Wednesday, July 2, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वकिल्बिषैः’ / ’sarvakilbiṣaiḥ’

आज का श्लोक,
’सर्वकिल्बिषैः’ /  ’sarvakilbiṣaiḥ’ 
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सर्वकिल्बिषैः’ /  ’sarvakilbiṣaiḥ’ - सब पापों से,

अध्याय 3, श्लोक 13,

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥
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(यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः
भुञ्जते ते तु अघम् पापाः ये पचन्ति आत्मकारणात् ॥)
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भावार्थ :
यज्ञरूपी कर्म का अनुष्ठान पूर्ण करने के बाद शेष प्राप्त हुए अन्न का उपभोग करते हुए सज्जन पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, जबकि पाप का आचरण करनेवाले जो लोग केवल अपने शरीर की आवश्यकताएँ और कामनाएँ पूरी करने के लिए स्वार्थ-बुद्धि से केवल अपने ही लिए अन्न पकाते हैं, वे केवल पाप को ही खाते हैं ।    
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टिप्पणी :
अगले श्लोकों में जहाँ इस पूरी प्रक्रिया का संक्षेप में और सारगर्भित विवरण है, वहीं अन्यत्र यह भी स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार वेद-विहित कर्म / यज्ञ / ब्रह्म इसी एक प्रक्रिया के भिन्न भिन्न नाम हैं, और किस प्रकार इस प्रक्रिया को अनेक विधियों से पूरा किया जाता है । उदाहरण के लिए अध्याय 10, श्लोक 25 में जपयज्ञ का, तो अध्याय 4, श्लोक 32 में विविध प्रकार के अन्य यज्ञों का उल्लेख है ।
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अध्याय 10, श्लोक 25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥)
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(महर्षीणाम् भृगुः अहम् गिराम् अस्मि एकम् अक्षरम् ।
यज्ञानाम् जपयज्ञो अस्मि स्थावराणाम् हिमालयः ॥)
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भावार्थ :
महर्षियों में मैं महर्षि भृगु, शब्दों (वाणियों में) में हूँ एक अक्षर (ॐकार), सब प्रकार के यज्ञों में (समान रूप से विद्यमान) जप-यज्ञ हूँ, स्थावरों में हिमालय पर्वत ।
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अध्याय 4, श्लोक 32,
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
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(एवम् बहुविधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे ।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् एवम् ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से जिन विविध और अनेक प्रकार के विविध यज्ञ वेद के मुख से कहे गए हैं, उन सभी का अनुष्ठान मन-बुद्धि, इन्द्रिय, तथा शरीर के माध्यम से, अर्थात् ’कर्म’ से ही पूर्ण होता है, यह जानने पर तुम (कर्म एवं कर्म-बन्धन) से छूट जाओगे ।
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सर्वकिल्बिषैः’ /  ’sarvakilbiṣaiḥ’ - from all sin,
 
Chapter 3, śloka 13,

yajñaśiṣṭāśinaḥ santo
mucyante sarvakilbiṣaiḥ |
bhuñjate te tvaghaṃ pāpā
ye pacantyātmakāraṇāt ||
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(yajñaśiṣṭāśinaḥ santaḥ
mucyante sarvakilbiṣaiḥ |
bhuñjate te tu agham pāpāḥ
ye pacanti ātmakāraṇāt ||)
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Meaning :
A sage feeds upon the left-over food that is obtained after performing 'yajña', and is therefore liberated from all sin. Where-as a man who cooks for himself, for his own existence only, (without giving the dues by means of sacrifices (yajña) to the forces of nature, to devatā - principle), - feeds on the sin only.
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Note :
In the next 3 śloka-s of this chapter 3, and in few others the inter-relationship of yajña, karma, and  brahmaṇ is explained along-with the process of 'recycling' that is already there in existence. The following two śloka-s are note-worthy :

Chapter 10, śloka 25,

maharṣīṇāṃ bhṛgurahaṃ
girāmasmyekamakṣaram |
yajñānāṃ japayajño:'smi
sthāvarāṇāṃ himālayaḥ ||)
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(maharṣīṇām bhṛguḥ aham
girām asmi ekam akṣaram |
yajñānām japayajño asmi
sthāvarāṇām himālayaḥ ||)
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Meaning :
Of the great sages, I AM maharṣi bhṛgu, of sounds I AM the Only prime sound 'OM'. Of sacrifices I AM 'japa', - the chanting of the holy names / words, and of the immovable, I AM the Himalayas.
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Chapter 4, śloka 32,

evaṃ bahuvidhā yajñā
vitatā brahmaṇo mukhe |
karmajānviddhi tānsarvan-
evaṃ jñātvā vimokṣyase ||
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(evam bahuvidhāḥ yajñāḥ
vitatāḥ brahmaṇaḥ mukhe |
karmajān viddhi tān sarvān
evam jñātvā vimokṣyase ||)
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Meaning :
In this way veda described many different kinds of sacrifices / 'yajña-s', that are performed only with the help of action (karma) through body, heart and mind, and intellect, knowing this, you shall be liberated (from the bondage of ’karma’ and ’karma-bandhana’).
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