Thursday, July 31, 2014

आज का श्लोक, ’शस्त्रपाणयः’ / ’śastrapāṇayaḥ’

आज का श्लोक,
’शस्त्रपाणयः’ / ’śastrapāṇayaḥ’
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’शस्त्रपाणयः’ / ’śastrapāṇayaḥ’ - जिनके हाथों में शस्त्र हैं, सशस्त्र,

अध्याय 1, श्लोक 46,
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यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
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(यदि माम् -अप्रतीकारम्-अशस्त्रं शस्त्रपाणयः
धार्तराष्ट्रा: रणे हन्युः तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥)
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भावार्थ:
यदि मुझ निहत्थे पर धृतराष्ट्र के पुत्र शस्त्र लेकर आक्रमण करें और वे मुझे मार  डालें , तो यह तो और भी अच्छा होगा ।
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’शस्त्रपाणयः’ / ’śastrapāṇayaḥ’ - those having weapons with them, armed,

Chapter 1, śloka 46,

yadi māmapratīkāram-
aśastraṃ śastrapāṇayaḥ |
dhārtarāṣṭrā raṇe hanyus-
tanme kṣemataraṃ bhavet ||
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(yadi mām -apratīkāram-
aśastraṃ śastrapāṇayaḥ |
dhārtarāṣṭrā: raṇe hanyuḥ
tanme kṣemataraṃ bhavet ||)
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Meaning :
It will be even far better, if the weapon-wielding dhārtarāṣṭrā: > sons of  dhṛtarāṣṭra kill me, while I am unarmed and not resisting.
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आज का श्लोक, ’शस्त्रभृताम्’ / ’śastrabhṛtām’

आज का श्लोक,
’शस्त्रभृताम्’ / ’śastrabhṛtām’
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’शस्त्रभृताम्’ / ’śastrabhṛtām’ - शस्त्रधारियों में,

अध्याय 10, श्लोक 31,

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥
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(पवनः पवताम् अस्मि रामः शस्त्रभृताम् अहम् ।
झषाणाम् मकरः च अस्मि स्रोतसाम् अस्मि जाह्नवी ।)
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भावार्थ :
पवित्र (शुद्ध) करनेवालों में पवन अर्थात् वायु हूँ, शस्त्रधारियों में श्रीराम मैं, और मछलियों-मत्स्यों में मकर (मगरमच्छ) नदियों में श्री भागीरथी गङ्गा हूँ ।
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Chapter 10, śloka 31,

pavanaḥ pavatāmasmi
rāmaḥ śastrabhṛtāmaham |
jhaṣāṇāṃ makaraścāsmi
srotasāmasmi jāhnavī ||
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(pavanaḥ pavatām asmi
rāmaḥ śastrabhṛtām aham |
jhaṣāṇām makaraḥ ca asmi
srotasām asmi jāhnavī |)
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Meaning :
Of purifying, I AM the air, among weapon-wielders Lord śrīrāma I AM, among amphibians alligator I AM, and among the rivers, I AM the Ganges.
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आज का श्लोक, ’शस्त्रसंपाते’ / ’śastrasaṃpāte’

आज का श्लोक,
’शस्त्रसंपाते’ / ’śastrasaṃpāte’
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’शस्त्रसंपाते’ / ’śastrasaṃpāte’ - शस्त्र से आक्रमण करने के लिए,

अध्याय 1, श्लोक 20,

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥
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(अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रम्पाते धनुः उद्यम्य पाण्डवः ॥)
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भावार्थ :
इसके पश्चात्, कपिध्वज पाण्डव (अर्जुन) ने यह देखकर कि धृतराष्ट्र के पक्ष (के योद्धाओं) को शस्त्र से आक्रमण करने के लिए उद्यत हैं, अपना धनुष उठाकर  ...
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टिप्पणी :
श्रीमद्भगवद्गीता में ऐसे कुछ शब्द दृष्टव्य हैं जिनसे संकेत मिलता है कि महाभारत का युद्ध ’मिसाइल-युद्ध’ जैसा था । सुसज्जित रथ (और महारथी) जहाँ ’टैंक’ (tank) की तरह हैं, वहीं शस्त्रों को ’गिराया जाना’ जैसा कि ’शस्त्रसम्पाते’ में बिलकुल स्पष्ट है, ’मिसाइल’ (missile) गिराए जाने जैसा लगता है । ’अस्त्र-शीर्ष’ शब्द तो ’वॉर-हेड’ / nuclear war-heads का ही सीधा अनुवाद प्रतीत होता है, जबकि यह शब्द ’अस्त्र-शीर्ष’ तो ’वॉर-हेड’ से 5000 या अधिक वर्ष पुराना है । अस्त्रों के प्रकार ’गाइडेड-मिसाइल’ जैसे ’लक्ष्यभेदी’ जान पड़ते हैं, तो ’नाग’ या ’वैनतेय’ (गरुड) जैव-युद्ध / बॉयोलॉजिकल वॉर (bio-logical war) के ही साधन हो सकते हैं ।
क्या यह सब कोरी कवि-कल्पना है?
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’शस्त्रसंपाते’ / ’śastrasaṃpāte’ - at the time of attacking with the weapons,

Chapter 1, śloka 20,

atha vyavasthitāndṛṣṭvā
dhārtarāṣṭrānkapidhvajaḥ |
pravṛtte śastrasampāte 
dhanurudyamya pāṇḍavaḥ ||
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(atha vyavasthitān dṛṣṭvā
dhārtarāṣṭrān kapidhvajaḥ |
pravṛtte śastrampāte 
dhanuḥ udyamya pāṇḍavaḥ ||)
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Meaning :
kapidhvaja pāṇḍava (arjuna),  having seen the army of dhārtarāṣṭrā / duryodhana and others, well-equipped and ready to attack with their weapons, raised his bow and,.....  
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आज का श्लोक, ’शस्त्राणि’ / ’śastrāṇi’

आज का श्लोक,  ’शस्त्राणि’ / ’śastrāṇi’
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शस्त्राणि’ / ’śastrāṇi’ - शस्त्र (बहुवचन)

अध्याय 2, श्लोक 23,

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।
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(न एनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि न एनम् दहति पावकः ।
न च एनम् क्लेदयन्ति आपः न शोषयति मारुतः ॥
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भावार्थ :
इस (आत्मतत्व को) न तो शस्त्र काटते हैं, न इस (आत्मतत्व को) अग्नि जलाती है । और न इस (आत्मतत्व को) जल आर्द्र करता है, और न इस (आत्मतत्व को) वायु सुखाती है ।
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शस्त्राणि’ / ’śastrāṇi’ - weapons,

Chapter 2, śloka 23,

nainaṃ chindanti śastrāṇi 
nainaṃ dahati pāvakaḥ |
na cainaṃkledayantyāpo
na śoṣayati mārutaḥ |
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(na enam chindanti śastrāṇi 
na enam dahati pāvakaḥ |
na ca enam kledayanti āpaḥ
na śoṣayati mārutaḥ ||
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Meaning :
Neither the weapons can cut this (Self), nor the Fire can burn this (Self). Neither the waters can make this (Self) humid / wet, nor the winds can make this (Self) dry.
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आज का श्लोक, ’शङ्करः’ / ’śaṅkaraḥ’

आज का श्लोक, ’शङ्करः’ / ’śaṅkaraḥ’
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’शङ्करः’ / ’śaṅkaraḥ’ - शंकर, शिव, महादेव,

अध्याय 10, श्लोक 23,

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥
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(रुद्राणाम् शङ्करः च अस्मि वित्तेशः यक्षरक्षसाम् ।
वसूनाम् पावकः च अस्मि मेरुः शिखरिणाम् अहम् ।)
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भावार्थ :
(ग्यारह) रुद्रों में मैं शंकर हूँ, यक्षों एवं राक्षसों में मैं धन का स्वामी कुबेर हूँ, (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ, तथा शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत मैं हूँ ।
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टिप्पणी :
इस अध्याय में परमात्मा की उन विभूतियों का वर्णन है, जिन्हें प्रत्यक्ष देखकर / जानकर परमात्मा की महिमा का यत्किञ्चित् अनुमान किया जा सकता है ।

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’शङ्करः’ / ’śaṅkaraḥ’ - śaṃkara, śiva, mahādeva,

Chapter 10, śloka 23,

rudrāṇāṃ śaṅkaraścāsmi
vitteśo yakṣarakṣasām |
vasūnāṃ pāvakaścāsmi
meruḥ śikhariṇāmaham ||
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(rudrāṇām śaṅkaraḥ ca asmi
vitteśaḥ yakṣarakṣasām |
vasūnām pāvakaḥ ca asmi
meruḥ śikhariṇām aham |)
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Meaning :
And, among (the eleven) rudra-s, I AM śaṅkara, kubera, The Lord of wealths among the yakṣa and the rakṣa. I AM The Fire, among the (eight) vasu-s, and meru (sumeru). among the mountains with peaks and summits.
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Notes :
rudrā are the many forms of shiva / mahādeva, as described in veda and purāṇa.
yakṣa are the spiritual entities possessing occult powers.
rakṣa are the monstrous humans with great strength and full of desires and vigor.
vasu-s are the eight spiritual / celestial dignities that are Lords of, and look after eight directions.
(दिक्-नीयते येन ( इति ) स दिग्नीतिः dik-nīyate yena (iti) sa dignītiḥ -one who takes to a direction, is vasu)
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आज का श्लोक, ’शंससि’ / ’śaṃsasi’

आज का श्लोक, ’शंससि’ / ’śaṃsasi’ 
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’शंससि’ / ’śaṃsasi’ - (आप) प्रशंसा / अनुशंसा करते हैं,

अध्याय 5, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
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(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं ।  इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
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’शंससि’ / ’śaṃsasi’ - you praise / recommend, commend,

Chapter 5, śloka 1,

arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
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(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekaṃ
tat me brūhi suniścitam ||)
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Meaning :
arjuna said : O  kṛṣṇa!  You speak of  Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma), and at the same time You  praise yoga also! Please tell me with certainty, which of the two is superior.
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Note :
In this and following śloka of this Chapter 5, the meaning and essence of Renunciation is explained. The Renunciation could be either at the formal level when one renounces the possession of things, but does not give up the idea that the action happens because of the three attributes (guṇa) of prakṛti  and one is always free and unaffected from all action (karma) and the notion of "I do  / I don't do" are but illusion only, Or at a deeper level of understanding this truth.
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आज का श्लोक, ’शाधि’ / ’śādhi’

आज का श्लोक,  ’शाधि’ / ’śādhi’ 
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’शाधि’ / ’śādhi’ - शिक्षा दीजिए, ( शास् > शिक्षा देना),

अध्याय 2, श्लोक 7,
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
--
(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
--
भावार्थ :
भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
टिप्पणी :
व्युत्पत्ति :
’छात्र’ - जो किसी की छत्रछाया में होता है, ’शिष्य’ - जो किसी के शासन (शास् - शिक्षा देना) में होता है ।
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’शाधि’ / ’śādhi’ - please teach (me) ! ( शास् > शासनम्, to teach,)

