आज का श्लोक,
’शान्तिम्’ / ’śāntim’
____________________________
’शान्तिम्’ / ’śāntim’ - शान्ति को,
अध्याय 2, श्लोक 70,
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स
शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
--
(आपूर्यमाणम्-अचलप्रतिष्ठम् समुद्रम् आपः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामाः यम् प्रविशन्ति सर्वे सः
शान्तिम् आप्नोति न कामकामी ॥)
--
भावार्थ :
जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल और अपने-आप में सुस्थिर समुद्र में भिन्न भिन्न स्रोतों से आनेवाली सारी नदियाँ समा जाती हैं और वह यथावत् अविचलित ही रहता है, उसी प्रकार विभिन्न कामनाएँ जिस मनुष्य को (उसकी आत्मा से) बाहर न खींचती हुई, उसमें ही समाहित हो जाती हैं, वही मनुष्य शान्ति प्राप्त कर लेता है, न कि वह जिसका चित्त विभिन्न कामनाओं से आकर्षित हुआ इधर उधर भटकता रहता है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 71,
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स
शान्तिमधिगच्छति ॥
--
(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः
शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
--
अध्याय 4, श्लोक 39,
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां
शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
--
(श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानम् लब्ध्वा पराम्
शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
(परमात्मा को) जानने की उत्कट जिज्ञासा जिसे होती है, और श्रद्धा से युक्त ऐसे मनुष्य को जिसकी इन्द्रियाँ उसके नियंत्रण में हैं, ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त तत्काल ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 12,
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा
शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥
(युक्तः कर्मफलम् त्यक्त्वा
शान्तिम् आप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तः निबध्यते ॥)
--
भावार्थ : योग में स्थित हुआ (मनुष्य) कर्म के फल को त्यागकर निष्ठा से प्राप्त हुई शान्ति को पा लेता है । जबकि योग से अनभिज्ञ (मनुष्य) कामनाओं से परिचालित होने के कारण फल (की आशा) से बद्ध रहता है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 29,
--
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां
शान्तिमृच्छति ॥
--
(भोक्तारम् यज्ञतपसाम् सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदम् सर्वभूतानाम् ज्ञात्वा माम्
शान्तिम् ऋच्छति ॥)
--
भावार्थ :
सब यज्ञों और तपों के भोगनेवाले, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर, सभी भूतप्राणियों के आत्मीय, मुझको जानकर शान्ति को प्राप्त होता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 15,
युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थानमधिगच्छति ॥
--
(युञ्जन् एवम् सदा आत्मानम् योगी नियतमानसः ।
शान्तिम् निर्वाणपरमाम् मत्संस्थाम् अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
आपने-आप को (अपने मन, चित्त को) सतत मुझमें संलग्न रखते हुए योगी इस प्रकार से मुझमें स्थित निर्वाणरूपी परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 9, श्लोक 31,
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्व
च्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
--
(क्षिप्रम् भवति धर्मात्मा शश्वत्
शान्तिम् निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥)
--
भावार्थ :
(मुझको अनन्यभाव से भजनेवाला) शीघ्र ही आत्मा के धर्म में स्थित हो जाता है, और नित्य विद्यमान शान्ति को उपलब्ध हो जाता है । हे पार्थ (अर्जुन) इसे निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता ।
--
अध्याय 18, श्लोक 62,
--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां
शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
--
(तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्-प्रसादात् पराम्
शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अपने सम्पूर्ण हृदय से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ । उसकी कृपा से तुम्हें शान्ति तथा सनातन परम धाम प्राप्त होगा ।
--
’शान्तिम्’ / ’śāntim’ - (to, towards) peace,
Chapter 2, śloka 70,
--
āpūryamāṇamacalapratiṣṭhaṃ
samudramāpaḥ praviśanti yadvat |
tadvatkāmā yaṃ praviśanti sarve
sa
śāntimāpnoti na kāmakāmī ||
--
(āpūryamāṇam-acalapratiṣṭham
samudram āpaḥ praviśanti yadvat |
tadvat kāmāḥ yam praviśanti sarve
saḥ
śāntim āpnoti na kāmakāmī ||)
--
Meaning : Just as, the waters coming from all the directions enter and merge into the ocean, and the ocean stays steady and unaffected, quite so, only the one who is not affected by the desires that come to and merge into his mind wins the state of peace. And not the one, who keeps thinking of and indulging in desires.
