आज का श्लोक, ’समौ’ / ’samau’
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’समौ’ / ’samau’ - परस्पर समान रखते हुए,
अध्याय 5, श्लोक 27,
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स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यान्तरचारिणौ ।*
--
(स्पर्शान् कृत्वा बहिः बाह्यान् चक्षुः च एव अन्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥)*
--
भावार्थ :
बाहर के इन्द्रिय-आदि के विषयों से संबंधित सम्पर्क को बाहर ही छोड़कर चक्षु अर्थात् दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करे, नासिका के भीतर तथा बाहर भी चलते रहनेवाले प्राण तथा अपान को परस्पर संतुलित और समान रखते हुए , ....।*
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[* कृपया इस श्लोक को इसी अध्याय में आनेवाले अगले श्लोक (5/28) के साथ पढ़ें]
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’समौ’ / ’samau’ - both at the same level, kind, force.
Chapter 5, śloka 27,
sparśānkṛtvā bahirbāhyāṃś-
cakṣuścaivāntare bhruvoḥ |
prāṇāpānau samau kṛtvā
nāsābhyāntaracāriṇau |*
--
(sparśān kṛtvā bahiḥ bāhyān
cakṣuḥ ca eva antare bhruvoḥ |
prāṇāpānau samau kṛtvā
nāsābhyantaracāriṇau ||)*
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Meaning :
Withdrawing contact of the mind from the objects of sense-experiences, leaving those outside things out there,fixing the attention between the eye-brows, balancing and keeping even the passage of 'prāṇa’ and 'apāna', ( -the vital force that helps one in breathing in inhaling and exhaling respectively) ....*
[* please read this śloka with the next (5/28) of this chapter.]
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’समौ’ / ’samau’ - परस्पर समान रखते हुए,
अध्याय 5, श्लोक 27,
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स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यान्तरचारिणौ ।*
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(स्पर्शान् कृत्वा बहिः बाह्यान् चक्षुः च एव अन्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥)*
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भावार्थ :
बाहर के इन्द्रिय-आदि के विषयों से संबंधित सम्पर्क को बाहर ही छोड़कर चक्षु अर्थात् दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करे, नासिका के भीतर तथा बाहर भी चलते रहनेवाले प्राण तथा अपान को परस्पर संतुलित और समान रखते हुए , ....।*
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[* कृपया इस श्लोक को इसी अध्याय में आनेवाले अगले श्लोक (5/28) के साथ पढ़ें]
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’समौ’ / ’samau’ - both at the same level, kind, force.
Chapter 5, śloka 27,
sparśānkṛtvā bahirbāhyāṃś-
cakṣuścaivāntare bhruvoḥ |
prāṇāpānau samau kṛtvā
nāsābhyāntaracāriṇau |*
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(sparśān kṛtvā bahiḥ bāhyān
cakṣuḥ ca eva antare bhruvoḥ |
prāṇāpānau samau kṛtvā
nāsābhyantaracāriṇau ||)*
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Meaning :
Withdrawing contact of the mind from the objects of sense-experiences, leaving those outside things out there,fixing the attention between the eye-brows, balancing and keeping even the passage of 'prāṇa’ and 'apāna', ( -the vital force that helps one in breathing in inhaling and exhaling respectively) ....*
[* please read this śloka with the next (5/28) of this chapter.]
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