Chapter 2, śloka 7,

kārpaṇyadoṣopahatasvabhāvaḥ
pṛcchāmi tvāṃ dharmasammūḍhacetāḥ |
yacchreyaḥ syānniścitaṃ brūhi tanme
śiṣyaste:'haṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ||7
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(kārpaṇya-doṣa-upahata-svabhāvaḥ
pṛcchāmi tvām dharmasammūḍhacetāḥ |
yat-śreyaḥ syāt-niścitam brūhi tat-me
śiṣyaḥ te-aham śādhi mām tvām prapannam ||)
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Meaning :
Overcome by pity and faint-heart, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
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आज का श्लोक, ’शान्तरजसम्’ / ’śāntarajasam’

आज का श्लोक,
’शान्तरजसम्’ / ’śāntarajasam’
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’शान्तरजसम्’ / ’śāntarajasam’ - जिसके चित्त का रजोगुण शान्त हो गया है, स्थिरबुद्धि,

अध्याय 6, श्लोक 27,

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥
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(प्रशान्तमनसम् हि-एनम् योगिनम् सुखम् उत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसम् ब्रह्मभूतम्-अकल्मषम् ॥
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भावार्थ :
(अध्याय 6 के पिछले श्लोक 26 से आगे ...)
जिसका रजोगुण शान्त हो चुका है, अर्थात् चित्त की चञ्चलता प्रशमित हो गई है जिस योगी के मन की, उसके उस मन को ब्रह्म से एकीभूत होने का श्रेष्ठ अकल्मष सुख / आनन्द प्राप्त होता है ।
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’शान्तरजसम्’ / ’śāntarajasam’ - one with tranquil mind, no more agitated or wandering here and there,


Chapter 6, śloka 27,

praśāntamanasaṃ hyenaṃ
yoginaṃ sukhamuttamam |
upaiti śāntarajasaṃ
brahmabhūtamakalmaṣam ||
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(praśāntamanasam hi-enam
yoginam sukham uttamam |
upaiti śāntarajasam 
brahmabhūtam-akalmaṣam ||
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Meaning :
Such a mind of a yogI (seeker) that has become tranquil because of the freedom from fear and desire, and restlessness, soon attains the bliss supreme .
The bliss that is verily Brahman and of Brahman Only.
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आज का श्लोक, ’शान्तः’ / ’śāntaḥ’

आज का श्लोक, ’शान्तः’ / ’śāntaḥ’ 
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’शान्तः’ / ’śāntaḥ’ - शान्त, शान्तिपूर्ण,

अध्याय 18, श्लोक 53,

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
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(अहङ्कारम् बलम् दर्पम् कामम् क्रोधम् परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तः ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥)
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भावार्थ :
(पूर्ववर्णित श्लोकों के क्रम में, ...) अहंकार, बल (आक्रामकता), दर्प (मिथ्या गर्व). काम, क्रोध, और परिग्रह (लोभवश संग्रह करने की प्रवृति), इन सब का परित्याग कर ममत्व (मेरापन) की भावना से रहित हुआ, शान्तचित्त मनुष्य सच्चिदानन्द ब्रह्म से अभिन्न हो जाता है ।
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’शान्तः’ / ’śāntaḥ’ - at peace, calm,

Chapter 18, śloka 53,

ahaṅkāraṃ balaṃ darpaṃ
kāmaṃ krodhaṃ parigraham |
vimucya nirmamaḥ śānto 
brahmabhūyāya kalpate ||
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(ahaṅkāram balam darpam
kāmam krodham parigraham |
vimucya nirmamaḥ śāntaḥ 
brahmabhūyāya kalpate ||)
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Meaning :
(In continuation to the earlier  51, 52,...)
Having renounced ego (ahaṅkāra), aggressiveness (bala), pride (darpa), desire (kāma), anger (krodha), and possessiveness (parigraha), given-up sense of me and mine (mamatva) thus having attained the spontaneous ego-less state of being ( nirmamatva) such a man abiding in peace Supreme, attains Brahman and merges in Brahman.  
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आज का श्लोक, ’शान्तिम्’ / ’śāntim’

आज का श्लोक,  ’शान्तिम्’ / ’śāntim’
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’शान्तिम्’ / ’śāntim’ - शान्ति को,

अध्याय 2, श्लोक 70,

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
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(आपूर्यमाणम्-अचलप्रतिष्ठम् समुद्रम् आपः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामाः यम् प्रविशन्ति सर्वे सः शान्तिम् आप्नोति न कामकामी ॥)
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भावार्थ :
जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल और अपने-आप में सुस्थिर समुद्र में भिन्न भिन्न स्रोतों से आनेवाली सारी नदियाँ समा जाती हैं और वह यथावत् अविचलित ही रहता है, उसी प्रकार विभिन्न कामनाएँ जिस मनुष्य को (उसकी आत्मा से) बाहर न खींचती हुई, उसमें ही समाहित हो जाती हैं, वही मनुष्य शान्ति प्राप्त कर लेता है, न कि वह जिसका चित्त विभिन्न कामनाओं से आकर्षित हुआ इधर उधर भटकता रहता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 71,

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
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(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 39,

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
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(श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानम् लब्ध्वा पराम् शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
(परमात्मा को) जानने की उत्कट जिज्ञासा जिसे होती है, और श्रद्धा से युक्त ऐसे मनुष्य को जिसकी इन्द्रियाँ उसके नियंत्रण में हैं, ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त तत्काल ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 12,

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥

(युक्तः कर्मफलम् त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तः निबध्यते ॥)
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भावार्थ : योग में स्थित हुआ (मनुष्य) कर्म के फल को त्यागकर निष्ठा से प्राप्त हुई शान्ति को पा लेता है । जबकि योग से अनभिज्ञ (मनुष्य) कामनाओं से परिचालित होने के कारण फल (की आशा) से बद्ध रहता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 29,
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भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
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(भोक्तारम् यज्ञतपसाम् सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदम् सर्वभूतानाम् ज्ञात्वा माम् शान्तिम् ऋच्छति ॥)
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भावार्थ :
सब यज्ञों और तपों के भोगनेवाले, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर, सभी भूतप्राणियों के आत्मीय, मुझको जानकर शान्ति को प्राप्त होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 15,

युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थानमधिगच्छति ॥
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(युञ्जन् एवम् सदा आत्मानम् योगी नियतमानसः ।
शान्तिम् निर्वाणपरमाम् मत्संस्थाम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
आपने-आप को (अपने मन, चित्त को) सतत मुझमें संलग्न रखते हुए योगी इस प्रकार से मुझमें स्थित निर्वाणरूपी परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 9, श्लोक 31,

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
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(क्षिप्रम् भवति धर्मात्मा शश्वत् शान्तिम् निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥)
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भावार्थ :
(मुझको अनन्यभाव से भजनेवाला) शीघ्र ही आत्मा के धर्म में स्थित हो जाता है, और नित्य विद्यमान शान्ति को उपलब्ध हो जाता है । हे पार्थ (अर्जुन) इसे निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता ।
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अध्याय 18, श्लोक 62,
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तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
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(तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्-प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अपने सम्पूर्ण हृदय से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ । उसकी कृपा से तुम्हें शान्ति तथा सनातन परम धाम प्राप्त होगा ।
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’शान्तिम्’ / ’śāntim’ - (to, towards) peace,

Chapter 2, śloka 70,
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āpūryamāṇamacalapratiṣṭhaṃ
samudramāpaḥ praviśanti yadvat |
tadvatkāmā yaṃ praviśanti sarve
sa śāntimāpnoti na kāmakāmī ||
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(āpūryamāṇam-acalapratiṣṭham
samudram āpaḥ praviśanti yadvat |
tadvat kāmāḥ yam praviśanti sarve
saḥ śāntim āpnoti na kāmakāmī ||)
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Meaning : Just as, the waters coming from all the directions enter and merge into the ocean, and the ocean stays steady and unaffected, quite so, only the one who is not affected by the desires that come to and merge into his mind wins the state of peace. And not the one, who keeps thinking of and indulging in desires.
--
Chapter 2, śloka 71,

vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa śāntimadhigacchati ||
--
(vihāya kāmān yaḥ sarvān
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ śāntim adhigacchati ||)
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Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.
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Chapter 4, shloka 39,

śraddhāvām̐llabhate jñānaṃ
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñānaṃ labdhvā parāṃ
śāntimacireṇādhigacchati ||
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(śraddhāvān labhate jñānam
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñāmam labdhvā parām śāntim 
acireṇa adhigacchati ||)
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Meaning : An earnest and eager seeker endowed with the trust (in Supreme / Brahman  / 'Self,') and who has control over the senses, acquires the wisdom, and as soon as he gains wisdom, the peace supreme follows in the instant.
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Chapter 5, śloka 12,

yuktaḥ karmaphalaṃ
tyaktvā śāntimāpnoti naiṣṭhikīm |
ayuktaḥ kāmakāreṇa
phale sakto nibadhyate ||
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(yuktaḥ karmaphalam tyaktvā
śāntim āpnoti naiṣṭhikīm |
ayuktaḥ kāmakāreṇa
phale saktaḥ nibadhyate ||)
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Meaning :
One aware of, and stable in yoga forsakes all (hope of) fruites (of action) and attains peace born of conviction. Another, not knowing yoga, carried over by desires keeps tethered to (the hopes of) the fruits (of action).
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Chapter 5, śloka 29,
 
bhoktāraṃ yajñatapasāṃ
sarvalokamaheśvaram |
suhṛdaṃ sarvabhūtānāṃ
jñātvā māṃ śāntimṛcchati ||
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(bhoktāram yajñatapasām
sarvalokamaheśvaram |
suhṛdam sarvabhūtānām
jñātvā mām śāntim ṛcchati ||)
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Meaning :
Knowing, Me / I AM, the goal of all sacrifices and austerities, The Only Lord Supreme of all the worlds and their respective gods, And beloved of all beings, one attains supreme peace.
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Chapter 6, śloka 15,

yuñjanevaṃ sadātmānaṃ
yogī niyatamānasaḥ |
śāntiṃ nirvāṇaparamāṃ
matsaṃsthānamadhigacchati ||
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(yuñjan evam sadā ātmānam
yogī niyatamānasaḥ |
śāntim nirvāṇaparamām
matsaṃsthām adhigacchati ||)
--
Meaning :
In this way a yogī, keeping himself (his mind and attention) always fixed in Me, attains the peace supreme of nirvāṇa, which has I AM the abode.
--
Chapter 9, śloka 31,

kṣipraṃ bhavati dharmātmā
śaśvacchāntiṃ nigacchati |
kaunteya prati jānīhi
na me bhaktaḥ praṇaśyati ||
--
(kṣipram bhavati dharmātmā
śaśvat śāntim nigacchati |
kaunteya prati jānīhi
na me bhaktaḥ praṇaśyati ||)
--
Meaning : of the
(One devoted to Me with dedication undivided) soon attains the state of dharma of the Self, and along-with the peace ultimate. O pārtha (arjuna)! Know for certain, My devotee is never lost.
--
Chapter 18, śloka 62,

tameva śaraṇaṃ gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tatprasādātparāṃ śāntiṃ 
sthānaṃ prāpsyasi śāśvatam ||
--
(tam eva śaraṇam gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tat-prasādāt parām śāntim 
sthānam prāpsyasi śāśvatam ||)
--
Meaning :
Therefore, with all your heart, seek shelter in Him alone. Through His grace, you shall attain the abode that is bliss supreme and peace eternal.
--






