Monday, July 7, 2014

आज का श्लोक, ’समवस्थितम्’ / ’samavasthitam’

आज का श्लोक,
’समवस्थितम्’ / ’samavasthitam’   
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’समवस्थितम्’ / ’samavasthitam’  - भली-भाँति अवस्थित / विद्यमान  (को)

अध्याय 13, श्लोक 28,

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मात्मानं ततो याति परां गतिं ॥
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(समम् पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् ।
न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
परमेश्वर को सर्वत्र और सबमें एक समान विद्यमान देखते हुए, अपने आपके या किसी के भी प्रति हिंसा नहीं करता और इसलिए ऐसा मनुष्य परम श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है ।
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’समवस्थितम्’ / ’samavasthitam’   - to One, Who is (there) well-placed / present,

Chapter 13, śloka 28,

samaṃ paśyanhi sarvatra
samavasthitamīśvaram |
na hinastyātmātmānaṃ
tato yāti parāṃ gatiṃ ||
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(samam paśyan hi sarvatra
samavasthitam īśvaram |
na hinasti ātmanā ātmānam
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
Realizing and seeing the same Supreme Reality present within oneself, all and everywhere, inflicts no harm / violence upon oneself or others as each and everything is the embodiment of the same Self, the same Supreme Reality only.
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