज्जता’ वा में पुनः हम स्पष्ट रूप से ’आत्मानुसन्धान’ और ’मैं’ में निमग्न होने के स्वरों की गूँज को सहज ही सुन सकते हैं । जहाँ एक ओर इससे हमें भगवान् श्री आचार्य शंकर रचित अनेक भक्ति तथा वेदान्तपरक ग्रन्थों का स्मरण होता है, वहीं सद्गुरु श्री निसर्गदत्त महाराज के ’अहं ब्रह्मास्मि’ में उल्लिखित शब्द भी अनायास याद आ जाते हैं ।
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अध्याय 6, श्लोक 14,
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प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥)
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(प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तः युक्तः आसीत् मत्परः ॥)
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भावार्थ :
जिसकी वृत्तियाँ शान्त हों, जो भयरहित हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हो, मन को बाह्य विषयों में जाने से रोककर मुझमें संलग्नचित्त होकर मेरे परायण होकर मुझमें
निमग्न रहे ।
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अध्याय 6, श्लोक 21,
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सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
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(सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थितः चलति तत्त्वतः ॥)
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भावार्थ :
आत्मा के स्वरूप का केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ग्रहण किए जा सकनेवाला जो आत्यन्तिक अतीन्द्रिय सुख है, उसे तत्त्वतः जानता हुआ जो उससे विचलित नहीं होता, और उसमें ही स्थिर रहता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 22,
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यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
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(यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न-अधिकम् ततः ।
यस्मिन् स्थितः न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥)
--
भावार्थ :
जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कोई लाभ वह नहीं मानता, जिसमें अवस्थित हुआ वह योग-साधन करनेवाला, बड़े भारी दुःख से भी अपनी उस स्थिति से चलायमान नहीं होता ।
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अध्याय 10, श्लोक 42,
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अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
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(अथवा बहुना एतेन किम् ज्ञातेन तव अर्जुन ।
विष्टभ्य अहम् इदम् कृत्स्नम् एअकांशेन स्थितः जगत् ॥)
--
भावार्थ :
अथवा हे अर्जुन! इसको बहुत विस्तार से जानने से तुम्हें क्या (प्रयोजन? तुम बस इतना ही जान लो कि) यह जो संपूर्ण जगत् जिसमें में व्याप्त हुआ हुँ, मेरा एक अंश-मात्र ही है ।
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अध्याय 18 श्लोक 73,
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अर्जुन उवाच :
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्वा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
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(नष्टः मोहः स्मृतिः लब्ध्वा त्वत्-प्रसादात् मया अच्युत ।
स्थितः अस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह (जिसने मेरी स्मृति को आवरित कर रखा था) नष्ट हो गया है, और उस स्मृति को पाकर मेरे संशय विलीन हो गए हैं और मैं पुनः आत्मा में अवस्थित (स्थितधी)* हो गया हूँ ।
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(* देखिए, 2/54, 2/56)
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’स्थितः’ / 'sthitaH' - settled, established,
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अध्याय 5, श्लोक 20,
Chapter 5, shloka 20,
na prahRShyetpriyaM prApya
nodvijetprApya chApriyaM |
sthirabuddhirasammUDho
brahmavid-brahmaNi sthitaH ||
--
Meaning :
One, who has realized the Reality (Brahman) abides ever in Brahman, is neither elated when comes across the pleasant, nor is perturbed when something unpleasant meets Him. Such a One, of stable and calm mind is free from delusion.
--
Chapter 6, shloka 10,
--
yogI yunjIta satataM-
AtmAnaM rahasi sthitaH |
ekAkI yatachittAtmA
nirAshIraparigrahaH ||*
--
Practicing yoga means, one should contemplate on the (nature of) Self without a break, while keeping away from all else, living alone, free of all thought of world and its contents.
--
Notes :
1 The gist of this is; One should practice in a way that suits best his temperament and orientation of mind, as is instructed by Bhagavan Sri Ramana Maharshi in the following shloka :
hRdayakuharamadhye
kewalaM brahmamAtraM,
hyahamahamiti sAkShAtd-
AtmarUpeNa bhAti |
hRdi visha manasA swaM
chinvatA mAjjatA vA
pavana-chalana-rodha-
dAtmaniShTho bhava twaM ||
(Sri Ramana Gita, Chapter 2, shloka 2)
[Meaning :"In the Heart's cavity, the sole Brahman as an ever-persisting "I" shines direct in the form of the Self.
