आज का श्लोक ’स्यात्’ / 'syAt'
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अध्याय 1, श्लोक 36 ,
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निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयादस्मान्हत्वै तानाततायिनः ॥
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(निहत्य धार्तराष्ट्रान् नः का प्रीतिः स्यात् जनार्दन ।
पापम् एव आश्रयेत् अस्मान् हत्वा एतान् आततायिनः ॥)
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भावार्थ :
धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भला हमें क्या प्रसन्नता होगी? बल्कि इन आततायियों की हत्या से हम तो पाप के ही भागी होंगे ।
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अध्याय 2, श्लोक 7,
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
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(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
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भावार्थ :
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भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
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अध्याय 3, श्लोक 17,
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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
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(यः तु आत्मरतिः एव स्यात्-आत्मतृप्तः च मानवः ।
आत्मनि-एव च सन्तुष्टः तस्य कार्यम् न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
परंतु जो मनुष्य (आत्मा को जानकर) आत्मा में ही रमण करता है, और आत्मा में ही तृप्त एवं सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता ।
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अध्याय 10, श्लोक 39,
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यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरं ॥
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(यत् च अपि सर्वभूतानाम् बीजं तत्-अहम्-अर्जुन ।
न तत्-अस्ति विना यत्-स्यात्-मया भूतं चराचरं )
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भावार्थ :
और हे अर्जुन! सारे भूत-समुदायों का जो एकमात्र कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि चर-अचर में ऐसा कहीं कुछ नहीं है जो मुझसे रहित हो ।
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अध्याय 11, श्लोक 12,
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दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
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(दिवि सूर्य-सहस्रस्य भवेत्-युगपत्-उत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्यात्-भासः तस्य महात्मनः ॥)
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भावार्थ :
आकाश में हजार सूर्य यदि एक साथ उदय हो उठें तो उनसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश भी कदाचित् ही उन महात्मा (श्रीकृष्ण) के उस प्रकाश के तुल्य हो ।
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अध्याय 15, श्लोक 20,
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इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥
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(इति गुह्यतमम् शास्त्रम्-इदम्-उक्तम् मया अनघ ।
एतत्-बुद्ध्वा बुद्धिमान्-स्यात् कृतकृत्यः च भारत ॥)
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हे निष्पाप भारत (अर्जुन)! मेरे द्वारा जो यह अति रहस्ययुक्त व गोपनीय शास्त्र कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् तथा कृतकृत्य हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 40,
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न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
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(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत्-एभिः स्यात्-त्रिभिः गुणैः ॥)
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भावार्थ :
न तो पृथिवी पर, न ही आकाश में, और न ही देवताओं में, वह / ऐसा कोई सत्त्व है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से रहित हो ।
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’स्यात्’ / 'syAt', - will there be,
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Chapter 1, shloka 36,
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nihatya dhArtarAShTrAnnaH
kA prItiH syAjjanArdana |
pApamevAshrayedasmAn-
hatvaitAnAtatAyinaH ||
--
What would we gain by killing those agressors, the sons of dhRtarAShTra? Nothing else but the sin only.
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Chapter 2, shloka 7,
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kArpaNyadoShopahataswabhAvaH
pRchCAmi twAM dharmasammUDhachetAH |
yachchhreyaH syAnnishchitaM brUhi tanme
shiShyaste'haM shAdhi mAM twAM prapannam ||
--
Meaning :
Overcome by pity and faint-heartedness, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
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Chapter 3, shloka 17,
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yastvAtmaratireva syAt-
AtmatRptashcha mAnavaH |
Atmanyeva cha santuShTas-
tasya kAryaM na vidyate ||
--
Meaning :
But a man, who has realized the 'Self' once and for all, delights in the Self, derives satisfaction in the Self only, and firmly abides in the Self', has nothing what-so-ever else to obtain, no more a duty to perform.
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Chapter 10, shloka 39,
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yachchApi sarvabhUtAnAM
bIjaM tadahamarjuna |
na tadasti vinA yatsyAn-
mayA bhUtaM charAcharaM ||
--
Meaning :
O arjuna! Whatever is the seed of all the beings, It is I AM alone. sentient or insentient, There is nothing that could exist without Me.
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Chapter 11, shloka 12,
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divi sUryasahasrasya
bhavedyugapadutthitA |
yadi bhAH sadRushI sA syAd-
bhAsastasya mahAtmanaH ||
--
Meaning :
Even if a thousand suns rise up and shine together in the sky, the radiance they would spread out, will be nothing in comparison to the splendor of this Great Being (kriShNa)
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Chapter 15, shloka 20,
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iti guhyatamaM shAstra-
midamuktaM mayAnagha |
etadbuddhwA buddhimAnsyAt-
kRtakRtyashcha bhArata ||
--
Meaning :
O sinless (arjuna)! This is most secret and confidential scripture that I have revealed before you. O bhArata (arjuna) having grasped this a man of wisdom becomes perfect and accomplished.
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Chapter 18, shloka 40,
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na tadasti pRthivyAM vA
divi deveShu vA punaH |
sattvaM prakRtijairmuktaM
yadebhiH syAt-tribhirguNaiH ||
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Meaning :
Neither on this earth, nor in the heavens among the gods, anything or any-one who is free from these three modes attributes / guNa of prakRti / nature.
