आज का श्लोक, ’समम्’ / ’samam’
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’समम्’ / ’samam’ - समत्व में स्थित, सीधा, सरल,
अध्याय 5, श्लोक 19,
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इहैव तैर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
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(इह-एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥)
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जिनका मन समभाव में स्थित हो जाता है उनके द्वारा इस (जीवित अवस्था में ही) संसार जीत लिया जाता है, क्योंकि वे संसार के बंधन से मुक्त होते हैं, और चूँकि वे ब्रह्म में अवस्थित होते हैं, इसलिए सच्चिदानन्घन परमात्मा में स्थित हुए वे ब्रह्मस्वरूप, सम और निर्दोष होते हैं ।
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अध्याय 6, श्लोक 13,
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
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(समं कायशिरोग्रीवं धारयन् अचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशः च अनवलोकयन् ॥
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भावार्थ :
काया, सिर तथा गर्दन को सीधा और अचल रखते हुए, दिशाओं को न देखते हुए अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखे ।
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अध्याय 6, श्लोक 32,
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
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(आत्मौपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति यः अर्जुनः ।
सुखम् वा यदि वा दुःखम् सः योगी परमः मतः ॥)
--
भावार्थ :
सुख हो या दुःख, किसी भी परिस्थिति में, हे अर्जुन! अपनी (चेतन आत्मा की चेतना की) उपमा से सर्वत्र एक समान व्याप्त चैतन्य आत्मा को ही, जो देखता है, वह योगी परम (श्रेष्ठ) माना जाता है ।
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अध्याय 13, श्लोक 27,
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥)
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(समम् सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् परमेश्वरम् ।
विनश्यत्सु अविनश्यन्तम् यः पश्यति सः पश्यति ॥)
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भावार्थ :
नाश को प्राप्त होते रहनेवाले सब चर अचर भूतों में अविनाशी समभाव से, समान रूप से विद्यमान परमेश्वर को जो देखता है, वही (सत्य को) देखता है ।
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अध्याय 13, श्लोक 28,
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मात्मानं ततो याति परां गतिं ॥
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(समम् पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् ।
न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
परमेश्वर को सर्वत्र और सबमें एक समान विद्यमान देखते हुए, अपने आपके या किसी के भी प्रति हिंसा नहीं करता और इसलिए ऐसा मनुष्य परम श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है ।
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’समम्’ / ’samam’ - conscientious, in purity, candid, in clarity, impartial, rightful, unprejudiced,
Chapter 5, śloka 19,
ihaiva tairjito sargo
yeṣāṃ sāmye sthitaṃ manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmādbrahmaṇi te sthitāḥ ||
--
(iha-eva taiḥ jitaḥ sargaḥ
yeṣām sāmye sthitam manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmāt brahmaṇi te sthitāḥ ||)
--
Meaning :
Those who have attained the equipoise of mind have conquered over the crisis of existing in a world full of sorrow and ignorance. They have attained identity with Brahman and are thus stainless and impartial in Him.
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Chapter 6, shloka 13,
samaṃ kāyaśirogrīvaṃ
dhārayannacalaṃ sthiraḥ |
samprekṣya nāsikāgraṃ svaṃ
diśaścānavalokayan ||
--
(samaṃ kāyaśirogrīvaṃ
dhārayan acalaṃ sthiraḥ |
samprekṣya nāsikāgraṃ svaṃ
diśaḥ ca anavalokayan ||
--
Meaning :
While practicing meditation, make sure the body, the head, and the neck are erect and motionless, the attention (externally) is withdrawn from all the other directions and is fixed onto the tip of the nose.
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Chapter 6, śloka 32,
ātmaupamyena sarvatra
samaṃ paśyati yo:'rjuna |
sukhaṃ vā yadi vā duḥkham
sa yogī paramo mataḥ ||
--
(ātmaupamyena sarvatra
samam paśyati yaḥ arjunaḥ |
sukham vā yadi vā duḥkham
saḥ yogī paramaḥ mataḥ ||)
--
Meaning :
arjuna ! In happiness or in pain, one who sees the same Self in him-self and all others everywhere, is a yogī great indeed.
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Chapter 13, śloka 27,
samaṃ sarveṣu bhūteṣu
tiṣṭhantaṃ parameśvaram |
vinaśyatsvavinaśyantaṃ
yaḥ paśyati sa paśyati ||)
--
(samam sarveṣu bhūteṣu
tiṣṭhantam parameśvaram |
vinaśyatsu avinaśyantam
yaḥ paśyati saḥ paśyati ||)
--
Meaning :
One who is aware that the Lord Imperishable as consciousness is always present there, in all beings that are born and subsequently die, is one who really observes the truth.
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Chapter 13, śloka 28,
samaṃ paśyanhi sarvatra
samavasthitamīśvaram |
na hinastyātmātmānaṃ
tato yāti parāṃ gatiṃ ||
--
(samam paśyan hi sarvatra
samavasthitam īśvaram |
na hinasti ātmanā ātmānam
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
Realizing and seeing the same Supreme Reality present within oneself, all and everywhere, inflicts no harm / violence upon oneself or others as each and everything is the embodiment of the same Self, the same Supreme Reality only.