Into the Heart enter thyself, with mind in search or in deeper plunge. Or by restraint of life-movement be firmly poised in the Self".]
--
2 'chinvatA majjatA vA' point out the way, how one either 'dive deep' into the so evident 'consciousness' associated with our very being to 'enquire' about the nature of the Self, or just 'stay' in it as it is.
3 This again bears a close resemblance with Sri Shankara Achrya's various texts on the 'bhakti' and vedanta, and also remind us of "I AM That" of Shri Nisargadatta Maharaj.
--
Chapter 6, shloka 14,
--
prashAntAtmA vigatabhIr-
brahmachArivrate sthitaH |
manaH sanyamya machchitto
yukta AsIta matparaH ||
--
Meaning :
One who has all the vRtti -s / (various modes of the mind) pacified, subsided, and thus has quiet in mind, who has no fear, one who dwells in the contemplation of 'Brahman', who is free from the complexities and obtuseness of mind, and thus has spontaneous control over the mind, who is devoted and absorbed in 'Me', One so having attained 'Me', ...
--
Chapter 6, shloka 21,
--
sukhamAtyantikaM yattad-
buddhigrAhyamatIndriyaM |
vetti yatra na chaivAyaM
sthitashchalati tattvataH ||
--
Meaning :
Such a man (as described in the previous shloka), knows the supreme bliss of Self that is discernible by the pure intelligence only (and not by the simple intellect of an ordinary mind / senses) . And once settled there firmly, never moves away from there.
--
Chapter 6, shloka 22,
--
yaM labdhvA chAparaM lAbhaM
manyate nAdhikaM tataH |
yasminsthito na duHkhena
guruNApi vichAlyate ||
--
Meaning :
Having attained That Ultimate, there is no other greater advantage he would ever think of. Where-in settled, he could not be moved even by the greatest miseries.
--
Chapter 10, shloka 42,
--
athavA bahunaitena
kiM jnAtena tavArjuna |
viShTabhyAmidaM kRtsnaM
ekAMshena sthito jagat ||
--
Meaning :
Or, O arjuna! Knowing all this in great details what profits shall you gain? Just know that with a single fragment of Myself, I pervade and support this entire universe.
--
Chapter 18, shloka 73,
--
arjuna uvAcha :
naShTo mohaH smRitirlabdhvA
tvatprasAdAnmayAnagha |
sthito'smi gatasandehaH
kariShye vachanaM tava ||
--
Meaning :
arjuna said : O Infallible One (shrikrRShNa), My illusion is now removed. And by your Grace, I have recollected my composure (and remembered again the truth of my Real being). My my doubts are cleared away and I am firmly stabilized in Wisdom. And shall act accordingly as you instruct me to do.
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’स्थितः’ / 'sthiH' - अवस्थित, विद्यमान, स्थिर, निमग्न,
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अध्याय 5, श्लोक 20,
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥
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(न प्रहृष्येत्-प्रियं प्राप्य न-उद्विजेत्-प्राप्य च-अप्रियं ।
स्थिरबुद्धिः असम्मूढः ब्रह्मविद्-ब्रह्मणि स्थितः ॥)
--
भावार्थ :
ब्रह्म (के स्वरूप) को जानकर ब्रह्म में अवस्थित रहनेवाला स्थिरबुद्धि, संशय से सर्वथा रहित मनुष्य न तो प्रिय के प्राप्त होने पर हर्षित होता है और न अप्रिय के प्राप्त होने पर उद्विग्न होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 10,
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योगी युञ्जीत सततात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
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(योगी युञ्जीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः ॥)
--
भावार्थ :
योग-साधन करनेवाला को अपने मन-इन्द्रियों आदि को संयत रखते हुए आशारहित, संग्रहरहित, अकेले, एकान्त में स्थित होकर, आत्मा को निरन्तर परमात्मा (के ध्यान) में संलग्न रखे ।
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टिप्पणी :
1 श्री रमण-गीता अध्याय 2, श्लोक 2, में कहा गया है, -
"हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रं
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति ।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम् ॥"
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हृदय-कुहर (अर्थात् विशुद्ध चेतना जिसमें से ’मैं’-वृत्ति का उद्भव विकास और विलय होता है, ) में केवल ब्रह्म ही अवस्थित है । वही, ’अहम्-अहम्’ अर्थात् अपना उद्घोष करता हुआ प्राणिमात्र को प्रत्यक्ष ही आत्मवत् (अपने अस्तित्व की भाँति) प्रतीत होता है । इसलिए जिज्ञासु को चाहिए कि मन के माध्यम से, स्वयं के उस हृदय में प्रविष्ट होकर ’आत्मा’ के स्वरूप पर चिन्तन करता हुआ, या केवल उस् ’अहम्-अहम्’ में निमज्जित होकर, या फिर प्राणों के नियमन द्वारा अपने उस ब्रह्मस्वरूप से एकात्म हो ।
