आज का श्लोक,
’समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ / ’samaloṣṭāśmakāñcanaḥ’
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’समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ / ’samaloṣṭāśmakāñcanaḥ’
अध्याय 6, श्लोक 8,
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥
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(ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः विजितेन्द्रियः ।
युक्तः इति उच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥)
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भावार्थ :
जिसका अन्तःकरण ज्ञान (सापेक्ष स्तर पर जीव के रूप में अपने जगत् के साथ अपना संबंध) तथा विज्ञान ( निरपेक्ष स्तर पर चेतना के रूप में ईश्वर से अपनी अभिन्नता) से परम तृप्त है, और जो उस अभिन्नता में अचल है, जो संयतेन्द्रिय है, इस प्रकार से योग में भली-भाँति अवस्थित उस योगी के लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण एक समान हैं, ...
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अध्याय 14, श्लोक 24,
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥
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(समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियः धीरः तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥)
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भावार्थ :
दुःख तथा सुख को समान समझनेवाला, निरन्तर आत्मभाव (स्वभाव) में अवस्थित, मिट्टी, पत्थर तथा सुवर्ण में समान दृष्टि रखनेवाला, प्रिय और अप्रिय में एक समान, ऐसा ज्ञानी, जो कि निन्दा और प्रशंसा के प्रति भी वैसा ही तटस्थ होता है , ...
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’समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ / ’samaloṣṭāśmakāñcanaḥ’ - one who looks at a lump of earth, a stone and gold with the same attitude and treats them as of having the same importance.
Chapter 6, śloka 8,
jñānavijñānatṛptātmā
kūṭastho vijitendriyaḥ |
yukta ityucyate yogī
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||
--
(jñānavijñānatṛptātmā
kūṭasthaḥ vijitendriyaḥ |
yuktaḥ iti ucyate yogī
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||)
--
Meaning : One established happily and perfectly content in the proper understanding of the relative knowledge ( jñāna of oneself as a soul and one's world, and their relationship) and the ultimate wisdom (vijñāna of one's identity as consciousness only and relationship / oneness with the Brahmam / ātman), one who keeping senses well under control, stays firmly unmoved in that stance of his, for him a lump of earth, a stone and gold are of equal value.
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Chapter 14, śloka 24,
samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ |
tulyapriyāpriyo dhīras-
tulyanindātmasaṃstutiḥ ||
--
(samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ |
tulyapriyāpriyaḥ dhīraḥ
tulyanindātmasaṃstutiḥ ||)
--
Meaning :
Accepting pain and pleasure with the same attitude, abiding firmly in the Self, looking at a clod of earth, a stone, and gold in the same manner, and treating a dear one or an enemy alike, for such a man of wisdom (jñānī), praise and disdain are the same.
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’समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ / ’samaloṣṭāśmakāñcanaḥ’
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’समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ / ’samaloṣṭāśmakāñcanaḥ’
अध्याय 6, श्लोक 8,
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥
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(ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः विजितेन्द्रियः ।
युक्तः इति उच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥)
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भावार्थ :
जिसका अन्तःकरण ज्ञान (सापेक्ष स्तर पर जीव के रूप में अपने जगत् के साथ अपना संबंध) तथा विज्ञान ( निरपेक्ष स्तर पर चेतना के रूप में ईश्वर से अपनी अभिन्नता) से परम तृप्त है, और जो उस अभिन्नता में अचल है, जो संयतेन्द्रिय है, इस प्रकार से योग में भली-भाँति अवस्थित उस योगी के लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण एक समान हैं, ...
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अध्याय 14, श्लोक 24,
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥
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(समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियः धीरः तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥)
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भावार्थ :
दुःख तथा सुख को समान समझनेवाला, निरन्तर आत्मभाव (स्वभाव) में अवस्थित, मिट्टी, पत्थर तथा सुवर्ण में समान दृष्टि रखनेवाला, प्रिय और अप्रिय में एक समान, ऐसा ज्ञानी, जो कि निन्दा और प्रशंसा के प्रति भी वैसा ही तटस्थ होता है , ...
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’समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ / ’samaloṣṭāśmakāñcanaḥ’ - one who looks at a lump of earth, a stone and gold with the same attitude and treats them as of having the same importance.
Chapter 6, śloka 8,
jñānavijñānatṛptātmā
kūṭastho vijitendriyaḥ |
yukta ityucyate yogī
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||
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(jñānavijñānatṛptātmā
kūṭasthaḥ vijitendriyaḥ |
yuktaḥ iti ucyate yogī
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||)
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Meaning : One established happily and perfectly content in the proper understanding of the relative knowledge ( jñāna of oneself as a soul and one's world, and their relationship) and the ultimate wisdom (vijñāna of one's identity as consciousness only and relationship / oneness with the Brahmam / ātman), one who keeping senses well under control, stays firmly unmoved in that stance of his, for him a lump of earth, a stone and gold are of equal value.
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Chapter 14, śloka 24,
samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ |
tulyapriyāpriyo dhīras-
tulyanindātmasaṃstutiḥ ||
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(samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ |
tulyapriyāpriyaḥ dhīraḥ
tulyanindātmasaṃstutiḥ ||)
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Meaning :
Accepting pain and pleasure with the same attitude, abiding firmly in the Self, looking at a clod of earth, a stone, and gold in the same manner, and treating a dear one or an enemy alike, for such a man of wisdom (jñānī), praise and disdain are the same.
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