आज का श्लोक, ’स्पृहा’/ 'spRhA'
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’स्पृहा’/ 'spRhA'
अध्याय 4, श्लोक 14,
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न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे करफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
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(न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति यो माम् अभिजानाति कर्मभिः न सः बध्यते ॥)
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भावार्थ :
न तो कर्म मुझसे लिप्त होते हैं और न कर्मफलों से मुझे कोई आशा है, इस प्रकार से जो मुझे (अपने-आपको) सम्यक् रूपेण जान-समझ लेता है, वह कर्मों के द्वारा नहीं बाँधा जाता ।
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अध्याय 14, श्लोक 12,
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लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥
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(लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा ।
रजसि एतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥)
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भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! लोभ, प्रवृत्ति (रुचि) कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, और लालसा, रजोगुण के बढ़ जाने पर चित्त में ये सभी जन्म लेते हैं ।
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’स्पृहा’/ 'spRhA' - eagerness, urge for, craving for.
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Chapter 4, shloka 14,
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na mAM karmANi limpanti
na me karmaphale spRhA |
iti mAM yo'bhijAnAti
karmabhirna sa badhyate ||
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Meaning :
The actions neither cling me, nor the urge possesses me. One who understands this about me (oneself) well, is never bound by the actions.
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Chapter 14, shloka 12,
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lobhaH pravRttirArambhaH
karmaNAmashaH spRhA |
rajasyetAni jAyante
vivRddhe bharatarShabha ||
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O bharatarShabha (arjuna)! When the mode of passion predominates, one is overtaken by greed, activity, urge for the activity, restlessness and craving for enjoyment.
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’स्पृहा’/ 'spRhA'
अध्याय 4, श्लोक 14,
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न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे करफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
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(न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति यो माम् अभिजानाति कर्मभिः न सः बध्यते ॥)
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भावार्थ :
न तो कर्म मुझसे लिप्त होते हैं और न कर्मफलों से मुझे कोई आशा है, इस प्रकार से जो मुझे (अपने-आपको) सम्यक् रूपेण जान-समझ लेता है, वह कर्मों के द्वारा नहीं बाँधा जाता ।
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अध्याय 14, श्लोक 12,
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लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥
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(लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा ।
रजसि एतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥)
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भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! लोभ, प्रवृत्ति (रुचि) कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, और लालसा, रजोगुण के बढ़ जाने पर चित्त में ये सभी जन्म लेते हैं ।
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’स्पृहा’/ 'spRhA' - eagerness, urge for, craving for.
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Chapter 4, shloka 14,
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na mAM karmANi limpanti
na me karmaphale spRhA |
iti mAM yo'bhijAnAti
karmabhirna sa badhyate ||
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Meaning :
The actions neither cling me, nor the urge possesses me. One who understands this about me (oneself) well, is never bound by the actions.
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Chapter 14, shloka 12,
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lobhaH pravRttirArambhaH
karmaNAmashaH spRhA |
rajasyetAni jAyante
vivRddhe bharatarShabha ||
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O bharatarShabha (arjuna)! When the mode of passion predominates, one is overtaken by greed, activity, urge for the activity, restlessness and craving for enjoyment.
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