आज का श्लोक, ’सर्वगतः’ / ’sarvagataḥ’
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’सर्वगतः’ / ’sarvagataḥ’ - सर्वनिष्ठ, सब में ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित,
अध्याय 2, श्लोक 24,
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
--
(अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः ॥)
--
भावार्थ :
यह आत्मा अच्छेद्य है (जिसे काटा नहीं जा सकता, खण्डित नहीं किया जा सकता), यह आत्मा अदाह्य है (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य है, (जिसे जल से भिगोया नहीं जा सकता), और इसी प्रकार अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता) । यह आत्मा नित्य ही सर्वगत (सबमें अवस्थित), स्थाणु (एक ही स्थान पर विद्यमान, ध्रुव), और अचल है ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 2 के श्लोक 13 में इसे ही ’देही’ कहा गया है, श्लोक 18 में इसे ही ’शरीरिन्’ / देह का स्वामी कहा गया है, शेष में इसी के बारे में और भी विस्तार से स्पष्ट किया गया है ।
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’सर्वगतः’ / ’sarvagataḥ’ - all-pervading,
Chapter 2, śloka 24,
acchedyo:'yamadāhyo:'yam-
akledyo:'śoṣya eva ca |
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇu-
racalo:'yaṃ sanātanaḥ ||
--
(acchedyaḥ ayam adāhyaḥ ayam
akledyaḥ aśoṣya eva ca |
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuḥ
acalaḥ ayam sanātanaḥ ||)
--
This 'Self' (the consciousness associated with the body, which makes the body look alive and of having its own independent existence different from the indwelling consciousness) cannot be cut, burnt, soaked in water and made wet, or made dry by means what-so-ever. It is eternal, all-pervading, ever stable, immovable and primordial.
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’सर्वगतः’ / ’sarvagataḥ’ - सर्वनिष्ठ, सब में ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित,
अध्याय 2, श्लोक 24,
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
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(अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः ॥)
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भावार्थ :
यह आत्मा अच्छेद्य है (जिसे काटा नहीं जा सकता, खण्डित नहीं किया जा सकता), यह आत्मा अदाह्य है (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य है, (जिसे जल से भिगोया नहीं जा सकता), और इसी प्रकार अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता) । यह आत्मा नित्य ही सर्वगत (सबमें अवस्थित), स्थाणु (एक ही स्थान पर विद्यमान, ध्रुव), और अचल है ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 2 के श्लोक 13 में इसे ही ’देही’ कहा गया है, श्लोक 18 में इसे ही ’शरीरिन्’ / देह का स्वामी कहा गया है, शेष में इसी के बारे में और भी विस्तार से स्पष्ट किया गया है ।
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’सर्वगतः’ / ’sarvagataḥ’ - all-pervading,
Chapter 2, śloka 24,
acchedyo:'yamadāhyo:'yam-
akledyo:'śoṣya eva ca |
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇu-
racalo:'yaṃ sanātanaḥ ||
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(acchedyaḥ ayam adāhyaḥ ayam
akledyaḥ aśoṣya eva ca |
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuḥ
acalaḥ ayam sanātanaḥ ||)
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This 'Self' (the consciousness associated with the body, which makes the body look alive and of having its own independent existence different from the indwelling consciousness) cannot be cut, burnt, soaked in water and made wet, or made dry by means what-so-ever. It is eternal, all-pervading, ever stable, immovable and primordial.
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