आज का श्लोक, ’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’

आज का श्लोक, ’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’
___________________________

’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’ - शान्ति,

अध्याय 2, श्लोक 66,

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।
-
( न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना ।
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम् ॥)
--
भावार्थ :
योगरहित मनुष्य में (निश्चयात्मक) बुद्धि नहीं होती, उसकी बुद्धि चञ्चल और अस्थिर, होती है । योगरहित मनुष्य के अन्तःकरण में भावना अर्थात् किसी से भी स्नेह भी नहीं होता । भावना से रहित होने से उसके हृदय में शान्ति (आत्म-सन्तुष्टिरूपी भावना) भी नहीं होती, और अशान्त को भला सुख कैसे अनुभव हो सकता है?
--
अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
--
अध्याय 16, श्लोक 2,

अहिंसासत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥
--
(अहिंसा सत्यम् अक्रोधः त्यागः शान्तिः अपैशुनम् ।
दया भूतेषु अलोलुप्त्वम् मार्दवम् ह्रीः अचापलम् ॥)
--
भावार्थ :
इस अध्याय के प्रथम श्लोक में दैवी सम्पदाओं का वर्णन किया गया, इसी क्रम में आगे और दूसरे श्लोक में कहा गया, ...
अहिंसा अर्थात् सब भूतों मे उसी एक परमेश्वर को जानकर किसी के प्रति मन वचन कर्म से हिंसा न करना ।
सत्य अर्थात् नित्य वस्तु की पहचान, अक्रोध अर्थात् रोष न होना, त्याग अर्थात् सब परमेश्वर का समझते हुए सांसारिक वस्तुओं पर आधिपत्य की भावना न रखना, शान्ति अर्थात् मन की अचंचलता और धैर्य, अपैशुनम् अर्थात् किसी के प्रति द्वेष / घृणा न रखना, दया अर्थात् करुणा, सबके प्रति संवेदनशीलता, अलोलुपता अर्थात् इन्द्रियों का विषयों से संयोग होने पर प्राप्त होने वाले सुख-दुख से प्रभावित न होना, मार्दवम्  - अर्थात् अर्थात् मृदुता, कठोरता या क्रूरता का विपरीत, ह्री अर्थात् अनैतिक कार्य करने में लज्जा होना, और अचापलम् अर्थात् व्यर्थ चेष्टाओं में संलग्न न होना,  
--

’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’ - peace, tranquility,

Chapter 2, śloka 66,

nāsti buddhirayuktasya
na cāyuktasya bhāvanā |
na cābhāvayataḥ śāntir-
aśāntasya kutaḥ sukham |
-
( na asti buddhiḥ ayuktasya
na ca ayuktasya bhāvanā |
na ca abhāvayataḥ śāntiḥ 
aśāntasya kutaḥ sukham ||)
--
Meaning :
One who has no right understanding (yoga, contact / association with the goal) has no inspiration. One who has no inspiration has no peace, and how one with no peace may find happiness?
--
Chapter 12, śloka 12,

śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
--
(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
--
Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphalatyāga) / desireless-ness is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.
--
Chapter 16, śloka 2,

ahiṃsāsatyamakrodhas-
tyāgaḥ śāntirapaiśunam |
dayā bhūteṣvaloluptvaṃ
mārdavaṃ hrīracāpalam ||
--
(ahiṃsā satyam akrodhaḥ
tyāgaḥ śāntiḥ apaiśunam |
dayā bhūteṣu aloluptvam
mārdavam hrīḥ acāpalam ||)
--
Meaning :
The divine assets / attributes / qualities (daivī sampadā)  that indicate one's progress on the spiritual path have been enumerated in the  śloka  1 of this Chapter 16. The next are as in this  śloka  2 as given below :
compassion   (ahiṃsā),  truth (satyam),  not being overcome by anger  (akrodhaḥ),  renunciation (tyāgaḥ), peaceful temperament  (śāntiḥ),  absence of vilification / hatred / envy (apaiśunam),  generosity, kindness towards all  (dayā  bhūteṣu),   absence of cravings (aloluptvam),  gentleness  (mārdavam),  modesty (hrīḥ),  absence of fickle mindedness (acāpalam)
--

आज का श्लोक, ’शारीरम्’ / ’śārīram’

आज का श्लोक, ’शारीरम्’ / ’śārīram’
_____________________________

’शारीरम्’ / ’śārīram’ - शरीर-संबंधी,

अध्याय 4, श्लोक 21,

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
--
(निराशीः यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरम् केवलम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
--
भावार्थ :
शरीर, मन तथा इन्द्रियों पर संयम करता हुआ, (भोगों की) समस्त परिग्रह को जिसने त्याग दिया है, संसार से कोई आशा न रखता हुआ, केवल शरीर के निर्वाह हेतु प्राप्त हुए कर्मों का निर्वाह करते हुए भी, पाप को नहीं प्राप्त होता ।
--
अध्याय 17, श्लोक 14,

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥
--
(देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम् शौचम् आर्जवम् ।
ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शारीरम् तप उच्यते ॥)
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भावार्थ :
देवता, ब्राह्मण, गुरुजनों और ज्ञानियों का पूजन, उन्हें सत्कार और सम्मान प्रदान करना, अन्तःकरण एवं शरीर को स्वच्छ और शुद्ध रखना, चित्त की सरलता, निश्छलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, इन्हें शारीर (शरीर से किए जानेवाले) तप कहा जाता है ।
टिप्पणी :
द्विज का अर्थ है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो, तात्पर्य है जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ हो, अर्थात् प्रमुखतः ब्राह्मण, और गौण अर्थ में, वैदिक दीक्षा प्राप्त करनेवाला और व्रत का पालन करनेवाला कोई व्यक्ति ।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है विषय-भोगों के प्रति सुख-बुद्धि न होना ।
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’शारीरम्’ / ’śārīram’ - of body, physical,

Chapter 4, śloka 21,

nirāśīryatacittātmā tyaktasarvaparigrahaḥ |
śārīraṃ kevalaṃkarma kurvannāpnoti kilbiṣam ||
--
(nirāśīḥ yatacittātmā tyaktasarvaparigrahaḥ |
śārīram kevalam karma kurvan na āpnoti kilbiṣam ||)
--
Meaning :
Who, without expectations from the world, having controlled the body, mind and the senses, has given up all sense of possession over the material things, though performs various actions by the body only, does not incur sin.
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Chapter 17, śloka 14,

devadvijaguruprājñapūjanaṃ śaucamārjavam |
brahmacaryamahiṃsā ca śārīraṃ tapa ucyate ||
--
(devadvijaguruprājñapūjanam śaucam ārjavam |
brahmacaryam ahiṃsā ca śārīram tapa ucyate ||)
--
Meaning :
Worshiping and giving due respect to the divine entities (deva), the twice-born (dvija), The Spiritual Master and elders in other respects (guru), maintaining the purity and cleanliness of body, mind and senses, simplicity of mind, abstaining from indulgence in pleasures (brahmacaryam), and the attitude of compassion (ahiṃsā) toward all beings, these are called the austerities of the body (śārīraṃ tapa).
--

आज का श्लोक, ’शाश्वत-धर्मगोप्ता’ / ’śāśvata-dharmagoptā’

आज का श्लोक,
’शाश्वतधर्मगोप्ता’ / ’śāśvatadharmagoptā’
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’शाश्वत-धर्मगोप्ता’ / ’śāśvata-dharmagoptā’ - धर्म की नित्य रक्षा करनेवाले,

अध्याय 11, श्लोक 18,

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वत-धर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥
--
(त्वम् अक्षरम् परमम् वेदितव्यम्
त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम्
त्वम् अव्ययः शाश्वत-धर्मगोप्ता
सनातनः त्वम् पुरुषः मतः मे ॥)
--
भावार्थ :
आप ही एकमेव जानने योग्य परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व हैं, आप ही इस संपूर्ण विश्व के अधिष्ठान / आश्रय हैं, आप ही अनश्वर धर्म के नित्य रक्षा करनेवाले हैं, और आप ही  सदा रहनेवाले नित्य परम् पुरुष हैं ऐसा मेरा मत है ।
--

’शाश्वत-धर्मगोप्ता’ / ’śāśvata-dharmagoptā’ - The Lord who protects 'dharma' always, during all times.

Chapter 11, śloka 18,
tvamakṣaraṃ paramaṃ veditavyaṃ
tvamasya viśvasya paraṃ nidhānam |
tvamavyayaḥ śāśvata-dharmagoptā 
sanātanastvaṃ puruṣo mato me ||
--
(tvam akṣaram paramam veditavyam
tvam asya viśvasya param nidhānam
tvam avyayaḥ śāśvata-dharmagoptā
sanātanaḥ tvam puruṣaḥ mataḥ me ||)
--
Meaning :
You are alone the One Imperishable, The Supreme, ever worth-knowing, You are the only support of the whole world, You alone protect and save the virtue-eternal (śāśvata-dharma) for ever, It is my firm conviction that You are alone -The Self (ātman), and prevail at all times,
--

आज का श्लोक, ’शाश्वतस्य’ / ’śāśvatasya’

आज का श्लोक, ’शाश्वतस्य’ / ’śāśvatasya’
___________________________________

’शाश्वतस्य’ / ’śāśvatasya’ - शाश्वत का,

अध्याय 14, श्लोक 27,

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥
--
(ब्रह्मणः हि प्रतिष्ठा-अहम्-अमृतस्य-अव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्य-एकान्तिकस्य च ॥
--
भावार्थ :
जिसे वेदों में ब्रह्म कहा जाता है, जिसकी मृत्यु नहीं है, जो अनन्त अक्षय है, शाश्वत् है, आनन्द जिसका धर्म है, तथा एक (और अनेक) की कोटि से विलक्षण है - इसलिए एकान्तिक अर्थात् परम आत्यन्तिक है, उसकी प्रतिष्ठा अर्थात् स्वाभाविक धाम, अहम् अर्थात् आत्मा / परमात्मा (है) ।
--
’शाश्वतस्य’ / ’śāśvatasya’ - of the Eternal,

Chapter , śloka 27,

brahmaṇo hi pratiṣṭhāha-
mamṛtasyāvyayasya ca |
śāśvatasya ca dharmasya
sukhasyaikāntikasya ca ||
--
(brahmaṇaḥ hi pratiṣṭhā-aham-
amṛtasya-avyayasya ca |
śāśvatasya ca dharmasya
sukhasya-ekāntikasya ca ||
--
Meaning :
Literally, 'I AM' the abode and the only support of Brahman, That Which is Deathless and imperishable, Which is Eternal, And the spontaneous Bliss / Joy of the Ultimate.
--


आज का श्लोक, ’शाश्वतम्’ / ’śāśvatam’

आज का श्लोक, ’शाश्वतम्’ / ’śāśvatam’
_______________________________

’शाश्वतम्’ / ’śāśvatam’ - शाश्वत, सदा रहनेवाला,

अध्याय 10, श्लोक 12,

अर्जुन उवाच :

