आज का श्लोक,
’सर्वक्षेत्रेषु’ / ’sarvakṣetreṣu’
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’सर्वक्षेत्रेषु’ / ’sarvakṣetreṣu’ - समस्त क्षेत्रों में अर्थात् समस्त जीवधारियों की देहों में स्थित,
अध्याय 13, श्लोक 2,
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥
--
(क्षेत्रज्ञम् च अपि माम् विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानम् मतं मम ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! इन देहरूपी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तुम मुझको ही जानो । इस प्रकार का क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, मेरे मत में वही ज्ञान (साङ्ख्य में वर्णित, तथा अन्यत्र कहा जानेवाला आत्म-ज्ञान और परम ज्ञान भी) है ।
--
टिप्पणी :
(जैसा कि इसी अध्याय 13 के पूर्व के श्लोक 1 में क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के विषय में कहा गया,)
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’सर्वक्षेत्रेषु’ / ’sarvakṣetreṣu’ - in all 'kṣetra-s', i.e. in all the bodies of all beings.
Chapter 13, śloka 2,
kṣetrajñaṃ cāpi māṃ viddhi
sarvakṣetreṣu bhārata |
kṣetrakṣetrajñayorjñānaṃ
yattajjñānaṃ mataṃ mama ||
--
(kṣetrajñam ca api mām viddhi
sarvakṣetreṣu bhārata |
kṣetrakṣetrajñayoḥ jñānam
yat tat jñānam mataṃ mama ||)
--
Meaning :
Know Me only O bhārata (arjuna)! The One That is the 'kṣetrajña' in all such 'kṣetra-s'.
Note :
(Thus I AM the One Who knows at the core of heart of all beings. As already explained in the last śloka 1 of this chapter 13, this physical body made of gross and subtle elements is termed 'kṣetra' where-as the indwelling consciousness / the spirit embodied in it, that pervades this body and claims it 'mine' is the 'One' that is termed 'kṣetrajña', the soul / self, that stays associated this from its birth and unto its death. So, 'self' and 'Self' are essentially one and the same Reality.)
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’सर्वक्षेत्रेषु’ / ’sarvakṣetreṣu’
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’सर्वक्षेत्रेषु’ / ’sarvakṣetreṣu’ - समस्त क्षेत्रों में अर्थात् समस्त जीवधारियों की देहों में स्थित,
अध्याय 13, श्लोक 2,
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥
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(क्षेत्रज्ञम् च अपि माम् विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानम् मतं मम ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! इन देहरूपी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तुम मुझको ही जानो । इस प्रकार का क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, मेरे मत में वही ज्ञान (साङ्ख्य में वर्णित, तथा अन्यत्र कहा जानेवाला आत्म-ज्ञान और परम ज्ञान भी) है ।
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टिप्पणी :
(जैसा कि इसी अध्याय 13 के पूर्व के श्लोक 1 में क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के विषय में कहा गया,)
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’सर्वक्षेत्रेषु’ / ’sarvakṣetreṣu’ - in all 'kṣetra-s', i.e. in all the bodies of all beings.
Chapter 13, śloka 2,
kṣetrajñaṃ cāpi māṃ viddhi
sarvakṣetreṣu bhārata |
kṣetrakṣetrajñayorjñānaṃ
yattajjñānaṃ mataṃ mama ||
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(kṣetrajñam ca api mām viddhi
sarvakṣetreṣu bhārata |
kṣetrakṣetrajñayoḥ jñānam
yat tat jñānam mataṃ mama ||)
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Meaning :
Know Me only O bhārata (arjuna)! The One That is the 'kṣetrajña' in all such 'kṣetra-s'.
Note :
(Thus I AM the One Who knows at the core of heart of all beings. As already explained in the last śloka 1 of this chapter 13, this physical body made of gross and subtle elements is termed 'kṣetra' where-as the indwelling consciousness / the spirit embodied in it, that pervades this body and claims it 'mine' is the 'One' that is termed 'kṣetrajña', the soul / self, that stays associated this from its birth and unto its death. So, 'self' and 'Self' are essentially one and the same Reality.)
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