--
Chapter 2, śloka 71,
vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa
śāntimadhigacchati ||
--
(vihāya kāmān yaḥ sarvān
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ
śāntim adhigacchati ||)
--
Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.
--
Chapter 4, shloka 39,
śraddhāvām̐llabhate jñānaṃ
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñānaṃ labdhvā parāṃ
śāntimacireṇādhigacchati ||
--
(śraddhāvān labhate jñānam
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñāmam labdhvā parām
śāntim
acireṇa adhigacchati ||)
--
Meaning : An earnest and eager seeker endowed with the trust (in Supreme / Brahman / 'Self,') and who has control over the senses, acquires the wisdom, and as soon as he gains wisdom, the peace supreme follows in the instant.
--
Chapter 5, śloka 12,
yuktaḥ karmaphalaṃ
tyaktvā
śāntimāpnoti naiṣṭhikīm |
ayuktaḥ kāmakāreṇa
phale sakto nibadhyate ||
--
(yuktaḥ karmaphalam tyaktvā
śāntim āpnoti naiṣṭhikīm |
ayuktaḥ kāmakāreṇa
phale saktaḥ nibadhyate ||)
--
Meaning :
One aware of, and stable in yoga forsakes all (hope of) fruites (of action) and attains peace born of conviction. Another, not knowing yoga, carried over by desires keeps tethered to (the hopes of) the fruits (of action).
--
Chapter 5, śloka 29,
bhoktāraṃ yajñatapasāṃ
sarvalokamaheśvaram |
suhṛdaṃ sarvabhūtānāṃ
jñātvā māṃ
śāntimṛcchati ||
--
(bhoktāram yajñatapasām
sarvalokamaheśvaram |
suhṛdam sarvabhūtānām
jñātvā mām
śāntim ṛcchati ||)
--
Meaning :
Knowing, Me / I AM, the goal of all sacrifices and austerities, The Only Lord Supreme of all the worlds and their respective gods, And beloved of all beings, one attains supreme peace.
--
Chapter 6, śloka 15,
yuñjanevaṃ sadātmānaṃ
yogī niyatamānasaḥ |
śāntiṃ nirvāṇaparamāṃ
matsaṃsthānamadhigacchati ||
--
(yuñjan evam sadā ātmānam
yogī niyatamānasaḥ |
śāntim nirvāṇaparamām
matsaṃsthām adhigacchati ||)
--
Meaning :
In this way a yogī, keeping himself (his mind and attention) always fixed in Me, attains the peace supreme of nirvāṇa, which has I AM the abode.
--
Chapter 9, śloka 31,
kṣipraṃ bhavati dharmātmā
śaśvac
chāntiṃ nigacchati |
kaunteya prati jānīhi
na me bhaktaḥ praṇaśyati ||
--
(kṣipram bhavati dharmātmā
śaśvat
śāntim nigacchati |
kaunteya prati jānīhi
na me bhaktaḥ praṇaśyati ||)
--
Meaning : of the
(One devoted to Me with dedication undivided) soon attains the state of dharma of the Self, and along-with the peace ultimate. O pārtha (arjuna)! Know for certain, My devotee is never lost.
--
Chapter 18, śloka 62,
tameva śaraṇaṃ gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tatprasādātparāṃ
śāntiṃ
sthānaṃ prāpsyasi śāśvatam ||
--
(tam eva śaraṇam gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tat-prasādāt parām
śāntim
sthānam prāpsyasi śāśvatam ||)
--
Meaning :
Therefore, with all your heart, seek shelter in Him alone. Through His grace, you shall attain the abode that is bliss supreme and peace eternal.
--