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अध्याय 1, श्लोक 36 ,
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निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयादस्मान्हत्वै तानाततायिनः ॥
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(निहत्य धार्तराष्ट्रान् नः का प्रीतिः स्यात् जनार्दन ।
पापम् एव आश्रयेत् अस्मान् हत्वा एतान् आततायिनः ॥)
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भावार्थ :
धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भला हमें क्या प्रसन्नता होगी? बल्कि इन आततायियों की हत्या से हम तो पाप के ही भागी होंगे ।
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अध्याय 2, श्लोक 7,
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
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(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
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भावार्थ :
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भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
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अध्याय 3, श्लोक 17,
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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
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(यः तु आत्मरतिः एव स्यात्-आत्मतृप्तः च मानवः ।
आत्मनि-एव च सन्तुष्टः तस्य कार्यम् न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
परंतु जो मनुष्य (आत्मा को जानकर) आत्मा में ही रमण करता है, और आत्मा में ही तृप्त एवं सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता ।
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अध्याय 10, श्लोक 39,
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यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरं ॥
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(यत् च अपि सर्वभूतानाम् बीजं तत्-अहम्-अर्जुन ।
न तत्-अस्ति विना यत्-स्यात्-मया भूतं चराचरं )
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भावार्थ :
और हे अर्जुन! सारे भूत-समुदायों का जो एकमात्र कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि चर-अचर में ऐसा कहीं कुछ नहीं है जो मुझसे रहित हो ।
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अध्याय 11, श्लोक 12,
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दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
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(दिवि सूर्य-सहस्रस्य भवेत्-युगपत्-उत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्यात्-भासः तस्य महात्मनः ॥)
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भावार्थ :
आकाश में हजार सूर्य यदि एक साथ उदय हो उठें तो उनसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश भी कदाचित् ही उन महात्मा (श्रीकृष्ण) के उस प्रकाश के तुल्य हो ।
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अध्याय 15, श्लोक 20,
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इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥
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(इति गुह्यतमम् शास्त्रम्-इदम्-उक्तम् मया अनघ ।
एतत्-बुद्ध्वा बुद्धिमान्-स्यात् कृतकृत्यः च भारत ॥)
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हे निष्पाप भारत (अर्जुन)! मेरे द्वारा जो यह अति रहस्ययुक्त व गोपनीय शास्त्र कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् तथा कृतकृत्य हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 40,
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न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
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(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत्-एभिः स्यात्-त्रिभिः गुणैः ॥)
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भावार्थ :
न तो पृथिवी पर, न ही आकाश में, और न ही देवताओं में, वह / ऐसा कोई सत्त्व है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से रहित हो ।
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’स्यात्’ / 'syAt', - will there be,
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Chapter 1, shloka 36,
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nihatya dhArtarAShTrAnnaH
kA prItiH syAjjanArdana |
pApamevAshrayedasmAn-
hatvaitAnAtatAyinaH ||
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What would we gain by killing those agressors, the sons of dhRtarAShTra? Nothing else but the sin only.
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Chapter 2, shloka 7,
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kArpaNyadoShopahataswabhAvaH
pRchCAmi twAM dharmasammUDhachetAH |
yachchhreyaH syAnnishchitaM brUhi tanme
shiShyaste'haM shAdhi mAM twAM prapannam ||
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Meaning :
Overcome by pity and faint-heartedness, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
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Chapter 3, shloka 17,
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yastvAtmaratireva syAt-
AtmatRptashcha mAnavaH |
Atmanyeva cha santuShTas-
tasya kAryaM na vidyate ||
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Meaning :
But a man, who has realized the 'Self' once and for all, delights in the Self, derives satisfaction in the Self only, and firmly abides in the Self', has nothing what-so-ever else to obtain, no more a duty to perform.
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Chapter 10, shloka 39,
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yachchApi sarvabhUtAnAM
bIjaM tadahamarjuna |
na tadasti vinA yatsyAn-
mayA bhUtaM charAcharaM ||
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Meaning :
O arjuna! Whatever is the seed of all the beings, It is I AM alone. sentient or insentient, There is nothing that could exist without Me.
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Chapter 11, shloka 12,
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divi sUryasahasrasya
bhavedyugapadutthitA |
yadi bhAH sadRushI sA syAd-
bhAsastasya mahAtmanaH ||
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Meaning :
Even if a thousand suns rise up and shine together in the sky, the radiance they would spread out, will be nothing in comparison to the splendor of this Great Being (kriShNa)
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Chapter 15, shloka 20,
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iti guhyatamaM shAstra-
midamuktaM mayAnagha |
etadbuddhwA buddhimAnsyAt-
kRtakRtyashcha bhArata ||
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Meaning :
O sinless (arjuna)! This is most secret and confidential scripture that I have revealed before you. O bhArata (arjuna) having grasped this a man of wisdom becomes perfect and accomplished.
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Chapter 18, shloka 40,
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na tadasti pRthivyAM vA
divi deveShu vA punaH |
sattvaM prakRtijairmuktaM
yadebhiH syAt-tribhirguNaiH ||
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Meaning :
Neither on this earth, nor in the heavens among the gods, anything or any-one who is free from these three modes attributes / guNa of prakRti / nature.
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