Wednesday, July 2, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वगतम्’ / ’sarvagatam’

आज का श्लोक,
’सर्वगतम्’ / ’sarvagatam’
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’सर्वगतम्’ / ’sarvagatam’  - सबमें विद्यमान, सबमें ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित,

अध्याय 3, श्लोक 15,

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतम् ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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(कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्म-अक्षरसमुद्भवम् ।
 तस्मात् सर्वगतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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भावार्थ :
यह जान लो कि कर्म का उद्भव ब्रह्म से होता है, जबकि ब्रह्म का (उद्भव), अक्षर (अविनाशी) परमात्मा से । इसलिए सबमें ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित, ब्रह्म सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित (भली-भाँति अवस्थित) है ।
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अध्याय 13,  श्लोक 32,

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते
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(यथा सर्वगतम् सौक्ष्म्यात् आकाशम् न उपलिप्यते ।
सर्वत्र अवस्थितः देहे तथा आत्मा न उपलिप्यते ।
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भावार्थ :
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण (जिसमें व्याप्त है, उससे) लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सर्वत्र अवस्थित आत्मा (जो कि आकाश से भी अधिक सूक्ष्म तथा और भी अधिक व्यापक है, - जो कि सबमें है, और सब जिसमें है,) देह से लिप्त नहीं होता ।
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’सर्वगतम्’ / ’sarvagatam’ - all-pervading,

Chapter 3, śloka 15,

karma brahmodbhavaṃ viddhi
brahmākṣarasamudbhavam |
tasmātsarvagataṃ brahma
nityaṃ yajñe pratiṣṭhitam ||
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(karma brahmodbhavam viddhi
brahma-akṣarasamudbhavam |
tasmāt sarvagatam brahma
nityam yajñe pratiṣṭhitam ||
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Meaning :
Know well, actions (karma) originate from Brahman (Toality / Whole), while Brahman (manifest / phenomenon)  from The Imperishable (noumenon). Therefore all-pervading Brahman is present in sacrifice (yajña) always.
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Chapter 13, śloka 32,

yathā sarvagataṃ saukṣmyād-
ākāśaṃ nopalipyate |
sarvatrāvasthito dehe
tathātmā nopalipyate
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(yathā sarvagatam saukṣmyāt
ākāśam na upalipyate |
sarvatra avasthitaḥ dehe
tathā ātmā na upalipyate |
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Meaning :
As all-pervading ether is not contaminated due to its subtlety, quite so, the Self is not contaminated though residing in all bodies.
(Note : This śloka beautifully explains how the 'self' in a body, and the 'Self' That is Omnipresent, That has the entire existence as its very body, is the one and the same indivisible Reality.)
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