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥
--
(परम् ब्रह्म परम् धाम पवित्रम् परमम् भवान् ।
पुरुषम् शाश्वतम् दिव्यम् आदिदेवम् अजम् विभुम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
आप परम ब्रह्म हैं, परम धाम, परम पवित्र पुरुष, शाश्वत, दिव्य, आदिदेव हैं, आप जन्मरहित और विश्वरूप हैं ।

--
अध्याय 18, श्लोक 56,

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
--
(सर्वकर्माणि अपि सदा कुर्वाणः मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
मुझमें समाहित चित्त से सदैव सभी (विभिन्न) कर्मों को करते हुए भी (पिछले श्लोक 55 में वर्णित मेरा भक्त) मेरी कृपा से अविनाशी परम पद (अर्थात् मुझको ) पा लेता है ।
--
टिप्पणी :

अध्याय 18, श्लोक 55,

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
--
(भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः।
ततः माम् तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।)
--
भावार्थ :
मुझमें भक्ति होने से वह (मेरा भक्त) भली-भाँति जान जाता है, कि तत्त्वतः मेरा स्वरूप क्या और कितना (असीम, अखण्ड, अनिर्वचनीय) है, जो कि तत्त्वतः हूँ । इसके बाद मुझको तत्वतः जानकर मुझमें प्रविष्ट हो जाता है, मुझसे एकत्व को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 62,
--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्
--
(तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्-प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अपने सम्पूर्ण हृदय से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ । उसकी कृपा से तुम्हें शान्ति तथा सनातन परम धाम प्राप्त होगा ।
--

’शाश्वतम्’ / ’śāśvatam’ - eternal, abiding for ever,

Chapter 10, śloka 12,

paraṃ brahma paraṃ dhāma
pavitraṃ paramaṃ bhavān |
puruṣaṃ śāśvataṃ divya-
mādidevamajaṃ vibhum ||
--
(param brahma  param dhāma
pavitram paramam bhavān |
puruṣam śāśvatam divyam
ādidevam ajam vibhum ||)
--
Meaning :
Arjuna said (To Lord śrīkṛṣṇa) :
You are The Brahman Supreme, The Abode Supreme, Holiest and Sacred. You are the Spirit Eternal, Divine, The God Primal, Unborn and All-pervading.
--
Chapter 18, śloka 56,

sarvakarmāṇyapi sadā
kurvāṇo madvyapāśrayaḥ
matprasādādavāpnoti
śāśvataṃ padamavyayam ||
--
(sarvakarmāṇi api sadā
kurvāṇaḥ madvyapāśrayaḥ |
matprasādāt avāpnoti
śāśvatam padam avyayam ||)
--
Meaning :
With mind dedicated to Me, performing all actions (that fall to his lot according to destiny) with dispassion, (My devotee, as described in the earlier śloka 55 of this Chapter 18) by My Grace attains the Supreme Imperishable State (That is Me only).
--
Note :

Chapter 18, śloka 55,

bhaktyā māmabhijānāti
yāvānyaścāsmi tatvataḥ |
tato māṃ tattvato jñātvā
viśate tadanantaram ||
--
(bhaktyā mām abhijānāti
yāvān yaḥ ca asmi tattvataḥ|
tataḥ mām tattvataḥ jñātvā
viśate tadanantaram |)
--
Meaning :
With devotion (My devotee) knows well My extent (Formless, Indivisible, Indescribable) , What and How I AM, And having realized My Reality, enters Me and merges into Me.
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Chapter 18, śloka 62,

tameva śaraṇaṃ gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tatprasādātparāṃ śāntiṃ
sthānaṃ prāpsyasi śāśvatam ||
--
(tam eva śaraṇam gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tat-prasādāt parām śāntim
sthānam prāpsyasi śāśvatam ||)
--
Meaning :
Therefore, with all your heart, seek shelter in Him alone. Through His grace, you shall attain the abode that is bliss supreme and peace eternal.
--

Wednesday, July 30, 2014

आज का श्लोक, ’शाश्वतः’ / ’śāśvataḥ’

आज का श्लोक, ’शाश्वतः’ / ’śāśvataḥ’
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’शाश्वतः’ / ’śāśvataḥ’ - नित्य, सदैव रहनेवाला,

अध्याय 2, श्लोक 20,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्-
नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
--
(न जायते म्रियते वा कदाचित् -
न अयम् भूत्वा अभविता वा न भूयः ।
अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥)
--

भावार्थ :
आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है,  और ऐसा भी नहीं कि व्यक्त होकर फिर अव्यक्त हो जाती हो (जैसा कि शरीर  व्यक्त और अव्यक्त होता है )। यह (आत्मा) जन्म-रहित नित्य, शाश्वत और सदा रहनेवाली वस्तु है , जो कि शरीर के मर जाने या मार दिए जाने से नहीं मरती ।
--
टिप्पणी :
पाठान्तर भेद से उपरोक्त श्लोक ’अभविता’ / ’भविता’ पद के साथ दो रूपों में पाया जाता है । और यह जानना भी इतना ही रोचक होगा कि दोनों ही दृष्टियों से श्लोक का तात्पर्य एक ही प्राप्त होता है ।
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’शाश्वतः’ / ’śāśvataḥ’ - eternal, That abides ever, ever-present,

Chapter 2, śloka 20,
na jāyate mriyate vā kadācin-
nāyaṃ bhūtvā:'bhavitā vā na bhūyaḥ |
ajo nityaḥ śāśvato:'yaṃ purāṇo
na hanyate hanyamāne śarīre ||
--
(na jāyate mriyate vā kadācit -
na ayam bhūtvā abhavitā vā na bhūyaḥ |
ajaḥ nityaḥ śāśvataḥ ayam purāṇaḥ
na hanyate hanyamāne śarīre ||)
--


--
Meaning :
Self is neither born, nor dies at any time. 'Self' neither 'becomes'/ 'appears' nor 'dissolves'/disappears' to manifest again. 'Self' is birth-less, is ever-present, eternal and timeless, and  dies not even if the body is slain.
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Note : With a slight change the śloka is found in two forms; one with the word -'abhavitā' , another with the word  - 'bhavitā. and could be interpreted in two ways, but to the same conclusion.

आज का श्लोक, ’शाश्वताः’ / ’śāśvatāḥ’

आज का श्लोक, ’शाश्वताः’ / ’śāśvatāḥ’
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’शाश्वताः’ / ’śāśvatāḥ’ 

अध्याय 1, श्लोक 43,

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः
--
(दोषैः एतैः कुलघ्नानाम् वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माः च शाश्वताः ॥)
--
भावार्थ :
कुल में वर्ण की संकरता (मिश्रण) होने पर, कुल के सदा से चलते चले आये पारंपरिक जातिधर्म एवं कुलधर्म इन वर्णसंकर कुलघातियों के दोषों के कारण अवश्य ही विनष्ट हो जाते हैं ।
--
’शाश्वताः’ / ’śāśvatāḥ’

Chapter 1,śloka 43,

doṣairetaiḥ kulaghnānāṃ
varṇasaṅkarakārakaiḥ |
utsādyante jātidharmāḥ
kuladharmāśca śāśvatāḥ ||
--
(doṣaiḥ etaiḥ kulaghnānām
varṇasaṅkarakārakaiḥ |
utsādyante jātidharmāḥ
kuladharmāḥ ca śāśvatāḥ ||)
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Meaning :
Because of these evils, the mixing-up of the castes, the ritualistic, the traditional, orthodox religious customs that have been running in the family since ever, are also destroyed.
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आज का श्लोक, ’शाश्वतीः’ / ’śāśvatīḥ’

आज का श्लोक, ’शाश्वतीः’ / ’śāśvatīḥ’
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’शाश्वतीः’ / ’śāśvatīḥ’- दीर्घकाल तक, सनातन काल से, सदैव,

अध्याय 6, श्लोक 41,

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
--
(प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा कि पूर्वश्लोक क्रमांक 40 में कहा, श्रद्धावान् किन्तु चञ्चल मनवाले, योग में अस्थिरतापूर्वक संलग्न योगाभ्यासी का न तो इस लोक में और न मरणोत्तर प्राप्त होनेवाले लोक में विनाश होता है, हाँ वह कुछ समय के लिए मार्गच्युत हो सकता है किन्तु, फिर...)
उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत काल तक निवास करने के बाद, शुद्ध आचरणवाले गृहस्थ के कुल में जन्म लेता है ।

--

’शाश्वतीः’ / ’śāśvatīḥ’ - during all times, ever so,

Chapter 6, śloka 41,

prāpya puṇyakṛtāṃ lokān-
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnāṃ śrīmatāṃ gehe
 yogabhraṣṭo:'bhijāyate ||
--
(prāpya puṇyakṛtām lokān
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnām śrīmatām gehe
yogabhraṣṭaḥ abhijāyate ||)
--
Meaning :
In the preceding śloka-s  37, 38, 39 and 40, arjuna raised a doubt about the state of one practicing yoga with due trust, but because of the unsteady mind fails to attain the goal, because of the unsteady mind. To which (bhagavān śrīkṛṣṇa) replies :
Such a man after living for many years (according to his good deeds before death in the previous life) in the worlds of higher realms (loka-s - like those of heavens), gets the next birth in the family of men of pure and chaste minds.
--








आज का श्लोक, ’शाश्वते’ / ’śāśvate’

आज का श्लोक, ’शाश्वते’ / ’śāśvate’
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’शाश्वते’ / ’śāśvate’ - सदा से, सनातन काल से,

अध्याय 8, श्लोक 26,

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।
--
(शुक्लकृष्णे गती हि एते जगतः शाश्वते मते ।
एकया याति अनावृत्तिम् अन्यया आवर्तते पुनः ॥)
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भावार्थ :
जगत् में इन दो मार्गों ( शुक्ल और कृष्ण) को, जिनसे जीव देह-त्याग के अनन्तर प्रयाण करता है, सनातन माना जाता है  । एक (अर्थात् श्लोक 24 में वर्णित अर्चिमार्ग) से जानेवाला योगी पुनः संसार में नहीं लौटता, क्योंकि वह परमात्मा में विलीन हो जाता है, जबकि अन्य मार्ग (अर्थात् श्लोक 25 में वर्णित धूम-मार्ग) से जानेवाला इस संसार में पुनः जन्म लेता है ।
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’शाश्वते’ / ’śāśvate’ - during all times, ever so, eternally,

Chapter 8, śloka 26,

śuklakṛṣṇe gatī hyete
jagataḥ śāśvate mate |
ekayā yātyanāvṛttim-
anyayāvartate punaḥ |
--
(śuklakṛṣṇe gatī hi ete
jagataḥ śāśvate mate |
ekayā yāti anāvṛttim
anyayā āvartate punaḥ ||)
--
Meaning :
These two paths that a departed soul follows after death are the only proper eternal paths of the universe. Departing by one (śukla / bright), one gets merged in the Brahman, while one following the other (kṛṣṇa / dark)  returns in a rebirth.
--
Note :
One who has attained clarity about the nature of Being / Reality follows the path of light, while another who has not attained this clarity, remains in doubt / darkness.
--

