आज का श्लोक,
’समतीत्य’ / ’samatītya’
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’समतीत्य’ / ’samatītya’ - लाँघकर, पार कर, से परे होकर,
अध्याय 14, श्लोक 26,
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
--
(माम् च यः अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
सः गुणान् समतीत्य एतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥)
--
भावार्थ : जो विशुद्ध भक्तियोग से मुझको सतत भजता है, वह तीनों गुणों को लाँघकर, मुझ ब्रह्मस्वरूप परमात्मा से एकीभूत होता है ।
--
टिप्पणी :
प्रस्तुत श्लोक का यही भाव निम्नलिखित श्लोक में भी देखा जा सकता है :
अध्याय 7 श्लोक 14
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
--
(दैवी हि-एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एताम् तरन्ति ते ॥)
--
भावार्थ :
तीन गुणों से युक्त इस माया को पार करना निस्सन्देह अत्यन्त ही कठिन है, किन्तु जो केवल मुझको ही भजते हैं वे अवश्य ही इससके परे चले जाते हैं ।
--
’समतीत्य’ / ’samatītya’ - having transcended,
Chapter 14, śloka 26,
māṃ ca yo:'vyabhicāreṇa
bhaktiyogena sevate |
sa guṇānsamatītyaitān
brahmabhūyāya kalpate ||
--
(mām ca yaḥ avyabhicāreṇa
bhaktiyogena sevate |
saḥ guṇān samatītya etān
brahmabhūyāya kalpate ||)
--
Meaning :
One who serves / attends to Me with uncontaminated devotion transcends these three attributes (guṇā-s, attributes of prakṛti) and is unified with Brahman (Me).
--
Note : The essence of the above śloka 26, of Chapter 14, is same as could be seen in the following :
Chapter 7 śloka 14
daivī hyeṣā guṇamayī
mama māyā duratyayā |
māmeva ye prapadyante
māyāmetāṃ taranti te ||
--
(daivī hi-eṣā guṇamayī
mama māyā duratyayā |
mām eva ye prapadyante
māyām etām taranti te ||)
--
Meaning :
No doubt, this māyā, My own divine power, that has 3 attributes (guṇa-s), is very difficult to transcend. However those, who earnestly devote Me only, do cross over this (māyā of 3 attributes / guṇa-s).
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’समतीत्य’ / ’samatītya’
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’समतीत्य’ / ’samatītya’ - लाँघकर, पार कर, से परे होकर,
अध्याय 14, श्लोक 26,
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
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(माम् च यः अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
सः गुणान् समतीत्य एतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥)
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भावार्थ : जो विशुद्ध भक्तियोग से मुझको सतत भजता है, वह तीनों गुणों को लाँघकर, मुझ ब्रह्मस्वरूप परमात्मा से एकीभूत होता है ।
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टिप्पणी :
प्रस्तुत श्लोक का यही भाव निम्नलिखित श्लोक में भी देखा जा सकता है :
अध्याय 7 श्लोक 14
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
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(दैवी हि-एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एताम् तरन्ति ते ॥)
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भावार्थ :
तीन गुणों से युक्त इस माया को पार करना निस्सन्देह अत्यन्त ही कठिन है, किन्तु जो केवल मुझको ही भजते हैं वे अवश्य ही इससके परे चले जाते हैं ।
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’समतीत्य’ / ’samatītya’ - having transcended,
Chapter 14, śloka 26,
māṃ ca yo:'vyabhicāreṇa
bhaktiyogena sevate |
sa guṇānsamatītyaitān
brahmabhūyāya kalpate ||
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(mām ca yaḥ avyabhicāreṇa
bhaktiyogena sevate |
saḥ guṇān samatītya etān
brahmabhūyāya kalpate ||)
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Meaning :
One who serves / attends to Me with uncontaminated devotion transcends these three attributes (guṇā-s, attributes of prakṛti) and is unified with Brahman (Me).
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Note : The essence of the above śloka 26, of Chapter 14, is same as could be seen in the following :
Chapter 7 śloka 14
daivī hyeṣā guṇamayī
mama māyā duratyayā |
māmeva ye prapadyante
māyāmetāṃ taranti te ||
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(daivī hi-eṣā guṇamayī
mama māyā duratyayā |
mām eva ye prapadyante
māyām etām taranti te ||)
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Meaning :
No doubt, this māyā, My own divine power, that has 3 attributes (guṇa-s), is very difficult to transcend. However those, who earnestly devote Me only, do cross over this (māyā of 3 attributes / guṇa-s).
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