उपरोक्त को ही श्री रमण महर्षि रचित प्रस्तुत श्लोक में सूक्ष्मता और सरलता से स्पष्ट किया गया है, अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक योग्यता, पात्रता और सामर्थ्य तथा अभिरुचि और निष्ठा के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने लिए अनुकूल समुचित तरीका स्वयं ही निर्धारित कर सकता है ।
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2 उपरोक्त श्लोक में साधना की अन्य विधियों को संक्षेप से ’पवनचलनरोधात्’ से इंगित किया गया है, जिसमें भक्ति की सभी धाराएँ समाहित हो जाती हैं ।
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3 ’चिन्वता मज्जता’ वा में पुनः हम स्पष्ट रूप से ’आत्मानुसन्धान’ और ’मैं’ में निमग्न होने के स्वरों की गूँज को सहज ही सुन सकते हैं । जहाँ एक ओर इससे हमें भगवान् श्री आचार्य शंकर रचित अनेक भक्ति तथा वेदान्तपरक ग्रन्थों का स्मरण होता है, वहीं सद्गुरु श्री निसर्गदत्त महाराज के ’अहं ब्रह्मास्मि’ में उल्लिखित शब्द भी अनायास याद आ जाते हैं ।
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अध्याय 6, श्लोक 14,
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प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥)
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(प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तः युक्तः आसीत् मत्परः ॥)
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भावार्थ :
जिसकी वृत्तियाँ शान्त हों, जो भयरहित हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हो, मन को बाह्य विषयों में जाने से रोककर मुझमें संलग्नचित्त होकर मेरे परायण होकर मुझमें
निमग्न रहे ।
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अध्याय 6, श्लोक 21,
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सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
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(सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थितः चलति तत्त्वतः ॥)
--
भावार्थ :
आत्मा के स्वरूप का केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ग्रहण किए जा सकनेवाला जो आत्यन्तिक अतीन्द्रिय सुख है, उसे तत्त्वतः जानता हुआ जो उससे विचलित नहीं होता, और उसमें ही स्थिर रहता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 22,
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यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
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(यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न-अधिकम् ततः ।
यस्मिन् स्थितः न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥)
--
भावार्थ :
जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कोई लाभ वह नहीं मानता, जिसमें अवस्थित हुआ वह योग-साधन करनेवाला, बड़े भारी दुःख से भी अपनी उस स्थिति से चलायमान नहीं होता ।
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अध्याय 10, श्लोक 42,
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अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
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(अथवा बहुना एतेन किम् ज्ञातेन तव अर्जुन ।
विष्टभ्य अहम् इदम् कृत्स्नम् एअकांशेन स्थितः जगत् ॥)
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भावार्थ :
अथवा हे अर्जुन! इसको बहुत विस्तार से जानने से तुम्हें क्या (प्रयोजन? तुम बस इतना ही जान लो कि) यह जो संपूर्ण जगत् जिसमें में व्याप्त हुआ हुँ, मेरा एक अंश-मात्र ही है ।
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अध्याय 18 श्लोक 73,
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अर्जुन उवाच :
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्वा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
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(नष्टः मोहः स्मृतिः लब्ध्वा त्वत्-प्रसादात् मया अच्युत ।
स्थितः अस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह (जिसने मेरी स्मृति को आवरित कर रखा था) नष्ट हो गया है, और उस स्मृति को पाकर मेरे संशय विलीन हो गए हैं और मैं पुनः आत्मा में अवस्थित (स्थितधी)* हो गया हूँ ।
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(* देखिए, 2/54, 2/56)
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’स्थितः’ / 'sthitaH' - settled, established,
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अध्याय 5, श्लोक 20,
Chapter 5, shloka 20,
na prahRShyetpriyaM prApya
nodvijetprApya chApriyaM |
sthirabuddhirasammUDho
brahmavid-brahmaNi sthitaH ||
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Meaning :
One, who has realized the Reality (Brahman) abides ever in Brahman, is neither elated when comes across the pleasant, nor is perturbed when something unpleasant meets Him. Such a One, of stable and calm mind is free from delusion.