आज का श्लोक, ’शास्त्रविधानोक्तम्’ / ’śāstravidhānoktam’

आज का श्लोक,
’शास्त्रविधानोक्तम्’ / ’śāstravidhānoktam’
___________________________________

’शास्त्रविधानोक्तम्’ / ’śāstravidhānoktam’ - शास्त्र में जैसा विधान बतलाया गया,

अध्याय 16, श्लोक 24,

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमर्हसि ॥
--
(तस्मात् शास्त्रम् प्रमाणम् ते कार्याकार्य-व्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तम् कर्म कर्तुम् अर्हसि ॥)
--
भावार्थ :
अतः शास्त्र को प्रमाण करते हुए, तुम्हारे लिए क्या किया जाना कर्तव्य (उचित) है और क्या अकर्तव्य (अनुचित) है, यह जानना होगा । शास्त्र में निर्दिष्ट विधान को जानकर ही तुम तदनुसार जो शास्त्रविहित है, उसका व्यवहार कर सकोगे ।
--
’शास्त्रविधानोक्तम्’ / ’śāstravidhānoktam’ - the right way of performing duties as are taught in the scriptures,

Chapter 16, śloka 24,

tasmācchāstraṃ pramāṇaṃ te
kāryākāryavyavasthitau |
jñātvā śāstravidhānoktaṃ 
karma kartumarhasi ||
--
(tasmāt śāstram pramāṇaṃ te
kāryākārya-vyavasthitau |
jñātvā śāstravidhānoktam 
karma kartum arhasi ||)
--
Meaning :
Therefore according to the criteria and instructions laid down in the texts (śāstravidhānoktaṃ) you should decide what is your duty and what has been forbidden there-in. Knowing this well, will enable you to decide your right duty.
--

आज का श्लोक, ’शास्त्रविधिम्’ / ’śāstravidhim’

आज का श्लोक,
’शास्त्रविधिम्’ / ’śāstravidhim’
__________________________

’शास्त्रविधिम्’ / ’śāstravidhim’ - शास्त्र में कही गई विधि,

अध्याय 16, श्लोक 23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
--
(यः शास्त्रविधिम्-उत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न सः सिद्धिम्-अवाप्नोति न सुखम् न पराम् गतिम् ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य शास्त्रसम्मत (वेदविहित) तरीके को त्यागकर अपनी इच्छा से प्रेरित हुआ मनमाना आचरण करता है उसे ध्येय-प्राप्ति नहीं होती, उसे न ही सुख प्राप्त होता है और न परम गति ।
--

अध्याय 17, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच :
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
--
(ये शास्त्रविधिम् उत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषाम् निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया -
जो लोग शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट विधि का, (उनसे अनभिज्ञ होने से, या परिस्थितियों के कारण) निर्वाह नहीं कर पाते, किन्तु श्रद्धा से युक्त होते हैं, उनकी निष्ठा को हे कृष्ण! सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक में से किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
--
टिप्पणी :
कुछ लोगों की परम सत्ता में श्रद्धा तो होती है, किन्तु स्पष्टता न होने से उसकी उपासना कैसे करें इस बारे में उन्हें ठीक से निश्चय नहीं होता । दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो ऐसी किसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार तक नहीं करते, किन्तु वे भी अपने आप के एक चेतन-सत्ता होने के सहजतः प्रकट तथ्य को न तो अस्वीकार कर सकते हैं न असिद्ध कर सकते हैं । ऐसे लोगों की गति उनकी प्रकृति के अनुसार तय होती है । किन्तु जो लोग किसी ऐसी परम सत्ता पर सम्यक् चिन्तन से प्राप्त निश्चयपूर्वक या अन्तःप्रज्ञा से ही श्रद्धा रखते हैं और उन्हें लगता है कि वे उस परम सत्ता को ठीक से नहीं जानते, इसलिए उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसकी येन केन प्रकारेण उपासना करते हैं, वे भी अपनी प्रकृति के अनुसार उसकी कृपा के भागी होते हैं । आनेवाले श्लोक 2 में यही स्पष्ट किया गया है कि यह यह श्रद्धा भी पुनः प्रकृति के ही तीन गुणों के अनुसार सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होती है । इन तीन गुणों या प्रकृतियों वाले मनुष्यों की उपासना विधि भी तीन प्रकार की होती है । किन्तु जो पूरी तरह अपनी प्रकृति से ही परिचालित होते हैं, जिन्हें न तो परम सत्ता और न ही अपने-आपके बारे में जानने समझने की कोई रुचि होती है, वे किसी इष्ट की उपासना क्यों करेंगे?
--
’शास्त्रविधिम्’ / ’śāstravidhim’ - the due procedure as laid down in the scriptures (śāstra),

Chapter 16, śloka 23,

yaḥ śāstravidhimutsṛjya
vartate kāmakārataḥ |
na sa siddhimavāpnoti
na sukhaṃ na parāṃ gatim ||
--
(yaḥ śāstravidhim-utsṛjya
vartate kāmakārataḥ |
na saḥ siddhim-avāpnoti
na sukham na parām gatim ||)
--
Meaning :
One who ignores scriptural injunctions and acts motivated by desire, does not attain perfection, nor happiness and the goal of the supreme spiritual goal.
--

Chapter 17, śloka 1,

arjuna uvāca :
ye śāstravidhimutsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣāṃ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvamāho rajastamaḥ ||
--
(ye śāstravidhim utsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣām niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvam āho rajaḥ tamaḥ ||)
--
Meaning :
arjuna :
What kind of the conviction ( niṣṭhā) is of those, who are devoted ( śraddhayānvitāḥ) to the Supreme principle (that maintains this whole existence), but don't quite follow the specific injunctions as are laid down in the scriptures (just because of the circumstances).
--

आज का श्लोक, ’शास्त्रम्’ / ’śāstram’

आज का श्लोक, ’शास्त्रम्’ / ’śāstram’
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’शास्त्रम्’ / ’śāstram’ - शिक्षा,

अध्याय 15, श्लोक 20,

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥
--
(इति गुह्यतमम् शास्त्रम् इदम् उक्तम् मया अनघ ।
एतत् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च भारत ॥)
--
भावार्थ :
हे अनघ (पापरहित) अर्जुन!  मेरे द्वारा यह गुह्यतम शास्त्र (तुमसे) इस प्रकार से कहा गया । हे भारत (अर्जुन)! इसे बोधपूर्वक समझकर (जो इस पर आचरण करेगा) वह अवश्य ही बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाएगा ।
--
अध्याय 16, श्लोक 24,

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमर्हसि ॥
--
(तस्मात् शास्त्रम्  प्रमाणम् ते कार्याकार्य-व्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तम् कर्म कर्तुम् अर्हसि ॥)
--
भावार्थ :
अतः शास्त्र को प्रमाण करते हुए, तुम्हारे लिए क्या किया जाना कर्तव्य (उचित) है और क्या अकर्तव्य (अनुचित) है, यह जानना होगा । शास्त्र में निर्दिष्ट विधान को जानकर ही तुम तदनुसार जो शास्त्रविहित है, उसका व्यवहार कर सकोगे ।
--

’शास्त्रम्’ / ’śāstram’ - Learning,

Chapter 15, śloka 20,
iti guhyatamaṃ śāstram-
idamuktaṃ mayānagha |
etadbuddhvā buddhimānsyāt-
kṛtakṛtyaśca bhārata ||
--
(iti guhyatamam śāstram 
idam uktam mayā anagha |
etat buddhvā buddhimān syāt
kṛtakṛtyaḥ ca bhārata ||)
--
Meaning :
O sinless arjuna! By Me Thus, has been described for you, this, the most secret text. O bhārata (arjuna)! , the one who shall go through with keen attention (and learn this) shall become wise and perfect, having achieved the supreme attainment.
--
Chapter 16, śloka 24,

tasmācchāstram pramāṇaṃ te
kāryākāryavyavasthitau |
jñātvā śāstravidhānoktaṃ
karma kartumarhasi ||
--
(tasmāt śāstram pramāṇam te
kāryākārya-vyavasthitau |
jñātvā śāstravidhānoktam
karma kartum arhasi ||)
--
Meaning :
Therefore according to the criteria and instructions laid down in the texts (śāstravidhānoktaṃ) you should decide what is your duty and what has been forbidden there-in. Knowing this well, will enable you to decide your right duty.
--

Tuesday, July 29, 2014

आज का श्लोक, ’शिखण्डी’ / ’śikhaṇḍī’

आज का श्लोक, ’शिखण्डी’ / ’śikhaṇḍī’ 
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’शिखण्डी’ / ’śikhaṇḍī’  - शिखण्डी (द्रुपदपुत्र),

अध्याय 1, श्लोक 17,

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
--
(काश्यः च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नः विराटः च सात्यकिः च अपराजितः ॥)
--
भावार्थ :
श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट, और अजेय सात्यकि, ...

--
’शिखण्डी’ / ’śikhaṇḍī’ -  śikhaṇḍī, a son of king drupada,

Chapter 1, śloka 17,

kāśyaśca parameṣvāsaḥ
śikhaṇḍī ca mahārathaḥ |
dhṛṣṭadyumno virāṭaśca
sātyakiścāparājitaḥ ||
--
(kāśyaḥ ca parameṣvāsaḥ
śikhaṇḍī ca mahārathaḥ |
dhṛṣṭadyumnaḥ virāṭaḥ ca
sātyakiḥ ca aparājitaḥ ||)
--
Meaning :
kāśirāja, the King of kāśi, the great archer with his mighty bow, and the great charioteer śikhaṇḍī, dhṛṣṭadyumna and the king virāṭa, and sātyaki the warrior invincible, ...  
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आज का श्लोक, ’शिखरिणाम्’ / ’śikhariṇām’

आज का श्लोक,
’शिखरिणाम्’ / ’śikhariṇām’
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’शिखरिणाम्’ / ’śikhariṇām’- शिखरवाले पर्वतों में,

अध्याय 10, श्लोक 23,

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥
--
(रुद्राणाम् शङ्करः च अस्मि वित्तेशः यक्षरक्षसाम् ।
वसूनाम् पावकः च अस्मि मेरुः शिखरिणाम् अहम् ।)
--
भावार्थ :
(ग्यारह) रुद्रों में मैं शंकर हूँ, यक्षों एवं राक्षसों में मैं धन का स्वामी कुबेर हूँ, (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ, तथा शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत मैं हूँ ।
--
टिप्पणी :
इस अध्याय में परमात्मा की उन विभूतियों का वर्णन है, जिन्हें प्रत्यक्ष देखकर / जानकर परमात्मा की महिमा का यत्किञ्चित् अनुमान किया जा सकता है ।
 --
’शिखरिणाम्’ / ’śikhariṇām’ - the mountains with peaks / summits.

