आज का श्लोक,
’सदसत्तत्परम्’ / ’sadasattatparam’
_____________________________
’सदसत्तत्परम्’ / ’sadasattatparam’ - सत्, असत् एवं उनसे भी विलक्षण परब्रहम,
अध्याय 11, श्लोक 37,
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥
--
(कस्मात् च ते न नमेरन् महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणः अपि आदिकर्त्रे ।
अननत देवेश जगन्निवास
त्वम् अक्षरम् सत्-असत्-तत्-परम् यत् ॥)
--
भावार्थ :
हे महेश्वर ! वे (पिछले श्लोक में वर्णित समस्त सिद्धसंघ आदि) आपको क्यों न प्रणाम करें, आप सबसे बड़े, और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता हैं । हे अनन्त!, हे देवेश, हे जगत् के अधिष्ठान! आप अविनाशी, सत्, असत् एवं उनसे जो परे है, वह भी हैं ।
--
टिप्पणी :
--
’सत्’ का अर्थ है, -सदा रहनेवाला, जिसका अस्तित्व सबके लिए समान है, असत् का अर्थ है, -प्रतीत होनेवाला, जिसका अस्तित्व हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न है, और इन दोनों का अधिष्ठान इन दोनों से भिन्न प्रकार का (विलक्षण) होने से उसको ’सत्-असत् से विलक्षण ’तत्’ (परब्रह्म) कहा जाता है ।
--
’सदसत्तत्परम्’ / ’sadasattatparam’ - 'sat', 'asat', and beyond both 'parabrahama' - Absolute Brahman.
Chapter 11, śloka 37,
kasmācca te na nameranmahātman
garīyase brahmaṇo:'pyādikartre |
ananta deveśa jagannivāsa
tvamakṣaraṃ sadasattatparaṃ yat ||
--
(kasmāt ca te na nameran mahātman
garīyase brahmaṇaḥ api ādikartre |
ananata deveśa jagannivāsa
tvam akṣaram sat-asat-tat-param yat ||)
--
Meaning :
Why shall not they (those sages, siddhasaṃgha, - the Realized,) and offer homage to you O Being Supreme! as You are the Elder-most, and Creator foremost of even brahmā, O Limitless, O Lord of the Gods, O abode of the whole world, You are 'sat', 'asat', and also beyond both O 'parabrahama' !
--
Note :
'sat', is what abides ever, 'asat', is the appearances that change from person to person, and beyond both is 'parabrahaman', Which is indescribable.
--
’सदसत्तत्परम्’ / ’sadasattatparam’
_____________________________
’सदसत्तत्परम्’ / ’sadasattatparam’ - सत्, असत् एवं उनसे भी विलक्षण परब्रहम,
अध्याय 11, श्लोक 37,
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥
--
(कस्मात् च ते न नमेरन् महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणः अपि आदिकर्त्रे ।
अननत देवेश जगन्निवास
त्वम् अक्षरम् सत्-असत्-तत्-परम् यत् ॥)
--
भावार्थ :
हे महेश्वर ! वे (पिछले श्लोक में वर्णित समस्त सिद्धसंघ आदि) आपको क्यों न प्रणाम करें, आप सबसे बड़े, और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता हैं । हे अनन्त!, हे देवेश, हे जगत् के अधिष्ठान! आप अविनाशी, सत्, असत् एवं उनसे जो परे है, वह भी हैं ।
--
टिप्पणी :
--
’सत्’ का अर्थ है, -सदा रहनेवाला, जिसका अस्तित्व सबके लिए समान है, असत् का अर्थ है, -प्रतीत होनेवाला, जिसका अस्तित्व हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न है, और इन दोनों का अधिष्ठान इन दोनों से भिन्न प्रकार का (विलक्षण) होने से उसको ’सत्-असत् से विलक्षण ’तत्’ (परब्रह्म) कहा जाता है ।
--
’सदसत्तत्परम्’ / ’sadasattatparam’ - 'sat', 'asat', and beyond both 'parabrahama' - Absolute Brahman.
Chapter 11, śloka 37,
kasmācca te na nameranmahātman
garīyase brahmaṇo:'pyādikartre |
ananta deveśa jagannivāsa
tvamakṣaraṃ sadasattatparaṃ yat ||
--
(kasmāt ca te na nameran mahātman
garīyase brahmaṇaḥ api ādikartre |
ananata deveśa jagannivāsa
tvam akṣaram sat-asat-tat-param yat ||)
--
Meaning :
Why shall not they (those sages, siddhasaṃgha, - the Realized,) and offer homage to you O Being Supreme! as You are the Elder-most, and Creator foremost of even brahmā, O Limitless, O Lord of the Gods, O abode of the whole world, You are 'sat', 'asat', and also beyond both O 'parabrahama' !
--
Note :
'sat', is what abides ever, 'asat', is the appearances that change from person to person, and beyond both is 'parabrahaman', Which is indescribable.
--
No comments:
Post a Comment