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’समम्’ / ’samam’ - समत्व में स्थित, सीधा, सरल,
अध्याय 5, श्लोक 19,
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इहैव तैर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
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(इह-एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥)
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जिनका मन समभाव में स्थित हो जाता है उनके द्वारा इस (जीवित अवस्था में ही) संसार जीत लिया जाता है, क्योंकि वे संसार के बंधन से मुक्त होते हैं, और चूँकि वे ब्रह्म में अवस्थित होते हैं, इसलिए सच्चिदानन्घन परमात्मा में स्थित हुए वे ब्रह्मस्वरूप, सम और निर्दोष होते हैं ।
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अध्याय 6, श्लोक 13,
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
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(समं कायशिरोग्रीवं धारयन् अचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशः च अनवलोकयन् ॥
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भावार्थ :
काया, सिर तथा गर्दन को सीधा और अचल रखते हुए, दिशाओं को न देखते हुए अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखे ।
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अध्याय 6, श्लोक 32,
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
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(आत्मौपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति यः अर्जुनः ।
सुखम् वा यदि वा दुःखम् सः योगी परमः मतः ॥)
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भावार्थ :
सुख हो या दुःख, किसी भी परिस्थिति में, हे अर्जुन! अपनी (चेतन आत्मा की चेतना की) उपमा से सर्वत्र एक समान व्याप्त चैतन्य आत्मा को ही, जो देखता है, वह योगी परम (श्रेष्ठ) माना जाता है ।
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अध्याय 13, श्लोक 27,
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥)
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(समम् सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् परमेश्वरम् ।
विनश्यत्सु अविनश्यन्तम् यः पश्यति सः पश्यति ॥)
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भावार्थ :
नाश को प्राप्त होते रहनेवाले सब चर अचर भूतों में अविनाशी समभाव से, समान रूप से विद्यमान परमेश्वर को जो देखता है, वही (सत्य को) देखता है ।
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अध्याय 13, श्लोक 28,
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मात्मानं ततो याति परां गतिं ॥
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(समम् पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् ।
न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
परमेश्वर को सर्वत्र और सबमें एक समान विद्यमान देखते हुए, अपने आपके या किसी के भी प्रति हिंसा नहीं करता और इसलिए ऐसा मनुष्य परम श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है ।
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’समम्’ / ’samam’ - conscientious, in purity, candid, in clarity, impartial, rightful, unprejudiced,
Chapter 5, śloka 19,
ihaiva tairjito sargo
yeṣāṃ sāmye sthitaṃ manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmādbrahmaṇi te sthitāḥ ||
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(iha-eva taiḥ jitaḥ sargaḥ
yeṣām sāmye sthitam manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmāt brahmaṇi te sthitāḥ ||)
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Meaning :
Those who have attained the equipoise of mind have conquered over the crisis of existing in a world full of sorrow and ignorance. They have attained identity with Brahman and are thus stainless and impartial in Him.
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Chapter 6, shloka 13,
samaṃ kāyaśirogrīvaṃ
dhārayannacalaṃ sthiraḥ |
samprekṣya nāsikāgraṃ svaṃ
diśaścānavalokayan ||
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(samaṃ kāyaśirogrīvaṃ
dhārayan acalaṃ sthiraḥ |
samprekṣya nāsikāgraṃ svaṃ
diśaḥ ca anavalokayan ||
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Meaning :
While practicing meditation, make sure the body, the head, and the neck are erect and motionless, the attention (externally) is withdrawn from all the other directions and is fixed onto the tip of the nose.
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Chapter 6, śloka 32,
ātmaupamyena sarvatra
samaṃ paśyati yo:'rjuna |
sukhaṃ vā yadi vā duḥkham
sa yogī paramo mataḥ ||
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(ātmaupamyena sarvatra
samam paśyati yaḥ arjunaḥ |
sukham vā yadi vā duḥkham
saḥ yogī paramaḥ mataḥ ||)
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Meaning :
arjuna ! In happiness or in pain, one who sees the same Self in him-self and all others everywhere, is a yogī great indeed.
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Chapter 13, śloka 27,
samaṃ sarveṣu bhūteṣu
tiṣṭhantaṃ parameśvaram |
vinaśyatsvavinaśyantaṃ
yaḥ paśyati sa paśyati ||)
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(samam sarveṣu bhūteṣu
tiṣṭhantam parameśvaram |
vinaśyatsu avinaśyantam
yaḥ paśyati saḥ paśyati ||)
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Meaning :
One who is aware that the Lord Imperishable as consciousness is always present there, in all beings that are born and subsequently die, is one who really observes the truth.
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Chapter 13, śloka 28,
samaṃ paśyanhi sarvatra
samavasthitamīśvaram |
na hinastyātmātmānaṃ
tato yāti parāṃ gatiṃ ||
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(samam paśyan hi sarvatra
samavasthitam īśvaram |
na hinasti ātmanā ātmānam
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
Realizing and seeing the same Supreme Reality present within oneself, all and everywhere, inflicts no harm / violence upon oneself or others as each and everything is the embodiment of the same Self, the same Supreme Reality only.
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