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Chapter 6, shloka 10,
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yogI yunjIta satataM-
AtmAnaM rahasi sthitaH |
ekAkI yatachittAtmA
nirAshIraparigrahaH ||*
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Practicing yoga means, one should contemplate on the (nature of) Self without a break, while keeping away from all else, living alone, free of all thought of world and its contents.
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Notes :
1 The gist of this is; One should practice in a way that suits best his temperament and orientation of mind, as is instructed by Bhagavan Sri Ramana Maharshi in the following shloka :
hRdayakuharamadhye
kewalaM brahmamAtraM,
hyahamahamiti sAkShAtd-
AtmarUpeNa bhAti |
hRdi visha manasA swaM
chinvatA mAjjatA vA
pavana-chalana-rodha-
dAtmaniShTho bhava twaM ||
(Sri Ramana Gita, Chapter 2, shloka 2)
[Meaning :"In the Heart's cavity, the sole Brahman as an ever-persisting "I" shines direct in the form of the Self.
Into the Heart enter thyself, with mind in search or in deeper plunge. Or by restraint of life-movement be firmly poised in the Self".]
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2 'chinvatA majjatA vA' point out the way, how one either 'dive deep' into the so evident 'consciousness' associated with our very being to 'enquire' about the nature of the Self, or just 'stay' in it as it is.
3 This again bears a close resemblance with Sri Shankara Achrya's various texts on the 'bhakti' and vedanta, and also remind us of "I AM That" of Shri Nisargadatta Maharaj.
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Chapter 6, shloka 14,
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prashAntAtmA vigatabhIr-
brahmachArivrate sthitaH |
manaH sanyamya machchitto
yukta AsIta matparaH ||
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Meaning :
One who has all the vRtti -s / (various modes of the mind) pacified, subsided, and thus has quiet in mind, who has no fear, one who dwells in the contemplation of 'Brahman', who is free from the complexities and obtuseness of mind, and thus has spontaneous control over the mind, who is devoted and absorbed in 'Me', One so having attained 'Me', ...
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Chapter 6, shloka 21,
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sukhamAtyantikaM yattad-
buddhigrAhyamatIndriyaM |
vetti yatra na chaivAyaM
sthitashchalati tattvataH ||
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Meaning :
Such a man (as described in the previous shloka), knows the supreme bliss of Self that is discernible by the pure intelligence only (and not by the simple intellect of an ordinary mind / senses) . And once settled there firmly, never moves away from there.
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Chapter 6, shloka 22,
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yaM labdhvA chAparaM lAbhaM
manyate nAdhikaM tataH |
yasminsthito na duHkhena
guruNApi vichAlyate ||
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Meaning :
Having attained That Ultimate, there is no other greater advantage he would ever think of. Where-in settled, he could not be moved even by the greatest miseries.
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Chapter 10, shloka 42,
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athavA bahunaitena
kiM jnAtena tavArjuna |
viShTabhyAmidaM kRtsnaM
ekAMshena sthito jagat ||
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Meaning :
Or, O arjuna! Knowing all this in great details what profits shall you gain? Just know that with a single fragment of Myself, I pervade and support this entire universe.
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Chapter 18, shloka 73,
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arjuna uvAcha :
naShTo mohaH smRitirlabdhvA
tvatprasAdAnmayAnagha |
sthito'smi gatasandehaH
kariShye vachanaM tava ||
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Meaning :
arjuna said : O Infallible One (shrikrRShNa), My illusion is now removed. And by your Grace, I have recollected my composure (and remembered again the truth of my Real being). My my doubts are cleared away and I am firmly stabilized in Wisdom. And shall act accordingly as you instruct me to do.
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