Chapter 10, śloka 23,

rudrāṇāṃ śaṅkaraścāsmi
vitteśo yakṣarakṣasām |
vasūnāṃ pāvakaścāsmi
meruḥ śikhariṇāmaham ||
--
(rudrāṇām śaṅkaraḥ ca asmi
vitteśaḥ yakṣarakṣasām |
vasūnām pāvakaḥ ca asmi
meruḥ śikhariṇām aham |)
--
Meaning :
And, among (the eleven) rudra-s, I AM śaṅkara, kubera, The Lord of wealth among the yakṣa and the rakṣa. I AM The Fire, among the (eight) vasu-s, and meru (sumeru). among the mountains with peaks and summits.
--
Notes :
rudrā are the many forms of shiva / mahādeva, as described in veda and purāṇa.
yakṣa are the spiritual entities possessing occult powers.
rakṣa are the monstrous humans with great strength and full of desires and vigor.
vasu-s are the eight spiritual / celestial dignities that are Lords of, and look after eight directions.
--

आज का श्लोक, ’शिरसा’ / ’śirasā’

आज का श्लोक, ’शिरसा’ / ’śirasā’
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’शिरसा’ / ’śirasā’ - सिर से, सिर को झुकाकर, नतशिर होकर,

अध्याय 11, श्लोक 14,

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥
--
(ततः सः विस्मयाविष्टः हृष्टरोमाः धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवम् कृताञ्जलिः अभाषत ॥)
--
भावार्थ :
तब विस्मयविभोर रोमाँचित हुए वह धनञ्जय, भगवान् कृष्ण के समक्ष नतशिर हुए, सिर झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर उनसे निवेदन किया ।
--
’शिरसा’ / ’śirasā’ - bowing the head (as a mark of showing the respect),

Chapter 11, śloka 14,

tataḥ sa vismayāviṣṭo
hṛṣṭaromā dhanañjayaḥ |
praṇamya śirasā devaṃ
kṛtāñjalirabhāṣata ||
--
(tataḥ saḥ vismayāviṣṭaḥ
hṛṣṭaromāḥ dhanañjayaḥ |
praṇamya śirasā devam
kṛtāñjaliḥ abhāṣata ||)
--
Meaning :
Then he (dhanañjayaḥ / arjuna) bowed his head before The Lord (bhagavān kṛṣṇa). His hair standing on end, because of the amazement and emotion, with folded hands, he (dhanañjayaḥ / arjuna) prayed to the Lord (bhagavān kṛṣṇa).
--

आज का श्लोक, ’शिष्यः’ / ’śiṣyaḥ’

आज का श्लोक, ’शिष्यः’ / ’śiṣyaḥ’
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’शिष्यः’ / ’śiṣyaḥ’ - शिष्य, छात्र,

अध्याय 2, श्लोक 7,
--
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
--
(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
--
भावार्थ :
भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
टिप्पणी :
व्युत्पत्ति :
’छात्र’ - जो किसी की छत्रछाया में होता है, ’शिष्य’ - जो किसी के शासन (शास् > शिक्षा देना) में होता है ।
--
’शिष्यः’ / ’śiṣyaḥ’ - disciple, student,

Chapter 2, śloka 7,

kārpaṇyadoṣopahatasvabhāvaḥ
pṛcchāmi tvāṃ dharmasammūḍhacetāḥ |
yacchreyaḥ syānniścitaṃ brūhi tanme
śiṣyaste:'haṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ||7
--
(kārpaṇya-doṣa-upahata-svabhāvaḥ
pṛcchāmi tvām dharmasammūḍhacetāḥ |
yat-śreyaḥ syāt-niścitam brūhi tat-me
śiṣyaḥ te-aham śādhi mām tvām prapannam ||)
--
Meaning :
Overcome by pity and faintheartedness, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
-- 

आज का श्लोक, ’शिष्येण’ / ’śiṣyeṇa’

आज का श्लोक,  ’शिष्येण’ / ’śiṣyeṇa’
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’शिष्येण’ / ’śiṣyeṇa’ -शिष्य के द्वारा,

अध्याय 1, श्लोक 3,

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचर्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुअदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
--
(पश्य एताम् पाण्डुपुत्राणाम् आचार्य महतीम् चमूम् ।
व्यूढाम् द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥)
--
भावार्थ :
(राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण से कहा :) हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा जिसकी व्यूह-रचना की गई है, पाण्डुपुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए ।
--
’शिष्येण’ / ’śiṣyeṇa’ - by the disciple,

Chapter 1, śloka 3,

paśyaitāṃ pāṇḍuputrāṇām-
ācarya mahatīṃ camūm |
vyūḍhāṃ druadaputreṇa
tava śiṣyeṇa dhīmatā ||
--
(paśya etām pāṇḍuputrāṇām
ācārya mahatīm camūm |
vyūḍhām drupadaputreṇa
tava śiṣyeṇa dhīmatā ||)
--
Meaning :
(King duryodhana said to ācārya droṇa :) O Master ! Look at this huge army of pāṇḍavas, arrayed in ranks and columns on this battlefield by Your talented disciple, druada's son (dhṛṣṭadyumna) .
--

आज का श्लोक, ’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’

आज का श्लोक,
’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’ 
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’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’

अध्याय 2, श्लोक 14,

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
--
(मात्रास्पर्शाः तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः
आगमापायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत ॥)
--
भावार्थ : विषयों से इन्द्रियों के स्पर्शमात्र जो शीत और ऊष्णता, सुख अथवा दुख (की प्रतीति) देनेवाले होते हैं, आने और चले जानेवाले और (इसलिए) अनित्य होते हैं । हे भारत (अर्जुन), उनके प्रति तितिक्षा का व्यवहार करो ।
--
टिप्पणी :
1. तितिक्षा क्या है?
’सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् ।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ।"
(विवेकचूडामणि, 24)
अर्थात् अनायास प्राप्त होनेवाले समस्त दुःखों का प्रतिरोध न करते हुए, उनकी चिन्ता या शोक न करते हुए उन्हें शान्तिपूर्वक सह लेना, इसे ही तितिक्षा कहा जाता है ।
2. तितिक्षा के अभ्यास से शीत-ऊष्णता, सुख-दुःख आदि ये द्वन्द्व चित्त को व्यथित नहीं करते, इस अध्याय 2 के अगले ही श्लोक 15 कहा गया है कि जिसे ये व्यथित नहीं करते वह धीर अमृतत्व को प्राप्त होता है ।

अध्याय 2, श्लोक 15,

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
--
(यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते ॥)
--
भावार्थ :
और जिस पुरुष को ये द्वन्द्व व्यथित नहीं कर पाते, हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! दुःख अथवा सुख के प्रति समभाव रखनेवाला ऐसा धैर्यशील पुरुष अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ।    
--
’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’ - feelings of opposites like heat and cold, pleasure and pain,


Chapter 2, śloka 14,

mātrāsparśāstu kaunteya
śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ |
āgamāpāyino:'nityās-
tāṃstitikṣasva bhārata ||
--
(mātrāsparśāḥ tu kaunteya
śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ |
āgamāpāyinaḥ anityāḥ
tān titikṣasva bhārata ||)
--
Meaning :
The perceptions of heat and cold, pleasure and pain, caused by the contacts of the senses with their respective objects are appearances and transient. O bhārata (arjuna)! Bear with them (tān titikṣasva) with due patience (dhairyam) .  
--
Note :
1 titikṣā (endurance) is the attitude towards the conflicts like heat and cold, pleasure and pain. One who is strong enough to face with them with calm and is no more perturbed by them attains the immortality / the deathless (amṛtatva). The same has been elaborated in the very next śloka 15 of this chapter 2 of śrīmadbhagvadgītā.
--
Chapter 2, śloka 15,

yaṃ hi na vyathayantyete
puruṣaṃ puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukhaṃ dhīraṃ
so:'mṛtatvāya kalpate ||
--
(yam hi na vyathayanti ete
puruṣam puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukham dhīram
saḥ amṛtatvāya kalpate ||)
--
Meaning : O noble among the men, One who is not tormented by these two (the contact of the senses with their specific objects), who is unmoved when coming across pleasures and pains caused by them, sure wins the state of immortality / liberation.
--

Monday, July 28, 2014

आज का श्लोक, ’शीतोष्णसुखदुःखेषु’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkheṣu’

आज का श्लोक,
’शीतोष्णसुखदुःखेषु’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkheṣu’ 
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’शीतोष्णसुखदुःखेषु’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkheṣu’ - शीत तथा गर्मी, सुख एवं दुःख, मान और अपमान आदि द्वन्द्वों के बीच भी .

अध्याय 6, श्लोक 7,

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥
--
(जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥)
--
भावार्थ : जिसने अपने बुद्धि, अन्तःकरण, इन्द्रियों आदि को शुद्ध और संयमित कर लिया है, और जिसका चित्त अत्यन्त शान्त होने से शीत तथा गर्मी, सुख एवं दुःख, मान और अपमान आदि द्वन्द्वों के बीच भी परमात्मा में समाहित रहता है,
--
अध्याय 12, श्लोक 18,

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥
--
(समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥)
--
भावार्थ :
शत्रु के साथ, मित्र के साथ, तथा मान में, अपमान में भी समान, शीत ऊष्ण (सर्दी-गर्मी), सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में भी समान, और संग (आसक्ति) से अछूता ।
--

’शीतोष्णसुखदुःखेषु’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkheṣu’ - amidst the conditions like cold or heat, pain or pleasure,

Chapter 6, śloka 7,

jitātmanaḥ praśāntasya
paramātmā samāhitaḥ |
śītoṣṇasukhaduḥkheṣu 
tathā mānāpamānayoḥ ||
--
(jitātmanaḥ praśāntasya
paramātmā samāhitaḥ |
śītoṣṇasukhaduḥkheṣu 
tathā mānāpamānayoḥ ||)
--

Meaning :
One such a great soul, who has control over his body, mind, and senses, who is in deep peace, such a one with his mind absorbed in the Supreme, ever merged in the Self, stays calm even amidst the conditions like cold or heat, pain or pleasure, and praise or disdain.
--
Note :
The word ’paramātmā’  translates here better as 'a great soul'
--
Chapter 12, śloka 18,

samaḥ śatrau ca mitre ca
tathā mānāpamānayoḥ |
śītoṣṇasukhaduḥkheṣu 
samaḥ saṅgavivarjitaḥ ||
--
(samaḥ śatrau ca mitre ca
tathā mānāpamānayoḥ |
śītoṣṇasukhaduḥkheṣu
samaḥ saṅgavivarjitaḥ ||)
--
Meaning :
Treating an enemy or a friend, dealing with the praise or dishonor, and so also the opposites like cold and heat, pleasures or pain, with the same attitude of calm, of  no attachment of mind.
--










आज का श्लोक, ’शुक्लकृष्णे’ / ’śuklakṛṣṇe’

आज का श्लोक,
’शुक्लकृष्णे’ / ’śuklakṛṣṇe’ 
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’शुक्लकृष्णे’ / ’śuklakṛṣṇe’ - शुक्ल एवं कृष्ण गतियाँ,

