Thursday, March 20, 2014

आज का श्लोक, ’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt'

आज का श्लोक, ’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt'
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’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt' - सूक्ष्म होने के कारण,
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अध्याय 13,  श्लोक 32,
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते
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(यथा सर्वगतम् सौक्ष्म्यात् आकाशम् न उपलिप्यते ।
सर्वत्र अवस्थितः देहे तथा आत्मा न उपलिप्यते ।
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भावार्थ :
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण (जिसमें व्याप्त है, उससे) लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सर्वत्र अवस्थित आत्मा (जो कि आकाश से भी अधिक सूक्ष्म तथा और भी अधिक व्यापक है, - जो कि सबमें है, और सब जिसमें है,) देह से लिप्त नहीं होता ।
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’सौक्ष्म्यात्’ / 'saukShmyAt' - because of being subtle,
Chapter 13, shloka 32,
yathA sarvagataM saukShmyA-
dAkAshaM nopalipyate |
sarvatrAvasthito dehe
tathAtmA nopalipyate ||
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As all-pervading ether is not contaminated due to its subtlety, quite so, the Self is not contaminated though residing in all bodies.
(Note : This shloka beautifully explains how the 'self' in a body, and the 'Self' That is Omnipresent, That has the entire existence as its very body is the one and the same indivisible Reality.)
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