अध्याय 8, श्लोक 26,

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।
--
(शुक्लकृष्णे गती हि एते जगतः शाश्वते मते ।
एकया याति अनावृत्तिम् अन्यया आवर्तते पुनः ॥)
--
भावार्थ :
जगत् में इन दो मार्गों ( शुक्ल और कृष्ण) को, जिनसे जीव देह-त्याग के अनन्तर प्रयाण करता है, सनातन माना जाता है  । एक (अर्थात् श्लोक 24 में वर्णित अर्चिमार्ग) से जानेवाला योगी पुनः संसार में नहीं लौटता, क्योंकि वह परमात्मा में विलीन हो जाता है, जबकि अन्य मार्ग (अर्थात् श्लोक 25 में वर्णित धूम-मार्ग) से जानेवाला इस संसार में पुनः जन्म लेता है ।
--
’शुक्लकृष्णे’ / ’śuklakṛṣṇe’ -  śukla and kṛṣṇa the two ways that a departed soul follows after death,

Chapter 8, śloka 26,

śuklakṛṣṇe gatī hyete
jagataḥ śāśvate mate |
ekayā yātyanāvṛttim-
anyayāvartate punaḥ |
--
(śuklakṛṣṇe gatī hi ete
jagataḥ śāśvate mate |
ekayā yāti anāvṛttim
anyayā āvartate punaḥ ||)
--
Meaning :
These two paths that a departed soul follows after death are the only proper eternal paths of the universe. Departing by one (śukla / bright), one gets merged in the Brahman, while one following the other (kṛṣṇa / dark)  returns in a rebirth.
--
Note :
One who has attained clarity about the nature of Being / Reality follows the path of light, while another who has not attained this clarity, remains in doubt / darkness.
--

आज का श्लोक, ’शुक्लः’ / ’śuklaḥ’

आज का श्लोक, ’शुक्लः’ / ’śuklaḥ’
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’शुक्लः’ / ’śuklaḥ’ - चन्द्रमा का शुक्ल-पक्ष,

अध्याय 8, श्लोक 24,

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
--
(अग्निः ज्योतिः अहः शुक्लः षण्मासाः उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदः जनाः ॥)
--
भावार्थ :
अग्नि (वेदोक्त / ज्ञान का मार्ग), ज्योति (आत्म-ज्ञान का मार्ग), दिन का समय, चन्द्रमा का शुक्ल-पक्ष , उत्तरायण  (सौर-वर्ष का पूर्वार्ध) इस काल और स्थिति में जो योगी शरीर त्यागते हैं, ब्रहम (के स्वरूप) को जाननेवाले वे ब्रह्मविद् ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, अर्थात् ब्रह्मलीन होते हैं ।
--
’शुक्लः’ / ’śuklaḥ’ -  the fortnight of the bright moon.

Chapter 8, śloka 24,

agnirjyotirahaḥ śuklaḥ 
ṣaṇmāsā uttarāyaṇam |
tatra prayātā gacchanti 
brahma brahmavido janāḥ ||
--
(agniḥ jyotiḥ ahaḥ śuklaḥ 
ṣaṇmāsāḥ uttarāyaṇam |
tatra prayātā gacchanti 
brahma brahmavidaḥ janāḥ ||)
--
Meaning : Fire (of Veda /  jñāna), awakening (jyoti), Clarity (śukla-  the fortnight of the bright moon), The six months during summer-solstice, (the First half-solar year of Indian calendar), are the times indicative of those yogī who having realized Brahman, attain Brahman after  their release from the body. 
-- 

आज का श्लोक, ’शुचः’ / ’śucaḥ’

आज का श्लोक, ’शुचः’ / ’śucaḥ’
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’शुचः’ / ’śucaḥ’ -  ’मा शुचः’ > शोक मत करो,
 
अध्याय 16, श्लोक 5,

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥
--
दैवी सम्पत्-विमोक्षाय निबन्धाय आसुरी मता ।
मा शुचः सम्पदम् दैवीम् अभिजातः असि पाण्डव ॥)
--
भावार्थ :
इन दो प्रकार की सम्पदों में से दैवी तो मुक्ति का हेतु होती है, जबकि आसुरी मनुष्य के बन्धन का कारण होती है । हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तुम इस विषय में शोक मत करो, व्याकुल मत होओ, क्योंकि तुमने निश्चित ही दैवी सम्पदा से संपन्न होते हुए जन्म लिया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 66,

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
--
(सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरण व्रज ।
अहम् त्वा सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥)
--
भावार्थ :
सम्पूर्ण धर्मों अर्थात् मन के प्रवृत्तिरूपी भिन्न-भिन्न धर्मों को / मानसिक ऊहापोह को त्यागकर मुझ एक परमात्मा की शरण में आओ । मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो ।
--

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’शुचः’ / ’śucaḥ’ - (’mā śucaḥ’) >  Grieve not,

Chapter 16, śloka 5,

daivī sampadvimokṣāya
nibandhāyāsurī matā |
śucaḥ sampadaṃ
daivīmabhijāto:'si pāṇḍava ||
--
daivī sampat-vimokṣāya
nibandhāya āsurī matā |
śucaḥ sampadam daivīm
abhijātaḥ asi pāṇḍava ||)
--
Meaning :
The daivī -divine attributes lead one to the liberation of the self, while the āsurī - demonic, keep one in the bondage. Grieve not O arjuna, for you are born with divine attributes.
--
 Chapter 18, śloka 66,

sarvadharmānparityajya
māmekaṃ śaraṇaṃ vraja |
ahaṃ tvā sarvapāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ ||
--
(sarvadharmān parityajya
mām ekam śaraṇa vraja |
aham tvā sarvapāpebhyaḥ
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ ||)
--
Put aside all the different tendencies of mind (vṛtti-s), come to Me, take shelter in Me. I shall liberate you from all sin, Grieve not.
--





आज का श्लोक, ’शुचिः’ / ’śuciḥ’

आज का श्लोक, ’शुचिः’ / ’śuciḥ’
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’शुचिः’ / ’śuciḥ’ - शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल,


अध्याय 12, श्लोक 16,

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
--
(अनपेक्षः शुचिः दक्षः उदासीनः गतव्यथः ।
सर्व-आरम्भ-परित्यागी यः मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥)
--
भावार्थ :
जो किसी भी आकाङ्क्षा से रहित, बाहर-भीतर की शुद्धता के प्रति सजग, पक्षपात से रहित है, जिसकी व्यथाएँ विलीन हो चुकी हैं, जो कर्तृत्व ('मैं कर्ता हूँ' - इस)  प्रकार की बुद्धि / आग्रह से ग्रस्त नहीं है, ऐसा मेरा भक्त, मुझे प्रिय है ।
-- 
’शुचिः’ / ’śuciḥ’ -pure and clean,

Chapter 12, śloka 16,

anapekṣaḥ śucirdakṣa 
udāsīno gatavyathaḥ |
sarvārambhaparityāgī 
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ ||
--
(anapekṣaḥ śuciḥ dakṣaḥ 
udāsīnaḥ gatavyathaḥ |
sarva-ārambha-parityāgī 
yaḥ madbhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
--

Meaning :
One who expects nothing, pure and clean in life, heart and mind, careful, unattached, has overcome misery,  Takes no initiative in any enterprise (since has got rid of the sense, 'I do, and actions are done by me'.), such a devotee is beloved to Me.
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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’

आज का श्लोक, ’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ 
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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ - शुद्ध मन-अन्तःकरणवाले,

अध्याय 6, श्लोक 41,

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
--
(प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा कि पूर्वश्लोक क्रमांक 40 में कहा, श्रद्धावान् किन्तु चञ्चल मनवाले, योग में अस्थिरतापूर्वक संलग्न योगाभ्यासी का न तो इस लोक में और न मरणोत्तर प्राप्त होनेवाले लोक में विनाश होता है, हाँ वह कुछ समय के लिए मार्गच्युत हो सकता है किन्तु, फिर...)
उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत काल तक निवास करने के बाद, शुद्ध आचरणवाले गृहस्थ के कुल में जन्म लेता है ।

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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ - of serene attitude,

Chapter 6, śloka 41,

prāpya puṇyakṛtāṃ lokān-
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnāṃ śrīmatāṃ gehe
 yogabhraṣṭo:'bhijāyate ||
--
(prāpya puṇyakṛtām lokān
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnām śrīmatām gehe
yogabhraṣṭaḥ abhijāyate ||)
--
Meaning :
In the preceding śloka-s  37, 38, 39 and 40, arjuna raised a doubt about the state of one practicing yoga with due trust, but because of the unsteady mind fails to attain the goal, because of the unsteady mind. To which bhagavān śrīkṛṣṇa replies :
Such a man after living for many years (according to his good deeds before death in the previous life) in the worlds of higher realms (loka-s - like those of heavens), gets the next birth in the family of men of pure and chaste minds.
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Sunday, July 27, 2014

आज का श्लोक, ’शुचौ’ / ’śucau’

आज का श्लोक, ’शुचौ’ / ’śucau’
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’शुचौ’ / ’śucau’- स्वच्छ (स्थान) में, पर,

अध्याय  6, श्लोक 11,
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शुचौ देशे प्रतिष्ठाय स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युछ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥
--
(शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरम्-आसनम्-आत्मनः ।
न-अत्युच्छ्रितम् न-अतिनीचम् चैल-अजिन-कुशोत्तरम् ॥)
--

भावार्थ :
(ध्यान-योग के अभ्यास हेतु) स्वच्छ स्थान पर स्थिरता से बैठने का अपना आसन, कपड़े पर मृग-छाले, और उस पर कुश बिछाकर ऐसा बनाये, जो न तो बहुत ऊँचा हो, न अति नीचा हो, अर्थात् जिस पर सुखपूर्वक बैठा जा सके ।
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’शुचौ’ / ’śucau’ - in a clean, serene (place),

Chapter 6, śloka 11,

śucau deśe pratiṣṭhāya
sthiramāsanamātmanaḥ |
nātyuchritaṃ nātinīcaṃ
cailājinakuśottaram ||
--
(śucau deśe pratiṣṭhāpya
sthiram-āsanam-ātmanaḥ |
na-atyucchritam na-atinīcam
caila-ajina-kuśottaram ||)
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Meaning :
(For practicing dhyāna-yoga, -meditation), one should select a clean, serene place and by means of putting cloth and deer-skin upon kusha-grass, prepare a comfortable and stable seat for sitting.
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आज का श्लोक, ’शुनि’ / ’śuni’

आज का श्लोक,  ’शुनि’ / ’śuni’ 
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’शुनि’ / ’śuni’ - श्वान में,

अध्याय 5, श्लोक 18,
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विद्याविनयसंपन्ने  ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
--
(विद्याविनयसंपन्ने  ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥)
--
भावार्थ :
तत्ववेत्ता विद्याविनय से संपन्न ब्राह्मण में,  गौओं, हाथियों, श्वानों तथा श्वपचों (कुत्ते का मांस खानेवाले), सभी में समान रूप से विद्यमान उसी एकमेव चैतन्य परब्रह्म को देखते हैं ।
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’शुनि’ / ’śuni’ -  in a dog,

Chapter 5,  śloka 18,

vidyāvinayasaṃpanne
brāhmaṇe gavi hastini |
śuni caiva śvapāke ca
paṇḍitāḥ samadarśinaḥ ||
--
(vidyāvinayasaṃpanne
brāhmaṇe gavi hastini |
śuni caiva śvapāke ca
paṇḍitāḥ samadarśinaḥ ||)
--
Meaning :
A truly wise one who has known Reality / 'Brahman' / 'Self', sees the same in them all, -in a learned well-behaved  brāhmaṇa, in a cow, elephant, dog and an outcast (who feeds on dogs).
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आज का श्लोक, ’शुभान्’ / ’śubhān’

आज का श्लोक, ’शुभान्’ / ’śubhān’
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’शुभान्’ / ’śubhān’ - शुभ (बहुवचन) को,

अध्याय 18, श्लोक 71,

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥
--
(श्रद्धावान् अनसूयः च शृणुयात् अपि यः नरः ।
सः अपि मुक्तः शुभान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥)
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भावार्थ :
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और इस शास्त्र में दोषदृष्टि न रखता हुआ इसे श्रवण भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर उत्तम कर्मकरनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ।
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’शुभान्’ / ’śubhān’ - auspicious, hopeful, bright,

Chapter 18, śloka 71,

śraddhāvānanasūyaśca
śṛṇuyādapi yo naraḥ |
so:'pi muktaḥ śubhām̐llokān-
prāpnuyātpuṇyakarmaṇām ||
--
(śraddhāvān anasūyaḥ ca
śṛṇuyāt api yaḥ naraḥ |
saḥ api muktaḥ śubhān lokān
prāpnuyāt puṇyakarmaṇām ||)
--
Meaning :
One who with full trust, and with no doubts what-so-ever in the truth of this text, listens to this holy scripture, shall be freed of  all karma and shall attain the holy loka of auspicious beings.
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आज का श्लोक, ’शुभाशुभपरित्यागी’ / ’śubhāśubhaparityāgī’

आज का श्लोक,
’शुभाशुभपरित्यागी’ / ’śubhāśubhaparityāgī’ 
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’शुभाशुभपरित्यागी’ / ’śubhāśubhaparityāgī’ - शुभ अथवा अशुभ दोनों का परित्याग करनेवाला, दोनों के प्रति उदासीन,

अध्याय 12, श्लोक 17,

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥
--
(यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभ-अशुभ-परित्यागी भक्तिमान् यः सः मे प्रियः ॥)
--
भावार्थ :
जो न इष्ट वस्तु की प्राप्ति में हर्षित और न अनिष्ट की प्राप्ति में उद्विग्न होता है, जो न शोक करता है, न कामना, शुभ और अशुभ दोनों को समान समझता हुआ दोनों को त्याग देनेवाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
--
’शुभाशुभपरित्यागी’ / ’śubhāśubhaparityāgī’ - one indifferent to and unaffected by good or bad,

Chapter 12, śloka 17,

yo na hṛṣyati na dveṣṭi 
na śocati na kāṅkṣati |
śubhāśubhaparityāgī 
bhaktimānyaḥ sa me priyaḥ ||
--
(yo na hṛṣyati na dveṣṭi 
na śocati na kāṅkṣati |
śubha-aśubha-parityāgī 
bhaktimān yaḥ saḥ me priyaḥ ||)
--
Meaning :
My devotee who neither rejoices when a desired result is achieved, nor is disappointed if an undesired and unfavorable one is obtained by him, is beloved to Me.
-- 

आज का श्लोक, ’शुभाशुभफलैः’ / ’śubhāśubhaphalaiḥ’

आज का श्लोक,
’शुभाशुभफलैः’ / ’śubhāśubhaphalaiḥ’ 
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’शुभाशुभफलैः’ / ’śubhāśubhaphalaiḥ’ - शुभ अथवा अशुभ फलों से,

अध्याय 9, श्लोक 28,

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
--
(शुभ-अशुभफलैः एवम् मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तः माम् उपैष्यसि ॥)
--
भावार्थ : इस प्रकार, सन्न्यासयोग से संपन्न तुम शुभ एवं अशुभरूप सारे कर्मों तथा उनके फलों रूपी बन्धनों से छूटकर मुझको ही प्राप्त हो जाओगे ।
--
’शुभाशुभफलैः’ / ’śubhāśubhaphalaiḥ’ - from the good and adverse fruits of (actions / deeds)

Chapter 9, śloka 28,

śubhāśubhaphalairevaṃ 
mokṣyase karmabandhanaiḥ |
sannyāsayogayuktātmā 
vimukto māmupaiṣyasi ||
--
(śubha-aśubhaphalaiḥ evam 
mokṣyase karmabandhanaiḥ |
sannyāsayogayuktātmā 
vimuktaḥ mām upaiṣyasi ||)
--
Meaning :
In this way having dedicated all your actions to ME, by this sannyāsa-yoga, you will become free from all your good and evil actions and their fruits also, and attain ME only. 
--
Note :
सन्न्यास / sannyāsa in the true sense of the word, means right kind of disposal of the world and the worldly so that the world is no more a bondage.
--

आज का श्लोक, ’शुभाशुभम्’ / ’śubhāśubham’,

आज का श्लोक,
’शुभाशुभम्’ / ’śubhāśubham’
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’शुभाशुभम्’ / ’śubhāśubham’ - शुभ तथा अशुभ,

अध्याय 2, श्लोक 57,
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
(यः सर्वत्र अनभिस्नेहः तत् तत् प्राप्य शुभाशुभम्
न अभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य सर्वत्र ही किसी भी शुभ अथवा अशुभ फल से निर्लिप्त हुआ, न तो प्रसन्न होता है और न खिन्न, उसकी प्रज्ञा स्थिर है ।
--
’शुभाशुभम्’ / ’śubhāśubham’ - auspicious and inauspicious, good or bad  

Chapter 2,  śloka57,

yaḥ sarvatrānabhisnehas-
tattatprāpya śubhāśubham |
nābhinandati na dveṣṭi 
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(yaḥ sarvatra anabhisnehaḥ 
tat tat prāpya śubhāśubham |
na abhinandati na dveṣṭi 
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
Meaning :
One who is equally indifferent everywhere in achieving whatever good or bad comes to him, and neither rejoices nor regrets is said to have attained firm wisdom.
--   

आज का श्लोक, ’शूद्रस्य’ / ’śūdrasya’

आज का श्लोक,
’शूद्रस्य’ / ’śūdrasya’
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’शूद्रस्य’ / ’śūdrasya’ - शूद्र वर्ण के व्यक्ति का,

अध्याय 18,  श्लोक 44,

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
--
(कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकम् कर्म शूद्रस्य अपि स्वभावजम् ॥)
--
भावार्थ :
कृषि और गौपालन, व्यापार तथा वस्तु-विनिमय का व्यवहार करना तथा इस माध्यम से उचित रीति से आजीविका अर्जित करना ये सभी वैश्य के लिए स्वाभाविक कर्म हैं । इसी प्रकार से, सब वर्णों की परिचर्या रूपी सेवा करना शूद्र के लिए स्वाभाविक कर्म है ।
--
’शूद्रस्य’ / ’śūdrasya’ - of the service class of the society,

Chapter 18, śloka 44,

kṛṣigaurakṣyavāṇijyaṃ
vaiśyakarma svabhāvajam |
paricaryātmakaṃ karma
śūdrasyāpi svabhāvajam ||
--
(kṛṣigaurakṣyavāṇijyaṃ
vaiśyakarma svabhāvajam |
paricaryātmakam karma
śūdrasya api svabhāvajam ||)
--
Meaning :
Agriculture, rearing the cattle, trade and commerce, are the tendencies natural ’āśrama-dharma’ to a 'vaiśya', and service of other three classes is the ordained duty and tendencies of one, natural to a 'śūdra'.
--
(Note :
These are the ideal conditions and no one can deny that the  'social' reality don't quite match the 'ideal conditions'. But even then, one could determine for himself, what tendencies are the prominent ones there in his mind and spirit, which one is driven by.  And one can then pursue accordingly the ’āśrama-dharma’ which he finds most suitable to him.) It may be further noted that vedika division of ’āśrama-dharma’ is not based strictly upon the caste in which a person is born, but the tendencies of the body-mind only. Though at the same time, caste plays a significant role also. It is for the society as a whole to decide, to what extent and how to let the individuals prosper and achieve their best in life.
--


आज का श्लोक, ’शूद्राणाम्’ / ’śūdrāṇām’

आज का श्लोक, ’शूद्राणाम्’ / ’śūdrāṇām’
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’शूद्राणाम्’ / ’śūdrāṇām’ - शूद्रवर्ण से संबंधित,

अध्याय 18, श्लोक 41 ,
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ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥
--
(ब्राह्मणक्षत्रियविशाम् शूद्राणाम् च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैः गुणैः ॥)
--
भावार्थ :
हे परंतप (अर्जुन)! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त / निर्धारित किए गए हैं ।
--

--
’शूद्राणाम्’ / ’śūdrāṇām’ -  belonging to the service class, of servants.

Chapter 18, , śloka 41,

brāhmaṇakṣatriyaviśāṃ
śūdrāṇāṃ ca paraṃtapa |
karmāṇi pravibhaktāni
svabhāvaprabhavairguṇaiḥ ||
--
(brāhmaṇakṣatriyaviśām
śūdrāṇām ca paraṃtapa |
karmāṇi pravibhaktāni
svabhāvaprabhavaiḥ guṇaiḥ ||)
--
Meaning :
O paraṃtapa (arjuna)!The duties of one belonging to the spiritual, warrior, merchant or the service-class are distinguished according to their own specific natural qualities / inborn tendencies and in accordance with the material mode (guṇa) they are born with.
--
Note :
paraṃtapa - the tormentor of enemies, or the one having performed great austerities.

आज का श्लोक, ’शूद्राः’ / ’śūdrāḥ’

आज का श्लोक, ’शूद्राः’ / ’śūdrāḥ’
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’शूद्राः’ / ’śūdrāḥ’ - शूद्र वर्ण,

अध्याय 9, श्लोक 32,

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
--
(माम् हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये अपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः ते अपि यान्ति पराम् गतिम् ॥)
--
भावार्थ :
हे अर्जुन, मेरे आश्रय में शरण लेनेवाले भक्त पापयोनि भी हों, अर्थात् भले ही उन्होंने पापजनित कुसंस्कारों सहित जन्म लिया हो, या स्त्री, वैश्य अथवा शूद्र ही हों, वे भी परम गति को ही (अर्थात् मुझे ही, मेरे ही उस परम धाम को प्राप्त होते हैं, जहाँ से पुनः जन्म-मृत्यु नहीं होते ।)
--
’शूद्राः’ / ’śūdrāḥ’ - one of the four orders of the society according to vedika tradition. The other three are brāhmaṇa, kṣatriya and vaiśya.

Chapter 9, śloka 32,

māṃ hi pārtha vyapāśritya
ye:'pi syuḥ pāpayonayaḥ |
striyo vaiśyāstathā śūdrās-
te:'pi yānti parāṃ gatim ||
--
(mām hi pārtha vyapāśritya
ye api syuḥ pāpayonayaḥ |
striyaḥ vaiśyāḥ tathā śūdrā
te api yānti parām gatim ||)
--
Meaning :
Who-so-ever seeking shelter in Me, be they of sinful birth, women, or born in lower orders of the society, -like  vaiśya, or even śūdra, all they attain the Supreme state.
--